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क़ादिरा क़साई

सआदत हसन मंटो

क़ादिरा क़साई

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    अपने ज़माने की एक ख़ूबसूरत और मशहूर वेश्या की कहानी। उसके कोठे पर बहुत से लोग आया करते थे। सभी उससे मोहब्बत का इज़हार किया करते थे। उनमें एक ग़रीब शख़्स भी उससे मोहब्बत का दावा करता था। वेश्या ने उसकी मोहब्बत को ठुकरा दिया। वेश्या के यहाँ एक बेटी हुई। वह भी बहुत ख़ूबसूरत थी। जिन दिनों उसकी बेटी की नथ उतरने वाली थी उन्हीं दिनों देश का विभाजन हो गया। इसमें वेश्या मारी गई और उसकी बेटी पाकिस्तान चली गई। यहाँ भी उसने अपना कोठा जमाया। जल्द ही उसके कई चाहने वाले निकल आए। वह जिस शख़्स को अपना दिल दे बैठी थी वह एक क़ादिरा कसाई था, जिसे उसकी मोहब्बत की कोई ज़रूरत नहीं थी।

    ईदन बाई आगरे वाली छोटी ईद को पैदा हुई थी, यही वजह है कि उसकी माँ ज़ुहरा जान ने उसका नाम इसी मुनासिबत से ईदन रखा। ज़ुहरा जान अपने वक़्त की बहुत मशहूर गाने वाली थी, बड़ी दूर दूर से रईस उसका मुजरा सुनने के लिए आते थे।

    कहा जाता है कि मेरठ के एक ताजिर अब्दुल्लाह से जो लाखों में खेलता था, उसे मुहब्बत हो गई, उस ने चुनांचे इसी जज़्बे के मातहत अपना पेशा छोड़ दिया। अब्दुल्लाह बहुत मुतअस्सिर हुआ और उस की माहवार तनख़्वाह मुक़र्रर कर दी,कोई तीन सौ के क़रीब। हफ़्ते में तीन मर्तबा उसके पास आता, रात ठहरता, सुबह सवेरे वहाँ से रवाना हो जाता।

    जो शख़्स ज़ुहरा जान को जानते हैं और आगरे के रहने वाले हैं उनका ये बयान है कि उसका चाहने वाला एक बढ़ई था मगर वो उसे मुँह नहीं लगाती थी। वो बेचारा ज़रूरत से ज़्यादा मेहनत-ओ-मशक़्क़त करता और तीन चार महीने के बाद रुपये जमा कर के ज़ुहरा जान के पास जाता मगर वो उसे धुतकार देती।

    आख़िर एक रोज़ उस बढ़ई को ज़ुहरा जान से मुफ़स्सल गुफ़्तुगू करने का मौक़ा मिल ही गया। पहले तो वो कोई बात कर सका, इसलिए कि उस पर अपनी महबूबा के हुस्न का रो’ब तारी था लेकिन उसने थोड़ी देर के बाद जुरअत से काम लिया और उससे कहा, “ज़ुहरा जान, मैं ग़रीब आदमी हूँ, मुझे मालूम है कि बड़े बड़े धन वाले तुम्हारे पास आते हैं और तुम्हारी हर अदा पर सैंकड़ों रुपये निछावर करते हैं लेकिन तुम्हें शायद ये बात मालूम नहीं कि ग़रीब की मुहब्बत धन दौलत वालों के लाखों रूपयों से बड़ी होती है। मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ, मालूम नहीं क्यों?”

    ज़ुहरा जान हँसी, इस हँसी से बढ़ई का दिल मजरूह हो गया, “तुम हँसती हो, मेरी मुहब्बत का मज़ाक़ उड़ाती हो इसलिए कि ये कंगले की मुहब्बत है जो लकड़ियाँ चीर कर अपनी रोज़ी कमाता है, याद रखो, ये तुम्हारे लाखों में खेलने वाले तुम्हें वो मुहब्बत और प्यार नहीं दे सकते जो मेरे दिल में तुम्हारे लिए मौजूद है।”

    ज़ुहरा जान उकता गई, उसने अपने एक मीरासी को बुलाया और उससे कहा कि बढ़ई को बाहर निकाल दो लेकिन वो इससे पहले ही चला गया।

    एक बरस के बाद ईदन पैदा हुई। उसका बाप अब्दुल्लाह था या कोई और उसके मुतअ’ल्लिक़ कोई भी वसूक़ से कुछ नहीं कह सकता। बा’ज़ का ख़याल है कि वो ग़ाज़ियाबाद के एक हिंदू सेठ के नुत्फ़े से है, किसी के नुत्फ़े से भी हो, मगर बला की ख़ूबसूरत थी।

    उधर ज़ुहरा जान की उम्र ढलती गई, इधर ईदन जवान होती गई। उसकी माँ ने उसको मौसीक़ी की बड़ी अच्छी ता’लीम दी। लड़की ज़हीन थी, कई उस्तादों से उसने सबक़ लिये और उनसे दाद वसूल की।

    ज़ुहरा जान की उम्र अब चालीस बरस के क़रीब हो गई, वो अब उस मंज़िल से गुज़र चुकी थी जब किसी तवाइफ़ में कशिश बाक़ी रहती है। वो अपनी इकलौती लड़की ईदन के सहारे जी रही थी, अभी तक उसने उससे मुजरा नहीं कराया था। वो चाहती थी कि बहुत बड़ी तक़रीब हो जिसका इफ़तताह कोई राजा नवाब करे।

    ईदन बाई के हुस्न के चर्चे आम थे। दूर दूर तक अय्याश रईसों में इसके तज़किरे होते थे, वो अपने एजेंटों को ज़ुहरा जान के पास भेजते और ईदन की नथुनी उतारने के लिए अपनी अपनी पेशकश भेजते, मगर उसको इतनी जल्दी नहीं थी। वो चाहती थी कि मिस्सी की रस्म बड़ी धूम धाम से हो और वो ज़्यादा से ज़्यादा क़ीमत वसूल करे। उसकी लड़की लाखों में एक थी, सारे शहर में उस जैसी हसीन लड़की और कोई नहीं थी।

    उसके हुस्न की नुमाइश करने के लिए वो हर जुमेरात की शाम को उसके साथ पैदल बाहर सैर को जाती, इश्क़ पेशा मर्द उसको देखते तो दिल थाम थाम लेते।

    फँसी फँसी चोली में गदराया हुआ जोबन, सुडौल बांहें मख़रूती उंगलियाँ जिनके नाख़ुनों पर जीता जीता लहू ऐसा रंग, ठुमका सा क़द, घुंगरियाले बाल... क़दम क़दम पर क़ियामत ढाती थी।

    आख़िर एक रोज़ ज़ुहरा जान की उम्मीद बर आई। एक नवाब ईदन पर ऐसा लट्टू हुआ कि वो मुंह माँगे दाम देने पर रज़ामंद हो गया। ज़ुहरा जान ने अपनी बेटी की मिस्सी की रस्म के लिए बड़ा एहतिमाम किया, कई देगें पुलाव और मुतंजन की चढ़ाई गईं।

    शाम को नवाब साहब अपनी बग्घी में आए, ज़ुहरा जान ने उनकी बड़ी आओ भगत की। नवाब साहब बहुत ख़ुश हुए। ईदन दुल्हन बनी हुई थी, नवाब साहब के इरशाद के मुताबिक़ उसका मुजरा शुरू हुआ, फट पड़ने वाला शबाब था जो मह्व-ए-नग़्मा-सराई था।

    ईदन उस शाम बला की ख़ूबसूरत दिखाई दे रही थी। उसकी हर जुंबिश, हर अदा, उसके गाने की हर सुर ज़ुहद-ए-शिकन थी। नवाब साहब गाव तकिये का सहारा लिए बैठे थे। उन्होंने सोचा कि आज रात वो जन्नत की सैर करेंगे जो किसी और को नसीब नहीं हुई।

    वो ये सोच ही रहे थे कि अचानक एक बेहंगम सा आदमी अंदर दाख़िल हुआ और ज़ुहरा जान के पास बैठ गया। वो बहुत घबराई, ये वही बढ़ई था, उसका आशिक़-ए-राज़। बहुत मैले और गंदे कपड़े पहने था। नवाब साहब को जो बहुत नफ़ासत पसंद थे, उबकाईयाँ आने लगीं। उन्होंने ज़ुहरा जान से कहा, “ये कौन बदतमीज़ है?”

    बढ़ई मुस्कुराया, “हुज़ूर! मैं इनका आशिक़ हूँ।”

    नवाब साहब की तबीयत और ज़्यादा मुक़द्दर हो गई, “ज़ुहरा जान, निकालो इस हैवान को बाहर।”

    बढ़ई ने अपने थैले से आरी निकाली और बड़ी मज़बूती से ज़ुहरा जान को पकड़ कर उसकी गर्दन पर तेज़ी से चलाने शुरू कर दी, नवाब साहब और मीरासी वहाँ से भाग गए, ईदन बेहोश हो गई।

    बढ़ई ने अपना काम बड़े इतमिनान से ख़त्म किया और लहू भरी आरी अपने थैले में डाल कर सीधा थाने गया और इक़बाल-ए-जुर्म कर लिया। कहा जाता है कि उसे उम्र क़ैद की सज़ा हो गई थी।

    ईदन को अपनी माँ के क़त्ल होने का इस क़दर सदमा हुआ कि वो दो अढ़ाई महीने तक बीमार रही। डाक्टरों का ख़याल था कि वो ज़िंदा नहीं रहेगी, मगर आहिस्ता आहिस्ता उसकी तबीयत सँभलने लगी और वो इस क़ाबिल हो गई कि चल फिर सके। हस्पताल में उसकी तीमारदारी सिर्फ़ उसके उस्ताद और मीरासी ही करते थे। वो नवाब और रईस जो उस पर अपनी जान छिड़कते थे, भूले से भी उस को पूछने के लिए आए, वो बहुत दिल बर्दाश्ता हो गई।

    वो आगरा छोड़कर दिल्ली चली आई, मगर उसकी तबीयत इतनी उदास थी कि उसका जी क़तअ’न मुजरा करने को नहीं चाहता था। उसके पास बीस-पच्चीस हज़ार रुपये के ज़ेवरात थे जिनमें आधे उस की मक़्तूल माँ के थे। वो उन्हें बेचती रही और गुज़ारा करती रही।

    औरत को ज़ेवर बड़े अज़ीज़ होते हैं, उसको बड़ा दुख होता था, जब वो कोई चूड़ी या नेकलस औने-पौने दामों बेचती थी,लेकिन आख़िर क्या करती? उसका जी नहीं चाहता था कि राग-रंग की महफ़िलें क़ायम करे।

    उन दिनों पाकिस्तान के क़याम का मुतालबा बड़े ज़ोरों पर था। आख़िर एक दिन ये ऐ’लान हुआ, जो ईदन ने अपने पांच वाल्व रडियो सेट पर सुना कि हिंदुस्तान के दो हिस्से हो गए। उसके फ़ौरन बाद फ़सादात शुरू हो गए। हिन्दू मुसलमान को मारते, मुसलमान हिन्दुओं को... अ’जब आलम था ख़ून पानी से भी अर्ज़ां हो रहा था।

    मुसलमान धड़ा धड़ पाकिस्तान जा रहे थे कि उनकी जानें महफ़ूज़ रहें। ईदन ने भी फ़ैसला कर लिया कि वो दिल्ली में नहीं रहेगी, लाहौर चली आएगी। बड़ी मुश्किलों से अपने कई ज़ेवरात बेच कर वो लाहौर पहुँच गई लेकिन रास्ते में उसकी तमाम बेशक़ीमत पिशवाज़ें और बाक़ी-मांदा ज़ेवर उसके अपने भाई मुसलमानों ही ने ग़ायब कर दिए।

    जब वो लाहौर पहुंची तो वो लुटी पिटी थी, लेकिन उसका हुस्न वैसे का वैसा था। दिल्ली से लाहौर आते हुए हज़ारों ललचाई हुई आँखों ने उसकी तरफ़ देखा मगर उसने बेए’तिनाई बरती।

    वो जब लाहौर पहुंची तो उसने सोचा कि ज़िंदगी बसर कैसे होगी? उसके पास तो चने खाने के लिए भी चंद पैसे नहीं थे, लेकिन लड़की ज़हीन थी। सीधी उस जगह पहुंची जहाँ उनकी हमपेशा रहती थीं। यहाँ उसकी बड़ी आओ भगत की गई।

    उन दिनों लाहौर में रुपया आम था, हिंदू जो कुछ यहाँ छोड़ गए थे, मुसलमानों की मिल्कियत बन गया था। हीरा मंडी के वारे न्यारे थे।

    ईदन को जब लोगों ने देखा तो वो उसके आशिक़ हो गए। रात भर उसको सैंकड़ों गाने सुनने वालों की फरमाइशें पूरी करना पड़तीं। सुबह चार बजे के क़रीब जब कि उसकी आवाज़ जवाब दे चुकी होती वो अपने सामईन से मा’ज़रत तलब करती और औंधे मुँह अपनी चारपाई पर लेट जाती।

    ये सिलसिला क़रीब क़रीब डेढ़ बरस तक जारी रहा। ईदन उसके बाद एक अ’लाहिदा कोठा किराए पर लेकर वहाँ उठ आई, चूँकि जहाँ वो मुक़ीम थी, उस नाइका को उसे अपनी आधी आमदन देना पड़ती थी।

    जब उसने अ’लाहिदा अपने कोठे पर मुजरा करना शुरू किया तो उसकी आमदन में इज़ाफ़ा हो गया। अब उसे हर क़िस्म की फ़राग़त हासिल थी, उसने कई ज़ेवर बना लिये, कपड़े भी अच्छे से अच्छे तैयार करा लिये।

    इसी दौरान में उसकी मुलाक़ात एक ऐसे शख़्स से हुई जो ब्लैक मार्किट का बादशाह था, उसने कम अज़ कम दो करोड़ रुपये कमाए थे। ख़ूबसूरत था, उसके पास तीन कारें थीं। पहली ही मुलाक़ात पर वो ईदन के हुस्न से इस क़दर मुतअस्सिर हुआ कि उसने अपनी खड़ी सफ़ेद पेकार्ड उसके हवाले कर दी।

    इसके इलावा वो हर शाम आता और कम अज़ कम दो ढाई सौ रुपये उसकी नज़र ज़रूर करता। एक शाम वो आया तो चाँदनी किसी क़दर मैली थी, उसने ईदन से पूछा, “क्या बात है, आज तुम्हारी चाँदनी इतनी गंदी है?”

    ईदन ने एक अदा के साथ जवाब दिया, “आज कल लट्ठा कहाँ मिलता है?”

    दूसरे दिन उस ब्लैक मार्किट बादशाह ने चालीस थान लट्ठे के भिजवा दिए। इसके तीसरे रोज़ बाद उस ने ढाई हज़ार रुपये दिए कि ईदन अपने घर की आराइश का सामान ख़रीद ले।

    ईदन को अच्छा गोश्त खाने का बहुत शौक़ था, जब वो आगरे और दिल्ली में थी तो उसे उम्दा गोश्त नहीं मिलता था, मगर लाहौर में उसे क़ादिरा क़साई बेहतरीन गोश्त मुहय्या करता था, बगैर रेशे के हर बोटी ऐसी होती थी जैसे रेशम की बनी हो।

    दुकान पर अपना शागिर्द बिठा कर क़ादिरा सुबह-सवेरे आता और डेढ़ सेर गोश्त जिसकी बोटी बोटी फड़क रही होती, ईदन के हवाले कर देता। उससे देर तक बातें करता रहता जो आमतौर पर गोश्त ही के बारे में होतीं।

    ब्लैक मार्किट का बादशाह जिसका नाम ज़फ़र शाह था, ईदन के इश्क़ में बहुत बुरी तरह गिरफ़्तार हो चुका था। उसने एक शाम ईदन से कहा कि वो अपनी सारी जायदाद, मनक़ूला और गैर मनक़ूला उस के नाम मुंतक़िल करने के लिए तैयार है अगर वो उससे शादी कर ले... मगर ईदन मानी। ज़फ़र शाह बहुत मायूस हुआ।

    उसने कई बार कोशिश की कि ईदन उसकी हो जाये मगर हर बार उसे नाकामी का सामना करना पड़ा। वो मुजरे से फ़ारिग़ हो कर रात के दो तीन बजे के क़रीब बाहर निकल जाती थी, मालूम नहीं कहाँ?

    एक रात जब ज़फ़र शाह अपना ग़म ग़लत कर के, या’नी शराब पी कर पैदल ही चला रहा था कि उसने देखा कि साईं के तकिए के बाहर ईदन एक निहायत बदनुमा आदमी के पाँव पकड़े इल्तिजाएँ कर रही है कि “ख़ुदा के लिए मुझ पर नज़र-ए-करम करो मैं दिल-ओ-जान से तुम पर फ़िदा हूँ, तुम इतने ज़ालिम क्यों हो?” और वो शख़्स जिसे ग़ौर से देखने पर ज़फ़र शाह ने पहचान लिया कि क़ादिरा कसाई है, उसे धुतकार रहा है, “जा, हमने आज तक किसी कंजरी को मुँह नहीं लगाया, मुझे तंग किया कर।”

    क़ादिरा उसे ठोकरें मारता रहा और ईदन इसी में लज़्ज़त महसूस करती रही।

    स्रोत:

    منٹو نقوش

      • प्रकाशन वर्ष: 1955

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