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परिंदा

MORE BYख़ालिदा हुसैन

    हाँ! में उन्हें ख़ूब पहचानता हूँ। ये उसी के क़दमों की चाप है। ज़ीने पर पूरी ग्यारह सीढ़ियाँ। फिर दरवाज़े की हल्की सी आहट और वो क़दम, नर्म रवां बादलों के से तैरते क़दम। उधर उस दहलीज़ से अंदर होंगे और उस कमरे का वजूद बदल जाएगा। मैं बदल जाऊँगा। एक अनदेखा मफ़हूम उस कमरे में, मेरे, उसके, हर चीज़ के गिर्दागिर्द तन जाएगा। वो आहिस्तगी से अपने सर्द हाथ से मेरी कलाई थामेगी। उसकी बे-वज़न उंगलियां मेरी नब्ज़ टटोलेंगी और घड़ी की टुक-टुक चारों सिम्त फ़िज़ा बन कर बहने लगेगी।

    गुड, वो सिरहाने रखे चार्ट पर झुक जाएगी।

    रात नींद कैसी आई? वो कुर्सी मेरे क़रीब खिसका लेगी। तब मुझे वो तमाम बातें भूली-बिसरी, दूर उफ़्तादा, इधर उधर कोनों खिदरों में पड़ी, ख़ाक अटी याद आजाऐंगी। एक दम से, एक साथ, एक ही समाअत में और मैं उसे बताऊँगा। देखो ये जो एक सीधी लकीर का तसलसुल हमारे-तुम्हारे ज़हनों में है सब फ़रेब है। मैं तो अब इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि कहीं भी कोई पहले या बाद शुरू और आख़िर, आगे और पीछे नहीं। सब कुछ एक ही है। साअतें एक दूसरे में घुल मिल रही हैं। एक महलूल है, मेरे सामने मेरी ज़बान पर या शायद मेरी आँखों में, बेरंग, बेज़ाइक़ा महलूल, जिस तरह बेकार, बेज़ाइक़ा ज़बान और यही सब कुछ है। दरअसल वजूद है और ये सब कुछ मैं उस से निहायत आसानी के साथ कह सकता हूँ और वो उसी एक नर्म मुस्कुराहट के साथ समझ सकती है। मगर ऐन कहते कहते मेरे सब अलफ़ाज़ गड-मड हो जाते हैं। जब ये ख़्याल आता है कि इस कमरे के बाद आगे क़तार में और भी कमरे हैं और सब में एक एक में, हाँ एक एक में इसी तरह बिस्तर पर किसी एक साअत का मुंतज़िर। उससे ख़ाइफ़, उस से पनाह लिये पड़ा है और क्या मालूम मैं उनमें से कौन सा हूँ। चुनांचे मैं उससे सिर्फ़ इसी क़दर पूछता हूँ:

    क्या तुमको भी एक साअत। एक पीछे पीछे लपकने वाली साअत का इंतिज़ार है और तुम उससे ख़ाइफ़ हो। एक तजस्सुस के साथ?

    हाँ हम सब उसके मुंतज़िर हैं। उससे ख़ाइफ़ हैं और मुतजस्सिस।

    मगर तुम अभी। तुम्हें मुझ पर कितनी ही फ़ौक़ियतें हासिल हैं!

    तुमने फिर भारी भारी लफ़्ज़ बोले, देखो में ये फ़ौक़ियतें वग़ैरा नहीं समझती। मैं तो सिर्फ़ इस नतीजे पर पहुंची हूँ के लफ्*... ख़ाली लफ़्ज़ निहायत मुब्तज़िल चीज़ है।

    मुब्तज़िल? तो क्या तुम भी...

    हाँ... तुम अजीब आदमी हो... चाहते हुए भी मैं तुमसे वो तमाम बातें कह देती हूँ जो मैं कभी किसी क़ीमत पर किसी और से कहूं... लफ़्ज़ों में सोचना... महसूस करना निहायत मुब्तज़ल हरकत है।

    तो फिर किस तरह सोचा और महसूस किया जाये। मैं आपस में महलूल होती साअतों में बह गया। एक बेज़ाइक़ा-बेरंग एहसास मेरी ज़बान पर था और यही सब पर मुहीत था।

    यही तो मुसीबत है। इसीलिए मैंने लिखना छोड़ दिया। उसने कुर्सी की पुश्त के साथ सर लगा के इत्मिनान से कहा। मुझे उसकी ख़ुद-फ़रेबी पर हंसी आगई और पहली बार मैंने निहायत एतिमाद के महसूस किया कि मैं हर तरह से कहीं बेहतर हूँ। उस पर फ़ौक़ियत रखता हूँ।

    शायद इसलिए कि तुम लिख ही सकती थी। तुम अच्छी राईटर थीं, लिखने वाले तो कभी लिखना नहीं छोड़ सकते। ये सब के सब झूटे होते हैं, बनावटी।

    हाँ शायद... ये भी दुरुस्त हो... मैंने कब कहा कि मैं लिखने वाली हूँ। उसकी आँखों में ग़ुस्से का साया लहराया। लिखने वाला तो कोई कोई होता है। हाँ यूं तो बहुत से लिखते हैं...लिखते रहेंगे। दरअसल मैंने तो ये जाना था एक दम...एक अजीब ख़ामोश, पुरसुकून दोपहर में...अचानक मुझ पर इन्किशाफ़ हुआ कि ज़िंदगी कहीं भी नरेशन नहीं।

    नरेशन?

    हाँ! कहीं भी नरेशन नहीं...हाँ लफ़्ज़ हैं और अमल और वक़्त है। जो कुछ भी होता है वो वक़्त का एक टुकड़ा है और कुछ नाक़िस लफ़्ज़ और अधूरा अमल, तो ये नरेशन तो दरअसल हम ख़ुद बनाते हैं। अमल को लफ़्ज़ों में लिखने के मुजरिम हम ख़ुद हैं। मुजरिम इसलिए कि वो तसलसुल जो हम पैदा करते हैं वो मंतिक़ जो उसमें ला डालते हैं, उसके झूट-सच को नहीं जानते, महज़ एक मफ़रूज़े की बिना पर लिख डालते हैं, लिहाज़ा ये ग़लत है।

    मगर जब हम लिखेंगे नहीं तो लफ़्ज़ों में सोचेंगे ज़रूर।

    और सोच, सोच बग़ैर अमल के निहायत मुब्तज़िल है।

    तो फिर हम क्या करें?

    अमल...सिर्फ़ अमल...और लिखना और सोचना तो सिर्फ़ नबियों और वलियों का हिस्सा है।

    तुम भी हैरान करती हो...सख़्त हैरान। मैंने कोहनियों के बल उठने की कोशिश की।

    लेटे रहो...लेटे रहो... उसने आहिस्तगी से मेरे सीने पर हाथ रख के मुझे लिटा दिया।

    और मुझे सब कुछ याद आगया। मैं तो मुंतज़िर हूँ। वो सब भी मुंतज़िर हैं और ये जो मेरे सामने बैठी है इसको मुझ पर कितनी फ़ौक़ियतें हासिल हैं। कोई गिनना चाहे तो गिन सके।

    देखो...ये सब इंतिहाई ग़लत है कि हम अपनी सोच को यूं बहस में लाएं। आइन्दा हम ऐसा नहीं करेंगे।

    हम...तो क्या मेरे तुम्हारे दरमियान वजूद के मफ़हूम का कोई रिश्ता भी है। अगर है तो ये सिर्फ़ मेरे साथ नहीं है। उन बाक़ी तमाम के साथ भी है तो तुम इस तरह अलामत सी बन जाती हो और ये सब निहायत ग़लत बात है। बहरहाल मैं तो तुम्हें बताने वाला था कि मैं वहां फिर गया था।

    तुम...तुम वहां गए थे? वो अपनी हैरत छुपा सकी और फ़ौरन सीधी हो कर बैठ रही।

    हाँ...मैं वहां गया था। मगर तुम कब यक़ीन करोगी... शायद मेरी आवाज़ में हद से ज़्यादा आज़ुर्दगी थी।

    नहीं...नहीं...अगर तुम चाहोगे तो मैं यक़ीन करूँगी। तुम वहां गए थे?

    हाँ... मैं वहां फिर गया था। आज भी धूप बहुत तेज़ थी। सड़क तप रही थी। मेरा सर यूं था जैसे केतली में पानी उबलता हो। प्यास के मारे ज़बान पर कांटे पड़ गए थे। मगर सुनो कितनी अजीब बात है, वहां की सड़कें बिल्कुल वैसी की वैसी ही हैं। वो किनारों किनारों से, जहां-जहां से गलियों की ईंटें उखड़ी थीं, उसी तरह थीं। घरों की खिड़कियों पर रंगीन चिकें उसी तरह गिरी थीं। वो कोने वाला माई जन्नत का मकान है। सका बोरिये का पर्दा तो हवा में हिलता था और हद है उसने अब तक उसका सुराख़ मरम्मत नहीं किया था। नालियों में ख़रबूज़े के बीज और आमों के छिलके पड़े थे। तो जब मैं स्कूल वाली गली पार करके आगे बढ़ा तो मेरे घर का लकड़ी का दरवाज़ा अध खुला था, हालाँकि उन गलियों में भेड़ बकरियों का घुस आना तो एक आम सी बात है। फिर भी उन लोगों ने दरवाज़ा खुला रखा था...तो मैं बग़ैर दस्तक दिये अन्दर चला गया। अंदर निहायत अंधेरा था और ठंडक थी। डेयोढ़ी पार करके सेहन में पहुंचा तो बड़ी अच्छी पुरसुकून रोशनी थी। आँखों को आराम देने वाली। सामने बरामदे में तख़्तपोश पर माँ बैठी सब्ज़ी बना रही थी और हुक्क़े की नय उसके मुँह में थी। मुझे देखकर माँ ने कहा, बड़ी सख़्त लू चल रही है। तुम कहाँ गलियों में मारे मारे फिरा करते हो। चलो नमकीन लस्सी का गिलास पियो। वहां मेज़ पर जग रखा है। मैं मेज़ की तरफ़ बढ़ा तो माँ ने पीछे से कहा,

    और ये क्या तुमने मुसीबत डाल रखी है। तुम जानते हो मुझे इन सब का सँभालना मुश्किल लगता है। पानी की नापाकी की मुसीबत अलग...।तुम्हारे अब्बा भी सख़्त नाराज़ हो रहे थे। मैंने हैरान हो कर माँ की तरफ़ देखा।

    क्यों...क्यों नाराज़ हो रहे थे?

    भई क्या अज़ाब डाल रखा है। उसने छत की तरफ़ इशारा कर के कहा। तब मैंने देखा बरामदे की छत में जो बड़ा कंडा पंखे की ख़ातिर लगा था उसमें रंगीन डोरी के साथ वो लटक रहा था...एक पिंजरा।

    उस में क्या है? मैं गिलास छोड़कर आगे बढ़ा। मगर उस पिंजरे पर कपड़ा पड़ा था। मैंने उसे हटाना चाहा तो माँ चिल्लाई।

    रहने दो...ये कपड़ा नहीं हटाओ। बीमार है बेचारा...डर जाएगा...मर जायेगा। नफ़रत की स्याह लहर मेरे पेट में उठी।

    तो फिर उधर क्यों रखा है उसे? मैं दहाड़ा। इस पर माँ बोली, मैं क्या जानूं, तुम्हीं तो लेकर आए थे। रख गए थे बग़ैर कुछ कहे सुने।

    मैं...? हाँ तो क्या हर्ज है...हाँ... मैंने ही रखा है...फिर...? मैं ग़ुस्से में बाहर आगया। क्या तुम जानती हो वह पिंजरा वहां क्यों है? मैंने उससे पूछा।

    नहीं...मैं नहीं जाती और क्या तुम जानते हो कि वो मकान, वो गलियाँ...आज से बीस बरस पहले कारपोरेशन वालों ने ढा दी थीं। तुम्हारी माँ की ज़िंदगी ही में?

    नहीं, नहीं... मैं नहीं जानता...मगर इतना जानता हूँ कि मैं वहां गया था। मैंने ज़च हो कर कहा।

    हाँ...तुम ठीक कहते हो। अच्छा अब मैं चलूं। वक़्त हो गया है। उसने घड़ी देखकर कहा। मगर उसके जाने के बाद...फ़ौरन बाद मैंने अगले रोज़ उसके आने की साअत के मुताल्लिक़ सोचना शुरू कर दिया। क्योंकि साअतें एक दूसरे में घुल मिलकर सय्याल बनीं, मेरी आँखों का ख़ून, पूरे वजूद के अंदर बाहर चारों सिम्त बह निकली थीं और वो ये कह गई थी कि लफ़्ज़ों में सोचना और सोच के मुताल्लिक़ सोचना निहायत मुब्तज़िल हरकत है। कितनी अजीब-ओ-ग़रीब बात है कि वो और मैं...हम दोनों इब्तिज़ाल से इस क़दर ख़ौफ़ज़दा हैं। मगर ये क्या कि वो उसके मुताल्लिक़ कुछ भी नहीं जानती... उसकी आँखों में एक जानता हुआ सा... राज़ भरा एहसास था वो यक़ीनन जानती है, सब जानती है कि वो मेरे बरामदे की छत से लटकता पिंजरा वहां क्यों है। क्या मैं उसे वहां रख आया था? माँ कहती है... और वो उस पर लिपटा कपड़ा? हाँ रात को परिंदे जानवरों से डरते हैं...शायद इसीलिए...मगर माँ कहती है वो बीमार है। वो पर्दा हटा तो डर जाएगा, मर जाएगा। तो क्या वो उसके मुताल्लिक़ कुछ भी नहीं जानती। शायद वो मुझसे छुपा रही थी। अब उसके आने की साअत जो एक रोशन दीवार की तरह कहीं मेरे पीछे खड़ी थी और मैं उसके साये में था। अब उस दीवार-ए-नूर के मेरे क़रीब आने में आवाज़ों, लफ़्ज़ों और अधूरी हरकतों के रेंगते सरसराते टुकड़े मिल हाइल हैं।

    उसके क़दमों की चाप पर मैं सँभल कर ही बैठा। मेरा रोंवां रोंवां साअत बन गया और घड़ी की टिक-टिक का समुंदर चारों सिम्त बहने लगा।

    गुड... उसने आहिस्ते से कुर्सी आगे खिसकाई। रात नींद कैसी आई?

    सुनो रोज़ तुम मुझसे पूछती हो... आज तुम बताओ...रात तुम्हें नींद कैसी आई? वो कुछ ठिठकी, फिर हल्की सी मुस्कुराहट से कहने लगी,

    नींद...? नींद दरअसल बहुत ही ज़ाती क़िस्म की...बेहद ज़ाती क़िस्म की चीज़ है और मैं इसका हिजाब निहायत ज़रूरी समझती हूँ।

    तुम मुझे हैरान करती हो। मैंने फिर कहा, जब तुम में और मुझमें एक ख़ामोश मुआहिदा है...

    मगर मैं तुमसे यही कहने वाली थी कि नींद से पहले के चंद लम्हे वो हैं, जब हम बिल्कुल तन्हा और निहत्ते होते हैं और हमारे इर्द-गिर्द के तमाम हिसार टूट चुकते हैं तो उस वक़्त महज़ एक ख़ौफ़ मुझे घेर लेता है। वो तुम जानते हो...?

    हाँ मेरा ख़्याल है कि मैं जानता हूँ।

    हाँ ये ख़ौफ़ कि ये निहत्ता लम्हा अगर कभी ख़त्म हुआ तो...अगर यही हमारे हिस्से का तमाम वक़्त बन गया तो...?

    हाँ...तुम ठीक कहती हो। मगर तुमको मुझ पर इतनी फ़ौक़ियतें हासिल हैं। तुम्हें ऐसी बातें नहीं सोचनी चाहिऐं। तुम ख़ुद कहती हो ये मुब्तज़िल है।

    ये सोच नहीं...उस के लफ़्ज़ हैं...ये तो एहसास है।

    महज़ एहसास...दिन के उजाले में हम अपने आपको दूसरों में खो देने की कोशिश करते हैं, समझते हैं कि वो लम्हा ख़त्म हुआ। मगर ये सब ग़लत है।

    रात, नींद और फ़ना हम पर तन्हा आती है। तुमने सुना...तन्हा।

    हाँ...मैंने सुना...मैंने सुन लिया...मगर मैं सोचता हूँ क्या ये मुम्किन नहीं कि ये तन्हा हो। क्या ये मुम्किन नहीं? क्या ये बिल्कुल नामुम्किनात में से है? मैंने कोहनियों के बल उठते हुए कहा...मगर उसने अपने ख़ूबसूरत हाथ के ज़रा से दबाव से मुझे लिटा दिया।

    लेटे रहो...लेटे रहो...ये मैं नहीं जानती... उसने फ़ौरन मुझसे निगाह चुराई और बाहर खिड़की की जानिब देखने लगी।

    तुम्हें मालूम है ये ख़िज़ां का मौसम है। बाहर ठंडी सुबह... तेज़ हवाएं चलती हैं। ख़ुश्क बिल्कुल ख़ुश्क और दरख़्तों से ख़ुश्क पत्ते मुसलसल हर लम्हा, हर-आन गिरते चले जा रहे हैं। सुबह-ओ-शाम...और कभी कभी अचानक बेहद मस्रूफ़ियत में रुक जाती हूँ...यकदम मुझे ख़्याल आता है, हो सकता है ये मेरा आख़िरी दिन है। चुनांचे मैं अपने इस आख़िरी दिन को देखती हूँ। एक की उतरती धूप को और जब दीवारों को और सोचती हूँ ये मेरा आख़िरी दिन है। ये कैसा लगता है और शायद हर कोई कभी, किसी वक़्त अचानक रुकता है और सोचता है कि ये आख़िरी दिन है। मगर भूल गई, हमने तय किया था कि कभी अपनी सोच पर बात करेंगे।

    नहीं...नहीं...हमें ज़रूर बात करनी चाहिए। इसलिए कि बहुत सी बातें जब की जाएं तो ठोस वाक़ा बन जाती हैं औरफिर उनको ख़त्म करना, उनसे बचना बेहद मुश्किल हो जाता है। मैंने उसे रोकने की निहायत कमज़ोर सी कोशिश की। वो घड़ी देख रही थी।

    तुम वक़्त की इतनी पाबंद हो... क्यों इतनी पाबंद हो। तुम एक लम्हा पहले आती हो बाद में। दो पल रुक जाने को, कहने की हिम्मत नहीं होती।

    क्यों...ये तो महज़ तुम्हारा ख़्याल है। दरअसल मुझे घर वक़्त पर पहुंचना होता है। जब मैं उनको खाना खिलाती हूँ तो मेरी तमाम बेकार सोच मर जाती है, मैं ख़ुश होती हूँ। मगर फिर कुछ ही देर में वो लुढ़कते मोतियों की तरह मुझसे अलग, दूर हो जाते हैं और अमल रुक जाता है। वक़्त-ए-रवाँ रहता है, लफ़्ज़ यलग़ार करते हैं और ये सब इंतिहाई बेसूद है।

    हाँ...तुम ठीक कहती हो। मगर...।

    अच्छा...दवा खाना नहीं भूलना...और सर ऊंचा रखो इधर तकिये पर...

    वो बादलों के से तैरते क़दमों से चली गई और दरवाज़ा बंद हो गया...ओह ख़ुदा... उसके जाते ही ये मुझे कुछ याद क्यों जाता है। मुझे तो उससे पूछना था, उस पिंजरे के मुताल्लिक़ और उसके अंदर रहने वाले के बारे में। फिर ये सब कुछ कल पर मुल्तवी हो गया। लेकिन नींद से पहले का ये एक निहत्ता लम्हा अगर तवील हो गया और साअतों में तो सब का रंग बदल जाएगा...ज़ायक़ा बदल जाएगा...और हम सब के सब उसमें बह जाऐंगे।

    मगर अचानक मुझे बराबर वाले कमरे से पलंग और कुर्सियाँ घसीटने की आवाज़ आई...फिर बोझ घसीटते, बमुश्किल सीढ़ियाँ उतरते नाहमवार क़दमों का हुजूम...और सब कुछ थम गया। तो ये वाक़ई किसी का, साथ वाले का आख़िरी दिन था। ये कैसा था? उसने खिड़की में से बाहर नज़र दौड़ाने की कोशिश की...वहां कहीं कहीं इक्का दुक्का पत्ते उड़ रहे थे और बस...तो ये दिन भी और दिनों का सा था और फिर एक दम मुझे हंसी आगई। तो एक-बार फिर वो कोई दूसरा था... मैं नहीं था। मेरे पेट में एक तारीक हस्ती तिल तिल करती थी। अच्छा वो कल सबसे पहले मुझे यही ख़बर देगी।

    मगर मेरा ख़्याल ग़लत था। उसने अगले रोज़ मुझे ये ख़बर दी। वो उसी तरह एक ख़ुशगवार वाहमे की सूरत वारिद हुई, मेरी नब्ज़ गिनी और चार्ट पर झुक गई। उसकी झुकी आँखें देखकर मुझे गुज़री रात की भूली-बिसरी साअतें यूं याद आईं जैसे सदियों पहले की बात। इतनी जल्द उन पर ख़ाक अट गई थी। मैंने सर उठा कर उसकी तरफ़ देखा।

    क्या बात है? उसने ख़ुश दिली से पूछा।

    मेरी तरफ़ देखो। मैंने डूबती आवाज़ में कहा...मैं देखना चाहता था। उसके ऊपर मेरे दरमियान वजूद के मफ़हूम का कौन सा रिश्ता है। मगर वो उसी तरह झुकी चार्ट पर लिखती रही। शायद वो भी इस रिश्ते का ताय्युन करना चाहती थी और मुझे एक दम ग़ुस्सा आगया। गर्म लहू मेरी कनपटियों और आँखों में खौलने लगा। मेरा सर भाप बन कर उड़ गया।

    मेरी नब्ज़ गिनो... मेरा ब्लड प्रेशर नोट करो...। इस काग़ज़ को चाक कर दो। मैंने गोया ज़हर गले से उतारते हुए कहा।

    अगर तुम भी आओ तो क्या है। लेकिन ये तो तुम्हारा फ़र्ज़ है। मुझे बताओ और क्या-क्या फ़र्ज़ है... मैंने...मैंने तुम्हें देख लिया है। मैंने ग़ुस्से से काँपती आवाज़ में कहा। मेरी मुट्ठीयाँ ज़ोर से भिंच गईं।

    सुकून...सुकून...लेट जाओ... उसने मुझे आहिस्तगी से लिटाना चाहा।

    नहीं... तुमने एक अनकहा मुआहिदा तोड़ा है। तुमने मुझसे बहुत कुछ छुपाया है। मैंने उसका हाथ झटक देना चाहा। मगर मुझमें इतनी क़ुव्वत कहाँ थी। वो ख़ामोशी से कुर्सी में बैठी रही। मैं उसके बोलने का इंतिज़ार करने लगा। मगर वो ख़ामोश रही और घड़ी टिक-टिक बोलती रही।

    सुनो...अगर सुन सकती होतो...मैं वहां फिर गया था। तुमने मुझसे झूट बोला था कि तुम कुछ नहीं जानतीं...जब आज मैं वहां गया तो माँ वहां तख़्तपोश पर बैठी चावल चुन रही थी और घर का आँगन ऐसा था जैसे अभी अभी अब्बा जी नाराज़ हो कर, बोल बोल कर, बाहर निकले हों... माँ ने कहा बैठ जाओ। आज जाने क्या बात है उसमें कोई आवाज़ नहीं आरही... कोई हलचल नहीं।

    किस में से? मैंने पूछा तो उसने बरामदे की छत से लटके उस ढके ढकाए पिंजरे की तरफ़ इशारा किया। मैंने चाहा कि लपक कर उठा कर देखूं क्या बात है। मगर माँ ने मुझे रोक दिया।

    नहीं नहीं...रहने दो। बीमार है बेचारा, डर जायेगा, मर जायेगा। वो आती ही होगी। ख़ुद ही देखेगी।

    वो कौन...? मैंने पूछा तो उसने दरवाज़े की तरफ़ इशारा किया... मैंने देखा वहां तुम खड़ी थीं...तुम...और तुम कहती हो तुम वहां कभी नहीं गईं।

    मैं खड़ी थी? वो मस्नूई हैरत से बोली।

    हाँ तुम...और फिर जानती हो, सबसे बड़ा निहत्ता लम्हा वो था जब तुमने मुझे देखने के बावजूद देखा। तुम चुपके से आईं, पिंजरे का ग़लाफ़ उठाया... फिर तुम्हारे मुँह से अजब हक़ारत और कराहत भरी आवाज़ निकली, ऊँ हूँ तुमने उंगली और अंगूठे के दरमियान उसे कुंडे से उठाया।

    ऊँ हूँ...। सब का सब कीड़ों से भरा है... तुमने पिंजरे का दरवाज़ा खोल कर उसे ज़ोर से बाहर नाली में उलट दिया... उसको जो उसके अंदर था। उसके गिरने की आवाज़ आई... मैं आगे लपका, देखूं...उसे देखूं। मगर तुम रास्ते में खड़ी थीं और मुझे इस ख़ौफ़ ने दबाया कि कहीं ये इस निहत्ते लम्हे का आग़ाज़ हो और मैं रुक गया। चला आया भागता हुआ। देखो मेरे पांव में छाले पड़े हैं।

    नहीं... नहीं...मुझे नहीं दिखाओ... उसने मेरी पेशानी पर अपने ख़ुशगवार ठंडक भरे हाथ रखे। मुझे नहीं दिखाओ। ये हमारा मुआहिदा है... हम एक दूसरे के ज़ख़्म नहीं देखेंगे, मगर क्या तुम्हें यक़ीन है कल रात जो आवाज़ें बराबर के कमरे से आईं वो उसी कमरे की थीं, तुम्हारे की थीं?

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