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क़ुदरत के बच्चे

शहनाज़ शोरो

क़ुदरत के बच्चे

शहनाज़ शोरो

MORE BYशहनाज़ शोरो

    हेलो,

    नंबर अजनबी था मगर आवाज़ मानूस। सारा के पोर-पोर में रची-बसी आवाज़, उसकी अपनी खोई हुई आवाज़, जिसकी तलाश में सारा का पल पल आज़ुर्दा था। ख़ुशी थी, ग़म था, कसक थी, ख़ौफ़ या झिजक... कुछ था जिसने यूं ख़ंजर घोंपा कि सिसकी आह में बदल गई।

    How are you.

    वही सदियों पुराना रटा रटाया सवाल। वही उसका पुराना घिसा पिटा झूट।

    I am good.

    लहजे के इर्तिआश ने जिस्म की रग-रग को मुर्तइश कर दिया था। सारा का रोवां रोवां लरज़ रहा था।

    I have heard that you have a beautiful daughter, am i right?

    उसने सवाल किया।

    Yes, I have.

    सारा ने आहिस्तगी से जवाब देते हुए बराबर में गहरी नींद में सोई 'कारला' की तरफ़ देखा।

    मासूमियत का नन्हा से पैकर... सारा दिन खेल खेल कर, थक कर नन्हे से टेडी बेअर को हाथ में पकड़े, सो गई थी।

    मैं कब मिलने आऊँ? फिर अनोखा सवाल, जिसे सुनने के लिए सारा के कान, दिल और एहसासात मुद्दत से बेताब थे, वो जवाब देना चाहती थी मगर ज़ब्त का दामन हाथ से छूटता नज़र आरहा था।

    जब तुम्हारा दिल चाहे, तुम्हारा अपना घर है, कहते कहते सारा का लहजा भीग सा गया।

    चंद लम्हे सारा जवाब सुनने की मुंतज़िर रही, फिर आवाज़ आई।

    कल किस वक़्त आऊँ?

    किसी भी वक़्त।

    ऑफ़िस से किस वक़्त लौटोगी?

    पाँच बजे।

    बच्ची कहाँ होती है... सारा दिन?

    बच्ची। इतने साल बाद बच्ची के मुताल्लिक़ सवाल... पाँच साल से ज़ाइद... सब्र-आज़मा। तकलीफ़दह वक़्त की चक्की में पिसे हुए दिन-रात। तंग दस्ती, मासूम बच्ची की ज़िम्मेदारी और अकेलेपन का शदीद एहसास करते यकबारगी सारा की सोच में तल्ख़ी की कड़वाहट घुल गई।

    फ़िलहाल तो वो डे केअर में जा रही है, मैं ही पिक ऐंड ड्राप करती हूँ।

    चलो, मैं कल साढे़ पाँच बजे तक आऊँगा, बच्ची को तैयार रखना।

    बॉय।

    सारा ने एक नज़र फिर 'कारला' की तरफ़ देखा। सवालात के ज़हरीले नागों... आँसूओं से भीगी रातों और बेमेहर दिनों की कसक से बेख़बर... तितलियों और जुगनुओं जैसा सुबुक नन्हा सा बचपना, मसर्रतों, ख़ुशियों और मासूमियत के रंगों और रोशनियों से लबरेज़। दुनिया के सारे ग़मों को ग़ैर अहम कर देने जैसा ताक़तवर बचपन... जो ओझल हो जाये तो फिर ज़िंदगी उदासियों के अबदी सिलसिले में ढल जाती है।

    रात ने गुज़रना था गुज़र गई, मगर सारा पूरी रात बहुत मुज़्तरिब रही। माज़ी के बारह साल... कभी नन्हे-नन्हे ख़रगोश बन जाते तो कभी ख़त्म होने वाले लंबे लंबे साये। तारीक गहरे घने जंगलों में रास्ता ढूंडते रात कटी। सुबह कारला को ज़बरदस्ती जगाया। बरसों से यही वतीरा था। एक साल और एक महीने की नन्ही सी जान थी कारला, जब उसकी मेटरनिटी लिव ख़त्म हो गई थी। सोई सोई बच्ची को डे केअर में छोड़कर जॉब पर जाती रही।

    फिर जब उसका वज़न तेज़ी से कम होने लगा तो एक ख़ौफ़ दामनगीर हो गया। पता नहीं दूध की बोतल मुँह से लगाते भी होंगे या नहीं। रोती रहती होगी, या अच्छी तरह सँभालते होंगे मगर और कोई रास्ता भी था सिवाए इसके कि मज़ीद महंगे डे केअर में दाख़िल करवा दे और यही उसने किया।

    पूरा दिन सारा रिज़्क़ पर अपना नाम लिखे दानों की तलाश में दीवानावार काम करती रहती और कारला का रिज़्क़ उसके कपड़ों में जज़्ब होता रहता। जितना कमाती उसका 50 फ़ीसद, बच्ची को सँभालने वाले डे केअर को दे देती। बाक़ी पैसे घर के बिल्ज़ और किराये में चले जाते। घर सब्सिडाइज़्ड था हुकूमत की तरफ़ से, मगर इस माली फ़ायदे की सज़ा ये थी कि हर तरह का मंज़र नाचार देखना पड़ता। इर्दगिर्द के बासियों की अक्सरियत या तो सीनियर सिटिज़न्स पर मुश्तमिल थी जिनकी औलादों को भी उनकी ख़बर थी और वो ख़ुद ओल्ड सीनियर हाऊसेज़ के अख़राजात बर्दाश्त करने के अह्ल थे। थके-माँदे आती-जाती बसें पकड़ कर हस्पताल जाया करते, या फिर सर्दी से कपकपाते नशई... नशे में धुत, टोलियों में,कोनों खद्दरों में बैठे नज़र आते। इन सब्सिडाइज़्ड हाउसेज़ के चक्कर में... जुदाई की दहलीज़ पर पहुंचते लड़के और लड़कियों के इश्क़ इश्तेयाक़ के जल्वे चारों तरफ़ किसी थर्ड रेट फ़िल्म के नुमाइशी टाइटल की तरह नज़रों के सामने मौजूद रहते।

    ख़ैर इन सब्सिडाइज़्ड हाउसेज़ का मिलना भी आसान था। इसके लिए भी दरख़ास्त देने वालों की लंबी फ़हरिस्त होती थी और सालों का इंतिज़ार करना पड़ता था। मगर आम घर के मुक़ाबले में ये हाउसेज़ तीन-चार सौ डालर सस्ते थे, और तीन-चार सौ डॉलर्ज़ में तो पूरे महीने का राशन बल्कि बस का किराया भी निकल आता था। यहीं पर कम पैसों में डे केअर भी मिलती थी। पोश इलाक़ों में तो फ़ी घंटा 20 या 30 डालर लेते थे एक बच्चा सँभालने के लिए।

    डेविड के जाने के बाद यही ऑपशन था जिससे बेघरी के अज़ाब से भी बचा जा सकता था और 20 और 50 डॉलर्ज़ के दरमियान हीटिंग सिस्टम भी आन रखा जा सकता था। इन्सान किसी भी खित्ते में हो कोई भी ज़बान बोलता हो, किसी एक रंग-ओ-नसल का हो, किसी भी अंदाज़ हुक्मरानी का असीर हो, सर पर एक छत के इलावा जिन्स के मुँह ज़ोर घोड़े को लगामें डालने के साथ साथ पेट के तनूर को भरे रखने के लिए हर जगह रुस्वा है।

    ख़यालात थे कि घटाओं की तरह उमडे चले आरहे थे। ज़ह्न परागंदा हो चला था। सारा ने घड़ी देखी। सुबह के चार बजे थे। सिर्फ़ दो घंटे बचे थे आराम के लिए। कैसा आराम, बोझल पपोटों और दुखे दिल के साथ वो बड़बड़ाई।

    उठो, दौड़ो, भागो... घड़ी की सूई के साथ साथ जहां पैर फिसला... जहां सांस हमवार करने के लिए बंदा रुका, लम्हा हाथ से छूटा, सारी मेहनत अकारत।

    किसी बनी बनाई मशीन में फिट होने वाला एक कारा॓मद पुर्ज़ा बनने के लिए इन्सान को, इन्सान से मशीन का हिस्सा बनना पड़ता है। एक पुर्जे़ जैसा इन्सान। ज़रा सा ज़ंग लग जाये तो बेकार। उठाओ फेंको... पुर्ज़ों की कमी है क्या? एक डालर की थैली में 100 कीलें मिलती हैं। सब एक जैसी, एक साइज़, एक मटेरियल की... जिसे सुबह दफ़्तरों को जाती हुई सुते चेहरों वाली बसों और ट्रेनों में लदी मख़लूक़ अपने तईं ख़ुद को अहम समझते हैं ताकि ज़िंदगी जीने का जवाज़ रहे। सब पुर्जे़ बहुत ज़रूरी, बहुत अहम... मगर इतने ही ग़ैर ज़रूरी इतने ही ग़ैर अहम। एक मिनट में एक मशीन के एक ख़ाने में हर साइज़ और तादाद में बनते और ढलते चले जाते हैं। फ़ाज़िल पुर्ज़ा है इन्सान इस लानती कैपिटलिस्ट समाज में।

    Totally replaceable.

    ऐसी ही बोझल और ग़ैर ज़मीनी सी कैफ़ियत में सारा ने चाय का पानी तैयार किया।

    बच्ची का बैग, नैपकिन वग़ैरा रखकर रात को ही तैयार कर दिया था। दूध की ताज़ा बोतलें तैयार करके रखीं।

    उजाला होने में देर थी मगर सूरज ने आज सिर्फ़ चंद लम्हों के लिए ही दीदार करवाना था। कल ही सेल फ़ोन पर मौसम का अहवाल और दर्जा हरारत चेक करके पर्स में छतरी रख ली थी। अपने लंच के लिए एक केला और सेब उठाए। सारा दिन की थकान और बोरियत के बावजूद लबों पर मस्नूई मुस्कुराहट को क़ायम रखने के लिए चप्पे चप्पे पर काफ़ी हाउसेज़ बने थे जहां लाईन में लगे, भेड़ चाल के शिकार, मशीनों को तेज़ तेज़, मुस्तक़िल बुनियादों पर चलाने के लिए चाक़-ओ-चौबंद पुर्जे़ काफ़ी पर काफ़ी के मग चढ़ाए जाते थे।

    घरसे बाहर निकलते वक़्त सारा के ज़ह्न में एक ही ख़याल था डेविड।

    आज उसका शिद्दत से दिल चाहा किसी हमराज़ से दिल की बातें करे। यूं तो ऑफ़िस में कई लोग थे मगर राबतों की नौईयत कारोबारी और मशीनी ताल्लुक़ात से आगे बढ़ पाई। नॉर्थ अमरीका का मसला तन्हाई है। हर रिश्ते के होते हुए तन्हाई। नए रिश्तों की तलाश में पुराने रिश्तों को भूलने का मसला, हर रिश्ता एक ग़ैर मुतवक़्क़े रिश्ते और ताल्लुक़ का मुंतज़िर, अजनबी और खोया खोया सा होता है। और हर नए ताल्लुक़ के मिलने के बाद मालूम होता है कि कुछ ग़लत हो गया। ब्रोकन और Disfunctional families का एक वसीअ-ओ-अरीज़ जहां... क़ुर्बानी, ईसार, मुरव्वत, लिहाज़ बर्दाश्त, जैसे अलफ़ाज़ से तही डिक्शनरी के मालिक।

    मटेरियलिज़्म के खाते खोले किरदार... ऊपर से बने ठने, डिज़ाइनर इंडस्ट्रीयों के चलते-फिरते इश्तिहार, अंदर से ज़ख़्मों से चूर... कराहती, ख़राश ज़दा रूहों के मालिक।

    कारला की चौथी सालगिरह में सिर्फ़ तीन माह कम थे। ग्यारह सितंबर को कारला पैदा हुई थी। कैसी शदीद सर्दी थी उस रात, वो कपकपाती हुई, दहशतज़दा सी हालत में, लावारिसों की तरह हस्पताल पहुंची थी। मिस और मिसेज़ के सवाल के जवाब में उसकी ज़बान लड़खड़ा गई थी।

    मिसेज़, उसने जवाब दिया। तो फिर शौहर की ग़ैरमौजूदगी सवालिया जुमले में तब्दील हो गई।

    तन्हाई, अजनबियत, मुतवक़्क़े और ग़ैर मुतवक़्क़े अनदेखी अज़ीयत ने चारों ओर जाल सा बन रखा था और ये जाल जिस्म-ओ-जान से लिपटा रहा। दर्द-ए- ज़ह ने उसकी तकलीफ़ दोचंद कर दी। आन ड्यूटी नर्स मालूम किन किन मराहिल पर ज़ह्नी, जिस्मानी, जिन्सी या शायद रुहानी अज़ियत से गुज़री थी जो आज उसके पुराने बदले चुकाने का दिन था। गो ग़लत शख़्स से बदले चुका रही थी मगर शायद तस्कीन मिल रही थी।

    बे रहमाना अंदाज़ से टांगें खोलो... ज़ोर लगाओ... क्या कोई अनोखा काम कर रही हो, जैसे बदलिहाज़ जुमलों ने सारा को निढाल कर दिया, पहले सारा चीख़ी... और फिर होंटों को दाँतों तले दबाकर आँसूओं को रोकने की कोशिश करने लगी।

    होश आया तो ख़ालीपन और प्यास के एहसासात ने वजूद को तड़पा दिया।

    मालूम है बेटी का वज़न डेढ़ पाऊंड है। इतना बड़ा पेट, इतना कम वज़न। आख़िर वक़्त तक डाक्टर्ज़ यक़ीन दिलाती रही कि सब कुछ ठीक नॉर्मल है।

    शायद हद से बढ़ता हुआ फ़िशार ख़ून या ऐन्टी डिप्रेशन की दवाएं वजह हों मगर कुछ नहीं कहा जा सकता था। चौथे दिन सारा घर आगई मगर तीन माह तक बच्ची वेंटिलेटर और ऑक्सीजन टेंट में ज़िंदगी और मौत के दरमियान वाली रस्सी पर झूलती रही। ज़िद, ख़ौफ़ या उम्मीद के नतीजे में जन्म लेने वाली बच्ची, कारला... सारा ने यही नाम सोचा था अपनी बेटी के लिए, जो उसकी दादी का नाम था।

    वजह सिर्फ़ एक थी कि ख़ानदान की बाक़ी सब औरतों में, उसने सिर्फ़ बदकलामी, बदमिज़ाजी और दुरुश्तगी देखी थी। दादी के पास शफ़क़त और मुहब्बत थी, थोड़ा एहसास था। अब्बा सारा दिन चरस के पफ़ बना बना कर उन्हें उड़ाता रहता, जब भी कमरे से निकलता उसकी आँखें अंगारों की मानिंद सुर्ख़ होतीं। शायद उसको ये भी मालूम नहीं था कि उसकी बीवी कितनी बार हामिला हुई, कितने बच्चे ज़ाए हुए या पैदा। पूरा ख़ानदान गर्वनमेंट की दी हुई इमदाद पे ज़िंदा था, जिसे लिखे नसीब की तरह क़बूल किया हुआ था। माँ का काम गालियां बकना था। बड़ी बहनों को जैसे ही जिस्मानी तब्दीलियों और उनसे मुताल्लिक़-ओ-मुंसलिक कारोबारी मुआमलात का एहसास हुआ उनके सुकड़ते बलाउज़ और फैलते मेक अप उन्हें घर से दूर करने लगे। भाई सारा सारा दिन बाहर गुज़ारते। रात को किसी लम्हे खुले दरवाज़े से आकर बेड पर गिर जाते। शुरू शुरू में माँ ने सख़्ती की, फिर चीख़-ओ-पुकार और फिर वो आदी हो गई। हर एक की सुबह अपने अपने वक़्त पर तलूअ होती। सारा की बज़ाहिर, मारधाड़ से भरपूर शख़्सियत, अंदर से किसी ख़ौफ़ज़दा कबूतर की मानिंद थी। और दादी के पास आकर वो ख़ौफ़ज़दा कबूतर आँखें बंद कर सकता था। सारा कबूतरी बनी, जितनी देर चाहती दादी के पास रह सकती थी। दादी किसी को उसे चीड़ने फाड़ने को इजाज़त नहीं दे सकती है।

    कफ़न में लेटने से पहले दादी ने अपने गले में लटके मोतियों में जड़े सलीब को अपने झुर्रियों ज़दा, टूटे नाख़ुनों वाले करख़्त हाथों से सारा के गले में डाल दिया। दादी की मौत से सारा शहर बेगाना हो गया। बेगानगी हद से बढ़ी तो उसने अपने सारे कपड़े एक सूटकेस में डाले और टोरंटो चली आई। मशीनों और इमारतों की हुक्मरानी वाले शहर में... चलते-फिरते रोबोटों, नाइट क्लबों और अनगिनत ख़ुदकुशियों के शहर में,बेघरों और नशे की पनाह में सड़कों के किनारे हिप्पियों के शहर में, ख़ुद को खोने के लिए वो भी आन उतरी थी। अनगिनत सिफ़रों में एक और सिफ़र।

    बारह बजने वाले थे। आज ऑफ़िस में ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो रश कम था। फ़ोन आरहे थे, होल्ड करवाती, फिर मतलूबा नंबर पर ट्रांसफ़र करवा देती।

    जाने क्यों आज माज़ी के दयार में जीने का जी चाह रहा था सारा का।

    गहरे ज़र्द और गुलाबी रंगों के फूलों वाला बग़ैर आस्तीन का ब्लाउज़ और प्लेन ब्राउन स्कर्ट पहने वो अकेली तन्हा बेंच पर बैठी थी, सामने लेक शोर का हसीं मंज़र था और पांव तले नर्म सब्ज़ा। बढ़ती हुई ख़ुनकी और ढलती शाम माहौल को मज़ीद पुरअसरार कर रहे थे।

    Can I sit here?

    के सवाल ने उसे चौंका दिया था। वो एक लंबे घने से बालों वाला नौजवान था जिसकी कूल्हों तक उतरती पैंट्स की दोनों जेबों में ठुँसी हुई चीज़ें वाज़िह नज़र आरही थीं।

    Ok

    सारा ने किसी जोश का मुज़ाहरा किए बग़ैर कहा।

    अगला सवाल मुतवक़्क़े था... हर नौजवान... जवान, अधेड़ उम्र मर्द का सवाल।

    Are you single?

    जवाब में यस या नो कहने के बजाय सारा ने पूछा,

    Why?

    रिस्पांस में ताख़ीर हुई तो सारा ने तिरछी नज़रों से उसके चेहरे को देखा। वहां भी एक तिरछी नज़र उसे तक रही थी। नज़रें मिलीं तो दोनों बेसाख़्ता मुस्कुरा दिए। फिर साथ ही दोनों का क़हक़हा बुलंद हुआ। मुस्कुराने का कोई मतलब था, क़हक़हा का... मगर अच्छा लगा। शाम अचानक ही तरंग में आगई थी, जैसे माहौल के पैमाने से अर्ग़वानी मशरूब छलक जाये।

    काफ़ी... दूसरा यकतरफ़ा सवाल।

    Why?

    सारा ने फिर यक हर्फ़ी जवाब दिया मगर इस बार अंदाज़ में शोख़ी थी, जिसका जवाब एक भरपूर मर्दाना क़हक़हा था।

    तारे रात की ख़बर लाए एक एक कर के आसमान पर हाज़िरी लगाने लगे और हवाओं में छिपा बर्फ़ीला चूरा जिल्द को छीलने लगा तो दोनों साथ साथ उठ खड़े हुए। सारा ने अपना कोट उठाया और उसने अपना।

    कैलीफोर्निया की ख़ाक छानता पहुंचा था यहां। रिज़्क़ की तलाश में था। माँ ज़िंदा थी मगर उसकी शक्ल नहीं देखना चाहता था। गर्ल फ्रेंड्स की तादाद याद नहीं थी। पहला पुलिस केस 13 साल की उम्र में बता रहा था। सबब अफ्रीक़न होना कहता था। रात के 12बजे सारा ने वहां से जाने के लिए आख़िरी बस पकड़ी तो डेविड को रात गुज़ारने के लिए अपनी मंज़िल का पता था। बस का इंतिज़ार करते हुए सारा के दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई... ख़ुदा करे आख़िरी बस गुज़र गई हो और ये रात मज़ीद गहरी... मज़ीद ठंडी और पुरअसरार हो जाये... मगर ऐन उस वक़्त बस सामने थी।

    बस ड्राईवर को टिकट दिखा कर, सारा ने पलट कर देखा। बस के दरवाज़े बंद हो गए। हाय, कम्बख़्त रोक ही लेता। उसकी एक ही झलक नज़र आई... उदासी के समुंदर में डुबो देने जैसी झलक और बेकरां तारीकी। मस्नूई रंगों की रौशनियों में भी ज़िंदा। तारीकी की ताक़तवर जादूगरनी। इतनी देर में एक दूसरे के फ़ोन नम्बर्ज़ भी ऐक्सचेंज नहीं कर पाए थे, बस ब्रेन टीज़र टाइप, छोटे छोटे सवालों से एक दूसरे को ज़ख़माते और कुरेदते रहे।

    कोई एक माह गुज़रा, जब सारा एक बस से उतर कर दूसरी बस का इंतज़ार कर रही थी। बस से उतरते ही सारा ने बस स्टॉप से ज़रा दूर हो कर सिगरेट सुलगा लिया था।

    हेलो, सामने से आते हुए डेविड ने पूरे दाँत दिखाते हुए कहा।

    ख़ुशगवार हैरत की एक मौज ने गोया सारा के पूरे जिस्म को असीर कर लिया।

    तक़रीबन उसी हुलिए में, मगर मानूसियत के रंग लिये डेविड सामने खड़ा हुआ। दोनों ने हाई फ़ाइफ़ से इस ख़ुशगवार मुलाक़ात का ख़ैरमक़दम किया।ज़मानों बाद किसी ने सारा के लिए मफ़िन लिये और काफ़ी ख़रीदी। ख़ानदान का ज़िक्र आने पर ख़ुद को क़ुदरत का बेटा कहने लगा। टेबल पर एक दूसरे की आँखों में आँखें डाल कर ख़ुद को टटोलते, ढूंडते रहे। दोनों ने एक दूसरे के साथ देर तक वक़्त गुज़ारा, हँसे भी, उदास भी हुए। सारा माज़ी में ज़िंदा थी, वो हाल में। मगर दोनों ही मुस्तक़बिल की किसी इम्कानी रहगुज़र की तलाश में थे जहां ज़िंदगी अपनी माअनवियत के साथ ज़िंदा हो। इस मुलाक़ात में दोनों ने एक दूसरे के साथ फ़ोन नंबर ऐक्सचेंज किए, दोनों के शाने एक दूसरे के साथ देर तक जुड़े रहे। जुदा होते हुए, बिला इरादा कुछ देर के लिए एक दूसरे के साथ जुड़ कर खड़े एक दूसरे की साँसें महसूस करते रहे और तीसरी मुलाक़ात में बग़ैर कुछ कहे-सुने दोनों ने शादी का वक़्त तै कर लिया।

    चर्च के इंतिज़ामात के लिए दोनों ने अपने असासे देखे। अंगूठियों की क़ीमतें चेक कीं। दुल्हन और दुल्हा के लिए किराए पर दस्तयाब लिबास एक दूसरे के लिए पसंद किए। कड़ी शराइत पर दो दिन के लिए अच्छे ख़ासे किराए की गाड़ी के काग़ज़ पर साइन किए। टोटल 13 मेहमान, 8सारा की तरफ़ से, पाँच डेविड के, तीन मर्द और एक जोड़ा। शम्पेन, खाना। दोनों के बैंक एकाऊंट ख़ाली हो चुके थे मगर दिल जाम-ए-मुहब्बत से लबरेज़।

    कैसा अच्छा फ़ैसला था हमारा। सारा ने लंच ब्रेक में अपना लंच बॉक्स खोलते हुए सोचा। यूं लगता था कि गोया डेविड आसमान से टपका है। तन्हा, कभी फ़ैमिली का ज़िक्र किया सुनने के मूड में आया।

    आहिस्ता-आहिस्ता डेविड की आँखों की उदासियां भी कम हो रही थीं और सारा का फ़्लैट भी घर घर सा लगने लगा था। वो डेली वेजेज़ पर काम करता था जब कि सारा एक फ़र्म में रिसेप्शनिस्ट थी। दोनों की तनख़्वाह किराए का घर चलाने के क़ाबिल थी, मगर बग़ैर किसी इरादे के दोनों में यूं जुदाई आई कि दोनों हैरतज़दा रह गए।

    मुझे बच्चा नहीं चाहिए। ये डेविड की ज़िद थी। सारा की ज़िद ये नहीं थी कि उसे बच्चा चाहिए बल्कि उसका ग़ुस्सा था कि क्यों नहीं चाहिए?

    डेविड थोड़े बहुत लफ़्ज़ों के हेर-फेर से यही जुमले बोलता कि उसने आज तक कोई रोल मॉडल तक नहीं देखा। और ये कि उसे बाप के तसव्वुर से ही नफ़रत आती थी। डेविड का कहना था कि उसे हर उस बच्चे से हमदर्दी है जो इस दुनिया में वारिद नहीं हुआ और अगर बच्चा लाज़िमी चाहिए तो गोद ले लेते हैं। फोस्टरिंग... पेरेंटिंग से बेहतर है। क्या फ़र्क़ होगा... गोद लिया बच्चा हमारी अपनी पैदाकर्दा औलाद से कमतर होगा क्या। वो भी दो इन्सानों का पैदा किया हुआ बच्चा होगा और आख़िर मेरे और तुम्हारे बच्चे के पैदा होने से दुनिया पर क्या असर पड़ सकता है सिवाए इसके कि हम एक नए बच्चे को दुनिया में लाने के गुनाह के मुर्तक़िब नहीं होंगे।

    रोज़-रोज़ की झिक-झिक ने दोनों के दरमियान ख़्वाह मख़ाह की अना की दीवार खड़ी कर दी। डेविड का रवैय्या समझाने वाला होता और सारा का जारिहाना। एक वीक ऐंड पर दोनों ने इस मसले के फाईनल हल के लिए कहीं बाहर बैठ कर गुफ़्तगु करने का फ़ैसला किया। सारा अपने फ़ैसले पर अटल थी। डेविड हमेशा की तरह दलायल दे रहा था जिसे सारा अपनी ज़िद से रद्द किए जा रही थी।

    आख़िर क्या करोगी बच्चों के साथ? सुबह से शाम तक हम दोनों नौकरी करते हैं, कभी उसे नर्सरी तो कभी डे केअर में भेजोगी। फिर स्कूलों का बेरहम माहौल। इवनिंग क्लब्स के नाम पर एक और इस्तिहसाल। मैं गुज़रा हूँ इस इस्तिहसाली निज़ाम से। मैं आने वाले लातादाद बच्चों को तो नहीं रोक सकता मगर... मैं होशोहवास में होते हुए किसी भी अंजान-व-मासूम रूह को एक बेबस इन्सान की तरह दुनिया में नहीं फेंक सकता। ज़िंदगी से खिलवाड़ सफ़्फ़ाकी है, महज़ अपनी मामूली ख़्वाहिश की तकमील के लिए क्यों एक नई ज़िंदगी को इस बेरहम दुनिया के रहम-ओ-करम पर फेंका जाये। डेविड का फ़लसफ़ा बिल्कुल वाज़िह था और वो अपने फ़ैसले में किसी लचक का रवादार था।

    इस खुल्लम खुल्ला इनकार पर सारा को ग़ुस्सा तो बहुत आया मगर उसके पास अपने दिफ़ा में कहने के लिए कुछ भी था। इस प्वाईंट पर डेविड से इख़्तिलाफ़ था, शदीद इख़्तिलाफ़, मगर उसके अपने पास भी इस सवाल का जवाब नहीं था कि आख़िर वो बच्चे क्यों चाहती थी? उसके पास बच्चे को देने के लिए आख़िर क्या नया या अनोखा था? ले दे के उसके पास एक ही जवाज़ था कि ये उसके औरतपने की तकमील है, जिसे डेविड दरअसल सारा की अना की तस्कीन समझे बैठा था।

    सारा के लिए अपनी ख़्वाहिश और ज़िद से दस्तबरदार होना मुम्किन था। उस बच्चे की ख़्वाहिश हसरत में बदलती दिखाई दी तो उसने ज़िंदगी से नफ़रत का इज़हार करते हुए, डेविड को खरी खरी सुनानी शुरू कर दीं। सारा ने उसे ख़ुदग़रज़, जिस्मानी लज़्ज़त का असीर, ग़ैर ज़िम्मेदार और फ़रारियत पसंद गरदाना और दोनों के ताल्लुक़ को महज़ सस्ते जज़्बात और वक़्त गुज़ारी का ज़रिया कहा।

    ये ग़लत है। तुम मेरी सोलमेट हो। डेविड की आँखों में नमी आगई।

    काश मैं तुम्हें... मेरा बचपन दिखा सकता। वो ज़िल्लतें, झिड़कियां और दर्द दिखा सकता जिन्होंने मेरा बचपन, मेरे लिए एक ख़त्म होने वाला नाइट मेयर बना दिया। मुझे माँ के नाम पर एक ग़ुस्सावर, गालियां बकती, सारी दुनिया से लड़ती ख़ौफ़नाक औरत नज़र आती है और बाप की जगह डरावने साये। हर जगह मेरा तआक़ुब करते साये। मुझे पीटते, धक्के मारते, मुझे गिरा कर रौंद कर, मेरे ऊपर से गुज़र जाने वाले साये। ये नाइट मेयर उस वक़्त ख़त्म हुआ जब तुम मेरी ज़िंदगी में आईं और तुमने मुझे क़बूल किया, ऐसे जैसा मैं हूँ। कभी मुझसे कुछ नहीं पूछा। कभी मेरा बचपन कुरेद कर मुझे नंगा नहीं किया। तुम मेरी पनाहगाह हो। मैंने ख़ुद को तुम्हें सौंप दिया अब जो चाहे मेरे साथ सुलूक करो। मगर मैं क्या करूँ... मैं ख़ुद पर जब्र करके भी किसी इन्सान को जन्म देने में तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।

    वो पहली रात थी जब दोनों अजनबियों की तरह एक छत तले सोए। अजनबियों की तरह उठे। किरायादारों की तरह बाथरूम और किचन इस्तिमाल किया। और इससे पहले कि मुहब्बत फिर दोनों को अपने दामन में समेट लेती... सारा ने अपनी शर्ट्स और नीली काली जीन्ज़ अपने सूटकेस में बेदर्दी से ठूंसते हुए घर छोड़ने का ऐलान किया।

    उदास डेविड ने आहिस्तगी से बैग की ज़िप खोली। पहले सारा के कपड़े निकाल कर सोफ़े पर रखे, फिर एहतियात से तमाम ख़ाने खोले और उसकी ज़रूरी चीज़ें निकाल कर बैग ख़ाली किया, जब तक सारा बाथरूम से निकली... डेविड उसके सूटकेस में अपने कपड़े पैक कर के जा चुका था। सोफ़े पे रखे सारा के कपड़ों पर धरे सफ़ेद काग़ज़ पे तहरीर था।

    ये तुम्हारा घर है। तुम्हें नहीं बल्कि मुझे घर छोड़ देना चाहिए। याद रखना मैं घर छोड़ रहा हूँ, तुम्हें नहीं, सिर्फ़ तुम्हारा डेविड।

    तहरीर पढ़ते ही सारा का वजूद किसी कमज़ोर परिंदे की तरह उड़ान का ज़ोर भूल गया। उसे ऐसे लगा जैसा कि अचानक उसके सर से आसमान खिसक गया हो और वो किसी ब्लैक होल की और खिंची चली जा रही हो। दिल में ख़याल आया, कितनी दूर गया होगा। जाऊं और उसके गले में बाँहें डाल कर उसे वापस ले आऊँ। या फिर फ़ोन करूँ और वापस आने के लिए कहूं।

    फ़ैसला बदबख़्त ऐसे ही वक़्त नहीं हो पाता जब उसकी सख़्त ज़रूरत हो। क़दम उठे बाँहें मेहरबान हुईं। फ़ोन धरे का धरा रह गया। और यूं वक़्त की ज़ंजीर घंटों से दिनों, फिर हफ़्तों, महीनों और सालों में बदल गई... और फिर जब भी अना की गिरिफ़्त ढीली हुई सारा ने बारहा फ़ोन किया। डेविड ने अपना नंबर तब्दील कर लिया था... राबिता ख़्वाब हो गया था।

    वक़्त बादशाह है जिसे ज़वाल नहीं। वो अपने प्यादों की आह-ओ-बका कहाँ सुनता है। हर रुकावट रौंदना और बढ़ते चले जाना उसका शेवा है... प्यादे... शिकवे-शिकायत करते, गिरते पड़ते, फिर मुक़द्दरों को कोसते, ज़िंदगी बसर करने लग जाते। यही हाल सारा का था। उसे यक़ीन था कि एक दिन डेविड पलट आएगा। लेकिन गुज़रते दिनों और सालों ने राब्ते का कोई सिलसिला बना कर दिया। कोलीग्स की तल्ख़-ओ-तुर्श बातों से दिल बर्दाशता कई बार नौकरी तब्दील करने का सोचा मगर हर जगह एक ही नौईयत का जाल बिछा देखकर कोई ग़ैर ज़रूरी फ़ैसला करने से ख़ुद को बाज़ रखा।

    ऐसा नहीं था कि डेविड के इलावा दुनिया में कोई मर्द नहीं था। साथ काम करने वाले कोलीग्स से ले कर जान पहचान वालों ने हस्ब-ए-इस्तिताअत उसकी तन्हाई बांटने की इस्तिदआ अपने अपने तरीक़े से की मगर किसी नए चोंचले को बर्दाश्त करने की हिम्मत पाकर, सारा का मुकम्मल ध्यान डेविड और उसके साथ बताए ख़ूबसूरत दिनों की तरफ़ मब्ज़ूल रहता। हर रोज़ किसी किसी आहट पर उसका दिल अचानक यूं धड़क उठता कि शायद ये चाप, ये आहट ये दस्तक डेविड की हो। कोई एक साल वो इसी मख़मसे का शिकार रही कि आज... अभी... कल, या शाम को अचानक दरवाज़े पर डेविड खड़ा होगा, मगर फिर ये ख़याल तब्दील हो गए थे। कभी सोचती, वापस स्टेट चला गया होगा। हो सकता है किसी पुरानी गर्लफ्रेंड से शादी करली हो। या फिर कोई नया ताल्लुक़ बना लिया हो। दिलफ़िगार दिलों पर दस्तक देना बहुत आसान होता है। ऐसे ही लम्हों में रिश्ते आसानी से बन जाते हैं। मगर इन तमाम वस्वसों के बावजूद वो ख़ुद को डेविड के इलावा किसी मर्द के साथ जोड़ने के लिए तैयार थी।

    तन्हाई और उदासी बेकरां हुई तो उसने फर्टिलिटी क्लीनिक्स से राबिता करना शुरू किया और बिलआख़िर एक अच्छे स्पर्म बैंक से राबिता हो गया।

    मामूल टेस्टस और मुख़्तलिफ़ अदवियात के कोर्सेज़ करवाने के बाद स्पर्म बैंक ने एक सेहतमंद डोनर के स्पर्मज़ मिलते ही उससे राबिता किया। डोनर की नस्ल और रंगत के मुताल्लिक़ सारा ने अपने सवाल नामे के जवाब में वाज़िह तौर पर लिखा था कि उसे इससे ग़रज़ नहीं। आम तौर पर स्पर्म बैंक्स इंतिज़ार के लिए दो से तीन साल का वक़्त लेते हैं। मगर सारा के केस में महज़ सात माह में डोनर का बंदोबस्त हो गया था।

    आम दिनों की मसरूफ़ ज़िंदगी में तन्हाई का आसेब यूं नहीं लिपटता था, जैसा कि उस दिन उस पर सवार हुआ जब वो फ़र्टिलिटी क्लीनिक में स्पर्म इन्सर्ट करवाने पहुंची। नर्स ने कहा था कि एक सेहतमंद स्पर्म ही काफ़ी होगा प्रेगनेंसी के लिए मगर 37 साल की उम्र में वो कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहती थी लिहाज़ा उसने तीनों स्पर्म इन्सर्ट करने के लिए कहा।

    हमल ठहरते ही वो एक अजनबी और अंजान सी ख़ुशी से तो हमकनार हुई। मगर जूँ-जूँ हफ़्ते बढ़े, उसकी तशवीश और सोचों में तग़य्युर भी बढ़ता गया। बच्चे के इम्कानी अख़राजात के पेश-ए-नज़र उसने सब्सिडाइज़्ड हाउस के लिए काफ़ी अर्सा पहले दरख़्वास्त दे दी थी, जो प्रेग्नेंसी के छटे महीने में मंज़ूर हो गई थी और वो चाहने के बावजूद भी इस छोटे मगर साफ़ सुथरे फ़्लैट से निकल कर उस घर में चली गई जहां वो कम अज़ कम चार से पाँच सौ डालर माहाना बचा सकती थी जिससे आने वाले बच्चे की डे केअर के इलावा दीगर खर्चे भी पूरे हो सकते थे, बग़ैर किसी पार्टनर के तन्हा ज़िंदगी गुज़ारते हुए उस की प्रेग्नंसी की ख़बर ने उस ऑफ़िस में जहां वो काम कर रही थी, चौंकाया ज़रूर, मगर मुआमला सिर्फ़ मुबारकबाद देने की हद तक महदूद रहा।

    प्रेग्नंसी के दौरान सारा ने घर को डेकोरेट किया। फूल और परिंदे दीवारों पर चस्पाँ किए। बच्चे के लिए रंग बिरंगे खिलौने और कपड़े लिये। जान-बूझ कर बच्चे की जिन्स के बारे में डाक्टर से कुछ पूछा बल्कि उसे भी बताने से मना कर दिया। उसे ख़ुशी थी कि अब वो कभी तन्हा नहीं होगी। ज़मीन पर अब उसका एक सहारा होगा मगर मौजूदा तन्हाई और डेविड के तसव्वुर ने उसके अंदर एक मुस्तक़िल उदासी फैलाए रखी। रह-रह कर उसको डेविड का ख़याल आता अगर वो उसको आते-जाते कहीं प्रेग्नेंट देख लेगा तो क्या समझेगा? फिर ख़याल आता, क्या वो ऐसा सोच भी सकता है?

    लेकिन इतने जदीद तरीन राब्तों के तरीक़ों के बावजूद उसका राबिता करना भला क्या पैग़ाम देता है यही कि वो मुझे हमेशा के लिए छोड़ गया है, कभी वापस आने के लिए और मुझसे किसी क़िस्म का ताल्लुक़ नहीं रखना चाहता, हालाँकि मेरा फ़ोन नंबर भी वही जो उसके फ़ोन में महफ़ूज़ था।

    सारा के लिए ये फ़ैसला करना मुश्किल था कि वो ख़ुद को सिंगल समझे या नहीं... लाईफ़ पार्टनर, कॉमन पार्टनर की इस्तेलाहें बहुत क़ाबिल-ए-क़बूल हैं, मिसेज़ के लाहक़े से अलग, मगर जिस शख़्स को ये दर्जा दिया जाये उसका अता पता होना तो ज़रूरी है। ये पज़ल करने वाला सवाल था। किसी अनजाने ख़ौफ़ के बावजूद उम्मीद की किरनें ख़ुद को फुरोज़ां रखतीं, कभी रोती कभी हँसती। मगर बार-बार आने वाले बच्चे के लिए अपने आपको एक अच्छी रोल मॉडल माँ साबित करने का ख़ुद से अह्द करती।

    प्रेग्नेंसी और डिलेवरी से लेकर कारला के अव्वलीन दिनों की बीमारी जैसे आज़माईशी लम्हों में उसे एक साथी की कमी शिद्दत से महसूस हुई, कोई सहारा होता, बाज़ू थामने वाला, उसका बोझ हल्का करने वाला। किसी को उसकी थकन का एहसास होता। पहली बार कारला को देखकर, उसकी मुंधी-मुंधी आँखों और निहायत कोमल वजूद को महसूस करते हुए वो घबरा सी गई कि ख़ुशी का इज़हार कैसे करे और कैसे अपने जज़्बात को बयान करे। किससे कहे और कौन सुनेगा। तन्हाई और अकेलेपन का इतना ख़ौफ़नाक इदराक उसे पहली बार हुआ था। काश, माँ क़रीब होती, एक लम्हे के लिए उसने सोचा। मगर माँ का ख़याल आते ही उसे दहश्त और नफ़रत ने आन लिया। दिल चाहा क़िस्से कहानियों की माँ जैसी होती, ऐसी नहीं जैसी कि उसकी माँ थी। एक ज़माना वो माँ से दूर रहने के बावजूद अपने दिल में अपनी माँ के लिए गुंजाइश निकाल सकी थी, चंद एक-बार उसने सोचा था कि वो एक ख़त लिख कर माँ को अपने जज़्बात से आगाह करे कि उसने उसे क्यूँकर छोड़ दिया और क्यों ज़िंदगी की इतनी बेमानवियत, अजनबियत और तन्हाई के बावजूद उसे माँ की ज़रूरत महसूस नहीं होती। वो चाहती थी कि उसकी माँ कुछ ऐसा कहे कि वो महसूस करसके कि कोई उसे अपना समझता है। उसने सुन रखा था कि वालिदैन से नाराज़ रहने वाली औलाद उनके मरने पे फूट फूट कर रोती है और गिर्ये-ओ-ज़ारी करते हुए उनकी एक ही इल्तिजा होती है कि किसी तरह वक़्त मेहरबान हो और वो अपने वालिदैन के हाथ थाम कर सिर्फ़ एक जुमला कह दें, आई लव यू।

    वो जुमला जो वो बरसों से अपनी अना के भारी पत्थर तले कुचले बैठे रहते हैं, मगर ये सब सुनी सुनाई कहानियां थीं। सारा ने अपने चारों अतराफ़ की बेगाना दुनिया देखते हुए सोचा कि अगर इस वक़्त कोई ख़त, कोई काल आजाए या कोई शनासा मिल जाये जो उसे उसके वालिदैन की मौत की ख़बर सुनाए तो उसका रद्द-ए-अमल क्या होगा?

    कुछ भी नहीं... शायद कुछ भी नहीं... शायद इतना भी नहीं जितना उस दिन क्रेडिट कार्ड खो जाने पे हुआ था। शायद ख़ूनी रिश्ते मजबूरी के रिश्ते होते हैं जिनसे मुंसलिक रहना मुआशरती मजबूरी बना दिया गया है मगर उनकी हैसियत बायलाजिकल रिश्तों से ज़्यादा नहीं है। जितना हर शख़्स का इन्फ़िरादी फे़अल है और वो ख़ुद ही अपने क़ौल-ओ-अमल के कटहरे में जिरह सुन सुनकर सफ़ाईयां देता है, जबकि इन ख़ून के रिश्तों की गवाहियाँ भी आम तौर पर मुख़ालिफ़ पलड़े में ही अपना वज़न डालती हैं।

    क़ब्ल इसके कि तन्हाई और आज़माईशें उसे तोड़ डालतीं, कारला ने उसे ज़िंदगी जीने का जवाज़ मुहय्या कर दिया था। कारला की आँखें गुफ़्तगु करती थीं... उसके बाल घुंघरियाले थे और उसकी मुस्कुराहट में ज़िंदगी का हुस्न, सारा ने कारला की ज़ात के गिर्द अपने वजूद का ताना-बाना बन लिया था और यूं ख़ुद को मक़सदियत के साथ गुज़ार रही थी। कारला उसके वजूद का अटूट अंग... उसका हाल और मुस्तक़बिल थी। एक ऐसा वजूद जिसने उसके वजूद से जन्म लिया था और जिसको पाने के लिए उसने बहुत बड़ी क़ुर्बानी दी थी।

    डेविड को खो दिया था, हमेशा के लिए, शायद।

    इस सारे सफ़र में पार्टीज़ और महफ़िलों में साथ ड्रिंक और डांस करने वाले दोस्त भी सारा के तर्ज़-ए-ज़िदंगी को 'बो'र क़रार देते हुए कनारा कश हो गए थे। लोग वही सुनना चाहते हैं जो वो पसंद करते हैं, अगर इन्सान अपने दिल की बात कहता है तो दुश्मन बना लेता है या दोस्त खो बैठता है। कुछ दोस्त नासिह बन बैठे तो कुछ डेविड के बारे में सारा के इंतिज़ार को सोलहवीं सदी का नाकाम इश्क़ क़रार देते चले गए। इसमें भी सारा के लिए यक गो ना इत्मिनान का पहलू था। उसे मालूम था कि बच्चा पालना निहायत जान जोखूं का काम है। ख़ुसूसन वहां, जहां औरत को सिंगल माँ का दर्जा तो हासिल हो मगर फ़ुल टाइम मुलाज़मत भी करनी हो। न्यूक्लीयर फ़ैमिलीज़ में इन्फ़िरादियत के साथ जीना, दूर से जितना पुरकशिश नज़र आता है, क़रीब से इतना ही महंगा सौदा है। लिहाज़ा कारला की परवरिश में किसी का रोल था, किसी का एहसान ना था। और ये बात सारा के लिए सुकून का बाइस थी कि वो और उसकी कारला, दुनिया में एक दूसरे के लिए बने थे।

    हेलो, एरियन ने मेज़ पर ख़ासे ज़ोर से हाथ मारते हुए सारा की आँखों में झाँका, पाँच बज चुके थे। ऑफ़िस ख़ाली हो चुका था और वो अभी तक ला यानी सोचों में ख़ुद को और माहौल को भुलाए बैठी थी।

    Are you ok?

    Sorry, have a great weekend.

    कहते हुए सारा ने एरियन का शुक्रिया अदा किया और कम्प्यूटर ऑफ़ करती हुई उठ खड़ी हुई।

    पंद्रह से बीस मिनट में वो कारला को लेती हुई घर आगई। साढे़ पाँच बजने में अभी कुछ वक़्त था। एक ज़माने के बाद उसने ग़ौर से अपना चेहरा आईने में देखा। अपने ख़द्द-ओ-ख़ाल में उदासी और मेहनत के रंगों की लकीरें देखीं तो आँखों में नमी लिए मुस्कुरा दी।

    गुलाबी लिपस्टिक और गुलाबी टाप मैं ख़ुद को देखते हुए उसे क़दरे इत्मिनान हुआ। ये गुलाबी शोख़ रंग डेविड का पसंदीदा रंग था। नाख़ुन पालिश से उंगलियां सजाने का वक़्त नहीं था। बेबी पिंक फ़्राक कारला को पहनाते हुए वो कई बार गुनगुनाती भी और बार-बार कारला को सीने से लगाकर उसके गालों और माथे पे बोसे दिए। वो उस एक लम्हा के इंतिज़ार में थी, जिसने सालों बाद आना था।

    पहले उसने दरवाज़ा खुला रखा था, फिर लॉक किया... चंद मिनटों बाद दुबारा खोल दिया। अभी कारला को शूज़ पहनाने ही थे कि दरवाज़े पे हल्की सी दस्तक हुई, मानूस दस्तक... सुनी सुनाई आश्ना सी दस्तक पर की होल से झाँका तो बावजूद इसके कि वो पोर-पोर डेविड की मुंतज़िर थी। धक से रह गई। लरज़ते जिस्म और काँपते हाथों से दरवाज़ा खोला। रंग बिरंगे फूलों का गुलदस्ता और गिफ्ट पैक दोनों हाथों से थामे सामने डेविड खड़ा था।

    हाय हनी... डेविड की मुस्कुराहट वही थी। बस आँखें मज़ीद गहरी और पुरअसरार हो गई थीं।

    हाय... कहते हुए सारा दरवाज़े के सामने से हट गई।

    क़ब्ल इसके कि दोनों एक दूसरे के क़रीब आएं, कारला दोनों के दरमियान थी।

    Who is he Mom?

    Me... .

    डेविड घुटनों के बल वहीं बैठ गया।

    First let me know who are you?

    डेविड ने बच्चों के से स्टाइल में पूछा।

    I am Called Carla.

    निहायत इत्मिनान और एतिमाद से कारला बोली।

    Can we go to the Park?

    पार्क, कारला ने माँ की तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा।

    अरे रुको अभी। पहले कुछ चाय, काफ़ी पीते हैं डेविड।

    हम आते हैं। मैं सिर्फ़ चाय के लिए नहीं आया हूँ। डेविड की आँखें चमक रही थीं।हम घूम कर आते हैं। फिर मिलकर चाय-काफ़ी पिएँगे बल्कि खाना भी। भूका हूँ बहुत। डेविड ने अपना दायाँ बाज़ू सारा की कमर के गर्द हमायल किया और उसके गुलाबी होंटों को चूम लिया।

    You still look like a doll?

    डेविड ने गहरी नज़रों से उसके सरापे का जायज़ा लिया और एक दम कारला को गोद में उठा कर बोला।

    Say bye to mom... we are coming

    But who is he Mom.

    कारला ने हैरत और ख़ुशी की मिली-जुली कैफ़ियत से पूछा।

    This is Mr. David.

    ओह मिस्टर डेविड... नाइस टू मेट यू।

    कारला ख़ुशी की शिद्दत से बोली।

    ये चंद लम्हे... किसी छोटे से फ़िल्मी ट्रेलर की तरह छपाके से नज़रों के सामने से गुज़र गए। शिद्दत-ए-जज़्बात और नाक़ाबिल-ए-यक़ीन सी कैफ़ियत में सारा डूबी हुई थी। गहरे गहरे सांस लेती, गुलदस्ते और पैकेटस मेज़ पर सजा कर बैठी तो अचानक अनजाने ख़ौफ़ की एक लहर उसके वजूद में सरायत कर गई।

    तक़रीबन पाँच साल के बाद डेविड आया था और जिस वजह से मुझे और घर को छोड़कर गया था वो वजह सिर्फ़ अपनी जगह बरक़रार है बल्कि एक बच्ची की शक्ल में मौजूद है। कारला की तख़लीक़ के अवामिल तो सिर्फ़ मैं ही जानती हूँ या फिर चंद एक दोस्त। बाक़ी सब कुछ हस्पताल की फाईल में मौजूद है... क्या डेविड के लिएइन सब बातों पर यक़ीन करना आसान होगा। सारा ने सोचा।

    कितनी आसानी से उसने फ़ोन पर पूछा था।

    सुना है कि तुम्हारे पास एक प्यारी सी बेटी भी है। सवाल था या मालूमात का इज़हार।

    डेविड हमेशा ही नर्म ख़ू और पुर मुहब्बत रहा था। ग़ैर ज़रूरी अनानियत का उसके पास जवाज़ था। मासवाए अपने माज़ी को कुरेदने के, उसे कोई दूसरी बात पर अज़ीयत महसूस होती थी। मगर बहरहाल, बच्चे का मौज़ू उसकी दुखती रग था और इस नुक्ते पर दोनों के दरमियान नाराज़गी इतनी बढ़ी के एक फ़रीक़ को घर छोड़कर जाना पड़ा। और कुछ यूं कि सालों तक एक दूसरे की ख़बर तक ली। वो एक अजीब मख़मसे में पड़ गई।

    सात बजे... फिर आठ... नौ बज गए थे, सूरज मुकम्मल डूब गया था। वस्वसों और सवालात ने सारा के ख़ौफ़ में मज़ीद इज़ाफ़ा कर दिया था। उसे लगा सब कुछ ग़लत हो गया।

    मैंने कैसे कारला डेविड के हवाले कर दी बग़ैर कुछ पूछे, बग़ैर कुछ कहे-सुने। डेविड कुछ नहीं जानता कारला के बारे में। कहते हैं मर्द की मर्दानगी को सब से ज़्यादा तैश उस वक़्त आता है जब उसे मालूम होता है उसके तसर्रुफ़ में रहने वाली औरत की वफ़ादारी मशकूक है। और मेरे पास तो एक अदद बच्ची है, जिसके बाप के बारे में कोई कुछ भी सोच सकता है, ख़ास तौर पर डेविड। फ़िल्मी और ड्रामाई कहानियों के साथ साथ आए दिन बच्चों के साथ होने वाली दहशतनाक कार्यवाहियों और ज़्यादतियों की अख़बारी ख़बरों ने उसके ज़ह्न को यरग़माल बना लिया।

    फ़ोन हाथ में पकड़ कर उसने वही नंबर डायल किया जिससे डेविड ने उसे काल की थी। फ़ोन की घंटी बजती रही, मगर दूसरी तरफ़ से फ़ोन अटेंड हुआ।ओह गॉड। सारा ने सर पकड़ लिया।

    उतरती गहरी सियाह रात उसके आसाब कमज़ोर कर रही थी कि अचानक दरवाज़ा खुला और हेलो माम की पुरजोश आवाज़ के साथ ही कारला की किलकारी गूँजी।

    हाथ में अपनी पसंदीदा आइस्क्रीम का पैकेट उठाए कारला उसकी टांगों से लिपट गई।

    डेविड के होंटों पर ऐसी पुरसुकून और मुहब्बत भरी मुस्कुराहट सारा ने पहले नहीं देखी थी। बेटी को गले लगाते हुए गहरा सुकून और सांस लेकर सारा ने डेविड का हाथ थामा और बोली,बैठो डेविड।

    Not David Mom he is Daddy.

    कारला ने क़तईयत भरे अंदाज़ में सारा को मुख़ातिब किया।

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