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कुत्ते की दुआ

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक कुत्ते की अपने मालिक के प्रति वफ़ादारी की एक अनोखी दास्तान बयान करती है। उस व्यक्ति ने अपनी और अपने कुत्ते गोल्डी की कहानी सुनाते हुए बीती ज़िंदगी की कई घटनाओं का ज़िक्र किया। उन घटनाओं में उन दोनों के आपसी सम्बंधों और एक-दूसरे के प्रति लगाव के बारे में कई प्रेरक प्रसंग थे। मगर वास्तविक कहानी तो यह थी कि जब एक बार मालिक बीमार पड़ा तो कुत्ते ने उसके लिए ऐसी दुआ माँगी कि मालिक तो ठीक हो गया, पर कुत्ता अपनी जान से जाता रहा।

    “आप यक़ीन नहीं करेंगे, मगर ये वाक़िया जो मैं आपको सुनाने वाला हूँ, बिल्कुल सही है।” ये कह कर शेख़ साहब ने बीड़ी सुलगाई। दो-तीन ज़ोर के कश लेकर उसे फेंक दिया और अपनी दास्तान सुनाना शुरू की। शेख़ साहब के मिज़ाज से हम वाक़िफ़ थे, इसलिए हम ख़ामोशी से सुनते रहे। दरमियान में उनको कहीं भी टोका।

    आप ने वाक़िया यूं बयान करना शुरू किया, “गोल्डी मेरे पास पंद्रह बरस से था। जैसा कि नाम से ज़ाहिर है... इसका रंग सुनहरी माइल भोसला था। बहुत ही हसीन कुत्ता था। जब मैं सुबह उसके साथ बाग़ की सैर को निकलता तो लोग उसको देखने के लिए खड़े हो जाते थे। लॉरेंस गार्डन के बाहर मैं उसे खड़ा कर देता, “गोल्डी खड़े रहना यहां, मैं अभी आता हूँ।” ये कह कर मैं बाग़ के अंदर चला जाता। घूम फिर कर आधे घंटे के बाद वापस आता तो गोल्डी वहीं अपने लंबे लंबे कान लटकाए खड़ा होता।

    स्पेनल ज़ात के कुत्ते आम तौर पर बड़े इताअ’त गुज़ार और फ़रमांबर्दार होते हैं। मगर मेरे गोल्डी में ये सिफ़ात बहुत नुमायां थीं। जब तक उसको अपने हाथ से खाना दूं नहीं खाता था। दोस्त-यारों ने मेरा मान तोड़ने के लिए लाखों जतन किए मगर गोल्डी ने उनके हाथ से एक दाना तक खाया।

    एक रोज़ इत्तफ़ाक़ की बात है कि मैं लॉरेंस के बाहर उसे छोड़कर अंदर गया तो एक दोस्त मिल गया। घूमते घूमते काफ़ी देर हो गई। इसके बाद वो मुझे अपनी कोठी ले गया। मुझे शतरंज खेलने का मर्ज़ था। बाज़ी शुरू हुई तो मैं दुनिया माफ़ीहा भूल गया। कई घंटे बीत गए। दफ़अ’तन मुझे गोल्डी का ख़याल आया। बाज़ी छोड़कर लॉरेंस के गेट की तरफ़ भागा। गोल्डी वहीं अपने लंबे लंबे कान लटकाए खड़ा था। मुझे उसने अ’जीब नज़रों से देखा जैसे कह रहा है, “दोस्त, तुमने आज अच्छा सुलूक क्या मुझ से।”

    मैं बेहद नादिम हुआ चुनांचे आप यक़ीन जानें मैंने शतरंज खेलना छोड़ दी। माफ़ कीजिएगा, मैं असल वाक़ये की तरफ़ अभी तक नहीं आया। दरअसल गोल्डी की बात शुरू हुई तो मैं चाहता हूँ कि उसके मुतअ’ल्लिक़ मुझे जितनी बातें याद हैं आपको सुना दूं... मुझे उससे बेहद मोहब्बत थी। मेरे मुजर्रद रहने का एक बाइ’स उसकी मोहब्बत भी थी, जब मैंने शादी करने का तहय्या किया तो उसको ख़स्सी करा दिया... आप शायद कहें कि मैंने ज़ुल्म किया, लेकिन मैं समझता हूँ, मोहब्बत में हर चीज़ रवा है। मैं उसकी ज़ात के सिवा और किसी को वाबस्ता देखना नहीं चाहता था।

    कई बार मैंने सोचा अगर मैं मर गया तो ये किसी और के पास चला जाएगा। कुछ देर मेरी मौत का असर इस पर रहेगा। इसके बाद मुझे भूल कर अपने नए आक़ा से मोहब्बत करना शुरू कर देगा। जब मैं ये सोचता तो मुझे बहुत दुख होता, लेकिन मैंने ये तहय्या कर लिया था कि अगर मुझे अपनी मौत की आमद का पूरा यक़ीन हो गया तो मैं गोल्डी को हलाक कर दूँगा। आँखें बंद करके उसे गोली का निशाना बना दूंगा।

    गोल्डी कभी एक लम्हे के लिए मुझसे जुदा नहीं हुआ था। रात को हमेशा मेरे साथ सोता। मेरी तन्हा ज़िंदगी में वो एक रोशनी थी। मेरी बेहद फीकी ज़िंदगी में उसका वजूद एक शीरीनी था। उससे मेरी ग़ैरमामूली मोहब्बत देख कर कई दोस्त मज़ाक़ उड़ाते थे, “शेख़ साहब, गोल्डी कुतिया होती तो आप ने ज़रूर उससे शादी कर ली होती।”

    ऐसे ही कई और फ़िक़रे कसे जाते लेकिन मैं मुस्कुरा देता। गोल्डी बड़ा ज़हीन था उसके मुतअ’ल्लिक़ जब कोई बात हुई तो फ़ौरन उसके कान खड़े हो जाते थे। मेरे हल्के से हल्के इशारे को भी वो समझ लेता था। मेरे मूड के सारे उतार चढ़ाव उसे मालूम होते हैं। अगर किसी वजह से रंजीदा होता तो वो मेरे साथ चुहलें शुरू कर देता, मुझे ख़ुश करने के लिए हर मुम्किन कोशिश करता।

    अभी उसने टांग उठा कर पेशाब करना नहीं सीखा था, या’नी अभी कमसिन था कि उसने एक बर्तन को जो कि ख़ाली था, थूथनी बढ़ा कर सूँघा। मैंने उसे झिड़का तो दुम दबा कर वहीं बैठ गया। पहले उसके चेहरे पर हैरत सी पैदा हुई थी कि हैं ये मुझसे क्या हो गया। देर तक गर्दन न्यौढ़ाये बैठा रहा। जैसे नदामत के समुंदर में ग़र्क़ है। मैं उठा, उठ कर उसको गोद में लिया। प्यारा-पुचकारा। बड़ी देर के बाद जा कर उसकी दुम हिली... मुझे बहुत तरस आया कि मैंने ख़्वाह मख़्वाह उसे डाँटा क्योंकि उस रोज़ रात को ग़रीब ने खाने को मुँह लगाया। वो बड़ा हस्सास कुत्ता था।

    मैं बहुत बेपर्वा आदमी हूँ। मेरी ग़फ़लत से उसको एक बार निमोनिया हो गया। मेरे औसान ख़ता हो गए। डाक्टरों के पास दौड़ा, ईलाज शुरू हुआ। मगर असर नदारद। मुतवातिर सात रातें जागता रहा। उसको बहुत तकलीफ़ थी। सांस बड़ी मुश्किल से आता था। जब सीने में दर्द उठता तो वो मेरी तरफ़ देखता, जैसे ये कह रहा है, “फ़िक्र की कोई बात नहीं, मैं ठीक हो जाऊंगा।”

    कई बार मैंने महसूस किया कि सिर्फ़ मेरे आराम की ख़ातिर उसने ये ज़ाहिर करने की कोशिश की है कि उसकी तकलीफ़ कुछ कम है, वो आँखें मीच लेता, ताकि मैं थोड़ी देर आँख लगा लूं। आठवीं रोज़ ख़ुदा ख़ुदा करके उसका बुख़ार हल्का हुआ और आहिस्ता आहिस्ता उतर गया। मैंने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा तो मुझे एक थकी थकी सी मुस्कुराहट उसकी आँखों में तैरती नज़र आई।

    निमोनिए के ज़ालिम हमले के बाद देर तक उसको नक़ाहत रही लेकिन ताक़तवर दवाओं ने उसे ठीक ठाक कर दिया। एक लंबी ग़ैर हाज़िरी के बाद लोगों ने मुझे उसके साथ देखा तो तरह तरह के सवाल करने शुरू किए, “आशिक़-ओ-माशूक़ कहाँ ग़ायब थे इतने दिनों?”

    “आपस में कहीं लड़ाई तो नहीं हो गई थी?”

    “किसी और से तो नज़र नहीं लड़ गई थी गोल्डी की?”

    मैं ख़ामोश रहा। गोल्डी ये बातें सुनता तो एक नज़र मेरी तरफ़ देख कर ख़ामोश हो जाता कि भौंकने दो कुत्तों को।

    वो मिस्ल मशहूर है। कुंद हमजिंस बाहम जिंस परवाज़। कबूतर बा कबूतरबाज़ बा बाज़। लेकिन गोल्डी को अपने हम जिंसों से कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसकी दुनिया सिर्फ़ मेरी ज़ात थी। इससे बाहर वो कभी निकलता ही नहीं था।

    गोल्डी मेरे पास नहीं था। जब एक दोस्त ने मुझे अख़बार पढ़ कर सुनाया। इसमें एक वाक़िया लिखा था। आप सुनिए बड़ा दिलचस्प है। अमरीका या इंग्लिस्तान मुझे याद नहीं कहाँ। एक शख़्स के पास कुत्ता था। मालूम नहीं किस ज़ात का। उस शख़्स का ऑप्रेशन होना था। उसको हस्पताल ले गए तो कुत्ता भी साथ हो लिया। स्ट्रेचर पर डाल कर उसको ऑप्रेशन रुम में ले जाने लगे तो कुत्ते ने अंदर जाना चाहा। मालिक ने उसको रोका और कहा, “बाहर खड़े रहो। मैं अभी आता हूँ...” कुत्ता हुक्म सुन कर बाहर खड़ा हो गया। अंदर मालिक का ऑप्रेशन हुआ जो नाकाम साबित हुआ... उसकी लाश दूसरे दरवाज़े से बाहर निकाल दी गई... कुत्ता बारह बरस तक वहीं खड़ा अपने मालिक का इंतिज़ार करता रहा। पेशाब-पाख़ाने के लिए कुछ वहां से हटता, फिर वहीं खड़ा हो जाता... आख़िर एक रोज़ मोटर की लपेट में आगया और बुरी तरह ज़ख़मी होगा। मगर इस हालत में भी वो ख़ुद को घसीटता हुआ वहां पहुंचा, जहां उसके मालिक ने उसे इंतिज़ार करने के लिए कहा था। आख़िरी सांस उसने उसी जगह लिया... ये भी लिखा था कि हस्पताल वालों ने उसकी लाश में भुस भर के उसको वहीं रख दिया है जैसे वो अब भी अपने आक़ा के इंतिज़ार में खड़ा है।

    मैंने ये दास्तान सुनी तो मुझ पर कोई ख़ास असर हुआ। अव्वल तो मुझे उसकी सेहत ही का यक़ीन आया, लेकिन जब गोल्डी मेरे पास आया और मुझे उसकी सिफ़ात का इल्म हुआ तो बहुत बरसों के बाद मैंने ये दास्तान कई दोस्तों को सुनाई। सुनाते वक़्त मुझपर एक रिक़्क़त तारी हो जाती थी और मैं सोचने लगता था, “मेरे गोल्डी से भी कोई ऐसा कारनामा वाबस्ता होना चाहिए... गोल्डी मामूली हस्ती नहीं है।”

    गोल्डी बहुत मतीन और संजीदा था। बचपन में उसने थोड़ी शरारतें कीं मगर जब उसने देखा कि मुझे पसंद नहीं तो उनको तर्क कर दिया। आहिस्ता आहिस्ता संजीदगी इख़्तियार कर ली जो तादम-ए-मर्ग क़ायम रही।

    मैंने तादम-ए-मर्ग कहा है तो मेरी आँखों में आँसू आगए हैं।

    शेख़ साहब रुक गए उनकी आँखें नमआलूद हो गई थीं। हम ख़ामोश रहे थोड़े अ’र्से के बाद उन्होंने रूमाल निकाल कर अपने आँसू पोंछे और कहना शुरू किया,

    “यही मेरी ज़्यादती है कि मैं ज़िंदा हूँ... लेकिन शायद इसलिए ज़िंदा हूँ कि इंसान हूँ... मर जाता तो शायद गोल्डी की तौहीन होती... जब वो मरा तो रो रो कर मेरा बुरा हाल था... लेकिन वो मरा नहीं था। मैंने उसको मरवा दिया था। इसलिए नहीं कि मुझे अपनी मौत की आमद का यक़ीन हो गया था.. वो पागल हो गया था। ऐसा पागल नहीं जैसा कि आम पागल कुत्ते होते हैं। उसके मर्ज़ का कुछ पता ही नहीं चलता था। उसको सख़्त तकलीफ़ थी। जांकनी का सा आलम उस पर तारी था। डाक्टरों ने कहा इसका वाहिद ईलाज यही है कि उसको मरवा दो। मैंने पहले सोचा, नहीं। लेकिन वो जिस अज़ीयत में गिरफ़्तार था, मुझसे देखी नहीं जाती थी। मैं मान गया, वो उसे एक कमरे में ले गए जहां बर्क़ी झटका पहुंचा कर हलाक करनेवाली मशीन थी। मैं अभी अपने नहीफ़ दिमाग़ में अच्छी तरह कुछ सोच भी सका था कि वो उसकी लाश ले आए... मेरी गोल्डी की लाश। जब मैंने उसे अपने बाज़ूओं में उठाया तो मेरे आँसू टप टप उसके सुनहरे बालों पर गिरने लगे जो पहले कभी गर्द आलूद नहीं हुए थे। टांगे में उसे घर लाया, देर तक उसको देखा किया। पंद्रह साल की रिफ़ाक़त की लाश मेरे बिस्तर पर पड़ी थी। क़ुर्बानी का मुजस्समा टूट गया था। मैंने उसको नहलाया, कफ़न पहनाया। बहुत देर तक सोचता रहा कि अब क्या करूं, ज़मीन में दफ़न करूं या जलादूं।

    ज़मीन में दफ़न करता तो उसकी मौत का एक निशान रह जाता। ये मुझे पसंद नहीं था। मालूम नहीं क्यों, ये भी मालूम नहीं कि मैंने क्यों उसको ग़र्क़-ए-दरिया करना चाहा। मैंने उसके मुतअ’ल्लिक़ अब भी कई बार सोचा है। मगर मुझे कोई जवाब नहीं मिला... ख़ैर मैंने एक नई बोरी में उसकी कफ़नाई हुई लाश डाली... धो धा कर बट्टे उसमें डाले और दरिया की तरफ़ रवाना हो गया।

    जब बैट्री दरिया के दरमियान में पहुंची और मैंने बोरी की तरफ़ देखा तो गोल्डी से पंद्रह बरस की रिफ़ाक़त-ओ-मोहब्बत एक बहुत ही तेज़ तल्ख़ी बन कर मेरे हलक़ में अटक गई। मैंने अब ज़्यादा देर करना मुनासिब समझा। काँपते हुए हाथों से बोरी उठाई और दरिया में फेंक दी। बहते हुए पानी की चादर पर कुछ बुलबुले उठे और हवा में हल हो गए।

    बैट्री वापस साहिल पर आई। मैं उतर कर देर तक उसे देखता रहा। जहां मैंने गोल्डी को ग़र्क़-ए-आब किया था। शाम का धुंदलका छाया हुआ था। पानी बड़ी ख़ामोशी से बह रहा था जैसे वो गोल्डी को अपनी गोद में सुला रहा है।”

    ये कह कर शेख़ साहब ख़ामोश हो गए। चंद लम्हात के बाद हममें से एक ने उनसे पूछा, “लेकिन शेख़ साहब, आप तो ख़ास वाक़िया सुनाने वाले थे।”

    शेख़ साहिब चोंके... “ओह, माफ़ कीजिएगा। मैं अपनी रौ में जाने कहाँ से कहाँ पहुंच गया। वाक़िया ये था कि, मैं अभी अर्ज़ करता हूँ, पंद्रह बरस हो गए थे, हमारी रिफ़ाक़त को। इस दौरान मैं कभी बीमार नहीं हुआ था। मेरी सेहत माशा अल्लाह बहुत अच्छी थी, लेकिन जिस दिन मैंने गोल्डी की पंद्रहवीं सालगिरह मनाई, उसके दूसरे दिन मैंने आ’ज़ाशिकनी महसूस की। शाम को ये आ’ज़ाशिकनी तेज़ बुख़ार में तबदील हो गई। रात सख़्त बेचैन रहा, गोल्डी जागता रहा। एक आँख बंद करके दूसरी आँख से मुझे देखता रहा। पलंग पर से उतर कर नीचे जाता, फिर आकर बैठ जाता।

    ज़्यादा उम्र हो जाने के बाइस उसकी बीनाई और समाअ’त कमज़ोर हो गई थी लेकिन ज़रा सी आहट होती तो वो चौंक पड़ता और अपनी धुँदली आँखों से मेरी तरफ़ देखता और जैसे ये पूछता, “ये क्या हो गया है तुम्हें?”

    उसको हैरत थी कि मैं इतनी देर तक पलंग पर क्यों पड़ा हूँ, लेकिन वो जल्दी ही सारी बात समझ गया। जब मुझे बिस्तर पर लेटे कई दिन गुज़र गए तो उसके सालखुरदा चेहरे पर अफ़सुदर्गी छा गई। मैं उसको अपने हाथ से खिलाया करता था। बीमारी के आग़ाज़ में तो मैं उसको खाना देता रहा। जब नक़ाहत बढ़ गई तो मैंने एक दोस्त से कहा कि वो सुबह शाम गोल्डी को खाना खिलाने जाया करे। वो आता रहा, मगर गोल्डी ने उसकी प्लेट की तरफ़ मुँह किया। मैंने बहुत कहा, लेकिन वो माना। एक मुझे अपने मर्ज़ की तकलीफ़ थी जो दूर होने ही में नहीं आता था। दूसरे मुझे गोल्डी की फ़िक्र थी जिसने खाना-पीना बिल्कुल बंद कर दिया था।

    अब उसने पलंग पर बैठना भी छोड़ दिया। सामने दीवार के पास सारा दिन और सारी रात ख़ामोश बैठा अपनी धुँदली आँखों से मुझे देखता रहता। इससे मुझे और भी दुख हुआ। वो कभी नंगी ज़मीन पर नहीं बैठा था। मैंने उससे बहुत कहा, लेकिन वो माना।

    वो बहुत ज़्यादा ख़ामोश हो गया था। ऐसा मालूम होता था कि वो ग़म-ओ-अंदोह में ग़र्क़ है। कभी कभी उठ कर पलंग के पास आता। अ’जीब हसरत भरी नज़रों से मेरी तरफ़ देखता और गर्दन झुका कर वापस दीवार के पास चला जाता।

    एक रात लैम्प की रोशनी में मैंने देखा कि गोल्डी की धुँदली आँखों में आँसू चमक रहे हैं। उसके चेहरे से हुज़्न-ओ-मलाल बरस रहा था। मुझे बहुत दुख पहुंचा। मैंने उसे हाथ के इशारे से बुलाया। लंबे लंबे सुनहरे कान हिलाता वो मेरे पास आया। मैंने बड़े प्यार से कहा, “गोल्डी, मैं अच्छा हो जाऊंगा। तुम दुआ मांगो, तुम्हारी दुआ ज़रूर क़बूल होगी।”

    ये सुन कर उसने बड़ी उदास आँखों से मुझे देखा, फिर सर ऊपर उठा कर छत की तरफ़ देखने लगा। जैसे दुआ मांग रहा है। कुछ देर वो इस तरह खड़ा रहा। मेरे जिस्म पर झुरझुरी सी तारी हो गई। एक अ’जीब-ओ-ग़रीब तस्वीर मेरी आँखों के सामने थी। गोल्डी सचमुच दुआ मांग रहा था। मैं सच अर्ज़ करता हूँ वो सर-ता-पा दुआ था। मैं कहना नहीं चाहता लेकिन उस वक़्त मैंने महसूस किया कि उसकी रूह ख़ुदा के हुज़ूर पहुंच कर गिड़गिड़ा रही है।

    मैं चंद ही दिनों में अच्छा हो गया लेकिन गोल्डी की हालत ग़ैर हो गई। जब तक मैं बिस्तर पर था वो आँखें बंद किए दीवार के साथ ख़ामोश बैठा रहा। मैं हिलने-जुलने के क़ाबिल हुआ तो मैंने उसको खिलाने-पिलाने की कोशिश की मगर बेसूद। उसको अब किसी शय से दिलचस्पी नहीं थी। दुआ मांगने के बाद जैसे उसकी सारी ताक़त ज़ाइल हो गई थी।

    मैं उससे कहता, “मेरी तरफ़ देखो गोल्डी... मैं अच्छा हो गया हूँ... ख़ुदा ने तुम्हारी दुआ क़बूल करली है,” लेकिन वो आँखें खोलता। मैंने दो-तीन दफ़ा डाक्टर बुलाया। उसने इंजेक्शन लगाए पर कुछ हुआ। एक दिन मैं डाक्टर लेकर आया तो उसका दिमाग़ चल चुका था।

    मैं उठा कर उसे बड़े डाक्टर के पास ले गया और उसको बर्क़ी ज़र्ब से हलाक करा दिया।

    मुझे मालूम नहीं, बाबर और हुमायूँ वाला क़िस्सा कहाँ तक सही है, लेकिन ये वाक़िया हर्फ़-ब-हर्फ़ दुरुस्त है।

    स्रोत:

    بادشاہت کاخاتمہ

      • प्रकाशन वर्ष: 1951

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