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मातम गुसार

अनवर ख़ान

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    शहर के क़ल्ब में वाक़े मुद्दतों से वीरान खंडर नुमा हवेली के दरवाज़े पर एक ताबूत रखा हुआ है। सरगर्मीयां जो दोपहर की तमाज़त के सबब मुअत्तल हो चुकी थीं, फिर आहिस्ता-आहिस्ता शुरू हो रही हैं। सड़कों पर इक्का दुक्का आदमी चलता दिखाई दे जाता है। जब कोई राहगीर हवेली के सामने से गुज़रता है और दरवाज़े पर रखे ताबूत पर उस की नज़र पड़ती है तो वो ठिठक कर रुक जाता है। कुछ लम्हे ग़ैर यक़ीनी अंदाज़ में हवेली और ताबूत को देखता है फिर कुछ मुतअज्जिब सा आगे बढ़ जाता है, जैसा कि आम तौर पर होता है। नंग धड़ंग बच्चे, फ़क़ीर, आवारा, ओबाश लड़के हवेली के सामने इकट्ठा हो गए हैं। ताबूत की ख़बर शायद हवेली के अतराफ़ के इलाक़ों में भी फैल गई है। क्योंकि अब हवेली वाली सड़क पर आमद-व-रफ़्त मामूल से कुछ ज़्यादा ही नज़र आरही है और हवेली के सामने मजमा भी बढ़ता जा रहा है।

    हवेली अब भी हमेशा की तरह सुनसान है। किसी के क़दमों की आहट तक सुनाई नहीं देती। आदमी और आदम की बात तो अलग रही लगता है इस में हवा का भी गुज़र नहीं।

    अचानक सड़क के मोड़ पर एक कार मोड़ लेती नज़र आती है फिर बढ़ती हुई हवेली के दरवाज़े पर आकर रुक जाती है। लोग हट कर खड़े होते हैं। कुछ लोग कार से निकल कर हवेली के अंदर खो जाते हैं।

    बाहर सड़क पर खड़े अफ़राद अब इत्मिनान का सांस लेते हैं। इसका मतलब है वाक़ई हवेली के किसी मकीन का इंतिक़ाल हो गया है।

    कुछ देर बाद एक कार फिर सड़क के उफ़ुक़ पर नमूदार होती है और इसी तरह बढ़ती हुई हवेली के दरवाज़े पर आकर रुक जाती है। फिर चंद लोग कार से बाहर आते हैं और हवेली में खो जाते हैं।

    फिर तो जैसे गाड़ियों का तांता बंध जाता है कहीं से चंद फेरी वाले भी आजाते हैं। बाहर खड़े लोग अब गाड़ियों से टेक लगाए सिगरेट-बीड़ियाँ फूँकते हुए गपशप में मसरूफ़ हो गए हैं। गाड़ियों और लोगों के हुजूम की वजह से अब ताबूत दिखाई नहीं दे रहा है। कोई नया आदमी सड़क पर से गुज़रता है तो हवेली के बाहर रौनक़ देखकर चौंक जाता है और उसे बताना पड़ता है कि हवेली के बाहर एक ताबूत रखा हुआ है और कुछ लोग अभी अभी गाड़ियों से उतर कर हवेली के अंदर आगए हैं।

    लेकिन ये हवेली तो बरसों से हम ग़ैर-आबाद देख रहे हैं।

    हाँ, यही तो ताज्जुब है। इस हवेली में आख़िर कौन रहता होगा?

    कुछ लोग हवेली से बाहर आते हुए दिखाई देते हैं। मज्मा में हल्का सा शोर होता है फिर एक इज़्तिराब आमेज़ ख़ामोशी छा जाती है।

    चेहरे मुहरे और वज़ा क़ता से ये लोग नौकर पेशा मालूम होते हैं। वो ताबूत को उठा कर अंदर ले जाते हैं।

    बाहर खड़े लोग अंदाज़ा लगाते हैं कि इस वाक़ये का इख़्तिताम अब क़रीब ही है, इस बात पर अलबत्ता उन्हें ताज्जुब है कि हवेली के अंदर से किसी के रोने की आवाज़ नहीं आरही है।

    शायद मरने वाले की उम्र काफ़ी ज़्यादा होगी और उसके मुताल्लिक़ीन के लिए उसकी मौत ग़ैर मुतवक़्क़े नहीं होगी।

    या मुम्किन है मरने वाला उन लोगों का क़रीबी रिश्तेदार हो।

    घर में कोई औरत भी नज़र नहीं आती।

    अब तक तो हम सिर्फ़ मुलाज़मीन को ही देख पाए हैं।

    कुछ लोग हवेली से निकल कर दरवाज़े की तरफ़ आते दिखाई देते हैं और मज्मा की भनभनाहट बंद हो जाती है। एहतिरामन लोग सिगरेट बीड़ियाँ बुझा देते हैं। अब वो जनाज़े में शिरकत के लिए तैयार हैं कि ये उनका इन्सानी फ़र्ज़ है। वो अब इस वाक़ये के ऐनी शाहिद हैं और इस में पूरी तरह मुलव्वस हो चुके हैं। तमाम नस्ल-ए-इन्सानी एक कुम्बा है और उसका हर फ़र्द उनकी मुहब्बत और हमदर्दी का मुस्तहिक़ है।

    चार आदमी ताबूत को थामे हुए हैं। उनके होंट हरकत कर रहे हैं और उनके पीछे दूसरे आदमी सर झुकाए आहिस्ता-आहिस्ता दरवाज़े की तरफ़ बढ़ रहे हैं।

    बच्चे खेलते खेलते रुक गए हैं। औरतों ने पल्लू सर पर ले लिये हैं माहौल की संजीदगी सब पर असर अंदाज़ हो गई है।

    बाहर आते ही लोग अपनी अपनी गाड़ियों की तरफ़ बढ़े हैं। उनमें तुर्की टोपी पहना हुआ एक बूढ़ा झुर्रियों में सोच की लहरें बसाए खोया खोया सा अपनी गाड़ी की तरफ़ बढ़ रहा है।

    आप लोग कहाँ जा हैं।

    स्रोत:

    लौह (Pg. 698)

    • लेखक: मुमताज़ अहमद शेख़
      • संस्करण: Jun-December
      • प्रकाशक: रहबर पब्लिशर्स, उर्दू बाज़ार, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 2017

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