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कपास का फूल

अहमद नदीम क़ासमी

कपास का फूल

अहमद नदीम क़ासमी

MORE BYअहमद नदीम क़ासमी

    स्टोरीलाइन

    अधूरी रह गई मोहब्बत में सारी ज़िंदगी तन्हा गुज़ार देने वाली एक बूढ़ी औरत की कहानी। उसके पास जीने का कोई जवाज़ नहीं बचा है और वह हरदम मौत को पुकारती रहती है। तभी उसकी ज़िंदगी में एक नौजवान लड़की आती है, जो कपास के फूल की तरह नर्म और नाजु़क है। वह उसका ख़्याल रखती है और यक़ीन दिलाती है कि इस बुरे वक़्त में उसकी क़द्र करने वाला कोई है। मगर उन्हीं दिनों भारतीय फ़ौज गाँव पर हमला कर देती है और माई ताजो का वह फूल किसी कीड़े की तरह मसल दिया जाता है।

    माई ताजो हर रात को एक घंटे तो ज़रूर सो लेती थी लेकिन लेकिन उस रात ग़ुस्से ने उसे इतना ‎सा भी सोने की मोहलत दी। पौ फटे जब वो खाट पर से उतर कर पानी पीने के लिए घड़े की ‎तरफ़ जाने लगी तो दूसरे ही क़दम पर उसे चक्कर गया था और वो गिर पड़ी थी। गिरते हुए ‎उसका सर खाट के पाए से टकरा गया था और वो बेहोश हो गई थी।

    ये बड़ा अ'जीब मंज़र था। रात के अँधेरे में सुब्ह-हौले हौले घुल रही थी। चिड़ियाँ एक दूसरे को रात ‎के ख़्वाब सुनाने लगी थीं। बा’ज़ परिंदे पर हिलाए बग़ैर फ़िज़ा में यूँ तैर रहे थे जैसे मसनूई हैं और ‎कूक ख़त्म हो गई तो गिर पड़ेंगे। हवा बहुत नर्म थी और उसमें हल्की-हल्की लतीफ़ सी ख़ुनकी थी। ‎मस्जिद में वारिस अ'ली अज़ान दे रहा था।

    ये वही सुरीली अज़ान थी जिसके बारे में एक सिख स्मगलर ने ये कह कर पूरे गाँव को हँसा दिया ‎था कि अगर मैंने वारिस अ'ली की तीन चार अज़ानें और सुन लीं तो वाहेगुरु की क़सम ख़ाके कहता ‎हूँ कि मेरे मुसलमान हो जाने का ख़तरा है।

    अज़ान की आवाज़ पर घरों में घुमर-घुमर चलती हुई मधानियाँ रोक ली गई थीं। चारों तरफ़ सिर्फ़ ‎अज़ान हुक्मरान थी और इस माहौल में माई ताजो अपनी खाट के पास ढेर पड़ी थी। उसकी कनपटी ‎के पास उसके सफ़ेद बाल अपने ही ख़ून से लाल हो रहे थे।

    मगर ये कोई अ'जीब बात नहीं थी, माई ताजो को तो जैसे बेहोश होने की आ'दत थी। हर आठवें-‎दसवें रोज़ वो सुब्ह को खाट से उठते ही बेहोश हो जाती थी। एक-बार तो वो सुब्ह से दोपहर तक ‎बेहोश पड़ी रही थी और चंद च्यूँटियाँ भी उसे मुर्दा समझ कर उस पर चढ़ आई थीं और उसकी ‎झुर्रियों में भटकने लगी थीं।

    तब पड़ोस से चौधरी फ़त्हदीन की बेटी राहताँ पंजों के बल खड़ी हो कर दीवार पर से झाँकी थी और ‎पूछा था माई! आज लस्सी नहीं लोगी क्या? फिर उसकी नज़र बेहोश माई पर पड़ी थी और उसकी ‎चीख़ सुनकर उसका बाप और भाई दीवार फाँद कर आए थे और माई के चेहरे पर पानी के छींटे ‎मार-मार कर और उसके मुँह में शकर डाल-डाल कर ख़ासी देर के बा'द उसे होश में लाए थे। हकीम ‎मुनव्वर अ'ली की तशख़ीस ये थी कि माई ख़ाली पेट सोती है।

    उस दिन से राहताँ को मा'मूल हो गया था कि वो शाम को एक रोटी पर दाल तरकारी रखकर लाती ‎और जब तक माई खाने से फ़ारिग़ हो जाती, वहीं पर बैठी माई की बातें सुनती रहती। एक दिन ‎माई ने कहा था, “मैं तो हर वक़्त तैयार रहती हूँ बेटी कि जाने कब ऊपर से बुलावा जाए। जिस ‎दिन मैं सुब्ह को तुम्हारे घर लस्सी लेने आई तो समझ लेना मैं चली गई। तब तुम आना और ‎इधर वो चारपाई तले संदूक़ रखा है ना, उसमें से मेरा कफ़न निकाल लेना, कभी दिखाऊँगी तुम्हें। ‎वारिस अ'ली से कह कि मौलवी अब्दुल मजीद से उसपर ख़ाके पाक से कलमा-ए-शहादत भी लिखवा ‎लिया था। डरती हूँ उसे बार-बार निकालूँगी तो कहीं ख़ाकॱ-ए-पाक झड़ ही जाए। बस यूँ समझ लो ‎कि ये वो लट्ठा है जिससे बादशाह-ज़ादियाँ बुर्क़े सिलाती होंगी।

    कपास के ख़ास फूलों की रुई से तैयार होता है ये कपड़ा। टीन के पतरे की तरह खड़खड़ बोलता है। ‎चक्की पीस-पीस कर कमाया है। मैं लोगों को उम्र-भर आटा देती रही हूँ और उनसे कफ़न लेती रही ‎हूँ। क्यों बेटी! ये कोई घाटे का सौदा था? नहीं था ना! मैं डरती हूँ कि कहीं खद्दर का कफ़न पहन ‎कर जाऊँ तो लोग जन्नत में भी मुझसे चक्की ही पिसवाने लगें।”‎

    फिर अपने पोपले मुँह से मुस्कुराकर उसने पूछा था, “तुम्हें दिखाऊँ?”‎

    ‎“न माई!”, राहताँ ने डर कर कहा था, “ख़ाक-ए-पाक झड़ गई तो!”‎

    फिर उसने मौज़ू’ बदलने की कोशिश की, “अभी तो तुम बीस साल और जियोगी तुम्हारे माथे पर तो ‎पाँच लकीरें हैं। पाँच-बीसियाँ सौ!”‎

    माई का हाथ फ़ौरन अपने माथे की तरफ़ उठ गया, “हाय पाँच कहाँ हैं बेटी, कुल चार हैं। पाँचवी तो ‎यहाँ से टूटी हुई है। तू छुरी की नोक से दोनों टुकड़ों को मिला दे तो शायद ज़रा सा और जी लूँ। तेरे ‎घर की लस्सी थोड़ी सी और पी लूँ।”‎

    माई के पोपले मुँह पर एक-बार फिर गोल सी मुस्कुराहट पैदा हुई।

    इस पर राहताँ ने ज़ोर से हँसकर आस-पास फैले हुए कफ़न और काफ़ूर की बूओं से पीछा छुड़ाने की ‎कोशिश की मगर कफ़न और जनाज़े से मुफ़िर था। यही तो माई के महबूब मौज़ू’ थे।

    वैसे राहताँ को माई ताजो से उन्स ही इसलिए था कि वो हमेशा अपने मरने ही की बातें करती थी ‎जैसे मरना ही उसकी सबसे बड़ी कामयाबी हो और जब राहताँ ने एक-बार मज़ाक़-मज़ाक़ में माई से ‎वा'दा किया था कि उसके मरने के बा'द वो उसे यही कफ़न पहना कर अपने बाप की मिन्नत करेगी ‎कि माई का बड़ा ही शानदार जनाज़ा निकाला जाए तो माई इतनी ख़ुश हुई थी कि जैसे उसे नई ‎ज़िंदगी मिल गई है।

    राहताँ सोचती थी कि ये कैसी बद-नसीब है जिसका पूरी दुनिया में कोई भी अपना नहीं है और जब ‎ये मरी तो किसी आँख से एक भी तो आँसू नहीं टपकेगा। बा’ज़ मौतें कितनी आबाद और बा’ज़ ‎कितनी वीरान होती हैं। ख़ुद राहताँ का नन्हा भाई कुँए में गिर कर मर गया था तो क्या शानदार ‎मातम हुआ था। कई दिन तक बैन होते रहे थे और घर से बाहर चौपाल पर दूर दूर से फ़ातिहा-‎ख़्वानी के लिए आने वालों के ठट लगे रहे थे।

    और फिर उन्ही दिनों करीमे नाई का बच्चा निमोनिए से मरा तो बस इतना हुआ कि उस रोज़ करीमे ‎के घर का चूल्हा ठंडा रहा और तीसरे ही रोज़ वो चौपाल पर बैठा चौधरी फ़त्हदीन का ख़त बना रहा ‎था। मौत में ऐसा फ़र्क़ नहीं होना चाहिए। मर कर तो सब बराबर हो जाते हैं। सब मिट्टी में दफ़्न ‎होते हैं। अमीरों की क़ब्रों के लिए मिट्टी विलाएत से तो नहीं मँगाई जाती, सब के लिए यही ‎पाकिस्तान की मिट्टी होती है।

    ‎“क्यों माई?”, एक दिन राहताँ ने पूछा था, “क्या इस दुनिया में सच-मुच तुम्हारा कोई नहीं है?”‎

    ‎“वाह! क्यों नहीं है!”, माई मुस्कुराई।

    ‎“अच्छा!”, राहताँ को बड़ी हैरत हुई।

    ‎“हाँ, एक है।”, माई बोली।

    राहताँ बहुत ख़ुश हुई कि माई ने उसे एक ऐसा राज़ बता दिया जिसका गाँव के बड़े बूढ़ों तक को ‎इ'ल्म नहीं, “कहाँ रहता है वो?”, उसने बड़े शौक़ से पूछा।

    और माई ने उसी तरह मुस्कुराते हुए कहा ख़ुदा बेटी और कौन है!‎

    राहताँ को इसके बाप के ज़रिए' पता चला था कि आज से कोई आधी सदी उधर की बात है, गाँव ‎का एक नौजवान पटवारी माई ताजो को यहाँ ले आया था। कहते हैं माई ताजो इन दिनों इतनी ‎ख़ूबसूरत थी कि अगर वो बादशाहों का ज़माना होता तो माई मलिका होती। उसके हुस्न का चर्चा ‎फैला तो इस गाँव से निकल कर पटवारी के आबाई गाँव तक जा पहुँचा जहाँ से उसकी पहली बीवी ‎अपने दो बच्चों के साथ यहाँ धमकी।

    ‎“वो?”, माई मुस्कुराए जा रही थी, “वो यहाँ भी रहता है, वहाँ भी रहता है। दुनिया में कोई जगह ऐसी ‎नहीं जहाँ वो रहता हो। वो बॉर्डर के उधर भी रहता है, बॉर्डर के इधर भी रहता है। वो तो...”‎

    राहताँ ने बे-क़रार हो कर माई की बात काटी, “हाय ऐसा कौन है वो?”‎

    और माई ने उसी तरह मुस्कराते हुए कहा, “ख़ुदा बेटी, और कौन है!”

    पटवारी ने माई ताजो को धोका दिया था कि वो कँवारा है। ताजो ने अपने बाप की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ‎रो-पीट कर और नहर में कूद जाने की धमकी देकर शादी की थी। ऊपर से पहली बीवी ने जब अपना ‎सीना दो-हत्तड़ों से पीटना शुरू' किया और हर दो-हत्तड़ पर ताजो को एक गंदी बिसाँदी गाली थमा दी ‎तो ताजो चकना-चूर हो कर यहाँ से भागी और अपने गाँव में जाकर दम लिया।

    माँ ने तो उसे लिपटा लिया मगर बाप आया तो उसे बाज़ू से पकड़ कर बाहर सेहन में ले गया और ‎बोला, “चाहे पटवारी की तीन बीवियाँ और हों, तुम्हें उसीके साथ ज़िंदगी गुज़ारनी है। तुमने अपनी ‎मर्ज़ी की शादी की है, हमारे लिए यही बे-इज़्ज़ती बहुत है।

    अब यहाँ बैठना है तो तलाक़ लेकर आओ वर्ना वहीं रहो चाहे नौकरानी बन कर रहो। हमारे लिए तो ‎तुम उसी दिन मर गई थीं जब तुमने पूरी बिरादरी की औ'रतों के सामने छोकरों की तरह अकड़ कर ‎कह दिया था कि शादी करूँगी तो पटवारी से करूँगी वर्ना कुँवारी मरूँगी। जाओ हम यही समझेंगे कि ‎हमारे हाँ कोई औलाद ही नहीं थी।”‎

    उसकी माँ रोती-पीटती रही मगर बाप ने एक मानी और जब ताजो आधी रात को वापस उस गाँव ‎में पहुँच कर पटवारी के दरवाज़े पर आई तो उसमें ताला पड़ा हुआ था। रात वहीं दरवाज़े से लगी ‎बैठी रही। सुब्ह लोगों ने उसे देखा तो पंचायत ने फ़ैसला किया कि ताजो पटवारी की बा-क़ायदा ‎मनकूहा है इसलिए उसका पटवारी के घर पर हक़ है और इसलिए ताला तोड़ दो।

    गाँव वालों ने चंद रोज़ तक तो पटवारी का इंतिज़ार किया मगर उसकी जगह एक नया पटवारी ‎गया। मा'लूम हुआ कि उसने किसी और गाँव में तबादिला करा लिया है। गाँव के दो आदमी उसे ‎ढूँढने निकले और जब वो मिल गया तो पटवारी ने उन्हें बताया कि उसने उनके गाँव का रुख़ किया ‎तो उसकी पहली बीवी के छः फ़ुटे भाई उसे क़त्ल कर देंगे।

    ‎“मैंने ये बात अपनी पहली बीवी को भी नहीं बताई कि मैं तुम्हारे गाँव के जिस मकान में रहता था ‎वो मैंने ख़रीद लिया था और वो मेरी मिल्कियत है। ये मकान मैं अपनी दूसरी बीवी ताजो के नाम ‎लिख देता हूँ। मैं उसे तलाक़ नहीं दूँगा। मुझे उससे मुहब्बत है।”, ये कह कर वो रोने लगा था।

    सो गाँव वालों की मेहरबानी से पटवारी ने उसे तलाक़ के बदले मकान दे दिया और वो भी सब्र-शुक्र ‎कर के बैठ गई क्योंकि उसके पेट में बच्चा था। ये बच्चा जब पैदा हुआ तो उसका नाम उसने हसन-‎दीन रखा। मेहनत मज़दूरी कर के उसे पालती पोसती रही। मिडिल तक पढ़ाया भी मगर उसके बा'द ‎हिम्मत रही।

    ताजो के हुस्न की वज्ह से उसपर तरस तो सबको आता था मगर पटवारी से जुदा होने के बा'द वो ‎अपनी जवानी पर साँप बन कर बैठ गई थी। एक भले आदमी ने हसन-दीन को आ’ला ता'लीम ‎दिलवाने का लालच देकर ताजो से अ'क़द करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो ताजो ने उसकी सात ‎पुश्तों को तोम डाला और हसन-दीन कुल्हाड़ी लेकर उस ख़ुदा-तरस के पीछे पड़ गया।

    इसके बा'द किसी को कुछ कहने का हौसला नहीं हुआ। हसन-दीन चंद बरस आवारा फिरता रहा। फिर ‎जब उसके इ'श्क़ करने का ज़माना आया तो वो फ़ौज में भर्ती हो गया। इसके बा'द माई ताजो के ‎चंद बरस अच्छे गुज़रे। हसन-दीन हवालदारी तक पहुँचा। उसके रिश्ते की भी बात हुई। मगर फिर ‎दूसरी जंग छिड़ गई और हसन-दीन उधर बन-ए-ग़ाज़ी में मारा गया।

    तब माई ताजो ने चक्की पीसनी शुरू' की और उस वक़्त तक पीसती रही जब वो एक दिन चक्की ‎के पाट पर सर रखे बेहोश पाई गई। उस रोज़ जब वो होश में आई थी तो हकीम के हाथ को ‎चक्की की हथ्थी समझ कर घुमा दिया था।

    अगर उसके पड़ोस में चौधरी फ़त्हदीन की बेटी राहताँ होती तो वो अपनी बार-बार की बेहोशियों में ‎से किसी बे-होशी के दौरान कूच कर जाती। वो राहताँ से कहा करती थी कि, “बेटी अगर मेरा हसन-‎दीन होता तो मैं तुझे तेरी शादी पर सोने का सत लड़ा हार देती। उसे ख़ुदा ने अपने पास बुला ‎लिया। सो अब मैं हर वक़्त तेरे लिए दुआ' करती हूँ कि तो जुग जुग जिए और शादी के बा'द इसी ‎तरह सुखी रहे जैसी अपने बाप के घर सुखी है।”‎

    एक रात माई ताजो को इस बात का ग़ुस्सा था कि जब अँधेरी शाम तक राहताँ उसकी रोज़ाना की ‎रोटी लाई तो वो ख़ुद ही लाठी टेकती फ़त्हदीन के घर चली गई। फ़त्हदीन की बीवी से राहताँ का ‎पूछा तो मा'लूम हुआ कि वो किसी सहेली की शादी में गई है और आधी रात तक वापस आएगी। ‎फिर उसने रोटी माँगी तो राहताँ की माँ ने सिर्फ़ इतना कहा, “देती हूँ, पहले घर वाले तो खा लें।”‎

    राहताँ की वज्ह से वो अपने आपको फ़त्हदीन के घर वालों ही में शामिल सझती थी। इसलिए ज़ब्त ‎न कर सकी। बोली, “तो बी-बी क्या मैं भिकारन हूँ?”‎

    सोने की बालियों से भरे हुए कानों वाली बी-बी को भी माई ताजो की सी मिस्कीन औ'रत के मुँह से ‎ये बात सुनकर तकलीफ़ हुई। उसने कहा, “नहीं माई भिकारन तो ख़ैर नहीं हो मगर मोहताज तो हो ‎ना!”‎

    और माई को कपकपी सी छूट गई। वो वहाँ से उठकर चली आई। एक दो बार राहताँ की माँ ने उसे ‎पुकारा भी मगर उसके कानों में तो शाँ-शाँ हो रही थी। घर आकर आँगन में पड़ी हुई खाट पर गिर ‎पड़ी और रोती रही और अपनी मौत को यूँ पुकारती रही जैसे वो दीवार से उधर बैठी हुई उसकी बातें ‎सुन रही है।

    आधी रात को जब चाँद ज़र्द पड़ गया था, दीवार से राहताँ ने उसे पुकारा।

    ‎“माई जाग रही हो?”‎

    ‎“मैं सोती कब हूँ बेटी।”, उसने कहा।

    ‎“इधर आकर रोटी ले लो दीवार पर से।”, राहताँ बोली।

    ‎“नहीं बेटी! अब नहीं लूँगी।”, माई की आवाज़ भर्राने लगी। “आदमी ज़िंदा रहने के लिए खाता है ना। ‎तो मैं कब तक ज़िंदा रहूँगी, जब कि मैं जिधर जाती हूँ मेरी क़ब्र मेरे साथ साथ चलती है। मैं क्यों ‎तुम्हारा अनाज ज़ाए’ करूँ बेटी।”‎

    राहताँ दीवार के पास कुछ देर तक ख़ामोश खड़ी रही। फिर पंजों के बल हो कर बड़ी मिन्नत से ‎कहा, “ले लो माई, मेरी ख़ातिर इसे ले लो।”‎

    ‎“नहीं बेटी।”, माई अब खुल कर रो रही थी। “ले लेती पर आज तुम्हारी माँ ने मुझे बताया कि मैं ‎मोहताज हूँ और चक्की पीस-पीस कर मेरे हाथों में जो गट्टे पड़ गए हैं वो मुझे कुछ और बताते हैं। ‎सो बेटी! ये रोटी मैं नहीं लूँगी। अब कभी नहीं लूँगी। तुम्हारी लाई हुई कल शाम वाली रोटी मेरी ‎आख़िरी रोटी थी। ये रोटी अपने कुत्ते के आगे डाल दो।”‎

    इसके बा'द उसने सुना कि राहताँ और उसकी माँ के दरमियान कुछ तेज़-तेज़ बातें हुईं। फिर राहताँ ‎रोने लगी और माँ उसे डाँटने लगी। इसके बा'द फ़त्हदीन की आवाज़ आई।

    ‎“सोने दोगी या मैं चौपाल पर जा कर पड़ रहूँ?”‎

    फिर जब सब ख़ामोश हो गए तो माई ताजो उठ बैठी। उसे लगा कि राहताँ अपने बिस्तर पर पड़ी ‎आँसू बहा रही है। वो दीवार तक गई भी मगर फिर फ़त्हदीन के डर से पलट आई। घड़े में से पानी ‎पिया और देर तक एलूमीनियम का कटोरा अपने चेहरे पर फेरती रही। आज वो कितनी तप रही थी ‎और ये पियाला कितना ठंडा था। अब गर्मियाँ ख़त्म समझो। उसे अपने लिहाफ़ का ख़याल आया ‎जिसकी रूई लकड़ी की तरह सख़्त हो गई थी। अब के उसे धुनवाऊँगी। पर अल्लाह करे उसकी ‎ज़रूरत ही पड़े। अल्लाह करे अब के लिहाफ़ के बजाए मैं अपना कफ़न ओढूँ।

    वो घड़े के पास से उठकर चारपाई पर गई। कुछ देर तक पाँव लटकाए बैठी रही। फिर उसे एक ‎लंबी साँस सुनाई दी। ये राहताँ की साँस होगी... हाय ख़ुदा करे वो सदा सुखी रहे। ऐसी प्यारी बच्ची ‎इस नकचढ़ी के हाँ कैसे पैदा हो गई! उसे तो मेरे हाँ पैदा होना चाहिए था... उसे अपना हसन-दीन ‎याद गया और वो रोने लगी।

    फिर आँसू पोंछ कर लेटी तो आसमान पर से सितारे जैसे नीचे लटक आए और हवा के झोंकों के ‎साथ हिलने लगे। फ़त्हदीन का कुत्ता ग़ुर्रा कर एक बिल्ली पर झपटा और बिल्ली दीवार पर से फाँद ‎कर उसके सामने से गोली की तरह निकल गई। किसी घर में मुर्गे ने बाँग दी और फिर बाँगों का ‎मुक़ाबला शुरू' हो गया।

    यकायक सब मुर्गे एकदम यूँ ख़ामोश हो गए जैसे उनके गले एक साथ घोंट दिए गए हैं। पूरे गाँव के ‎कुत्ते भौंकने लगे। फिर मशरिक़ की तरफ़ से ऐसी आवाज़ें आईं जैसे क़रीब-क़रीब हर रात आती थीं। ‎बॉर्डर पर रेंजर्स स्मगलरों के तआ’क़ुब में होंगे। फिर उस पर ग़ुनूदगी सी छाने लगी और उसने आँखें ‎बंद कर लीं। फिर एकदम खोल दीं...‎

    ‎“बड़ी आई वहाँ से मुझे मोहताज कहने वाली। चक्की पीसते पीसते हाथों की जिल्द हड्डी बन गई है, ‎और मुझे मोहताज कहती है! क़यामत के दिन शोर मचाऊँगी कि उसे पकड़ो, उसने मुझ पर बोहतान ‎बाँधा है... मगर वहाँ कहीं ये मेरी राहताँ बीच में बोल पड़े।”‎

    उठकर उसने पानी पिया और वापस जा कर चारपाई पर पड़ रही। फिर जब पौ फटी तो उसका हलक़ ‎उसके जूते के चमड़े की तरह ख़ुश्क हो रहा था। वो फिर पानी पीने के लिए उठी मगर दूसरे ही ‎क़दम पर चकरा कर गिर पड़ी। सर खाट के पाए से टकराया और बेहोश हो गई।

    जब माई ताजो होश में आई तो उसे पहला एहसास ये हुआ कि नमाज़ क़ज़ा हो गई है। फिर एकदम ‎वो हड़बड़ा कर उठी और दीवार की तरफ़ भागी। हर तरफ़ गोलियाँ चल रही थीं और औरतें चीख़ रही ‎थीं और बच्चे बिलबिला रहे थे और धूप में जैसे सूराख़ हो गए थे जिनमें से धुआँ ख़ारिज हो रहा ‎था। दूर से गड़गड़ाहट और धमाकों की मुसलसल आवाज़ें रही थीं और गली में से लोग भागते हुए ‎गुज़र रहे थे।

    ‎“राहताँ... बेटी राहताँ!”, वो पुकारी।

    राहताँ अंदर कोठे से निकली। उसका सुनहरा रंग मिट्टी हो रहा था और उसकी आँखें फैल गई थीं। ‎उसकी आवाज़ में चीख़ें और आँसू और कपकपी और जाने क्या कुछ था, “जल्दी से निकल जाओ ‎माई! गाँव में से निकल जाओ। लाहौर की तरफ़ भागो। हम भी लाहौर जा रहे हैं, तुम भी लाहौर ‎चलो। हिंदोस्तान की फ़ौज गई है।”, ये कह कर वो फिर अंदर भाग गई।

    हिंदोस्तान की फ़ौज गई है! यहाँ हमारे गाँव में क्यों गई है। बॉर्डर तो तीन मील उधर है...!‎

    ‎“ये फ़ौज यहाँ क्यों आई है बेटी?”, माई हैरान हो कर पुकारी, “कहीं ग़लती से तो नहीं गई! भाई ‎फ़त्हदीन कहाँ है? उसे भेजो ना, वो उन्हें समझाए कि ये पाकिस्तान है।”‎

    मगर राहताँ का कोई जवाब आया। शोर बढ़ रहा था। मशरिक़ की तरफ़ कोई घर जलने भी लगा ‎था। चंद गोलियाँ उसके कोठे के दरवाज़े के ऊपर वाले हिस्से में तड़ाख़-तड़ाख़ सी लगीं और मिट्टी ‎की लिपाई के बड़े बड़े टुकड़े ज़मीन पर रहे। चंद गोलियाँ हवा को चीर देने वाली सीटियाँ बजाती ‎छत पर से गुज़र गईं। फ़त्हदीन के सेहन की टाहली पर से पागलों की तरह उड़ता हुआ एक कव्वा ‎अचानक हवा में लुढ़कनियाँ खाता हुआ आया और माई ताजो के घड़े के पास पत्थर की तरह गिर ‎पड़ा।

    फिर ज़ोर का एक धमाका हुआ और माई जो दीवार से हट आई थी, फिर दीवार की तरफ़ बढ़ी। ‎एकदम चौधरी फ़त्हदीन के दरवाज़े को किसी ने कूट डाला। फिर किवाड़ धड़ाम से गिरे। इकट्ठी ‎बहुत सी गोलियाँ चलीं और इकट्ठी बहुत सी चीख़ें बुलंद हुईं। माई ने उनमें से राहताँ की चीख़ को ‎साफ़ पहचान लिया।

    ‎“राहताँ बेटी!”, वो चिल्लाई। लाठी टेकती हुई लपकी और अपने दरवाज़े की कुंडी खोल कर बाहर गली ‎में गई।

    गली में शहाबुद्दीन, नूरदीन, मोहम्मद बशीर, हैदर ख़ाँ और जाने किस-किस की लाशें पड़ी थीं। ‎चौधरी फ़त्हदीन के गिरे हुए दरवाज़े के पास मौलवी अब्दुल मजीद मुर्दा पड़े थे। उनका आधा चेहरा ‎उड़ गया था। माई ने मौलवी-साहब को उनकी नूरानी दाढ़ी से पहचाना।

    चौधरी फ़त्हदीन के सेहन में ख़ुद फ़त्हदीन और उसके बेटे मरे पड़े थे। फ़त्हदीन की बीवी के बालियों ‎भरे कान ग़ाएब थे। अंदर कोठों में उठा-पटख़ मची हुई थी और बाहर राहताँ ख़ौफ़ से फ़ौजियों में ‎घिरी अपनी उम्र से चौदह पंद्रह साल छोटे बच्चों की तरह चीख़ रही थी।

    फिर एक सिपाही ने उसके गिरेबान में हाथ डाल कर झटका दिया तो कुर्ता फट गया और वो नंगी हो ‎गई। फ़ौरन ही वो गठड़ी सी बन कर बैठ गई। मगर फिर एक सिपाही ने इसके कुर्ती का बाक़ी हिस्सा ‎भी नोच लिया और क़हक़हे लगाता हुआ उससे अपने जूते पोंछने लगा। फ़रमाई ताजो आई, राहताँ पर ‎गिर पड़ी और एक अ'जीब सी आवाज़ में, जो उसकी अपनी थी, बोली “अल्लाह तेरा पर्दा रखे बेटी, ‎अल्लाह तेरी हया क़ाएम रखे।”‎

    एक सिपाही ने माई का सफ़ेद चूंडा पकड़ कर उसे राहताँ पर से खींचना चाहा तो ख़ून से उसका हाथ ‎भीग गया और माई, वहीं राहताँ को ढाँपे हुए बोली, “ये लड़की तुम में से किसी की बहन बेटी होती ‎तो क्या तुम जब भी इसके साथ यही करते? ये लड़की तो...”‎

    किसी ने ये कह कर माई ताजो की पसलियों में ज़ोर की ठोकर मार दी कि, “हटो यहाँ से, हमें देर ‎हो रही है और अभी दोपहर तक हमें लाहौर पहुँचना है।”, और माई यूँ एक तरफ़ लुढ़क गई जैसे ‎चिथड़ों से बनी हुई गुड़िया थी।

    फिर सब के हाथ राहताँ की तरफ़ बढ़े जो अब चीख़ नहीं रही थी। अब वो नंगी खड़ी थी और यूँ ‎खड़ी थी जैसे कपड़े पहने खड़ी है। उसका रंग माई ताजो के कफ़न से लट्ठे का सा हो रहा था और ‎उसकी आँखें इतनी फैल गई थीं कि मा'लूम होता था उन में पुतलियाँ कभी थीं ही नहीं।

    माई ताजो होश में आई तो उसने देखा कि उसके पास वारिस अ'ली मोअ'ज़्ज़िन खड़ा है। फिर उसने ‎इधर-उधर देखा, लाशों के चेहरे ढँपे हुए थे।

    ‎“राहताँ कहाँ है?”, वो यूँ चीख़ कर बोली जैसे उसके जिस्म की धज्जियाँ उड़ गई हैं। वारिस अ'ली सर ‎झुकाए एक तरफ़ जाने लगा।

    ‎“मेरी राहताँ कहाँ है?”, वो उठ खड़ी हुई और वारिस अ'ली की तरफ़ यूँ क़दम उठाया जैसे उसे क़त्ल ‎करने चली है।

    ‎“कहाँ है वो?”‎

    वारिस अ'ली के पास आकर वो जैसे सुन्न हो कर रह गई। वारिस अ'ली का चेहरा लहू-लुहान हो रहा ‎था और उसके बाज़ू पर से गोश्त एक तरफ़ कट कर लटक रहा था। वो बोला तो माई ताजो ने देखा ‎कि इसके होंट भी कटे हुए हैं और इसके मुँह में भी ख़ून है।

    ‎“किसी को कुछ पता नहीं माई कि कौन कहाँ गया। बस अब तू यहाँ से चली जा। हिन्दुस्तानी फ़ौज ‎यहाँ से आगे निकल गई है और गाँव के गिर्द उनके आदमी घेरा डाले बैठे हैं। तू क़िमाद के खेतों में ‎छुपती-छुपाती लाहौर की तरफ़ जा सकती है तो चली जा। वहाँ मरेगी तो कोई तेरा जनाज़ा तो पढ़ेगा। ‎अब जा मुझे काम करने दे।”‎

    ‎“देख बेटा!”, माई बोली, “मैं पानी लाती हूँ, तू ज़रा कुल्ली कर ले। तू मोअ'ज़्ज़िन है और मुँह में ‎इतना बहुत सा ख़ून लिए खड़ा है! ख़ून तो हराम होता है बेटा।”‎

    ‎“मैं सब कर लूँगा।”, वारिस अ'ली चिल्लाया मगर फिर इधर-उधर देखकर आहिस्ता से बोला, “ख़ुदा के ‎लिए माई, अब चली जा यहाँ से। मैंने इतने बहुत से लोग मरते देखे हैं कि अब तू मरेगी तो मैं ‎समझूँगा पूरी दुनिया मर गई। चली जा ख़ुदा के लिए।”‎

    ‎“पहले बता मेरी राहताँ बेटी किधर गई?”, माई ने ज़िद की।

    वारिस अ'ली ने पूछा, “तुझे याद है उसे नंगा कर दिया गया था?”‎

    ‎“हाँ!”, माई ने सर हिलाया और उसकी एक ख़ून-आलूद लट रस्सी की तरह उसके मुँह पर लटक आई।

    ‎“तो फिर तू ये क्यों पूछती है कि वो किधर गई।”‎

    और माई ने अपने सीने पर इस ज़ोर का दो-हत्तड़ मारा जैसे चौधरी फ़त्हदीन की हवेली का दरवाज़ा ‎टूटा है। वो धप से बैठ कर ऊँची आवाज़ में रोने लगी।

    वारिस अ'ली ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया।

    ‎“किसी ने सुन लिया तो जाएगा।”, वो बोला। फिर उसे बड़ी मुश्किल से खींच कर उठाया।

    ‎“तू मेरी हालत देख रही है माई। मैं सिर्फ़ अपने ख़ुदा की क़ुदरत और अपने ईमान की ताक़त से ‎ज़िंदा हूँ वर्ना मेरे अंदर कुछ भी बाक़ी नहीं रहा। मैं गलियों में से लाशें घसीट-घसीट कर एक गड्ढे में ‎जमा' कर रहा हूँ। अभी मुझे फ़त्हदीन और लाल दीन और नूरउद्दीन और मासी जन्नत की लाशें ‎वहाँ पहुँचानी हैं। फिर मैं उन पर मिट्टी डाल कर उनका जनाज़ा पढूँगा और मर जाऊँगा। माई बे-‎जनाज़ा मर। लाहौर चली जा... हिन्दुस्तानी फ़ौज उधर से गई है। तू इधर खेतों में छुपती ‎छुपाती निकल जा, मेरे पास बहुत थोड़ा वक़्त है। देख लो मेरे तो जूते भी ख़ून से भर गए हैं।”‎

    टूटे हुए दरवाज़े पर से गुज़रते हुए वो रुक गई।

    ‎“वारिस बेटा!”, वो बोली, “लाहौर तू चला जा, जनाज़ा मैं पढ़ दूँगी। मैं बच गई तो यूँही किसी को रोज़ ‎एक रोटी हराम करनी पड़ेगी। तू मर गया तो तेरे साथ अज़ान भी मर जाएगी।”‎

    ‎“नहीं माई”, वारिस अ'ली जल्दी से बोला, “अज़ान भी कभी मरी है। ख़ुदा के लिए अब तू चली जा।”‎

    गली में क़दम रखते हुए उसने पलट कर पूछा, “तेरा क्या ख़याल है बेटा! राहताँ को उन्होंने मार तो ‎नहीं डाला होगा?”‎

    वारिस अ'ली ने आसमान की तरफ़ उँगली उठा दी और चौधरी फ़त्हदीन की लाश पर झुक गया।

    माई ताजो गली में से गुज़र रही थी। उसने एक हाथ में लाठी थाम रखी थी। दूसरा हाथ पीठ पर था ‎और वो यूँ झुकी हुई चल रही थी जैसे भूसे के ढेर में से सूई ढूँढने निकली है।

    माई ताजो गाँव की आख़िरी गली में से निकल कर खेत में क़दम रखने लगी थी कि जैसे हर तरफ़ ‎से गोलियाँ चलने लगीं और वो एक खाले में लुढ़क कर लेट गई। हाय कहीं वो वारिस अ'ली को ‎मार रहे हों! मगर क्या एक आदमी को मारने के लिए इतनी बहुत सी गोलियों की ज़रूरत होती है!‎

    खाले में से उसने खेत के कई गन्ने गोलियों की ज़द में आकर टूटते हुए देखे। उसने ये तक देखा ‎कि जहाँ से गन्ना टूटता है वहाँ से रस की एक धार निकल कर जड़ की तरफ़ बहने लगती है... और ‎उसे राहताँ याद गई और वो खाले में से उठ खड़ी हुई। एक गोला उसके सर के पास से गुज़र कर ‎पीछे एक दरख़्त के तने में जा लगा और पूरा दरख़्त जैसे झुरझुरी लेकर रह गया। वो फिर खाले में ‎लेट गई और उसे ऐसा लगा कि वो मर गई है और क़ब्र में पड़ी है।

    तब उसे अपना कफ़न याद आया और वो इतनी तेज़ी से खाले में से निकल कर गली में दाख़िल हुई ‎जैसे उसके अंदर कोई मशीन चलने लगी है। उसे पहली बार याद आया कि वो तो ख़ाली हाथ लाहौर ‎जा रही थी। वो तो अपनी कमाई घर ही में भूल आई थी। उसका कफ़न तो वहीं बक्से में रखा रह ‎गया था। ज़िंदगी से इतनी मुहब्बत भी क्या कि इंसान बचाने के लिए भागे तो अपना कफ़न ही भूल ‎जाए और ये कफ़न उसने कितनी मशक़्क़त से तैयार किया था और उस पर कितने चाव से कलमा-‎ए-शहादत लिखवाया था। ख़ाक-ए-पाक से। अच्छे कफ़न और अच्छे जनाज़े ही के लिए तो वो अब ‎तक ज़िंदा थी।

    अब वो इतनी तेज़ी से चल रही थी कि जवानी में भी यूँ नहीं चली होगी। उसके क़दम का ख़म भी ‎एकदम ठीक हो गया था और लाठी को टेकने की बजाए उसे तलवार की तरह उठा रखा था। राहताँ ‎के घर के सामने से भी वो आगे निकली चली गई, मगर फिर जैसे उसके क़दम जकड़े गए। पलटी, ‎टूटे हुए दरवाज़े में से झाँका। वारिस अ'ली सब लाशें समेट ले गया था। सिर्फ़ राहताँ के कुर्ते की एक ‎धज्जी हवा के झोंकों के साथ पूरे सेहन में यहाँ से वहाँ एक बेचैन रूह की तरह भटकती फिरती थी।

    माई ताजो का जी चाहा कि दो-हत्तड़ मार कर अपना सीना उधेड़ दे मगर साथ ही उसे वारिस अ'ली ‎याद गया जिसने कहा था... फ़ौरन उसे अपना कफ़न याद आया। उसके कोठे का दरवाज़ा खुला ‎था। घड़े के पास कव्वा उसी तरह पड़ा था। उसका खटोला उसी तरह बिछा था। अंदर उसका बक्सा ‎खुला पड़ा था मगर उसमें कफ़न मौजूद था। कैसी मुँह की खाई होगी उन्होंने जब बक्सा खोला होगा ‎और उसमें से सिर्फ़ कफ़न निकला होगा।

    माई कफ़न को सर की चादर में छिपा कर बाहर आई तो चौधरी फ़त्हदीन का कुत्ता भागता हुआ ‎आया और उसके क़दमों में लोटने लगा। उसके अंदाज़ से मा'लूम होता था कि वो हँस नहीं सकता ‎वर्ना ख़ूब=ख़ूब हँसता।

    ‎“चल हट।”, माई ने उसे डाँटा,“मेरे नमाज़ी कपड़े पलीद कर।”‎

    कुत्ता उठ खड़ा हुआ।

    माई ने दूसरी गली में मुड़ते हुए पलट कर देखा तो कुत्ता वहीं खड़ा था और इस तरह खड़ा था जैसे ‎लकड़ी का बन कर रह गया है। “पिच पिच”, माई ने कुत्ते को अपनी तरफ़ बुलाना चाहा मगर वो ‎पलटा और आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ एक दीवार के साए में एकदम यूँ बैठ गया जैसे गिर पड़ा ‎है।

    ‎“हाय बेचारा।”, माई का एहसास-ए-जुर्म पुकारा।

    मगर फिर ऊपर फ़िज़ा में इस ज़ोर के दो धमाके हुए कि माई ताजो को ज़मीन अपने क़दमों तले ‎टुकड़े टुकड़े होती महसूस हुई। तेज़ी से चलती हुई वो फिर से खाले में जा गिरी। अब ज़मीन हिल रही ‎थी। फ़िज़ा में जैसे बहुत से शेर एक साथ दहाड़े जा रहे थे और धमाकों और गोलियों और गड़गड़ाहटों ‎का शोर क़रीब आता जा रहा था।

    अब वो कफ़न को अपने सीने से चिमटाए खाले में रेंगने लगी। बरसों पहले चराग़ों का मेला देखने के ‎लिए वो गाँव की दूसरी औ'रतों के साथ इसी खाले के किनारे किनारे चलती हुई लाहौर छावनी में जा ‎निकली थी और वहाँ कैसा ग़ज़ब हुआ था।

    बेचारी शिहाबी एक टांगे के पहिए तले आकर वहीं शाला मार के दरवाज़े पर ही मर गई थी…, “तो ‎क्या राहताँ मर गई होगी? क्या राहताँ मरने के लाएक़ थी? ला बेटी! मैं तेरे हाथ की रोटी वापिस ‎नहीं करूँगी। रूठ मत मुझसे राहताँ... राहताँ बेटी!”‎

    उसने सुना कि वो ऊँची ऊँची बोल रही है... मगर इतने शोर में उसकी आवाज़ कौन सुनेगा...”राहताँ‎‎...! मेरी अच्छी, मेरी नेक, मेरी ख़ूबसूरत राहताँ!”‎

    हाय ये कपास भी अ'जीब पौदा है। इसके फूल का रंग कैसा अलग होता है दूसरे फूलों से... “राहताँ! ‎राहताँ बेटी!”‎

    खाले से कपास के खेत में और वहाँ से वो गन्ने के खेत में घुस गई। धमाके इतने तेज़ हो रहे थे ‎जैसे उसके अंदर हो रहे हैं। कहते हैं गोला लगे तो इंसान गोले की तरह फट जाता है। कौन चुनता ‎फिरेगा मेरी हड्डियाँ और फिर मेरा कफ़न जिस पर ख़ाक-ए-पाक से कलमा-ए-शहादत लिखा है।

    कितना घना है गन्ने का ये खेत! ये चौधरी फ़त्हदीन का खेत है। राहताँ उसी खेत के गन्ने चूस चूस ‎कर कहती थी कि माई मुझे बुढ़ापे से सिर्फ़ इसलिए डर लगता है कि मुँह पोपला हो जाता है और ‎गन्ना नहीं चूसा जा सकता।

    माई ताजो मुस्कुराई और उसकी आँखों में आँसू गए…, “राहताँ बेटी...! मेरी राहताँ बेटी!”‎

    ‎“माई!”, आवाज़ जैसे पाताल से आई थी।

    इंसान भी अ'जीब मख़लूक़ है। चाहे ज़मीन और आसमान बज रहे हों मगर उसके कान बजने से बाज़ ‎नहीं आते।

    ‎“माई!”‎

    हाय ये आवाज़ तो जैसे मेरी पसली से आई है।

    वो कफ़न को सीने से चिमटा कर दुबक गई। उसकी उँगलियों ने महसूस किया कि उसका दिल ‎उसके सीने से निकल कर कफ़न में गया और यूँ धड़क रहा है जैसे तोपें चल रही हैं।

    स्रोत:

    कपास का फ़ूल (Pg. 145)

    • लेखक: अहमद नदीम क़ासमी
      • प्रकाशक: संग-ए-मील पब्लिकेशन्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 2008

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