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मुर्दा घर

MORE BYदेवेन्द्र इस्सर

    स्टोरीलाइन

    धर्म के नाम पर होने वाले क़त्ल-ओ-ग़ारत को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी एक लाश के माध्यम से मानव स्वभाव को बयान करती है। मुर्दा-घर में अभी-अभी कुछ लाशें आई हैं। उन्हीं लाशों में वह लाश भी है। वह लाश मुर्दा-घर के परिदृश्य को देखती है और आपबीती सुनाने लगती है। इस आपबीती में वह उन घटनाओं का ज़िक्र भी करती है, जिनमें दुनिया के हज़ारों-लाखों लोग क़त्ल हुए और उनकी लाशों को सड़ने के लिए लावारिस छोड़ दिया गया।

    मुर्दा घर में मेरी लाश पड़ी है।

    मालगाड़ी से उतारी गई बंद बोरियों सी फूली, लेबल लगी तीन चार लाशें और भी मुर्दा घर में पड़ी हैं।

    जब मेरी लाश मुर्दा घर में लाई गई तो सूरज धीरे धीरे दूर मटियाली पहाड़ीयों की ओट में फिसल रहा था और पहाड़ी पर टिके बादलों में आग के गोले की लाल किरनें शोला सी भड़क रही थीं। उफ़ुक़ से लूटी हुई लाली बंद खिड़की के शीशों में जलते लोहे सी पिघलने लगी। धुंद और मिट्टी के ग़ुबार में अंधेरे के ज़र्रे तैर रहे थे और मैं पहचान सका कि मुझे मुर्दा घर में कौन लाया है। साए धीरे धीरे रोशनी को निगलने लगे और फिर रोशनी और साए का फ़र्क़ मिट गया। कमरे में अंधेरा काले नाग की तरह रेंग रहा था। सुर्ख़ी स्याह हो चुकी थी। आग का गोला अंधेरे के ग़ार में डूब चुका था। अंधेरा सरकते सरकते बहुत क़रीब आकर मेरे सिरहाने खड़ा हो गया। लाशों के सफ़ेद कफ़न भी स्याह पड़ गए। मुर्दा घर, बरगद का बूढ़ा पेड़, बिजली का खंबा, हस्पताल की वसीअ’ इ’मारत, सामने नर्सों के क्वार्टर, सड़क, घास, फूल, काँटेदार तारें, साईकल स्टैंड, मरीज़ों के कमरे, हदबंदी की दीवार... सब पर मौत की काली छाया फिर गई। मरीज़ वार्डों में दाख़िल हो चुके थे। उनके मिलने वाले घर लौट गए। एम्बुलेंस वैन और मुर्दा घर की गाड़ी यतीमों सी खड़ी थीं। कभी कभी कोई कराह लेता था। लोटता हुआ परिंदा पर फड़फड़ा लेता था। हॉर्न बजाना मना था लेकिन दूर से इस सन्नाटे में सुनाई दे जाता था।

    क़रीब किसी के क़दमों की आवाज़ सुनाई पड़ी। शायद कोई लाश और लाई जा रही थी। लेकिन आवाज़ आगे बढ़ गई और कुत्ता आवाज़ के पीछे देर तक भौंकता रहा। दरख़्तों के पत्ते गिर रहे थे। सूखे, खड़ खड़ाते पत्ते और तेज़ हवा टहनियों में गोली की आवाज़ की तरह गूंज रही थी।

    और फिर आवाज़ें धीरे धीरे सन्नाटे में खो गईं। ऐसे में कोई पत्ता भी गिरता तो मैं सहम जाता।

    मुर्दा घर के दरवाज़े की दराज़ से रोशनी की एक लकीर जाने कहाँ से जाती और जब वो भी ग़ायब हो जाती तो अंधेरा और भी गहरा हो जाता। मैं मर चुका हूँ। फिर भी जाने कब से एक बेनाम सा ख़ौफ़ मेरी रूह में गड़ा जा रहा है। बरगद के पेड़ पर उल्टी लटकी चमगादड़ों को देखकर एक-बार लाशें भी काँप जाती हैं। कोई चमगादड़ जब मुर्दा घर की एक दीवार से दूसरी दीवार की तरफ़ उड़ती, टकराती है तो कमरे में अंधेरे की भटकन और भी तेज़ और गहरी हो जाती है।

    मेरी मौत कैसे हो गई? अभी कुछ लम्हे पहले मैं ज़िंदा था। मेरा ख़्याल है कि मैं अब भी ज़िंदा हूँ क्यों कि मेरी लाश अब भी सर्दी में ठिठुर रही है और मुझे अब भी कुछ-कुछ याद आता है, कुछ-कुछ, मद्धम मद्धम सा, मौहूम सा कुछ।

    मुझे कोई रोग नहीं हुआ, पेट पीठ पर किसी ने छुरा नहीं घोंपा, दिल दिमाग़ में कोई गोली नहीं लगी; हरकते क़ल्ब बंद हुई दिमाग़ की कोई नाली फटी, जिस्म जला ना दिल से दर्द उठा, तो फिर मैं अचानक मर कैसे गया?

    साथ वाली लाश ने शायद करवट बदली। अब उसके मरने का एक सबब है, एक सिलसिला है। शायद इन्सान की मशीयत का राज़ इसी में मुज़मर है। पहले हल्के हल्के खांसी हुई, फिर मुतवातिर खांसी आने लगी, बुख़ार भी होने लगा। जिस्म दुबला नहीफ़, चेहरा-पीला ज़र्द और दिल उदास हो गया। फिर खांसी के साथ ख़ून भी आने लगाऔर जब ख़ून आने लगा तो वो घबरा गया कि अब वो किसी दिन किसी भी लम्हे मर सकता है। उसे अंदर ही अंदर कोई खा रहा है, कोई घुन लग गया है। वैसे उसे कोई भी रोग हो सकता था। रोग के इंतिख़ाब में वो आज़ाद नहीं था। साथ वाले बिस्तर पर पड़े पड़े उसने एक दिन बताया था कि वो बरसों से इस रोग को पाल रहा है, बड़े प्यार से, बड़ी रिफ़ाक़त से, ऐसे ही जैसे वो किसी नज़्म की तख़लीक़ कर रहा है, बे-इख़्तियार, नामा’लूम, बे-इरादा और तब उसे मा’लूम हुआ कि वो शे’र के साथ साथ दिक़ के जरासीम भी पाल रहा है, जब लिखते लिखते उसे ज़ोरों की खांसी हुई, फेफड़ों में दर्द हुआ और ख़ून का एक काला धब्बा कोरे-काग़ज़ पर जा पड़ा। एक शे’र की तख़लीक़।

    अंधेरे के ख़ला में भटकती हुई, आसेब-ज़दा नजिस साए सी ज़िंदगी।

    “शे’र और दिक़ के जरासीम शायद एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक साथ ही पलते हैं।” उसने कहा था।

    मैंने उसकी तरफ़ देखा। कितना रोमांटिक तसव्वुर था उसका! जैसे तप-ए-दिक़ ही शे’र का सर चशमा है।

    साथ वाले वार्ड में कोई यक-बारगी कराह के टूट गया।

    उसने मुझे देवमाला का एक क़िस्सा सुनाया,

    “फ़ेलो इस्टेट्स बड़ा ताक़तवर था लेकिन इसके पांव में एक ऐसा ज़ख़्म था जिससे बड़ी नफ़रत अंगेज़ बदबू आती थी। उसके साथी उसके रिस्ते हुए ज़ख़्म और बदबू को बर्दाश्त कर सकते थे। उसके पास एक कमान थी जो दुश्मनों को फ़ना कर सकती थी और जिसका निशाना अचूक था। मगर उस के ज़ख़्म का कोई मुदावा नहीं था। बदबूदार रिसते हुए ज़ख़्म के बाइ’स उसके साथी उसे अकेला छोड़कर चले गए, लेकिन अपने दुश्मनों पर फ़तह पाने के लिए उन्हें उसकी ज़रूरत पड़ी क्योंकि सिर्फ उसके पास ही नाक़ाबिल-ए-तस्ख़ीर हर्बा था।” “लेकिन अगर किसी का ज़ख़्म ज़्यादा गंदा है तो क्या वो इसी बाइ’स बड़ा फ़नकार है या जिसकी सलाहियत ज़्यादा है उसका ज़ख़्म भी बड़ा है?” मैंने पूछा।

    वो थोड़ी देर ख़ामोश रहा और फिर बोला,

    “तुम ठीक कहते हो। सवाल ज़ख़्म का नहीं बल्कि ये है कि कौन ज़ख़्म-ख़ुर्दा है। एक आम कुंद ज़ेह्न या एक महा कवी...”

    उसने करवट बदली। वो ज़ोर ज़ोर से खाँसने लगा और ख़ून की एक धारा उसके फेफड़ों से फूट पड़ी। उसने नीम बंद आँखों से कमरे में पड़े सब मरीज़ों को देखा और फिर सो गया। नर्स देर से आई थी और वो जा चुका था।

    आज उसने अपनी प्रेम-कहानी सुनाई थी।

    चांदनी में लिपटे हुए चीड़ के दरख़्तों से हवा गुज़रते हुए रो रही थी।

    बे-हिसी मुझ पर तारी होने लगी। बस इतना याद है कि सफ़ेद कपड़ों वाली कोई औरत ट्राली में दरवाज़े के सामने से गुज़र गई।

    वो ना तो शाइ’र है और ही इख़्तिलाज क़ल्ब की मरीज़। फिर उसने ख़ुदकुशी क्यों की? (लोग कहते हैं कि उसपर किसी भूत का साया है।) जब भी वो कमरा और खिड़कियाँ बंद करती है और पर्दे गिराती है तो उसे कोई ख़ौफ़ जकड़ लेता है। चारों तरफ़ ख़ामोशी होती है। मुकम्मल सन्नाटा, लेकिन वो इस दीवार से इस दीवार की तरफ़ भागती है।

    “तुम कहाँ हो? सामने क्यों नहीं आते? लो मैं दरवाज़े खोल देती हूँ, खिड़कियाँ खोल देती हूँ, पर्दे हटा देती हूँ। ईश्वर के लिए बाहर निकल जाओ... वो चिल्लाती और फिर दरवाज़े और खिड़कियाँ खोल देती है, पर्दे हटा देती और एक लंबी सांस लेती और सोफ़े पर मफ्लूज सी गिर पड़ती। उफ़ और फिर जब वो दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद करती और पर्दे गिरा देती, कमरे में मुकम्मल अंधेरा और ख़ामोशी हो जाते तो यही ड्रामा शुरू हो जाता। वो चिल्लाती, “में पागल हो जाऊँगी।”

    क्या वो पागल नहीं थी? जिसे बंद, अंधेरे कमरे में किसी भटकते हुए, आश्यां से बिछड़े परिंदे के पर फड़फड़ाने की आवाज़ें आती हैं। जहां-जहां वो जाती है ये परिंदा उसके साथ साथ जाता है। वो उससे भागती है, इस दीवार से उस दीवार तक एक रेस्तोरां से दूसरी तफ़रीहगाह तक, पहाड़ी मुक़ामों पर, समुंदर के किनारे, सुनसान वीरान जगहों और भरे पुरे बाज़ारों में, लोगों के हुजूम में, अकेले... ये परिंदा उसके शाने पर बैठा रहता है। उड़ता है मरता है।

    जब कैजुअलिटी रुम में उसे ले जा रहे थे तो मैंने उसे देखा था, ताज़ा खिले पीले फूल की तरह ख़ूबसूरत, खोई खोई सी, आँखें हैरत भरी, बिखरे हुए बाल, जुनूँ-ख़ेज़, ख़ामोश, संजीदा... और जब उसने ढेर सारी नींद की गोलीयां खा लें तो इस की रूह को कुछ सुकून मिला। मह्व-ए-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जाएगी। शायद उसकी नींद ग़ायब हो चुकी थी। एक अटूट नींद, आलमे जज़्ब के लिए, जिसमें महज़ ख़्वाब है, हक़ीक़त नहीं। शायद ये मौत उन्हीं ख़्वाबों के बाइ’स थी। मुर्दा घर में उसकी रूह प्रेत सी घूम रही थी, एक भटके हुए आश्यां से बिछड़े परिंदे की तरह....... एक दीवार से दूसरी दीवार तक।

    “आज शाम को मिलना, सात बजे, ठीक सात बजे, पार्क में।”

    “ओ.के.” नर्स ने डाक्टर को जवाब दिया और मुस्कुरा दी और फिर मरीज़ को इंजेक्शन लगाने में लग गई।

    “मुझे समझ नहीं आता कि लोग एक छलावे से इतना क्यों डरते हैं? अपनी ज़िंदगी एक वाहमे के लिए किस तरह बर्बाद कर देते हैं”! नर्स कह रही थी।

    “पुअर सोल,किसी से इश्क़-विश्क़ हो गया होगा।” वो बोली।

    मैंने करवट बदली। क्या इश्क़ के बग़ैर इन्सान की नजात नहीं?

    “सवाल इश्क़ या ख़ुदकुशी का नहीं, सवाल उस वाहमे का है जिसके लिए लोग ज़िंदगी लुटा देते हैं।” शाइ’र ने कहा था।

    “क्या हक़ीक़त है और क्या वाहिमा? क्या सदाक़त है और क्या शाइ’री? इन सवालों का जवाब मैं कैसे दे सकता हूँ शाइ’र। मैंने कभी शे’र की तख़्लीक़ की है ही किसी से प्यार। मैं तो एक आ’म आदमी हूँ।”

    जाने उस नीम शऊ’री हालत में मुझे बचपन की बातें क्यों याद रही थीं!

    मैं छत पर पतंग उड़ा रहा था। पतंग ऊपर ही ऊपर उड़ता जा रहा था, आकाश के वसीअ’ खुलेपन में, जैसे वो किसी डोर से नहीं बंधा महज़ हवा के दोश पर ऊपर ही ऊपर उड़ रहा है। एक दूसरा पतंग उस की तरफ़ बढ़ने लगा। धीरे धीरे से वो एक दूसरे के क़रीब आते गए। क़रीब आते आते एक दूसरे से उलझ गए। डोर ख़त्म हो रही थी। डर था कि मेरा पतंग कट जाये। मैंने एक झटका दिया, दूसरे का पतंग कट गया। मैं ख़ुशी से उछल पड़ा। कटा पतंग बहुत देर तक हवा में तैरता रहा और हम बहुत दूर तक उसके पीछे भागते रहे। पतंग बैरी के एक दरख़्त पर कांटों में उलझ गया। झट में दरख़्त पर चढ़ गया। कांटों में उलझते मैंने पतंग झपट लिया। मेरा जिस्म ज़ख़्मी हो चुका था, मेरे कपड़े फट गए थे लेकिन जीत के नशे में मैंने सब कुछ बर्दाश्त कर लिया। जब मैं नीचे उतरा तो एक भद्दा सा बड़ा लड़का खड़ा था। वो मुझे घूर रहा था। “ये पतंग मेरा है!” उसने कहा।

    मैंने डरे हुए लहजे में उससे कहा, “ये मैंने जीता है।”

    “देता है या दूं एक...” और उसने मुझे एक गंदी गाली दी थी। मैंने दरयूज़ा-गर नज़र से उसकी तरफ़ देखा लेकिन उसके उठते हुए हाथ देखकर मैं काँप गया। मैंने पतंग उसे दे दिया। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं एक चूहा हूँ जो बिल्ली के डर से अपने बिल में घुस गया है।

    और फिर मैंने पतंग उड़ाना छोड़ दिया। हर खेल, गेंद बल्ला, हाकी, फूटबाल... सब कुछ छोड़ दिया। हर जगह तो बड़ा लड़का था। मैं अकेला दूर निकल जाता। रेल की पटरियों के साथ साथ चलता रहता और पुलिया पर जा बैठता। रंग-बिरंगी तितलियाँ पकड़ने की कोशिश करता। मैं घंटों इसी तरह भूका प्यासा दुनिया से बे-ख़बर काली, पीली, नीली, क़ौस-ए-क़ुज़ह तितलियों के पीछे भागता रहता या बारिश के दिनों में काग़ज़ की नाव चलाता रहता जब तक कि उनमें पानी भर जाता और वो डूब जातीं। शायद बेकार घूमते हुए उन लम्हात में मैंने महसूस किया कि मैं शाइ’र हूँ।

    मैंने वो शहर छोड़ दिया। क्यों? रोज़गार की तलाश में या किसी दूसरे के ख़ौफ़ से? लेकिन ये फ़ैसला मैंने उस दिन किया था जब वो बड़ा लड़का अपनी कार में अपनी नई ब्याही बीवी को लिए फ़र्राटे से मेरे पास से गुज़र गया। कार की धूल के ग़ुबार में मैं लिपट गया। उसकी बीवी से मुझ इश्क़ नहीं था लेकिन वो बचपन में मेरे साथ पानी में नाव ज़रूर चलाया करती थी।

    “कवि तुम शाइ’री ख़ूब करते हो, क्या उस लड़की को आज़ाद नहीं करा सकते?” मेरे दल ने शाइ’र से पूछा।

    “किस लड़की को?”

    लेकिन वो तो मर चुका था। उसकी सब बहस ख़त्म हो चुकी थी। शाइ’र का फ़र्ज़ क्या है? उसका विश्वास क्या है? मेरे दिल में शक के काले बादल मंडलाने लगे।

    मेरा विश्वास क्यों डोल गया? मेरा ग़ुस्सा, मेरी तशद्दुद की ख़ाहिश उस वक़्त ग़ायब हो गई जब आधी रात को जेल में दो हाथ किसी दूसरे के सिरहाने के नीचे से डबल-रोटी चुरा रहे थे।

    कमरे में कार के पहियों के घिसट कर ज़ोर से रुकने की आवाज़ आई। एक दम ब्रेक लगी और एक चीख़ फ़िज़ा में गूंज उठी। कार की रोशनी का आईना अंधेरे में घूम गया और सफ़ेद कपड़ों में लिपटी लाशें जगमगा उठीं। कार एक दम स्टार्ट हुई और फ़र्राटे भर्ती हुई निकल गई। कमरे के अंधेरे में बड़ी देर तक चीख़ गूँजती रही। चारों तरफ़ से चीख़ें गूँजने लगीं। दूर रात के अंधेरे में कोई सिसक सिसक कर दम तोड़ रहा था। पहले उससे ज़ना बिलजब्र किया गया और फिर उसे नंगा कर के सर्दियों की ठिठुरती रात को बिजली के खम्बे के साथ लटका दिया गया और उसके सीने में गोली दाग़ दी। उसके सर पर बिजली का बल्ब जल रहा था। उसके बरहना जिस्म का हर ज़ख़्म रोशन था।

    ऐसी ही एक चीख़ मैंने फिर सुनी। रात के अंधेरे में गाड़ी धीरे धीरे रेंग रही है। एक दम ना’रों का शोर बुलंद हुआ और गाड़ी रुक गई। नेज़े, भाले, बल्लम, तलवार लिये लोग गाड़ी में घुस आए। जिस्म कटने लगे। औरतें, मर्द, बच्चे को चांद की गेंद की तरह हवा में उछाला और फिर नीचे भाला रख दिया। रात के सन्नाटे में एक चीख़ गूँजी और फिर एक क़हक़हा बुलंद हुआ।

    सदियां बीत चुकी हैं लेकिन वो तन्हा अभी तक सूली पर क्यों लटका हुआ है?

    रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी है। बाहर क़दमों की चाप सुनाई पड़ रही थी। बर आमदे के पत्थरों पर जैक बूटों की खटाखट खटाखट। शोर और धुआँ और फिर एक काल कोठरी से एक नौजवान को खींच कर निकाला गया। रात के ख़ामोश अंधेरे में चोरों की तरह उसे शहर से बाहर ले जाया गया और नदी के किनारे उसके टुकड़े टुकड़े कर के पानी में बहा दिया गया। जैक बूटों की आवाज़ पत्थरों पर बड़ी देर तक लोटती रही।

    दन... दना... दन... गोलियां चल रही थीं। औरतें, मर्द, बच्चे, सब निहत्ते। भगदड़ मची हुई थी। चार-दीवारी के घेरे में शाम की तारीकी में उन्हें गोली से उड़ाया जा रहा है। सीनों पर गोलियों के दाग़ लिए अंधेरे में लोग घूम रहे हैं और अंधेरे के समुंदर में अपने चेहरे देखते हैं।

    और फिर लोग और लोग और लोग। हज़ारों लोगों की भीड़ शाहराह पर आगे बढ़ रही थी। समुंदर के तूफ़ान की तरह फैलती जा रही है, जय जयकार के ना’रे लगाती, पर्चम लहराती और एक आदमी भीड़ के सामने से चला रहा है, एक फटा हुआ फ़ुरेरा लिये। उलझे हुए क़दमों तले धरती फिसल रही थी। बार-बार भीड़ के रेले से वो पीछे धकेल दिया जाता था। फिर भीड़ के भंवर में वो फंस गया। लोगों ने शोर मचाया, रास्ते से हट जाओ नहीं तो कुचले जाओगे। लेकिन वो प्रेत ज़दा रूह की तरह आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था। वो लोगों के पांव तले रौंदा जा रहा था। वो बार-बार उठा खड़ा होता और फिर कुचल दिया जाता। उसका चेहरा ग़ुस्से और हक़ारत से लाल हो रहा था।

    अचानक भीड़ में कहीं से एक हाथ उठा, एक ख़ंजर बिजली की तरह चमका, एक चीख़ की आवाज़ आई। परिंदे डर के मारे दरख़्तों से उड़ गए और फिर ये आवाज़ भीड़ के फ़ातिह शोर में खो गई।

    ये तीसरी लाश क्या उसकी है? जो काले, पीले, नीले चेहरों में से उभर कर आई है। एक लाश रौंदी हुई, कुचली हुई। लहू का फ़व्वारा और देर तक गूँजती हुई चीख़। उसने फटी फटी निगाहों से चारों तरफ़ देखा।

    जब ख़ंजर बिजली सा चमकता है, गोली, दन से चलती है, कोई क़त्ल होता है या ख़ुदकुशी करता है तो सन्नाटा क्यों छा जाता है? क्या ज़ख़्म की कोई ज़बान नहीं होती? ज़ख़्म के होंट तो होते हैं, आवाज़ क्यों नहीं?

    “पीस इज़ रिटर्न आन दी डोर स्टेप इन लावा।” मैंने डायरी में लिखा था।

    वो हाथ कहाँ हैं? बेरहम, क़ातिल हाथ... लेकिन अब वहां कोई नहीं था। लोगों का हुजूम आगे बढ़ चुका था। दुश्मन अनजाना था, बेनाम था, अंधेरे में खो चुका था और वो अपने दुश्मन (वो उसे अपना दोस्त समझता था जिसने उसे ज़िंदगी में हर लम्हा दहशत-ज़दा रहने की अज़ियत से नजात दिलाई थी) का शुक्रिया भी अदा नहीं कर सका।

    मैंने उन हाथों को देखा ज़रूर था जिन्होंने उसको क़त्ल किया था लेकिन मैं उन्हें पहचान नहीं सकता। कल तक उन हाथों को मैं पहचान सकता था। ये वही हाथ थे, उस बड़े लड़के के, जो एक मा’सूम लड़के को पीट रहे थे। ये वही हाथ थे जो बंदूक़ें ताने गोलियां चला रहे थे। ये वही हाथ थे जो लाश के टुकड़े टुकड़े कर के नदी में बहा रहे थे। ये वही हाथ थे जो उस लड़की के कमरे में भटकते हुए परिंदे का गला घोंट देना चाहते थे। ये वही हाथ थे जो अंधेरे में एक साथी की डबल-रोटी चुरा रहे थे।

    लेकिन आज मैं इन हाथों को नहीं पहचान सकता। शायद इसलिए कि मैं मर रहा हूँ। (क्या मैं वाक़ई मर चुका हूँ?) सुबह की पहली किरण कमरे में चोरी छिपे दाख़िल हुई। यादें धुँदली पड़ती जा रही थीं। अगर इन लाशों के बारे में में कुछ जानता तो बात कितनी सादा होती, मुहब्बत की तस्लीस... एक औरत, दो मर्द, क़त्ल, ख़ुदकुशी और तप-ए-दिक़। लेकिन ये तस्लीस नहीं थी क्योंकि मैं भी तो मुर्दा घर में मौजूद था। चौथा आदमी। क़दमों की हर आहट से मैं चौंक जाता। शायद कोई मेरी लाश लेने आया है।

    शाम तक लोग आते रहे और बारी बारी सब लाशें ले गए। अंधेरा गहरा होता जा रहा था। क्लाक ने तीन बजाये। सन्नाटा एक लहज़े के लिए टूटा और फिर ख़ामोशी। इस सुनसान, ठिठुरती हुई सर्द रात में कौन आएगा? और वो भी एक मुर्दे के लिए। शायद कोई लाश लेने आया है। मैं दरवाज़ा खोलने के लिए उठता हूँ और गिर पड़ता हूँ। कमरे में किसी के रेंगने की आवाज़ आई। घुप अंधेरा था। कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। आने वाले की शायद आँख चमक रही थी। क्या साँप की भी आँखें होती हैं? उसकी लाल ज़बान शोले की तरह अंधेरे में लपक रही थी लेकिन मुझे ज़रा महसूस हुआ। साँप मेरे क़रीब गया और फन उठा कर खड़ा हो गया। सिर्फ साँप ही ज़िंदा था और मैं अकेला पड़ा था। मैं छत को देख रहा था जिसकी तो कड़ियाँ थीं कि गिन सकता खुला आसमान कि तारों की छाओं ही होती।

    बाहर दो आदमी बातें कर रहे थे,

    “इस लाश का क्या बनेगा? कोई नहीं आया।”

    दूसरा बोला, ”लावारिस है शायद।”

    मैंने आँखें बंद कर लीं। दरवाज़े पर ज़ंग लगा ताला लगा था। वक़्त के स्याह समुंदर में सफ़ेद बादबान फैला के मेरी लाश का जहाज़ सदियों से चल रहा है। इसकी कोई मंज़िल है साहिल।

    मुझे अंधेरे से बहुत डर लगता है। दोस्तो! इस अंधेरे में मैं कब से भटक रहा हूँ। जहां-जहां में जाता हूँ वो मेरे सामने एक दम खड़े होते हैं, बाज़ार में, गली में, मोड़ पर, सीढ़ीयों पर; हर उस जगह जहां अंधेरा गहरा होता है। बिजली के खम्बे पर बरहना औरत की लाश क्रास की तरह उठाए वो मेरे सामने खड़ा होता है और मुझसे पूछता है, बताओ इसका क़ातिल कौन है? और अचानक दूसरी तरफ़ से काले घोड़े पर सवार शैतानी हंसी हँसता हुआ वो जाता है, भाले की नोक पर बच्चे की लाश उछालता हुआ। वो दोनों सदियों से मेरे पीछे घूम रहे हैं। मैं किधर जाऊं? इस घने अंधेरे में मुझे कुछ सुझाइ नहीं देता। ख़ुदा मुझे रोशनी दो। लेकिन ख़ुदा कहाँ है? उसकी लाश भी तो मुर्दा घर में पड़ी है।

    नमो यरूशलम हिरो शमो।

    स्रोत:

    Urdu Afsane Ki Riwayat (Pg. 1061)

    • लेखक: Mirza Hamid Baig
      • प्रकाशक: Aalmi Media PVT, LTD., Delhi
      • प्रकाशन वर्ष: 2014

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