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माई नानकी

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    इस कहानी में भारत विभाजन के परिणाम-स्वरूप पाकिस्तान जाने वाले प्रवासियों की समस्या को बयान किया गया है। माई नानकी एक मशहूर दाई थी जो पच्चीस लोगों का ख़र्च पूरा करती थी। हज़ारों की मालियत का ज़ेवर और भैंस वग़ैरा छोड़कर पाकिस्तान आई लेकिन यहाँ उसका कोई हाल पूछने वाला नहीं रहा। तंग आकर वो ये बद-दुआ करने लगी कि अल्लाह एक बार फिर सबको प्रवासी कर दे ताकि उनको मालूम तो हो कि प्रवासी किस को कहते हैं।

    इस दफ़ा मैं एक अजीब सी चीज़ के मुतअल्लिक़ लिख रहा हूँ। ऐसी चीज़ जो एक ही वक़्त में अजीब-ओ-ग़रीब और ज़बरदस्त भी है। मैं असल चीज़ लिखने से पहले ही आपको पढ़ने की तरग़ीब दे रहा हूँ। उसकी वजह ये है कि कहीं आप कल को कह दें कि हमने चंद पहली सुतूर ही पढ़ कर छोड़ दिया था क्योंकि वो ख़ुश्क सी थीं। आज इस बात को क़रीब-क़रीब तीन माह गुज़र गए हैं कि मैं माई नानकी के मुतअल्लिक़ कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था।

    मैं चाहता था कि किसी तरह जल्दी से उसे लिख दूँ ताकि आप भी माई नानकी की अजीब-ओ-ग़रीब और पुर-असरार शख़्सियत से वाक़िफ़ हो जाएं। हो सकता है आप इससे पहले भी माई नानकी को जानते हों क्योंकि उसे कश्मीर और जम्मू कश्मीर के इलाक़े के सभी लोग जानते हैं और लाहौर में सय्यद मिठा और हीरा मंडी के गर्द-ओ-नवाह में रहने वाले लोग भी।

    क्योंकि असल में वो रहने वाली जम्मू की है और आजकल राजा ध्यान सिंह की हवेली के एक अंधेरे कोने में रहती है। लिहाज़ा बहुत मुम्किन है कि आप भी जम्मू या हीरा मंडी के गर्द-ओ-नवाह में रहते हों और माई नानकी से वाक़िफ़ हों, लेकिन मैंने उसे बहुत क़रीब से देखा है।

    मैंने अपनी ज़िंदगी में बहुत सी औरतें देखी हैं और बड़ी-बड़ी ज़हरीली क़िस्म की औरतें लेकिन मैं आज तक किसी से इतना मुतास्सिर नहीं हुआ जितना उस औरत से। जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूँ वो जम्मू की रहने वाली है।

    वहां वो एक दाया का काम करती थी और उसके कहने के मुताबिक़ वो जम्मू और कश्मीर की सबसे बड़ी दाया थी। वहां के सबसे बड़े हस्पतालों और डाक्टरों के हाँ उसका ही चर्चा रहता था और जहां कहीं किसी औरत के हाँ बच्चा पैदा होता तो फ़ौरन उसे बुलाया जाता।

    इस के इलावा वहां के बड़े-बड़े राजे-महाराजे, नवाब, जज-वकील और मिल्ट्री के बड़े-बड़े अफ़सर सब उसके मद्दाह और मुरीद थे। उन्होंने आज तक कभी उसकी बात टाली और उसे नाराज़ किया। बल्कि जब भी उसका जी चाहा उसने उनसे हज़ारहा क़िस्म के काम निकाले।

    इसके इलावा वो ग़ालिबन रोज़ाना अपने काम से तीन-चार सौ रुपये के क़रीब कमा लेती थी। रोज़ाना अनगिनत बच्चे जनाती। उनमें कई एक मुर्दा, कई सत माहे और बाक़ी ठीक-ठाक होते। इसके इलावा वहां उसका आलीशान मकान और दो दुकानें थीं। एक तवेला जिसमें बारह महीने पाँच-सात गायें-भैंसें बंधी रहतीं... उसका कुम्बा जो पच्चीस अफ़राद पर मुश्तमिल था, सब दूध मक्खन खाते और मौज में रहते।

    कुम्बे के लफ़्ज़ पर एक लतीफ़ा सुनते चलिए। उसके कुम्बे के सभी आदमी उसके घर के नहीं थे। उन पच्चीस अफ़राद में से उसका कोई लड़का था लड़की, माँ बहन। सिर्फ़ वो एक ख़ुद थी या उसका शौहर और बाक़ी सब लड़के-लड़कियां उसने दूसरों से लेकर पाले हुए थे।

    मैंने एक रोज़ उससे पूछा कि “तुम दूसरों के बच्चे जनाती रहीं लेकिन ख़ुद क्यों जना?”

    कहने लगी, “एक हुआ था, मैंने उसे मार दिया।”

    मैंने पूछा, “क्यों?”

    कहने लगी, “मेरी तबीयत को उसका रोना नागवार गुज़रा था। बड़ा ख़ूबसूरत था लेकिन मैंने उसे ज़मीन पर रखा और ऊपर से लिहाफ़ और रज़ाइयों का एक अंबार गिरा दिया और वो नीचे ही दम घुट के मर गया।”

    मैं उसकी ज़ुबानी उसके हालात आपको बता रहा था। इसके इलावा वो कहती कि मेरे पास कम अज़ कम पच्चीस-तीस हज़ार की मालियत का ज़ेवर भी था। बक़ौल उसके वो बड़ी मौज में रह रही थी कि अचानक हिंदुस्तान तक़सीम हो गया और कश्मीर में क़त्ल-ओ-ग़ारत शुरू हुई। डोगरे मुसलमानों को चुन चुन के क़त्ल करने लगे।

    चुनांचे इसी अफरा तफरी में उसने अपना घर छोड़ा क्योंकि उसके मुहल्ले में भी क़त्ल-ओ-ख़ून और इस्मतदरी शुरू हो गई थी। लेकिन उस भाग दौड़ में उसके घर के सभी आदमी उसे छोड़ गए और वो अकेली जान बचाने को ईसाईयों के मुहल्ले में जा घुसी।

    आप हैरान होंगे वो उस क़यामत के समय में भी अपना ज़ेवर और गाय भैंस और ज़रूरी कपड़े और सामान वग़ैरा भी अपने साथ ले गई और वहां सुकूनत पज़ीर हुई। लेकिन जिस वाक़िफ़कार के हाँ वो ठहरी थी उसे दूसरे रोज़ उसने कहा कि माई हमको भी क़त्ल करवाने की ठानी है। तुम अपना ज़ेवर सामान और गाय भैंस यहीं छोड़कर पाकिस्तान चली जाओ। क्योंकि अगर ये चीज़ें किसी डोगरे ने देख लीं तो तुमको ख़त्म कर देगा।

    चुनांचे वो वहां से सिर्फ़ अपना दिन-रात का रफ़ीक़ हुक़्क़ा उठा कर बाहर निकली थी कि साथ वाली ईसाइन ने कहा, माई तुम मेरे घर में रहो। अगर कोई तुम्हें मारने आया तो पहले हम को मारेगा।

    वो रज़ामंद हो गई लेकिन उसी शाम को जम्मू के महाराजा का भेजा हुआ एक सिपाही आया और उसने उस ईसाइन से सवाल किया, क्या दाई नानकी यहीं है? ईसाइन ने जवाब दिया कि नहीं, वो यहां कहाँ।

    सिपाही और ईसाइन के सवाल-ओ-जवाब वो ख़ुद अंदर सुन रही थी और वो कहती है कि मैं ख़ुद बाहर आई और सिपाही से कहा मैं हूँ महा राज। माई नानकी मेरा ही नाम है, सिपाही कहने लगा महाराज कहते हैं, नानकी यहीं हमारे पास रहेगी, पाकिस्तान नहीं जाएगी।

    उसने बताया कि सिपाही का ये फ़िक़रा सुन कर मुझे जलाल गया और मैंने आँखें लाल कर के कहा, “महाराज से कहो, हमने आपसे और आपकी रिआया से बहुत कुछ इनाम ले लिया है। अब हमें और सुख नहीं चाहिए और देखो महाराज से जा कर कह दो कि माई नानकी पाकिस्तान ज़रूर जाएगी क्योंकि अगर पाकिस्तान नहीं जाये तो क्या जहन्नुम में जाएगी।”

    सिपाही ये सुन कर वापस महाराज के पास चला गया और दूसरे ही रोज़ मिल्ट्री के एक कर्नल की हिफ़ाज़त में माई नानकी सरहद उबूर कर के पाकिस्तान में दाख़िल हो रही थी।

    सरहद पर उसे पता चला कि उसके कुम्बे के पच्चीस अफ़राद में से अठारह जिनमें लड़के और लड़कियां थीं, शहीद हो चुके हैं और बाक़ी के तीन लड़के और एक बहू और दो बच्चे पाकिस्तान सही-ओ-सलामत जा चुके हैं। वो कहती थी मेरे आँसू नहीं निकले। मैंने अपना भरा भराया घर दिया, सात गाएँ-भैंसें और तीस हज़ार का ज़ेवर कश्मीर के हिंदूओं और ईसाईयों ने छीन लिया।

    मेरे अठारह लाडले जिनमें बड़े-बड़े सूरमा थे, उन काफ़िरों के हाथों शहीद हुए। मैं ख़ुद उजड़ी लेकिन मेरे आँसू नहीं निकले। हाँ, ज़िंदगी में पहली बार रोई, वो उस वक़्त जब मैंने मुहाजिरीन के कैंप में पाकिस्तानियों को जवान लड़कियों से बदफ़ेली करते देखा।

    अपनी बहू और लड़कों समेत शहर-ब-शहर पेट पालने की ख़ातिर फिरती रही। आख़िर अपने एक अज़ीज़ के हाँ जो कि ख़ुशक़िस्मती से हवेली ध्यान सिंह में रहता था, गई और उसके लड़के मोचीगिरी करने लगे उसके मुतअल्लिक़ वो कुछ पहले भी जानते थे।

    जम्मू की ठाटदार ज़िंदगी और उसके तमाम हालात वहीं रह गए। लेकिन जहां तक मैंने उसे यहां जिस ग़ुर्बत की हालत में देखा है, मैं तो यही समझता हूँ कि वो एक बहुत ही ऊंचे दर्जे की औरत है। ऐसी औरतें बहुत कम दुनिया मैं पैदा होती हैं। उसकी ज़ात बहुत ही बुलंद और बे मिसाल है। 85 साल की उम्र होने को आई लेकिन घर का सब काम काज ख़ुद करती है।

    बीमारी और परेशानी में भी उसका चेहरा पुर वक़ार और फूल की तरह खिला रहता है। चाहे कुछ भी हो जाये ग़मगीं नहीं होती और किसी गहरी सोच में ग़र्क़ रहती है। चौबीस घंटे हंसती और मुस्कुराती रहती है।

    इस बुढ़ापे में भी बड़ी-बड़ी बोझल चीज़ें ख़ुद उठाती है। बड़ी अच्छी बातें सुनाती है। किसी भी फ़क़ीर को ख़ाली हाथ नहीं लौटाती और सब से बड़ी बात जो मैं अब उसके मुतअल्लिक़ बताने लगा हूँ, वो ये कि वो इंतिहा दर्जे की ग़रीब औरत होते हुए भी बड़े-बड़े शहंशाहों से ज़्यादा अमीर है। इसलिए कि उसका दिल बादशाह का है।

    अगर मुहल्ले की किसी औरत ने उससे कुछ मांग लिया तो बस भर-भर के देती जाती है और साथ साथ ख़ुश होती जाती है और मुझे तो बिल्कुल ऐसा ही मालूम होता है जैसे कोई बहुत बड़ा शहनशाह अपनी रईयत को कायनात की नेअमतें तक़सीम कर रहा हो।

    खाने के मुआमले में वो बहुत तेज़ है और इस उम्र में भी दिन में वो चार वक़्त पेट भर कर खाना खाती है और शायद यही वजह है कि सारा सर सफ़ेद हो गया है लेकिन उसके गालों पर सुर्ख़ियां हनूज़ बाक़ी हैं।

    उसका अपना बयान है कि वो एक दफ़ा किसी ज़च्चा को देखने गई तो इत्तिफ़ाक़ से वहां घर वालों ने घी, सूजी पिस्ते बादाम और दूसरे मेवे मिला कर एक क़िस्म की चौरी तैयार की थी जो कि तीन-चार सेर के क़रीब होगी। शामत-ए-आमाल लड़की की माँ नानकी को ज़रा चख के देखने को कह बैठी। बस उसका कहना था कि नानकी ने बर्तन थाम लिया और सारी चौरी चट कर गई।

    इतना कुछ खा चुकने के बाद वो कहती थी मुझे कुछ ख़बर भी हुई और वो वहां से उठ कर दूसरी ज़च्चा के हाँ गई जहां से उसने एक सेर के क़रीब हल्वा पूरी खाया। इसी तरह के कई और वाक़ियात वो हंस हंस के सुनाती है।

    जहां तक लिबास का तअल्लुक़ है वो आम पंजाबी लिबास यानी क़मीस और शलवार पहनती है लेकिन इस आम में एक ख़ास बात ये है कि वो अपनी क़मीस को हमेशा शलवार के अंदर कर के इज़ारबंद बांधती है। मैंने उससे इस्तिफ़सार किया तो वो कहने लगी, “तुम अभी बच्चे हो। तुम्हें क्या मालूम हो।” और मैं ख़ामोश हो गया। पांव में वो मर्दाना जूते पहनती है और जब आधी रात को सब सोए हुए होते हैं और वो ग़ुसलख़ाने में जाती है तो उसके पांव की आवाज़ बहुत ही मुहीब मालूम होती है।

    अब ज़रा सा उसके लड़कों के मुतअल्लिक़ सुन लीजिए। उसके सबसे बड़े लड़के का नाम हबीबउल्लाह है जिसकी एक दुकान जूतियों की है और नानकी का कहना है कि उस लड़के को उसने बड़े नाज़-ओ-नअम से पाला-पोसा है और वही सब में ज़्यादा ख़िदमत गुज़ार और वफ़ाशेआर है। वो उसकी ख़ूब ख़िदमत करता है और नानकी उस पर बहुत ख़ुश है।

    हबीबउल्लाह अपनी ससुराल के मकान की सबसे ऊपर वाली मंज़िल के दो कमरों में एक बीवी और तीन बच्चों समेत रहता है। गर्मियों में उसके बच्चों के पांव धूप में जल जल जाते हैं और सर्दियों में ऊपर सुकड़ते रहते हैं लेकिन आज तक कभी उसने माथे पर बल नहीं डाला और उसके होंट मुस्कुराहट से बेख़बर हुए हैं बल्कि वो अपने दस्तूर के मुताबिक़ हर इतवार को नानकी के लिए पाँच-सात रुपये का फल वग़ैरा लेकर मुस्कुराता हुआ आता है और नानकी की दुआएँ लेकर चला जाता है।

    उससे छोटे लड़के का नाम मुहम्मद हुसैन है जो बिजली और रेडियो का काम अच्छी तरह जानता है और उसे दफ़तर-ए-रोज़गार से कम अज़ कम पाँच दफ़ा कार्ड बनवाने के बावजूद आज सात साल से कोई नौकरी नहीं मिली। माई नानकी ने बड़ी कोशिश की कि जीते जी अपने इन पाले हुए लड़कों की शादियां करके जाये ताकि बाद में वो दर-ब-दर हों और उसे भी क़ब्र में आराम नसीब हो। लेकिन बक़ौल उसी के, ग़रीब को मर के भी आराम नहीं मिलता। शायद इसीलिए अभी तक उसकी शादी का कोई बंदोबस्त नहीं हुआ।

    एक दो जगह दर्याफ़्त करने पर लड़की वालों ने कहा कि कम अज़ कम दो-तीन ज़ेवर लड़की को डालो तब लड़की मिलेगी वर्ना नहीं लेकिन दूसरी तरफ़ यानी नानकी के पास तो सिर्फ़ अल्लाह का नाम और अपना बेटा ही है। नानकी का कहना है कि उसका लड़का मुहम्मद हुसैन अक़ल के लिहाज़ से तो किसी बड़े लीडर के बराबर है लेकिन उसकी अकड़ टुंडे लॉट की तरह है।

    मुहम्मद हुसैन से छोटे लड़के का नाम मुहम्मद यूनुस है जो ख़ूबसूरत और दुबला पतला है और उसकी तालीम सात जमात तक है। सैंकड़ों काम करने की तज्वीज़ें कर रहा है और जिनमें सबसे बड़ी ख़्वाहिश उसकी ये है कि उसे कोई मामूली सी मुलाज़मत मिल जाये जहां उसे सुबह से दोपहर तक काम करना पड़े और शाम के वक़्त वो कुछ पढ़ ले और इस तरह अपनी तालीम को बढ़ा सके। लेकिन आज तक उसकी ये ख़्वाहिश पूरी नहीं हुई।

    नानकी का ये ख़याल है कि वो जिन्नात की क़ौम से है क्योंकि उसमें ग़ुस्से का माद्दा ज़्यादा है। माई नानकी आजकल कुछ उदास और ग़मगीन सी रहने लगी है।

    एक रोज़ मैंने इसकी वजह पूछी तो कहने लगी, “बच्चे मुझे पाकिस्तान ने बहुत सी बीमारियां लगा दी हैं। मुझे जम्मू में कोई बीमारी नहीं थी और कभी मैंने किसी बात के मुतअल्लिक़ आज तक सोचा है। हाँ अपनी सारी ज़िंदगी में एक दफ़ा मैंने एक बात पर ग़ौर किया था और वो भी थोड़ी देर के लिए, असल में क़िस्सा ये हुआ कि जम्मू की एक बाहमनी के हाँ बच्चा पैदा नहीं होता था।

    “बड़ी बड़ी कारीगर नर्सों और डाक्टरों ने जवाब दे दिया और मुसीबत ये थी कि बच्चा पेट में इधर से उधर चक्कर लगाता था और हुमकता भी था। इस मुश्किल में सभी ने घर वालों को मश्वरा दिया कि नानकी को बुलाओ। चुनांचे मैं गई और दो हाथ लगाने से ही बच्चा पैदा हो गया लेकिन मेरा रंग उड़ गया और अपनी जवानी में मैं पहली बार सर से पांव तक पसीने में शराबोर होगई।” यहां तक कह कर वो ज़रा रुकी।

    मैंने पूछा, “क्यों?” कहने लगी, “क्योंकि बच्चे के दो सर चार आँखें और दोनों सरों में दो दो सींग थे। मैंने आँखें लाल करते हुए ब्राह्मण से कहा क्यों लाला ये क्या ज़ुल्म किया तुमने। तुमने मुझे बताया तक नहीं कि ये क़िस्सा है। अगर मेरे दिल की हरकत बंद हो जाती तो?”

    इस पर लाला जी ने मेरे सामने हाथ जोड़े कि किसी से इस बात का ज़िक्र करना, जो जी चाहे ले लो। सो मैंने उससे सौ रुपये लिये। लेकिन अब तो कई अंदेशे जान को खाए जा रहे हैं, बच्चा सब से ज़्यादा इस बात को सोचती हूँ कि मैं पाकिस्तान की ख़ातिर अपना भरा भराया घर लुटा कर आई। अठारह आदमी शहीद हुए और तीस हज़ार की मालियत का ज़ेवर भी वहीं रह गया।

    इस बेबसी और ग़ुर्बत की हालत में हम यहां आए। लेकिन पाकिस्तान वालों ने मेरे नाम कोई मकान अलॉट किया और कोई दुकान। आज तक कहीं से राशन मिला और ही कुछ माली इमदाद। बाग़ का माली जिस ने पाकिस्तान को बड़ी मुश्किलों से बनाया था, अल्लाह को प्यारा होगया। अब उसके बाद जितने भी हैं आँखें बंद किए मस्त पड़े हैं। उनको क्या ख़बर कि हम ग़रीब किस हालत में रह रहे हैं।

    इसकी ख़बर या हमारे अल्लाह को है या हमें। इसलिए अब हर दम अपने अल्लाह से यही दुआ करती हूँ कि एक दफ़ा फिर से सबको मुहाजिर कर ताकि ग़ैर मुहाजिर लोगों को पता चले कि मुहाजिर किस तरह होते हैं। इतना कह कर इस ने हुक़्क़े नय मुँह में दबा ली।

    मैंने उस से कहा, “माई पहले तो लोग हिंदुस्तान से मुहाजिर हुए तो पाकिस्तान गए। अब अगर यहां से मुहाजिर हो गए तो कहाँ जाऐंगे।”

    वो हुक़्क़ा की नय को ग़ुस्से से झटक कर बोली, “जहन्नम में जाऐंगे। कोई पर्वा नहीं। लेकिन उनको मालूम तो हो जाएगा कि मुहाजिर किसको कहते हैं।”

    स्रोत:

    मंटो: कहानियाँ (Pg. 682)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: संग-ए-मील पब्लिकेशन्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1995

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