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मिस्री कोर्टशिप

MORE BYमिर्ज़ा अज़ीम बेग़ चुग़ताई

    (1)

    मैंने जो पैरिस से लिखा था वही अब कहता हूँ कि मैं हरगिज़ हरगिज़ इस बात के लिए तैयार नहीं कि बग़ैर देखे-भाले शादी कर लूं, सो अगर आप मेरी शादी करना चाहती हैं तो मुझको अपनी मंसूबा बीवी को ना सिर्फ देख लेने दीजिए बल्कि इस से दो-चार मिनट बातें कर लेने दीजिए।

    ये अलफ़ाज़ थे जो नूरी ने अपनी बहन से पर ज़ोर लहजे में कहे।

    मगर ये तो बताओ कि आख़िर इस से किया फ़ायदा, तुम्हारा ये ख़्याल है कि अगर लड़की की सूरत शक्ल अच्छी ना हुई तो तुम इनकार कर दोगे? हरगिज़ हरगिज़ ऐसा नहीं हो सकता, जब सब मुआमलात तै हो चुके हैं और शादी करना ही है तो फिर तुमको देखने से किया फ़ायदा? बहन ने ये तक़रीर ख़त्म ही की थी कि माँ साहिबा भी गईं और अब नूरी को बजाय दो से बेहस करनी पड़ी।!

    मालूम होता है कि तीन साल फ़्रांस में रह कर तुमने अपनी क़ौमीयत और मज़हब को भी ख़ैर बार कह दिया ये अलफ़ाज़ माँ ने इसी सिलसिला गुफ़्तगु में कहे।

    जी नहीं ये नामुमकिन है मैं पक्का मुस्लमान हूँ और मिस्री हूँ। ना मैंने मज़हब को छोड़ा है और ना क़ौमीयत को, में तो अपने हक़ पे लड़ता हूँ कि जिससे मेरी शादी होने वाली है इस को मैं देख लू।

    और अगर नापसंद हो तो शादी ना करूँ माँ ने गोया जुमला पूरा किया

    तुमको भी मालूम है कि तुम्हारी मंसूबा बीवी किस की लड़की है? वो जामिआ अज़हर के नायब उल-शेख़ की लड़की है और शराफ़त और इमारत और तमोल में वो लोग हमसे कहीं ज़्यादा हैं। ज़रा उन लोगों को देखो और अपने को देखो, गर्वनमैंट के रुपय पर यूरोप जा कर तालीम हासिल कर के आए हैं और इंजनीयर बन गए हैं तो हमको किसी शुमार ही में नहीं लाते।

    ये सब कुछ आप सही कहती हैं जो मुझको लफ़्ज़ बलफ़ज़ तस्लीम है मगर उस के तो ये मअनी नहीं हो सकते कि इन वजूह की बिना पर अपना पैदाइशी हक़ खो बैठूँ।

    मगर में शादी पुख़्ता कर चुकी हूँ और शादी के तमाम इबतिदाई मराहिल भी तै हो चुके हैं और अब में ये निसबत नहीं तोड़ सकती।

    माँ ने नूरी से ये अलफ़ाज़ एक मजबूरी का लहजा लिए हुए कहे।

    मैं कब कहता हूँ कि आप ये निसबत तोड़ दें, मुझको तो ये रिश्ता ख़ुद बसर-ओ-चशम मंज़ूर है।

    ये अलफ़ाज़ सुनते ही बहन चमक कर बोली फिर आख़िर क्यों उल्टी सीधी बातें करते हो? यही तुमने पैरिस से लिखा था वर्ना हम लोग क्यों ये ग़लती करते।?

    ग़रज़ इसी किस्म की बेहस बहुत देर तक होती रही मगर नतीजा कुछ ना निकला। माँ ने बहुत कोशिश की कि नूरी अपनी ज़द से बाज़ आए मगर बेसूद और इधर नूरी ने बेहद कोशिश की कि माँ उस की मंसूबा बीवी के घर कहला भेजे कि लड़का लड़की से मिलना चाहता है मगर बेकार, माँ को अपनी बात का पास था वो अपने हम-चश्मों में ज़लील होना गवारा ना कर सकती थी, वो पुरानी रस्मों की क़ुयूद को तोड़ना नहीं चाहती थी और ये नामुमकिन था कि ऐसा नाशाइस्ता पैग़ाम लड़की वालों के यहां कहलवा भेजे कि जिसको वो उन लोगों की खुली हुई तौहीन ख़्याल करती हो।

    नतीजा माँ बेटे की ज़िद का ये हुआ कि माँ ख़फ़ा हो गईं, घंटों बैठ कर रोई, नूरी ने बहुत ख़ुशामद की मगर बेकार, नूरी की माँ को रंजीदा करने का बहुत अफ़सोस था मगर मजबूर था। खाने का वक़्त आया और माँ ने खाना ना खाया मगर मुसालहत की कोई सूरत ना बन पड़ी।

    बेहस का सिलसिला छिड़ गया नतीजा उस का ये निकला कि माँ ख़ूबरूई पीटी मगर संगदिल बेटे ने अपने उसूल से जुंबिश ना की अब घर गोया ग़मकदा बना हुआ था, माँ ने खाना ना खाया और बेटी और बेटे ने भी खाना ना खाया, यही सूरत दूसरी शाम तक रही और २४ घंटे से ज़्यादा गुज़र गए।

    नूरी अपने कमरे में बैठा था, माँ की तकलीफ़ का ख़्याल था, माँ की सीता गिरह आख़िर-ए-कार कामयाब हो गई और नूरी ने माँ की शराइत मंज़ूर कर लें ताकि माँ खाना खा ले।

    (2)

    ये भी दरअसल नूरी की चाल थी ताकि माँ खाना खा ले। चुनांचे माँ को उसे राज़ी कर लिया लेकिन वो अब सोच में था कि करना क्या चाहिए। सुबह का वक़्त था और इस वाक़े को दो रोज़ गुज़र चुके थे नूरी अपने कमरे में बैठा अख़बार पढ़ रहा था कि उसने अख़बार रख दिया और उठकर अलमारी से अहादीस की दो किताबें उठा लाया। इन किताबों का मुताला वो पेशतर भी कर चुका था और अक्सर करता रहता था।

    वो इसी सोच में था कि अब क्या करना चाहिए कि मअन उसने दिल में नई बात ठान ली, नौकर को हुक्म दिया कि गाड़ी लाओ कपड़े पहन कर तैयार हुआ और कहा कि नायब उल-शेख़ के हाँ चलो।

    गाड़ी एक आलीशान मकान पर रुकी। मकान का ज़ाहिरी ठाठ कह रहा था कि किसी अमीर कबीर का मकान है। एक नौकर दौड़ कर गाड़ी के क़रीब आया, नूरी ने अपना कार्ड दिया और इत्तिला की गई।

    नायब उल-शेख़ अपने मंसूबा दामाद की आमद की ख़बर सुनकर बाहर इस्तिक़बाल के लिए आए। नूरी ने बढ़कर मुसाफ़ा किया और काबिल-ए-एहतिराम शेख़ के हाथों को बोसा दिया, शेख़ ने नूरी की पेशानी पर बोसा दिया और हाथ पकड़ कर कमरे में ला बिठाया।

    कमरा मग़रिबी सामान आराइश से सजा हुआ था। जगह जगह ख़ूबसूरत काम हो रहा था और तमाम फ़र्नीचर और दीगर सामान आला किस्म का था। इस हाल के एक हिस्सा में बेहतरीन रवी ग़ालीचों का फ़र्श भी था और मशरिक़ी फ़ैशन का बेहतरीन सामान सजा हुआ था। नीचे नीचे ज़मीन से मिले हुए ख़ूबसूरत सोफ़े पड़े हुए थे जिन पर लोग इतमीनान से पालती मारे तकिया लगाए बैठे थे। नायब उल-शेख़ ने नूरी का अपने मिलने वालों से तआरुफ़ किराया और मिलने वालों ने शेख़ को दामाद के इंतिख़ाब पर मुबारकबाद दी। थोड़ी देर बाद क़हवा का दौर चलने लगा और शेख़ नूरी से बसलसला गुफ़्तगु फ़्रांस की बातें पूछते रहे। क़हवा का दौर ख़त्म हुआ और थोड़ी देर बाद शैख़-साहब के दोस्त उठकर चले और नूरी और शेख़ रह गए। बड़ी मुश्किल से और बड़ी देर के सोच के बाद नूरी ने शेख़ से निहायत मोदबाना तरीक़ा से कहा

    मैं जनाब की ख़िदमत में एक ख़ास मक़सद से आया था।

    वो किया?

    अगर जनाब इजाज़त दें तो कुछ अर्ज़ करने की जुर्रत करूँ?

    बसर-ओ-चशम, बिसमिल्लाह कहो क्या कहते हो।

    नूरी ने कुछ ताम्मुल किया और शायद वो अलफ़ाज़ ढूंढ रहा था कि अपना मुद्दा कुन मुनासिब अलफ़ाज़ में अदा करे कि शेख़ ने फिर कहा, तुम ज़रूर अपने दिल की बात कहो कोई वजह नहीं कि ताम्मुल करो।

    नूरी ने हिम्मत कर के नीची नज़रें कर के दबी ज़बान से कहा जनाब से अपना हक़ मांगता हूँ। क्या ये मुम्किन है कि मैं अपनी मंसूबा से पाँच मिनट के लिए मिल लूं?

    नूरी ने नज़र उठा कर जो देखा तो नायब उल-शेख़ को हक्का बका पाया, वो बिलकुल तैयार ना थे और उनकी ख़ुद्दारी को कुछ इस से ठेस सी लगी थी। शेख़ ने अपने को अजीब शश-ओ-पंच में पाया। वो नूरी को बेहद पसंद करते थे मगर इस बात से वो उस वक़्त हवासबाख़ता थे। अपने को सँभाल कर शेख़ ने कहा, में इस की एहमीयत समझने से क़ासिर हूँ।

    क्या जनाब को इस बारे में किसी ख़ास किस्म का एतराज़ है?

    बे-शक मुझको एतराज़ है।

    मज़हबी नुक़्ता-ए-नज़र से या दुनियावी नुक़्ता-ए-नज़र से?

    शेख़ चूँकि फिर शेख़ थे वो बोले, मज़हबी नुक़्ता-ए-नज़र से और नीज़ दुनियावी नुक़्ता-ए-नज़र से क्योंकि हमारा दीन और दुनिया अलग अलग नहीं।

    नूरी ने भी ख़ुश हो कर कहा मगर दीन को दुनिया पर सबक़त है, सबसे पहले हमारा मज़हब है और फिर दुनिया।

    शेख़ ने भी ख़ुश हो कर कहा। बे-शक बे-शक तुम सही कहते हो।

    फिर जब ख़ुदावंद ताला ने मुस्लमानों को मुख़ातब कर के क़ुरान-ए-पाक में कह दिया कि इन औरतों से निकाह करो जो कि तुमको भली मालूम होती हूँ तो फिर कौन सा एतराज़ रह गया। ये कहते हुए नूरी ने आयत निकाह पढ़ कर सुनाई।

    शैख़-साहब इस रंग में बेहस करने को ख़ुसूसन नूरी की सी नई तहज़ीब के दिलदादा नौजवान से क़तई तैयार ना थे और ना उस की उम्मीद थी, उनकी समझ में ना आता था कि क्या कहें मगर जवाब देने के लिए कहा हाँ ये मज़हबन जायज़ तो हो सकता है मगर में इस को पसंद नहीं करता और ख़ुसूसन आजकल के ज़माने में

    नूरी ने फ़ौरन शेख़ की कमज़ोरी को महसूस किया और कहा, आपका क्या ख़्याल है अगर आजकल हम लोग संत रसूल अल्लाह की पैरवी करें? क्या ये मुस्तहसिन नहीं है?

    शेख़ ने फ़ौरन कहा, ख़ुदा हमको रसूल अललहऐ की पैरवी की तौफ़ीक़ दे।

    नूरी ने फ़ौरन जेब में से एक पर्चा निकाल कर शेख़ के हाथ में दे दिया, शेख़ की आँखों के सामने हसब-ए-ज़ैल इबारत थी:

    (1) जाबिर से रिवायत है कि रसूल ने फ़रमाया जब तुम में से कोई अपने निकाह का पैग़ाम किसी औरत की तरफ़ भेजना चाहे तो हो सके कि इस को देख ले, जिससे निकाह का इरादा हो तो फिर निकाह करे। (अबी दाऊद)

    (2) मुग़ीरह बिन शोबा से रिवायत है, पैग़ाम दिया मैंने निकाह का एक औरत के साथ ज़माने में रसूल अल्लाह के। आपने फ़रमाया कि तुमने देख भी लिया है इस को? मैंने कहा नहीं, फ़रमाया कि देख ले उस को, इस से उलफ़त ज़्यादा होगी तुम दोनों में (निसाई)

    (3) अब्बू हुरैरा से रिवायत है पैग़ाम भेजा एक आदमी ने लड़की वालों के यहां फ़रमाया उस को रसूल अललहऐ ने तो ने इस को देख भी लिया है या नहीं। उसने कहा नहीं, आपऐ ने फ़रमाया उस औरत को देख ले बीनी बग़ैर देखे निकाह करना अच्छा नहीं। (निसाई)

    शेख़ ने इन अहादीस को पढ़ा। वो इन अहादीस को पहले भी पढ़ चुके होंगे मगर उनके लिए गोया उस वक़्त ये बिलकुल नई थीं। वो ख़ामोश थे और कुछ बोलने में उनको ताम्मुल था कि नूरी ने उनसे कहा कि क्या आप मुझे उन अहादीस पर अमल ना करने देंगे? क्या वाक़ई हम इस ज़माने में रसूल अल्लाह की नसीहतों से बेनयाज़ हैं और वो हमारे लिए बेकार हैं?

    शेख़ ने कहा हरगिज़ नहीं हरगिज़ नहीं गुफ़्ता रसूल अल्लाह सर आँखों पर मगर में ये दरयाफ़त करना चाहता हूँ कि आख़िर तुम्हारा इस दरख़ास्त से मतलब किया है? अगर फ़र्ज़ करो तुम्हारी मंसूबा तुमको नापसंद हुई तो क्या तुम इस निसबत को तोड़ दोगे और निकाह ना करोगे?

    नूरी ने जवाब दिया। इस से शायद आप भी इत्तिफ़ाक़ करेंगे इस सूरत में मजबूरी होगी क्योंकि क़ुरआन-ए-करीम के हुक्म के ख़िलाफ़ होगा।?

    तो इस शर्त पर तो तुम्हारी शादी सिर्फ यूरोप ही में हो सकती है शेख़ ने कुछ यरशरो हो कर कहा मुझको हरगिज़ गवारा नहीं है कि मेरी लड़की से निसबत करने के लिए लोग गाहक बन कर आएं और नापसंद कर के चले जाएं। क्या तुमने मेरी इज़्ज़त-ओ-आबरू का अंदाज़ा ग़लत लगाया है? क्या तुम नहीं ख़्याल करते कि नायब उल-शेख़ की तौहीन होगी, माफ़ कीजिएगा में इस किस्म की गुफ़्तगु पसंद नहीं करता जिसमें मेरी इज़्ज़त-ओ-आबरू का सवाल हो।

    नूरी भी पुख़्ता इरादा कर के आया था और उसने भी तेज़ हो कर कहा बे-शक आप मिस्र में वो इज़्ज़त-ओ-मुक़ाम रखते हैं जो दूसरों को नहीं मगर मुझको इजाज़त दीजिए कि अर्ज़ करूँ कि फिर भी आपको वो इज़्ज़त हासिल नहीं है जो अमीर-ऊल-मोमनीन उम्र बिन ख़िताब रज़ को मदीने में हासिल थी और आज सारी दुनिया में हासिल है। क्या ये वाक़िया नहीं है कि हज़रत उम्र ने अपनी बेटी उम उल मोमनीन हफ़सा को हज़रत उसमान के सामने पेश किया और निकाह की ख़ाहिश ज़ाहिर की और जब हसब ख़वापश जवाब नहीं मिला तो फिर उनको हज़रत अबूबकर सम्यक के सामने पेश किया और वहां भी नाकामी हुई। क्या उनसे उनकी इज़्ज़त-ओ-आबरू में ख़ुदा-ना-ख़ासता बटा लग गया।?

    शेख़ का ग़ुस्सा ठंडा हो गया और वो लाजवाब हो कर बोले कि दोनों हज़रात तो उनके दोस्त थे।

    मगर में भी आपके अज़ीज़ तरीन दोस्त मरहूम की निशानी हूँ।

    शेख़ ने नज़रें नीची कर लें और कुछ ताम्मुल के बाद कहा मुझको कोई इनकार नहीं है। ये कहते हुए शेख़ घर में चले गए।

    (3)

    नूरी का दिल बहुत तेज़ी से धड़क रहा था, उसने काँपते हाथों से रेशमी स्याह पर्दा उठाया और अंदर दाख़िल हुआ हालाँकि दिन था मगर कमरे में अंधेरा होने की वजह से बिजली का लैम्प रोशन था, सामने कुर्सी पर स्याह गाऊँ पहने एक सोला या सतरह साल की निहायत हसीन-ओ-जमील लड़की बैठी थी।!

    नूरी को देखकर वो उठ खड़ी हुई नूरी ने सलाम क्या कुछ जवाब ना मिला। उसने दुबारा सलाम किया तो लड़की ने आहिस्ता से जवाब दिया, लड़की की नज़रें नीची थीं सिर्फ दाख़िल होते वक़्त उसने एक लम्हा के लिए नज़र उठा कर नूरी को ज़रूर देखा था। वो साकित खड़ा था और लड़की ने नूरी से बैठने तक को ना कहा। नूरी इजाज़त तलब करते हुए बैठ गया मगर लड़की ने कुछ जवाब ना दिया और खड़ी रही। नूरी फिर खड़ा हो गया तो कहा कि बैठ जाये। नूरी ने अपनी कुर्सी क़रीब कर ली और कहा कि मुझे फ़ख़र है कि में इस वक़्त अपनी मंसूबा नाज़ली ख़ानम के सामने बैठा हूँ और उनसे कुछ गुफ़्तगु करने का मुझको मौक़ा मिला है क्या मुझको इजाज़त है?

    नाज़ली ने दबी ज़बान से कहा, फ़रमाईए।

    आप मेरे नाम से तो वाक़िफ़ हैं क्या मैं दरयाफ़त कर सकता हूँ कि आपको मुजव्वज़ा ये रिश्ता पसंद है।?

    इस का नाज़ली ने कोई जवाब ना दिया उस के चेहरे पर एक ख़फ़ीफ़ सा रंग आया और चला गया वो ज़मीन की तरफ़ देख रही थी और अपने बाएं हाथ की उंगली से दाहिना हाथ कुरेद रही थी।

    अंदाज़ से नूरी ने मालूम कर के कहा मैं आपका शुक्रिया अदा करता हूँ, इसी सिलसिले में नूरी ने पूछा।

    क्या आप मेरी इस मुलाक़ात को नापसंद करती हैं।?

    जी नहीं।

    तो फिर आपने अपने वालिद साहिब से इस बारे में ग़ैर आमादगी का इज़हार क्यों किया था।?

    नाज़ली के लबों पर एक मुस्कुराहट आई लेकिन श्रम की वजह से शायद कुछ ना कह सकी।, नूरी ने फ़ौरन कहा आपको इस बात का जवाब ज़रूर देना पड़ेगा और मैं बे पूछे ना मानूँगा।

    नाज़ली ने कुछ ताम्मुल से कहा मैंने यूंही कह दिया था।

    नूरी ने बरजस्ता कहा तो इस से ये मतलब में निकाल सकता हूँ कि आप मुझसे मिलना चाहती हैं।

    नूरी ने ये कहते हुए नाज़ली का हाथ अपने हाथों में ले लिया और फिर कहा सच्च सच्च बताईए कि क्या आप मुझसे मिलना चाहती थीं; में आपके दिल की बात मालूम करना चाहता हूँ।

    नाज़ली की नज़रें नीची थीं, उस के सुर्ख़ ऊनी शाल पर बिजली की रोशनी चमक रही थी जिसका अक्स उस के चेहरे पर पड़ कर स्याह गाऊँ के साथ एक अजीब कैफ़ीयत पैदा कर रहा था। उसने ज़रा ताम्मुल से कहा मैं आपको देखना चाहती थी, मिलने का तो मुझको ख़्याल भी ना सकता था।

    क्या आप मुझको बता सकती हैं कि आप मुझको क्यों देखना चाहती थीं? ये सवाल करने से नूरी को ख़ुद हंसी गई।

    नाज़ली ने भी अब हिम्मत कर के कहा पहले आप ही बताईए कि आप आख़िर क्यों मुझसे मिलना चाहते थे, जिस लईए आप मुझसे मिलना चाहते थे इस लिए में भी चाहती थी कि आपको देख लूं।

    नूरी ने कहा। मैं तो आपको इस लिए देखना चाहता था कि जो कुछ भी मैंने अपनी बहन और माँ से आपके बारे में सुना है इस की तसदीक़ कर लूं मगर ये तो बताईए कि आप क्यों मुझको देखना चाहती थीं।?

    नाज़ली ने अब नज़रें ऊपर कर ली तजीं और अब रूबरू हो कर बातें सन रही थी उस को इन सवालात पर कुछ हंसी भी रही थी और उसने जवाब दिया कि मैं तो यूंही आपको देखना चाहती थी।

    मगर मैं आपसे बग़ैर उस की वजह पूछे ना मानूँगा

    नाज़ली ने कहा मुझको मालूम ही नहीं तो फिर भला आपको क्या बताऊं

    नूरी को इस जवाब से इतमीनान हो गया लेकिन अब उस के दूसरा सवाल पेश कर दिया।

    मैं जब पैरिस में बीमार पड़ गया था तो आपको याद होगा आपने दो मर्तबा अपने ख़ुतूत में मेरी बहन को लिखा था कि तुम्हारे भाई अब कैसे हैं? ये आख़िर क्यों लिखा था?

    नाज़ली को इस बात पर हंसी गई और वो कहने लगी माफ़ कीजिएगा आप कैसे सवालात कर रहे हैं क्या किसी की ख़ैरीयत दरयाफ़त करना गुनाह है।?

    नूरी ने कहा अच्छा आप सिर्फ ये बताईए कि क्या आप मेरी बीमारी का सुनकर कुछ मुतफ़क्किर हुई थीं और क्या आपको मेरा ख़्याल आया था।

    नाज़ली ने समझ लिया था कि ऐसे सवालों से नूरी का मतलब किया है और इस को भी इन सवालात में दिलचस्पी रही थी उसने बजाय जवाब देने के हंसते हुए कहा। अच्छा पहले आप बताईए कि अगर इसी ज़माना में मैं बीमार पड़ती और आपको उस का इलम होता तो आप मेरी ख़ैरीयत दरयाफ़त कराते या कुछ मुतफ़क्किर होते या आपको मेरा कुछ ख़्याल आता?

    नूरी कुछ लाजवाब हो कर! मेरा ख़्याल है कि ज़रूर मुझको बहुत ख़्याल आता और फ़िक्र भी होती और मैं ख़ैरीयत भी दरयाफ़त कराता।

    नाज़ली कामयाबी की ख़ुशी के लहजे में तेज़ी से बोली। आख़िर क्यों, आख़िर क्यों, ना मैंने कभी आपको देखा और ना आपने ही मुझको देखा था।

    नूरी इस मसला पर ग़ौर कर रहा था नाज़ली का हाथ बदस्तूर उस के हाथों में था उसने उस के हाथ को नरमी से दबाते हुए अजीब पैराया में कहा मेरी जो बातें ख़ुद समझ में नहीं आती थी उन्हें दरयाफ़त करना चाहता था लेकिन दरअसल में ये मालूम करना चाहता था कि आपकी तरफ़ से जो ख़्यालात मेरे दिल में थे, क्या वैसे ही मेरी तरफ़ से आपके दिल में भी हैं।

    फिर आपने क्या पाया?

    आपकी और अपनी हालत को यकसाँ पाया। ये एक बात है कि ये वाक़िया नहीं है कि हम दोनों में मुहब्बत की बुनियाद दरअसल उस वक़्त से उस्तिवार हो गई जब हम दोनों को इस का इलम हुआ कि ये रिश्ता क़ायम होगा।

    इस का जवाब नाज़ली ने कुछ ना दिया सिर्फ उस के नरम हाथ को जुंबिश सी हुई जो नूरी के हाथ में था और यही जवाब था जो उस के जज़बात की सही तर्जुमानी कर रहा था।

    नूरी ने मुतास्सिर हो कर कहा। एक सवाल और करूँगा और इस का जवाब ख़ुदा के वास्ते ज़रूर देना वो ये कि आपने जो अपने हाथ से एक जंगल के सेन की रंग-बिरंगी तस्वीर बना कर मेरी बहन को भेजी थी, वो क्यों भेजी थी?

    वो मैंने इस लिए भेजी थी कि उन्होंने मुझको तस्वीरों का एक एलबम भेजा था, तबादला तोहफ़ा जात तो एक पुरानी रस्म है।

    नूरी ने बे-ताब हो कर कहा ख़ुदा के वास्ते ज़रा अपने दिल को टटोलिए और अच्छी तरह टटोलिए हर मुआमला में मेरा और आपका हाल एक सा निकलता है बख़ुदा मुझको ऐसा मालूम हुआ कि तस्वीर आपने मेरी बहन के लिए नहीं बल्कि मेरे लिए भेजी थी ताकि मैं देखूं और ख़ुश हूँ, उस वक़्त जिस वक़्त तस्वीर आई तो मेरे दिल में यही ख़्याल था और अब भी यही ख़्याल है, सच-मुच काएगा कि आप जिस वक़्त तस्वीर भेज रही थीं क्या आपके दिल में कुछ मेरा ख़्याल आया था।

    नाज़ली कुछ हैरान सी रह गई क्योंकि उस वक़्त नूरी ने इस के दिल की गहराई का इस तरह पता लगा लिया कि इस को वहम-ओ-गुमान भी होना नामुमकिन था। वो कुछ जवाब ना दे सकी और हैरत में थी, साथ में हक़ीक़ी श्रम भी इस को बोलने ना देती थी।

    नूरी ने असल हक़ीक़त को समझ लिया और इसरार के साथ कहा इस बात का मैं आपसे ज़रूर जवाब लूँगा ये मेरा आख़िरी सवाल है और में इस वक़्त आपके सही जवाब का बेताबाना इंतिज़ार कर रहा हूँ बताईए तो सही कि वो तस्वीर आपने किस के लिए भेजी थी।

    आपके लिए ये कह कर नाज़ली ने आँखें नीची कर लें।

    नूरी की आँखें चमकने लगीं उस का दिल जवाब सुनकर धड़कने लगा उसने ज़ोर से नाज़ली का हाथ गोया लाइलमी में दबाया और ख़ुश हो कर उस के मुँह से निकला बख़ुदा?

    बख़ुदा नाज़ली की ज़बान से भी निकला।

    दोनों थोड़ी देर तक ख़ामोश रहे नाज़ली नीची नज़रें किए हुए बैठी, नूरी ने घड़ी देखी और चारों तरफ़ देखकर नाज़ली का हाथ आहिस्ता से छोड़ दिया, अपनी जेब से उसने हीरे की एक अँगूठी निकाली जिसकी दमक से बिजली की रोशनी में आँखें ख़ीरा होती थीं, नाज़ली ने आँख के गोशा से अँगूठी को देखा तो उसने मुस्कुरा कर कहा ये आपके लिए है हाथ पकड़ कर कहा। क्या आप इजाज़त देती हैं और ये कहते हुए नाज़ली की उंगली में अँगूठी पहना कर उस के हाथों को लबों से लगा कर आहिस्ता-आहिस्ता से छोड़ दिया।

    ख़ुदा-हाफ़िज़। ख़ुदा-हाफ़िज़। कह कर उठ खड़ा हुआ, एक तवील मुसाफ़ा किया और फिर ख़ुदा-हाफ़िज़ कह कर इजाज़त चाही। ख़ुदा-हाफ़िज़ नाज़ली ने आहिस्ता से कहा। चलते चलते दरवाज़े से मुड़ कर उसने नाज़ली की तरफ़ देखा जो ख़ुद उस को जाता हुआ देख रही थी।

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