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देख कबीरा रोया

सआदत हसन मंटो

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MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    कबीर के माध्यम से यह कहानी हमारे समाज की उस स्वभाव को बयान करती है जिसके कारण लोग हर सुधावादी व्यक्ति को कम्युनिस्ट, अराजकतावादी क़रार दे देते हैं। समाज में हो रही बुराइयों को देख-देखकर कबीर रोता है और लोगों को उन बुराइयों को करने से रोकता है। परंतु हर जगह उसका मज़ाक़ उड़ाया जाता है। लोग उसे बुरा भला कहते हैं और मार कर भगा देते हैं।

    नगर नगर ढिंडोरा पीटा गया कि जो आदमी भीक मांगेगा उसको गिरफ़्तार कर लिया जाये। गिरफ्तारियां शुरू हुईं। लोग ख़ुशियां मनाने लगे कि एक बहुत पुरानी ला’नत दूर हो गई।

    कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँसू गए। लोगों ने पूछा, “ए जूलाहे तू क्यों रोता है?”

    कबीर ने रो कर कहा, “कपड़ा दो चीज़ों से बनता है, ताने और पेटे से। गिरफ़्तारियों का ताना तो शुरू हो गया पर पेट भरने का पेटा कहाँ है?”

    एक एम.ए, एल.एल.बी को दो सौ खडियाँ अलॉट हो गईं। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँसू आगए। एम.ए, एल.एल.बी ने पूछा, “ए जूलाहे के बच्चे तू क्यों रोता है? क्या इसलिए कि मैंने तेरा हक़ ग़स्ब कर लिया है?”

    कबीर ने रोते हुए जवाब दिया, “तुम्हारा क़ानून तुम्हें ये नुक्ता समझाता है कि खडियाँ पड़ी रहने दो, धागे का जो कोटा मिले उसे बेच दो। मुफ़्त की खट खट से क्या फ़ायदा... लेकिन ये खट खट ही जूलाहे की जान है!”

    छपी हुई किताब के फर्मे थे जिनके छोटे बड़े लिफाफे बनाए जा रहे थे। कबीर का उधर से गुज़र हुआ। उसने वो तीन लिफ़ाफ़े उठाए और उन पर छपी हुई तहरीर पढ़ कर उसकी आँखों में आँसू आगए लिफ़ाफ़े बनाने वाले ने हैरत से पूछा, “मियां कबीर, तुम क्यों रोने लगे?”

    कबीर ने जवाब दिया, “इन काग़ज़ों पर भगत सूरदास की कविता छपी है। लिफ़ाफ़े बना कर उसकी बेइज़्ज़ती करो।”

    लिफ़ाफ़े बनाने वाले ने हैरत से कहा, “जिसका नाम सूरदास है। वो भगत कभी नहीं हो सकता।”

    कबीर ने ज़ार-ओ-क़तार रोना शुरू कर दिया।

    एक ऊंची इमारत पर लक्ष्मी का बहुत ख़ूबसूरत बुत नस्ब था। चंद लोगों ने जब उसे अपना दफ़्तर बनाया तो उस बुत को टाट के टुकड़ों से ढाँप दिया। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँसू उमड आए। दफ़्तर के आदमियों ने उसे ढारस दी और कहा, “हमारे मज़हब में ये बुत जायज़ नहीं।”

    कबीर ने टाट के टुकड़ों की तरफ़ अपनी नमनाक आँखों से देखते हुए कहा, “ख़ूबसूरत चीज़ को बद-सूरत बना देना भी किसी मज़हब में जायज़ नहीं।”

    दफ़्तर के आदमी हँसने लगे। कबीर दहाड़ें मार मारकर रोने लगा।

    सफ़ आरा फ़ौजों के सामने जरनैल ने तक़रीर करते हुए कहा, “अनाज कम है, कोई पर्वा नहीं। फ़सलें तबाह हो गई हैं, कोई फ़िक्र नहीं... हमारे सिपाही दुश्मन से भूके ही लड़ेंगे।”

    दो लाख फ़ौजियों ने ज़िंदाबाद के नारे लगाने शुरू करदिए।

    कबीर चिल्ला चिल्ला के रोने लगा। जरनैल को बहुत ग़ुस्सा आया, चुनांचे वो पुकार उठा, “ऐ शख़्स, बता सकता है, तू क्यों रोता है?”

    कबीर ने रोनी आवाज़ में कहा, “ऐ मेरे बहादुर जरनैल... भूक से कौन लड़ेगा।”

    दो लाख आदमियों ने कबीर मुर्दा बाद के नारे लगाने शुरू कर दिए।

    “भाईयो, दाढ़ी रखो, मूंछें कतरवाओ और शरई पाजामा पहनो... बहनो, एक चोटी करो, सुर्ख़ी सफेदा लगाओ, बुर्क़ा पहनो!” बाज़ार में एक आदमी चिल्ला रहा था। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखें नमनाक हो गईं।

    चिल्लाने वाले आदमी ने और ज़्यादा चिल्ला कर पूछा, “कबीर तू क्यों रोने लगा?”

    कबीर ने अपने आँसू ज़ब्त करते हुए कहा, “तेरा भाई है तेरी बहन, और ये जो तेरी दाढ़ी है। इसमें तू ने वस्मा क्यों लगा रखा है... क्या सफ़ेद अच्छी नहीं थी।”

    चिल्लाने वाले ने गालियां देनी शुरू करदीं। कबीर की आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे।

    एक जगह बहस हो रही थी।

    “अदब बराए अदब है।”

    “महज़ बकवास है, अदब बराए ज़िंदगी है।”

    “वो ज़माना लद गया... अदब, प्रोपगंडे का दूसरा नाम है।”

    “तुम्हारी ऐसी की तैसी...”

    “तुम्हारे इस्टालन की ऐसी की तैसी...”

    “तुम्हारे रजअ’त पसंद और फ़ुलां फ़ुलां बीमारियों के मारे हुए फ़लाबेयर और बावलेयर की ऐसी की तैसी।”

    कबीर रोने लगा, बहस करने वाले बहस छोड़ कर उसकी तरफ़ मुतवज्जा हुए। एक ने उससे पूछा, “तुम्हारे तहत-उल-शुऊर में ज़रूर कोई ऐसी चीज़ थी जिसे ठेस पहुंची।”

    दूसरे ने कहा, “ये आँसू बुरज़वाई सदमे का नतीजा हैं।”

    कबीर और ज़्यादा रोने लगा। बहस करने वालों ने तंग आकर बयक ज़बान सवाल किया, “मियां, ये बताओ कि तुम रोते क्यों हो?”

    कबीर ने कहा, “मैं इसलिए रोया था कि आपकी समझ में जाए, अदब बराए अदब है या अदब बराए ज़िंदगी।”

    बहस करने वाले हँसने लगे, एक ने कहा, “ये प्रोलतारी मस्ख़रा है।”

    दूसरे ने कहा, “नहीं ये बुरज़वाई बहरूपिया है।”

    कबीर की आँखों में फिर आँसू आगए।

    हुक्म नाफ़िज़ हो गया कि शहर की तमाम कस्बी औरतें एक महीने के अंदर शादी कर लें और शरीफ़ाना ज़िंदगी बसर करें। कबीर एक चकले से गुज़रा तो कस्बियों के उड़े हुए चेहरे देख कर उसने रोना शुरू कर दिया। एक मौलवी ने उससे पूछा, “मौलाना, आप क्यों रो रहे हैं?”

    कबीर ने रोते हुए जवाब दिया, “अख़लाक़ के मुअ’ल्लिम, इन कस्बियों के शौहरों के लिए क्या बंदोबस्त करेंगे?”

    मौलवी कबीर की बात समझा और हँसने लगा। कबीर की आँखें और ज़्यादा अश्कबार हो गईं।

    दस बारह हज़ार के मजमे में एक आदमी तक़रीर कर रहा था, “भाईयो, बाज़-याफ़्ता औरतों का मसला हमारा सब से बड़ा मसला है। इसका हल हमें सबसे पहले सोचना है, अगर हम ग़ाफ़िल रहे तो ये औरतें क़हबाख़ानों में चली जाएंगी। फ़ाहिशा बन जाएंगी... सुन रहे हो, फ़ाहिशा बन जाएंगी... तुम्हारा फ़र्ज़ है कि तुम उनको इस ख़ौफ़नाक मुस्तक़बिल से बचाओ और अपने घरों में उनके लिए जगह पैदा करो... अपने अपने भाई, या अपने बेटे की शादी करने से पहले तुम्हें इन औरतों को हरगिज़ हरगिज़ फ़रामोश नहीं करना चाहिए।”

    कबीर फूट फूट कर रोने लगा। तक़रीर करने वाला रुक गया। कबीर की तरफ़ इशारा करके उसने बलंद आवाज़ में हाज़िरीन से कहा, “देखो, उस शख़्स के दिल पर कितना असर हुआ है।”

    कबीर ने गुलूगीर आवाज़ में कहा, “लफ़्ज़ों के बादशाह, तुम्हारी तक़रीर ने मेरे दिल पर कुछ असर नहीं किया... मैंने जब सोचा कि तुम किसी मालदार औरत से शादी करने की ख़ातिर अभी तक कुंवारे बैठे हो तो मेरी आँखों में आँसू आगए।”

    एक दुकान पर ये बोर्ड लगा था, “जिन्ना बूट हाऊस,” कबीर ने उसे देखा तो ज़ार-ओ-क़तार रोने लगा।

    लोगों ने देखा कि एक आदमी खड़ा है। बोर्ड पर आँखें जमी हैं और रोए जा रहा है। उन्होंने तालियां बजाना शुरू करदीं, “पागल है... पागल है!”

    मुल्क का सबसे बड़ा क़ाइद चल बसा तो चारों तरफ़ मातम की सफ़ें बिछ गईं। अक्सर लोग बाज़ुओं पर स्याह बिल्ले बांध कर फिरने लगे। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँसू गए। स्याह बिल्ले वालों ने उससे पूछा, “क्या दुख पहुंचा जो तुम रोने लगे?”

    कबीर ने जवाब दिया, “ये काले रंग की चिन्दियाँ अगर जमा कर ली जाएं तो सैंकड़ों की सतरपोशी कर सकती हैं।”

    स्याह बिल्ले वालों ने कबीर को पीटना शुरू कर दिया, “तुम कम्युनिस्ट हो, फिफ्थ कालमिस्ट हो। पाकिस्तान के ग़द्दार हो।”

    कबीर हंस पड़ा, “लेकिन दोस्तो, मेरे बाज़ू पर तो किसी रंग का बिल्ला नहीं।”

    स्रोत:

    نمرودکی خدائی

      • प्रकाशन वर्ष: 1952

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