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हमदोश

MORE BYराजिंदर सिंह बेदी

    स्टोरीलाइन

    "दुनिया की रंगीनी और बे-रौनक़ी के तज़्किरे के साथ इंसान की ख़्वाहिशात को बयान किया गया है। शिफ़ाख़ाने के मरीज़ शिफ़ाख़ाने के बाहर की दुनिया के लोगों को देखते हैं तो उनके दिल में शदीद क़िस्म की ख़्वाहिश अंगड़ाई लेती है कि वो कभी उनके बराबर हो सकेंगे या नहीं। कहानी का रावी एक टांग कट जाने के बावजूद शिफ़ायाब हो कर शिफ़ाख़ाने से बाहर आ जाता है और दूसरे लोगों के बराबर हो जाता है लेकिन उसका एक साथी मुग़ली, जिसे बराबर होने की शदीद तमन्ना थी और जो धीरे धीरे ठीक भी हो रहा था, मौत के मुँह में चला जाता है।"

    सतही नज़र से तो यही दिखाई देता है कि मर्कज़ी शिफ़ाख़ाने के उन लोगों को जिनकी निगरानी में बहुत से ना-उमीद पुरउम्मीद मरीज़ रहते हैं, मसावात पर बहुत यक़ीन है। वो हर छोटे बड़े को बिला इम्तियाज़ मज़हब-ओ-मिल्लत, तीस तीस गिरह के खुले पाइंचों का पाजामा और खुले-खुले बाज़ुओं वाली क़मीस पहना देते हैं, जिनसे एक ख़ास क़िस्म की सोंधी-सोंधी नामानूस सी बू आती है। क़मीस घुटने से भी छः गिरह ऊँची होती है। बा'ज़ वक़्त इतनी ऊँची कि इज़ारबंद भी दिखाई देने लगता है। मर्कज़ी शिफ़ाख़ाने और मर्कज़ी ज़िंदानख़ाने के मकीनों की पोशिश में फ़र्क़ ही क्या है? यही कि शिफ़ाख़ाने के मकीनों की पोशिश क़द्रे मटियाली रंगत की मगर उजली होती है, लेकिन ज़िंदानख़ाने में बसने वाले बद-नसीबों को शायद ही कभी धोबी का मुँह देखना नसीब होता है।

    शिफ़ाख़ाने में उन तीस-तीस गिरह के खुले पाइंचों और ढीली-ढाली क़मीसों में ढके हुए बदन भी एक ही साख़्त के होते हैं। जिस्मानी लिहाज़ से कोई क़द्रे फ़र्बा या कोई बहुत लाग़र हो तो हो, लेकिन मुँह पर एक ही सी ज़र्दी छाई होती है। एक ही ख़ौफ़ या अंदेशा होता है, जो हर एक के दिल में इज़तिराब पैदा करता है।

    “क्या हम मौत के इस ग़ार से ज़िंदा सलामत गुज़र जाऐंगे?”

    —और यही सोच उन ग़रीबों पर रातों की नींद हराम कर देती है।

    सूरज डूबने को है। शिफ़ाख़ाने के अहाते की मरम्मत तलब दीवार पर ममोले की मादा अपने अंडों के खोल बनाने के लिए चूना कुरेदने आती है और उसी वक़्त उन्ही तीस-तीस गिरह के खुले पाइंचों और ढीली-ढाली क़मीसों में बेरंग-ओ-रूप चेहरों वाले लोग हुक्म-ए-इम्तिनाई के बावजूद शिफ़ाख़ाने के अहाते की मरम्मत तलब दीवार पर तंदुरुस्ती का नज़ारा करने आते हैं और घंटों हसरत के आ'लम में इस मुतहर्रिक ज़िंदगी का तमाशा करते हैं।

    शिफ़ाख़ाने के सामने एक बिसाती की दुकान पर चंद नौजवान लड़कियों का जमघटा है। उनकी रंगारंग साड़ियों के पल्ले बेबाकाना तौर पर सर से उड़ रहे हैं। कोई ‘हिमानी’ की ख़रीदार है और कोई ‘ज़ीनत’ की और कोई ‘कोटि’ की...दुकान के ऊपर, छत पर प्रोफ़ेसर की बीवी चिक़ के पीछे अपने लबों पर से लिपिस्टिक की उड़ी हुई सुर्ख़ी को दुरुस्त करती हुई धुँदली-धुँदली सी दिखाई देती है।

    मेरा साथी अ'ज़ीमुद्दीन खेड़ा मुग़ली...खेड़ा मुग़ल का रहने वाला है। मुग़ली प्रोफ़ेसर की हसीन बीवी को देख कर एक लम्हे के लिए अपने कारबंकल, बल्कि वजूद तक के एहसास से बेनियाज़ हो कर कहता है,

    “क्या उसके लबों पर से सुर्ख़ी उड़ गई थी?”

    “देखते नहीं...अभी प्रोफ़ेसर के कमरे से बाहर रही है...और...”

    “हुश श...हुश...”और हमारा दूसरा साथी अशचरज लाल फिर हमें फ़ना के आ'लम में ले आता है।

    सड़क पर एक सब्ज़ ओपल कार पूरे ज़ोर से हॉर्न बजाती हुई गुज़रती है। उसमें बैठे हुए दो बूढ़ों की निगाहें ताँगा में जाती हुई दुल्हन की सुर्ख़ चूड़ियों में पेवस्त हैं और दुल्हन की निगाहें सड़क के किनारे पर पड़े हुए कूड़े करकट के ढेर पर जम रही हैं।

    चंद एक ओबाश छोकरे अपने मख़सूस बेपर्वाना अंदाज़ से ‘टप्पे’ गाते हुए सिनेमा की तरफ़ लपके जा रहे हैं और उनसे कुछ हट कर संभल-संभल कर चलते हुए एक साधू महात्मा हैं, जिनका एक एक क़दम शांति के तजस्सुस में उठता है। वो शांति और सुकून जो कहीं नहीं मिलता...शिफ़ाख़ाने के फाटक पर दो ख़्वांचा वाले गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं। वो दोनों बैक साअ'त दरवाज़े के ऐ'न बग़ल में अपना ख़्वांचा रखना चाहते हैं...कमज़ोर ने पीछे हट कर तन-ओ-मंद को एक पत्थर मारा है...

    “अरे बे-सब्र-ओ-क़नाअ'त लोगो! सेहत की इस थोड़ी सी ख़ुशी से जो तुम्हें आ'रियतन दी गई है, क्यों मुस्तफ़ीज़ नहीं होते? अरे देखते नहीं, हम तुम्हारे भाई कितने हिर्मां नसीब हैं?”

    “हाँ भाई! ये सब तंदुरुस्ती की बातें हैं।” अशचरज लाल कहता है।

    “शायद हम भी तंदुरुस्त हो कर ऐसा ही करें।”

    फिर खेड़ा मुग़ली उस क़ब्रिस्तान की तरफ़, जो शिफ़ाख़ाने के क़रीब वाक़े है, देख कर चौंक उठता है और कहता है...

    “कल हमारे ही कमरे में...सातवीं चारपाई...उफ़! मेरा सर घूम रहा है। मुझे यूँ दिखाई देता है, जैसे वो क़ब्रिस्तान हमारी तरफ़ रहा है...”

    “हश...श श...” मैं उसे ख़ामोश हो जाने के लिए कहता हूँ, “ऐसी बात कहो भाई।”

    लेकिन ये मुग़ली के बस की बात नहीं। वो ज़ोर से छींकता है। कारबंकल के साथ उसे इन्फ्लुएंजा ने भी दबाया है। उसके बिल्कुल ज़र्द, बेरौनक चेहरे पर सुर्ख़ नोकदार रक़ीक़ लुआ'ब से भरी हुई नाक, एक अ'जीब करीह मंज़र पैदा कर रही है।

    लेकिन फिर भी हमें तंदुरुस्ती की दिलचस्प हिमाक़तें मह्व कर ही लेती हैं, हत्ता कि फिर मुग़ली एक ख़ौफ़नाक अंदाज़ से छींकता है और बहुत से आबी, लॉबी ज़र्रात धूप की किरनों में उड़ने लगते हैं। छींकने से मुग़ली की रीढ़ की हड्डी पर ज़ोर पड़ता है और वो दर्द के एक शदीद एहसास से कारबंकल पर हाथ रख लेता है। जूँ-जूँ दर्द कम होता है, उसकी मुड़ी हुई आँखें और हमारे रुके हुए सांस आहिस्ता-आहिस्ता वापस आते हैं। कुछ दम लेने के बाद मुग़ली कहता है,

    “भाई... क्या हम उन चूड़े वालियों, उन ख़्वान्चे वालों...मज़दूरों के हमदोश चल सकेंगे?”

    “तुम जी मला करो मुग़ली। मैं... मेरा ख़्याल है कि तुम बिल्कुल तंदुरुस्त हो जाओगे। अशचरज लाल पहले ही रु सेहत है, लेकिन मैं उन लोगों के शाना बशाना कभी नहीं चल सकूँगा, देखते नहीं मेरी टांग को? बिल्कुल गल ही तो गई है...काश! मैं उस गदागर के दोश ब-दोश चल सकूँ मुग़ली...मुझे इस बात की पर्वा नहीं। चाहे उस की तरह मेरी भी एक टांग काट ली जाए... मैं फ़क़त ये चाहता हूँ कि सेहत की हालत में उस अहाते की दीवार को फांद सकूँ...।”

    ...और यूँ उन तन्दुरुस्त इन्सानों के हमदोश चलने की एक ज़बरदस्त ख़्वाहिश को पालते हुए हम अपने अपने कमरों का रुख करते हैं और ममोले की मादा, जो कि मिट्टी के एक ढेर पर बैठी हमारे चले जाने का बड़ी ही बे-सब्री से इंतिज़ार कर रही थी, फिर उसी मरम्मत तलब दीवार पर अपने अंडों के खोल बनाने के लिए चूना कुरेदने आती है।

    जब परिंदा परवाज़ के लिए पर तौलता है और पंजे का पिछ्ला हिस्सा ज़मीन पर से उठा कर नशिस्त-ओ-परवाज़ की दर्मियानी हालत में होता है, उसे ‘सूरत-ए-नाहिज़’ कहते हैं। बीमार के लिए सूरत-ए-नाहिज़ बैठना मा'यूब और बदशगुनी की अ'लामत गिना जाता है। हाँ! जो इस दुनिया में से एड़ियाँ उठा कर फ़ज़ा-ए-अ'दम में पर्वाज़ करना चाहे, वो बीमार बिला ख़ौफ़ सूरत-ए-नाहिज़ बैठे।

    खेड़ा मुग़ली उसी तरह बैठा था। मैंने उसे यूँ बैठने से मना किया और हमें दरवाज़े से “गर्टी” आते दिखाई दी।

    गर्टी हमारी नर्स थी। उसका पूरा नाम मिस गर्र्मयूड बेन्सन(Miss Gertrude Benson) था, मगर हममें से चंद एक देरीना मरीज़ उससे इतने मानूस हो गए थे कि उसे उसके ईसाई नाम से बुलाने से ज़र्रा भर भी ताम्मुल नहीं करते थे और ये छोटी सी रिआ'यत गर्टी ने ख़ुद दे रखी थी। वो मुझ पर उमूमन और खेड़ा मुग़ली पर ख़ुसूसन मेहरबान थी। मुग़ली की उजड्ड, गंवारू हरकतें गर्टी के लिए बाइ'स-ए-तफ़रीह थीं। सुर्ख़ कम्बल को एक तरफ़ सरकाते हुए वो अक्सर मुग़ली के पास बैठ जाती और उसके झेलमी तराश के बालों में अपनी ख़ूबसूरत उंगलियाँ फेरा करती।

    जितना वो मुग़ली को प्यार करती, उतना ही उसे वहम हो जाता कि वो सलामती से बईद है। वो कहता,

    “वो महज़ मेरी दिलजूई के लिए मुझसे प्यार करती है... मरीज़ को हर मुम्किन तरीक़े से ख़ुश रखना, उनके पेशे की ख़ुसूसियत है और फिर गर्टी में जज़्बा-ए-रहम भी तो बहुत है। वो जानती है कि मेरे दिन बहुत क़रीब हैं और फिर उस चेहरे पर ये रुखा-फीका तबस्सुम भी रक़्स करेगा।”

    “गर्टी!...गर्टी...” हम दोनों ने पुकारा।

    शिफ़ाख़ाने में चंद एक मरीज़ ऐसे भी थे, जिन्हें खाना घर से मंगवा लेने की इजाज़त थी। हम उन ख़ुशनसीबों में से नहीं थे। हमें शिफ़ा ख़ाने की तरफ़ से बीमारों की ख़ास ख़ूराक मिलती थी...वो ख़ुशनसीब जब खाना खा कर चीनी के बर्तन दूर रख देते और उनमें सालन की ज़र्दी और रोंग़न की चिकनाहट दिखाई देती, तो हमारा दिल हमें बग़ावत के लिए उकसाता।

    गर्टी के हाथ से हमने खाना छीना। वही रोज़ मर्रा का खाना। अगर भूक होती, तो उसके खाने से हमें रत्ती भर भी रग़बत नहीं रहती थी। बहुत से दूध में थोड़ा सा सागूदाना तैरता हुआ यूँ दिखाई देता, जैसे बरसात के पानी में मेंढ़क के सैंकड़ों अंडे छोटे-छोटे सियाह दाग़ों की सूरत में एक झिल्ली में लिपटे हुए तैरते नज़र आते हैं।

    हमने क़हतज़दा लोगों के मख़्सूस अंदाज़ से एक ही रिकाबी में खाना शुरू कर दिया और गर्टी के कहे की मुतलक़ पर्वा की। मरीज़ों की तीमारदारी के लिए आए हुए लोग हमें घूरने लगे।

    “एक सिख और मुसलमान...साथ साथ नहीं, एक ही रिकाबी में!”

    ...वो क्या जानें कि शिफ़ाख़ाने के अहाते की चार दीवारी से बाहर सब कुछ है, मगर यहां कोई हिंदू है मुसलमान, सिख ईसाई, गौड़ ब्रह्मन और अछूत... यहाँ एक ही मज़हब के आदमी हैं, जिन्हें बीमार कहते हैं और जिनकी निजात शिफ़ा है। जिसके हुसूल के लिए वो अपनी तमाम ख़्वाहिशात और रही सही क़ुव्वत सर्फ़ कर डालते हैं।

    उस दिन शाम को हमने फिर तंदुरुस्त इन्सानों की दिलचस्प हिमाक़तों का तमाशा किया। वही हंगामे, वही बेसब्री...सामने एक डबल फ़्लाई रोटी ख़ेमा के नीचे चंद एक आदमी दा'वत उड़ा रहे थे। एक कोने में चंद बोतलें खुली पड़ी थीं। कभी-कभी सोडे की बुज़ की आवाज़ आती... वो लोग हंसते थे, चिल्लाते थे। केले और संगतरों के छिलके एक दूसरे पर फेंक कर निशाने बाज़ी की मश्क़ करते थे और इस दा'वत की तमाम रौनक़ क़ब्रिस्तान के बे-रौनक़ पसमंज़र की वजह से ज़्यादा बा-रौनक़ दिखाई दे रही थी। बे-शक! ज़िंदगी की बहुत सी ख़ुशियाँ मौत के पसमंज़र की रहीन-ए-मन्नत हैं जिस तरह अख़्तर-ए-शब की दरख़शन्दगी रात की सियाही और आसमान के नीलेपन की।

    खेड़ा मुग़ली ने यक-ब-यक सूरत-ए-नाहिज़ से उठ कर एक कांपता हुआ पुरजोश हाथ मेरे शाने पर रखा और मशकूक अंदाज़ से बोला,

    “भाई... क्या हम उन लोगों के हमदोश भी हो सकेंगे?”

    मैं कुछ देर मब्हूत खड़ा आसमान पर उड़ती हुई चंडोलों को देखता रहा। फिर मैंने मुग़ली से लिपटते हुए कहा, “हाँ... मुग़ली, क्यों नहीं? लेकिन तुम इस तरह बैठा मत करो।”

    फिर कुछ रुक रुक कर मैंने कहा,

    “कल मेरी टांग का अपरेशन है... गर्टी ने मुझे बताया था। शायद आज ये मेरी और तुम्हारी आख़िरी मुलाक़ात हो। तुम उन लोगों के दोश बदोश चल सकोगे... अशचरज भी शिफ़ा पा जाएगा... लेकिन मैं...।

    और हम दोनों चुप नमनाक आँखों में से एक दूसरे को देखते रहे।

    फिर खेड़ा मुग़ली ने एक ख़ौफ़नाक छींक ली।

    दूसरे दिन मेरी टांग काट ली गई।

    पाँचवें दिन मेरी आँख खुली। मैं हिल-जुल नहीं सकता था। मैंने देखा। खेड़ा मुग़ली मेरी पायंती पर बैठा जे़रे लब कुछ विर्द कर रहा था। मेरी आँखें खुलते हुए देख कर वो मुस्कुराने लगा। मैंने अपने बदन में कुछ ताक़त महसूस करते हुए उससे लिपटने के लिए कांपते हुए हाथ फैला दिए। मैं अपनी टांग के दुख जाने से बिलबिला उठा और मुग़ली अपने कारबंकल पर ज़ोर पड़ने से!

    मुग़ली का कारबंकल अच्छा हो रहा था। इसी दौरान में मैं शिफ़ा पा कर हस्पताल से चला गया। मेरी गैर-हाज़िरी में मेरी रफीक़-ए-ज़िंदगी फ़ौत हो चुकी थी। अब एक शीशम की, सख़्त सी दोहरी लाठी मेरी रफीक़-ए-ज़िंदगी बन गई थी। पहली और उस रफीक़-ए-ज़िंदगी में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि वो मुझे अपनी बातूनी तबीयत से नालाँ रखती और ये अपनी ख़ामोशी से नालाँ तर।

    उसी लाठी को बग़ल में दबाए मैं आहिस्ता-आहिस्ता काम पर चला जाता। मुझे अपनी टांग के काटे जाने का चंदाँ अफ़सोस था। मैं इस बात पर ख़ुश था कि तंदुरुस्त तो हो गया और अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ शिफ़ा ख़ाने के अहाते की दीवार से बाहर।

    एक दफ़ा मैं शिफ़ाख़ाने के पास से गुज़रा तो मेरी रूह तक लरज़ गई। उस वक़्त मेरे साथी और बाद में आए हुए मरीज़ हसरत भरी निगाहों से हमारी दिलचस्प हिमाक़तें देखने में मह्व थे... और अहाते की मरम्मत तलब दीवार पर तीन ममोले अपनी तीन काट की दुमों को थरथरा रहे थे। मेरे ख़याल में बड़ा ममोला छोटे ममोलों की माँ थी जो हमारी बीमारी के अय्याम में उसी दीवार पर अपने अंडों के खोल बनाने के लिए चूना कुरेदने आया करती थी।

    उस वक़्त मेरे सिवा उन मरीज़ों की तक्लीफ़ को कौन जान सकता था। मैंने उन लोगों की मुसीबत पर चंद एक आँसू बहाए...मुझे सामने बिसाती की दुकान पर चंद नौजवान लड़कियों का जमघटा दिखाई दिया। उनकी साड़ियों के पल्ले उसी तरह बेबाकाना तौर पर उड़ रहे थे... और छत पर, चिक़ के पीछे प्रोफ़ेसर की बीवी अपनी साड़ी की सलवटों को दुरुस्त करती हुई धुंदली सी दिखाई दे रही थी। मैं एक मुब्हम से एहसास के साथ बिसाती की दुकान की तरफ़ बढ़ा और वहाँ से कुछ रंगदार रेशमी फीते, लाठी को सजाने के लिए ख़रीदा और कुछ ग़ैर मुतमइन, खोया-खोया और लड़खड़ाता हुआ वापस लौटा।

    एक दिन मैं शिफ़ाख़ाने के अंदर गया, तो मैंने देखा, मुग़ली का कारबंकल बहुत हद तक ठीक हो चुका था। हाँ अशचरज की हालत नाज़ुक और नाक़ाबिल-ए-बयान थी... उसके बाद मुझे अपने एक अफ़्सर के साथ चंद हफ़्तों के लिए बाहर जाना पड़ा।

    मेरे दिल में कई बार ख़याल आया। खेड़ा मुग़ली मुझे कितना कोसता होगा। वो तो पहले ही कहा करता था कि इन्सान ख़ुद सुखी हो कर अपने गुज़िश्ता दुख और दूसरों की तकालीफ़ को अम्दन भूल जाया करता है। हरचंद ये बात दुरुस्त थी, मगर बा'ज़ मजबूरियों की वजह से मुझ पर आ'इद होती थी।

    वापस आने पर फ़ुर्सत के एक दिन में शिफ़ाख़ाने गया।

    गर्टी ने एक रूखी-फीकी मुस्कुराहट से मेरा इस्तिक़बाल किया। मैं डर से सहम गया। उसने मुझे बताया कि अशचरज लाल दो दिन हुए मुकम्मल शिफ़ा पा कर अजमेर चला गया है। मगर गर्टी ने खेड़ा मुग़ली की बाबत कुछ कहा।

    मैं एहतियात से क़दम उठाता हुआ जनरल वार्ड की तरफ़ गया। बरामदे के नीचे शिफ़ाख़ाने के मुलाज़िम चंद एक औरतों और बच्चों को बुलंद आवाज़ से रोने से मना कर रहे थे। उन औरतों में से एक खेड़ा मुग़ली की ज़ईफ़-उल-उम्र और नीम मुर्दा माँ थी, जो अपने बेटे की दाइमी मुफ़ारिक़त के ग़म में फ़लक शगाफ़ चीख़ें मार रही थी।... फिर उसकी बीवी...बच्चे...

    बरामदे के एक तरफ़ मुग़ली मौत की मीठी नींद सो रहा था। उसे यूँ देख कर मेरी बग़ल में से लाठी गिर पड़ी... मैं रो भी सका।

    लोगों ने चुपके से मुग़ली की मय्यत को उठाया। उसे कंधों के बराबर किया और कलमा-ए-शहादत पढ़ते हुए ले चले।

    स्रोत:

    Dana-o-Daam (Pg. 25-36)

    • लेखक: राजिंदर सिंह बेदी
      • प्रकाशक: मकतबा जामिया लिमिटेड, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1980

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