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घर में बाज़ार में

राजिंदर सिंह बेदी

घर में बाज़ार में

राजिंदर सिंह बेदी

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    स्टोरीलाइन

    कहानी समाज और घर में औरत के हालात को पेश करती है। शादी के बाद औरत शौहर से ख़र्चे के लिए पैसे मांगते हुए शर्माती है। मायके में तो ज़रूरत के पैसे बाप के कोट से ले लिया करती थी मगर ससुराल में शौहर के साथ ऐसा करता हुए वह खुद को बेस्वा सी महसूस करती है। वक़्त गु़जरने के साथ साथ शौहर उसे अपनी पसंद की चीज़ें लाकर देता है तो उसे एहसास होता है कि सचमुच वह बेस्वा ही है। एक रोज़ उसका शौहर उसे एक बाज़ारू औरत के बारे में बताता है तो वह कहती है कि घर भी तो एक बाज़ार ही है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि वहाँ शोर ज़्यादा है और यहाँ कम।

    दीवार पर लटकते हुए ‘शिकोशा’ ने सुबह के आठ बजा दिए। दर्शी ने आँख खोली और एक सवालिया निगाह से नए आबनूसी क्लॉक की तरफ़ देखा, जिसकी आठ सुरीली ज़रबें उसके ज़ह्न में गूँज पैदा करती हुई हर लहज़ा मद्धम हो रही थीं… एक घटिया सा क़ालीन था और यही एक क्लॉक जो दर्शी के उस्ताद ने उसे शादी के मौक़े पर बतौर तोहफ़ा दिया था। शायद वो चाहता था कि उसकी शागिर्द एक अच्छी बेटी होने के अलावा, एक अच्छी बीवी भी साबित हो जाये, और हर रोज़ सुब्ह शीकोशा अपने मुस्तक़िल, तंज़िया अंदाज़ में मुस्कुराता हुआ कह देता,

    “मैं सब कुछ जानता हूँ, लेकिन अब तो आठ बज गए हैं, सुस्त लड़की!”

    दर्शी का पूरा नाम था प्रिय दर्शनी। प्रिय का मतलब है प्यारी और दर्शनी का मतलब है दिखाई देने वाली, यानी जो देखने में प्यारी लगे, दिल को लुभाए, आँखों में नशा पैदा करे। शायद इसी लिए दर्शी को रात-भर जागना पड़ता था और शीकोशा से नज़रें चुराना होतीं। दर्शी बचपन ही से असबी तौर पर नहीफ़ और ज़रूरत से ज़्यादा हस्सास थी, और अब शादी के बाद मुहब्बत की बे-एतिदालियों से वो नसों की और भी कमज़ोर हो गई।

    ससुराल में चंद दिन के बाद जो सबसे बड़ी दिक़्क़त दर्शी को पेश आई, वो अपने ख़ावंद रतन लाल से पैसे माँगना थी। इससे पहले वो अपने बाप से बिला-ताम्मुल पैसे माँग लिया करती थी और अगर कभी वो अपने मुरब्बों के काम में चूक भी जाते, तो दर्शी, उनकी लाडली बेटी, उनके कोट की जेब में से ज़रूरत के मुताबिक़ निकाल लिया करती, पापा का कोट हमेशा ज़नाने में किसी पेटीकोट के ऊपर टंगा हुआ मिल जाता था। अपने मैके से जितने पैसे वो साथ लाई थी, वो सब शगुन के पैसों समेत एक ख़ूबसूरत, तिलाई घड़ी पर ख़त्म हो चुके थे। ख़र्च की ये मद वो रतन से छुपाना नहीं चाहती थी, अलबत्ता रतन से ज़रूरत के मुताबिक़ पैसे माँगते हुए भी शरमाती थी। जब उनकी रूहों का मिलाप होगा, तब वो पैसे माँग लेगी। इस सूरत में वो पैसे माँग कर बिकना नहीं चाहती।

    कई दफ़ा बाज़ार में किसी चीज़ की ख़रीद होती तो दर्शी अपनी पतली-पतली, नाज़ुक, काँपती हुई उंगलियाँ अपने साबिर के ख़ूबसूरत लेकिन ख़ाली बटवे में डाल देती और कहती,

    “छोड़िए, रहने दीजिए... पैसे मैं दूँगी।”

    रतन लाल उसी वक़्त दर्शी का हाथ थाम लेता और सेल्ज़ मैन से नज़रें चुराता हुआ, मुहब्बत के अंदाज़ से दर्शी की तरफ़ देखता और कहता,

    “एक ही बात तो है, दर्शी।”

    उस वक़्त दर्शी मुहब्बत की एक पुर-लुत्फ़ टीस महसूस करते हुए चुप हो जाती। उसे यक़ीन था कि रतन कभी भी उसे पैसे अदा करने नहीं देगा। क्या वो उसकी बीवी नहीं है? आख़िर क्या उसका फ़र्ज़ नहीं कि वो ख़ुद ही उसके तमाम छोटे-मोटे खर्चों का कफ़ील हो?

    उन दिनों बरसात शुरुअ थी और रतन का बरसाती कोट बहुत पुराना हो चुका था। बारिश के क़तरे उसमें किसी किसी तरह घुस ही आते थे। उसे ख़रीदने के लिए दर्शी और रतन बाज़ार गए। सो सटीका स्टोरज़ में उन्हें एक अच्छा सा कोट मिल गया। क़ीमत तय होने से पहले ही दर्शी ने हस्ब-ए-दस्तूर बैग के बटन खोल दिए और बोली, “पैसे मैं देती हूँ, रहने दीजिए।”

    रतन लाल ने अपने हाथों में दस का नोट मसलते हुए कहा,

    “अच्छा, तो तुम्हारे पास रेज़गारी होगी?”

    दर्शी घबरा गई। उसकी टांगें काँपने लगीं। उसने यूँ ही कुछ देर के लिए बैग को टटोला और ज़बरदस्ती मुस्कुराते हुए बोली,

    “ओह! भूल गई मैं... रेज़गारी तो मेरे पास भी नहीं।”

    रतन लाल ने इसी अस्ना में उंगली के गर्द नोट के बहुत से चक्कर दे डाले और अस्बी तौर पर कमज़ोर दर्शी ख़ामोश रहने की बजाये कहने लगी, “रेज़गारी तो घर ही रह गई... मेरे पास तो पाँच पाँच के नोट होंगे।”

    दर्शी ने ग़ालिबन यही समझा कि रतन लाल फिर एक दफ़ा मीठी निगाह से उसकी तरफ़ देख लेगा और फिर पैसों की अदायगी का सवाल ही नहीं उठेगा। लेकिन वो ये भूल ही गई कि शादी को एक माह से कुछ ज़्यादा अरसा हो चुका है और अब तकल्लुफ़ की चंदाँ बात नहीं रही। रतन ने कोट को उतारते हुए कहा,

    “तो अच्छा, पाँच पाँच के दो नोट ही दे दो, ये लो, रख लो दस का नोट।”

    उस वक़्त दर्शी के कान गर्म हो गए। जिस्म पर च्यूँटियाँ रेंगने लगीं। उसने बिला-वजह बरसाती को इधर उधर उलटाना शुरुअ किया। बरसाती के एक किनारे पर सुराख़ था। उस सुराख़ में उसे नजात की राह दिखाई दी जिसकी तरफ़ इशारा करते हुए उसने निहायत ख़शमगीं अंदाज़ से कहा,

    “ये तो फटी हुई है... कोड़ी काम की नहीं ये।”

    और फिर दुकानदार को मुख़ातब हुए उसी लहजे में बोली, “भला आपने हमें क्या समझ रखा है जी, जो फटावा कोट हमें मढ़ रहे हैं?”

    सेल्ज़ मैन बिलकुल घबरा गया और फौरन नए कोट लेने के लिए दुकान के ऊपर चला गया। दर्शी की बरहमी की वजह से रतन भी सहम गया और एक मस्नूई ग़ुस्से से दुकानदार की तरफ़ देखने लगा। उसी वक़्त दर्शी ने रतन को बाज़ू से पकड़ा और बाहर ले आई। सामने सीढ़ी पर सेल्ज़ मैन बरसातियों के बोझ से लदा हुआ स्टाक रुम से नीचे उतर रहा था, लेकिन उसकी हैरानी की हद रही जब उसने देखा कि वो हसीन जोड़ा नज़रों से ग़ायब हो चुका था।

    रतन ने देखा दर्शी के मुँह पर स्याही बिखर गई थी और माथे पर एक बड़े से क़िरमज़ी धब्बे में से पसीना के क़तरे बे-तहाशा उमड़ रहे थे। बाज़ार से लेकर घर तक उसकी बीवी लुक्नत भरी बातें करती रही, और रतन उसकी एक बात का भी मतलब समझा, और जब उसने ताँगे पर से हाथ देकर दर्शी को उतारा तो उसे मालूम हुआ कि दर्शी के हाथ पाँव ठंडे हो रहे थे... और चूँकि वो औरत के सीधे सादे तसलसुल की एक कड़ी खो बैठा, उसने मर्द की देरीना आदत के मुताबिक़ कहना शुरुअ किया... औरत एक मुअम्मा है। शोपनहार कहता था।

    अगले दिन दर्शी सो कर उठी तो आठ की बजाय आठ पैंतीस हो चुके थे और सूरज उनके दरीचे पर गया था। उसकी शुवाएं क्लॉक के शीशे में से मुनाकिस होती हुई दर्शी के चेहरे पर पड़ने लगी थीं। क्लॉक के बड़े-बड़े रोमन हिंदिसों में ख़ाली सफ़ेद जगह, बड़े बड़े दाँत बन गई थी। यूँ दिखाई देता था जैसे शीकोशा तंज़ की हद से गुज़र चुका है और खिलखिला कर हंस रहा है... और “शिकोशा” अकेला ही था। उसके साथ कीकू की माँ भी तो शरीक हो गई थी। कीकू की माँ रतन के हाँ मुलाज़िमा थी। वो एक बेवा औरत थी। सुब्ह जब वो चाय लेकर आई तो रानी जी को यूँ थके थके देख कर ख़ीग़ी... ग़ीख़ी के अंदाज़ से हंसने लगी। गोया कह रही हो हम भी बहुत दिन गए जागा करते थे। हमारी आँखों में भी ख़ुमार होता था और अब रातों को जगाने वाले भगवान के द्वारे ही चले गए, आह! मुझे वो दिन याद है जब वो मेरे लहंगे के लिए बहुत सुंदर गोटा और किंगरी लाए थे... उस दिन तो वो पहले अंदर ही नहीं आए। दरवाज़े पर ही खड़े मुस्कुराते रहे और जब अंदर आए तो उनका बात करने का ढंग भी अजीब था और वो गोटा देखकर मेरी सब तकान उतर गई थी।

    दर्शी ने चिल्लाते हुए कहा, “कीकू की माँ!”

    कीकू की माँ के लबों पर तबस्सुम नहीं रहा। सिर्फ़ उसका साया रह गया। हल्की सी सुर्ख़ी से इसका रंग सपेदी और सपेदी से ज़र्दी और स्याही माइल हो गया और वो हैरत से क्लॉक की टिक-टिक को सुनने लगी। दर्शी के लिए वो मामूली टिक-टिक हथौड़े की ज़र्बों से कम थी। उस्ताद की इज़्ज़त मल्हूज़-ए-ख़ातिर होती तो वो पत्थर मार कर उसकी टिक-टिक को रोक देती... कीकू की माँ सोच रही थी। आख़िर मालकिन क्यूँ ख़फ़ा हो रही है। हालाँ कि रतन बाबू ने उसे एक नई साड़ी ख़रीद कर ला दी है, जिस पर पूरा एक हाथ चौड़ा तिलाई बाडर लगा है और उसके अंदाज़े के मुताबिक़ उसकी तमाम थकावट दूर कर देने के लिए काफ़ी है।

    दर्शी ने कहा, “आज फिर तू ने चमचा भर चाय के पानी में दूध की गागर उंडेल दी।”

    कीकू की माँ ने सहमे हुए कहा, “रतन बाबू ने कहा था, रानी।”

    “क्या कहा था उन्होंने?”

    “कहा था... रानी बीमार है।”

    कीकू की माँ ने ट्रे उठाई और आँखों से एक हाथ चौड़े तिलाई बॉडर को देखती और दिल में भगवान को कोसती हुई चली गई। दर्शी सोचने लगी, क्या रतन को उसकी कमज़ोरी का पता चल गया है? इसी लिए तो वो इस क़िस्म की चाय को मेरे लिए ग़ैर मुफ़ीद समझने लगा है, और क्या मालूम जो उसने सोते में मेरे बैग की तलाशी भी ली हो। उसने ज़न्नाटे से एक हाथ सिरहाने के नीचे मारा। बैग मौजूद था, और था भी जूँ का तूँ बंद।

    बैग के एक कोने में झूमरों की एक जोड़ी पड़ी थी। दर्शी झूमरों की बहुत शौक़ीन थी। लेकिन उसके ब्याह में जितने भी ज़ेवर दिए गए थे, वो सब के सब वज़नी थे और देहाती तर्ज़ के बने हुए। अकेले झूमर ही डेढ़ तोला के थे। दर्शी जानती थी कि रतन इन लंबे झूमरों को पहने हुए देख कर बहुत ख़ुश होता है। वो ख़ुद भी रतन को ख़ुश रखना चाहती थी। लेकिन इस बात का क्या इलाज कि वज़नी झूमर पहनने से उसे अपने कान टूटते हुए महसूस होते थे और वो उन्हें निस्फ़ घंटे से ज़्यादा देर तक नहीं पहन सकती थी।

    प्रिय दर्शी की ख़्वाहिश थी कि वो हल्के से झूमर ख़रीद लेती। यही कोई सस्ती सी जोड़ी। लेकिन उनके लिए वो रतन से पैसे मांगेगी, ता वक़्तीके वो ख़ुद अपने फ़र्ज़ को महसूस करता हुआ पैसे उसके हाथ में दे-दे।

    माअन उसका ख़याल पापा की तरफ़ चला गया। उनसे तो वो पैसे लड़ कर भी माँग लेती थी। किसी ख़याल के आने से दर्शी उठी और अपने ही कमरे में जब उसने अलमारी खोली तो उसकी जॉर्जजट की साड़ी के ऊपर, रतन का कोट टंगा हुआ था... दर्शी के मुँह पर एक सुर्ख़ी की लहर दौड़ गई। उसने सोचा तमाम मर्द एक ही से लापरवा होते हैं। यही मर्दों का जौहर है और फिर ज़नाने में पेटी कोट या जॉरजट की साड़ी के ऊपर अपना कोट शायद अम्दन भूल जाने का क्या ये मतलब नहीं कि इस कोट के साथ जैसा सुलूक मुनासिब समझा जाये, किया जाये। गोया कोट ज़बान-ए-हाल से कह रहा हो मैंने तुझे मसल डाला है, तो उसके इवज़ में मेरी जेबें काट डाल। दर्शी ने दरवाज़े पर नज़र गाड़े जेब में हाथ डाला तो उसके हाथ में दस दस के चार नोट और कुछ रेज़गारी गई। उसने सोचा अगर वो इसमें से ज़रूरत के मुताबिक़ कुछ उड़ा ले तो रतन क्या कहेगा? लेकिन... चोरी तो एक ज़लील हरकत है। अभी तो रूहों का मिलाप नहीं हुआ... वो यूँ जेब में से पैसे उड़ा कर बेसवा, कहलाएगी?

    दो तीन दिन तक दर्शी को हरी पाल पुर, अपने मुरब्बों से बज़रिया तार सौ रुपये चुके थे। शगुन के और रुपये इकट्ठे हो गए। उन्होंने बहुत हद तक दर्शी की अस्बी कमज़ोरी को आराम पहुँचाया। कीकू की माँ भी ख़ुश थी और भगवान को कम याद करती थी। दर्शी ने कई मर्तबा रतन को कहा कि बाज़ार जा कर बरसाती कोट ख़रीद लेना चाहिए। बरसात के बाद उसका क्या फ़ायदा होगा। लेकिन चंद दिनों से रतन लाल अपने दफ़्तर में असेंबली के लिए हिन्दसे तैयार कर रहा था और इस के लिए उसे बारिश, धूप, साड़ी किसी चीज़ की पर्वा थी और इस बात ने दर्शी को बहुत ग़मगीं कर दिया था।

    एक शाम रतन घर वापस आया तो दर्शी की हैरानी की हद रही। उसके हाथ में झूमरों की एक जोड़ी थी। जो थी भी बहुत हल्की और जदीद फ़ैशन की। दर्शी ख़ुश नहीं हुई, क्योंकि वो झूमर उसने ख़ुद नहीं ख़रीदे थे, रतन ने उन्हें अपनी ख़ातिर ख़रीदा था। वो ख़ुद भी तो उसे झूमर पहने हुए देखकर ख़ुश होता था। सच तो ये है कि मर्द कभी भी औरत की फ़र्माइश पर ज़ेवर ख़रीदना पसंद नहीं करते, बल्कि उनको अपने लिए सजाने को ख़रीदते हैं। दर्शी को तस्कीन हुई भी तो महज़ इसी लिए कि रतन उन्हें ख़ुद-ब-ख़ुद ख़रीद लाया और ऐसा करने में उसने अपनी फ़र्ज़-शनासी का सुबूत दिया।

    झूमरों की जोड़ी को हाथ में लेते हुए वो तंज़िया अंदाज़ से बोली,

    “ख़त्म हो गए आपके हिन्दसे?”

    “ख़त्म हो गए।”

    रतन ने दर्शी का हाथ पकड़ा तो उसने झटके से छुड़ा लिया। बोली, “अब मेरे हिन्दसे शुरुअ हैं। सर्दियाँ आने वाली हैं। कम से कम तीन भतीजों के स्वेटर बुनने हैं।”

    रतन ने फिर हाथ पकड़ते हुए कहा, “तो क्या तुम्हें झूमर पसंद नहीं?”

    “झूमर...? ओह! हाँ” दर्शी मुँह फुलाते हुए बोली। “आपने बहुत तकलीफ़ की।”

    शीकोशा बदस्तूर मुस्कुरा रहा था। वो महज़ एक क्लॉक ही नहीं था, चौबीस घंटे मुतवातिर टिक-टिक करने वाला। वो दर्शी का उस्ताद भी था, जिसके डायल और सुइयों ने दर्शी को एक अच्छी लड़की के तौर पर देखा था और अब शायद एक अच्छी बीवी की सूरत में देखना चाहता था।

    रतन पहली कड़ी खो देने से मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुँच सका। वो दर्शी की बातों में तंज़ पा सका, तो वो बोली,

    “आप तो यूँ ही मेरे लिए पैसे बर्बाद करते हैं... भला और भी कोई ऐसे करता है?”

    रतन फटी-फटी आँखों से दर्शी के ख़ूबसूरत चेहरे की तरफ़ देखने लगा। अगर दर्शी उसी वक़्त वो झूमर अपने कानों में डाल लेती तो दुनिया की तारीख़ किसी और ही ढब से लिखी जाती। उसने सिर्फ़ झूमर पहने, बल्कि अपनी गर्दन को अजब अंदाज़ से इधर-उधर हिला दिया और रतन एक ईमानदार आदमी की तरह, उसकी गर्दन और उसके हिलते हुए झूमरों के मुताल्लिक़ सोचने लगा।

    यूँ मालूम होता था, जैसे अभी तक दर्शी की तसल्ली नहीं हुई। वो बोली,

    “क्या लागत आई है इसपे?”

    “कोई बहुत नहीं।”

    “तो भी।”

    “साढ़े इकत्तीस रुपये।”

    दर्शी ने अपने साबिर के बैग को टटोलना शुरुअ किया। रतन एक लम्हे के लिए ठिटक गया। वो शायद इस बात को मज़ाक़ समझ कर जाने देता। लेकिन दर्शी के चेहरे ने उसे मज़ाक़ की हुदूद से बुलंद-ओ-बाला उठा दिया था... कुछ देर बाद रतन ने अंधेरे में अपने पाँव तले ज़मीन महसूस की। गोया कोई खोई हुई कड़ी उसके हाथ गई हो। उसने अपनी जेब में से तमाम नक़दी निकाली और अंधेरे में दर्शी के क़दमों पर रखते हुए बोला, “तुम उस दिन अपनी किसी ज़रूरत का ज़िक्र कर रही थीं... लो, ये अपनी मर्ज़ी से ख़र्च कर लेना।”

    दर्शी ने एक सानिया के लिए सोचा। रतन ने ऐसा करने में औरत को सबसे बुरी गाली दी है... बेसवा!

    ब्याह को एक दो साल गुज़र गए, लेकिन दोनों की रूहों में कोई ख़ास बालीदगी नहीं आई। बल्कि रतन अब कुछ खिचा-खिचा सा रहने लगा। इस अर्से में दर्शी बीवी के तमाम हुनर से वाक़िफ़ हो चुकी थी। वो हस्सास वैसे ही थी। आज तक उसने खुले बंदों रतन से पैसे नहीं माँगे थे। वो बसा-औक़ात अपनी कमज़ोरी पर अपने आपको कोसा करती। उमूमन यूँ होता कि बच्चे के फ़्रॉक या उसे कैल्शियम देने का ज़िक्र होता तो वाफ़िर पैसे मिल जाते और फिर रतन उसकी ज़रूरत और अपने शौक़ से मुतास्सिर हो कर ख़ुद भी उसे कुछ कुछ ला दिया करता। हरीपाल पुर में भी आना-जाना बना ही हुआ था। अगरचे दर्शी की माँ सौतेली थी, बाप तो सौतेला नहीं था। बड़ा भाई एग्ज़िक्यूटिव इंजनियर हो चुका था और फिर दफ़्तर और हिंदिसों के बाद रतन का कोट उसके पेटीकोट पर टंगा होता।

    इस एक दो बरस के अरसे में शीकोशा का चेहरा क़दरे पीला हो गया था। उसकी निगाहों में वो पहली सी शरारत और तंज़-आमेज़ मुस्कुराहट रही थी। कभी-कभी उसका कोई पुर्ज़ा ख़राब हो जाता तो उसकी मरम्मत कर दी जाती।

    एक दिन रतन लाल शब को किसी दोस्त के हाँ ठहर गया। सुब्ह वापस आया तो दर्शी से मुख़ातिब होते हुए बोला,

    “आज सुब्ह मैंने एक वाक़िया देखा।”

    दर्शी ने बच्चे को उसकी गोद में देते हुए कहा। “क्या देखा है आपने?”

    रतन बोला, “मैं कहता हूँ... ये बाज़ारी औरतें कितनी बे-हया होती हैं। आज मैंने एक ऐसी औरत को देखा, जिसके बाल उलझे हुए थे, जिसकी आँखें ख़ुमार आलूदा थीं, जिस्म से बीमार दिखाई देती थी। सुब्ह-सुब्ह सर-ए-बाज़ार उसने एक बाबू को कॉलर से पकड़ा हुआ था और पैसे माँग रही थी। वो बाबू बेचारा कोई बहुत ही शरीफ़ आदमी था। वो चीख़ता था, चिल्लाता था। कहता था मैंने इसे एक ख़ूबसूरत साड़ी ला कर दी है। गुरगाबी ख़रीद दी है और अब पैसे तलब करती है”

    वो बेग़ैरत भरे बाज़ार में कह रही थी कि “वो तो सब हुस्न की नियाज़ है। उसने अपने लिए मुझे वो साड़ी पहनवाई थी। अपने लिए गुरगाबी, जिसे पहन कर मैं इसके साथ लौरंस बाग़ की सैर को गई। लेकिन मुझे पैसे चाहिएं। मुझे भूक लग रही है, मुझे अपने बच्चे के लिए कपड़े चाहिएं, मैंने किराया देना है, मुझे पाउडर की ज़रूरत है”

    और इस के बाद रतन हँसने लगा। बे-मानी, बे-मतलब हंसी और इस अरसे में अपना सिलवटों से भरा हुआ कॉलर छुपाता रहा। इस बात को सुनकर दर्शी की सारी तिब्बी कमज़ोरी वापस गई। दर्शी ने महसूस किया, उसमें जितनी कमज़ोरियाँ थीं वो बेसवा में मफ़क़ूद थीं। वो उसके जिस्म का बक़ीया हिस्सा थी जिसे अपने आप में महसूस करते हुए वो एक मुकम्मल औरत हो गई थी। दर्शी ने सर से पाँव तक शोला बनते हुए कहा,

    “वो बाबू, पाजी आदमी है... कमीना है... और वो बेसवा किसी गर्हस्तन से क्या बुरी है?”

    रतन लाल का मुँह खुले का खुला रह गया। मशकूक निगाहों से उसने दर्शी के चेहरे का मुताला करते हुए कहा,

    “तो तुम्हारा मतलब है... इस जगह और उस जगह में कोई फ़र्क़ नहीं?”

    दर्शी ने इसी तरह बिफरे हुए कहा, “फ़र्क़ क्यूँ नहीं... यहाँ बाज़ार की निस्बत शोर कम होता है।”

    क्लॉक की टिक-टिक बंद हो गई। रतन लाल सोचने लगा। औरत सच-मुच एक मुअम्मा है और शोपन हार ने...!

    स्रोत:

    ग्रहण (Pg. 143)

    • लेखक: राजिंदर सिंह बेदी
      • प्रकाशक: मकतबा उर्दू, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1942

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