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हाफ़िज़ हुसैन दीन

सआदत हसन मंटो

हाफ़िज़ हुसैन दीन

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    यह तंत्र-मंत्र के सहारे लोगों को ठगने वाले एक ढोंगी पीर की कहानी है। हाफ़िज़ हुसैन दीन आँखों से अंधा था और ज़फ़र शाह के यहाँ आया हुआ था। ज़फ़र से उसका सम्बंध एक जानने वाले के ज़रिए हुआ था। ज़फ़र पीर-औलिया पर बहुत यक़ीन रखता था। इसी वजह से हुसैन दीन ने उसे आर्थिक रूप से ख़ूब लूटा और आख़िर में उसकी मंगेतर को ही लेकर भाग गया।

    हाफ़िज़ हुसैन दीन जो दोनों आँखों से अंधा था, ज़फ़र शाह के घर में आया। पटियाले का एक दोस्त रमज़ान अली था, जिसने ज़फ़र शाह से उसका तआरुफ़ कराया। वो हाफ़िज़ साहिब से मिल कर बहुत मुतअस्सिर हुआ। गो उनकी आँखें देखती नहीं थीं मगर ज़फ़र शाह ने यूं महसूस किया कि उसको एक नई बसारत मिल गई है।

    ज़फ़र शाह ज़ईफ़-उल-एतिका़द था। उसको पीरों-फ़क़ीरों से बड़ी अक़ीदत थी। जब हाफ़िज़ हुसैन दीन उसके पास आया तो उसने उसको अपने फ़्लैट के नीचे मोटर गराज में ठहराया। उसको वो वाईट हाउस कहता था।

    ज़फ़र शाह सय्यद था। मगर उसको ऐसा मालूम होता था कि वो मुकम्मल सय्यद नहीं है। चुनांचे उसने हाफ़िज़ हुसैन दीन की ख़िदमत में गुज़ारिश की कि वो उसकी तकमील करदें। हाफ़िज़ साहिब ने थोड़ी देर बाद अपनी बेनूर आँखें घुमा कर उसको जवाब दिया, “बेटा... तू पूरा बनना चाहता है तो ग़ौस-ए-आज़म जीलानी से इजाज़त लेना पड़ेगी।”

    हाफ़िज़ साहिब ने फिर अपनी बेनूर आँखें घुमाईं, “उनके हुज़ूर में तो फ़रिश्तों के भी पर जलते हैं।”

    ज़फ़र शाह को बड़ी नाउम्मीदी हुई, “आप साहब-ए-कशफ़ हैं... कोई मुदावा तो होगा।”

    हाफ़िज़ साहिब ने अपने सर को ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश दी, “हाँ, चिल्ला काटना पड़ेगा मुझे।”

    “अगर आपको ज़हमत हो तो अपने इस ख़ादिम के लिए काट लीजिए।”

    “सोचूंगा।”

    हाफ़िज़ हुसैन दीन एक महीने तक सोचता रहा। इस दौरान ज़फ़र शाह ने उनकी ख़ातिर-ओ-मुदारात में कोई कसर उठा रखी। हाफ़िज़ साहब के लिए सुबह उठते ही डेढ़ पाव बादाम तोड़ता। उनके मग़ज़ निकाल कर सरदाई तैयार करता। दोपहर को एक सेर गोश्त भुनवा के उसकी ख़िदमत में पेश करता। शाम को बालाई मिली हुई चाय पिलाता। रात को एक मुर्ग़ मुसल्लम हाज़िर करता।

    ये सिलसिला चलता रहा। आख़िर हाफ़िज़ हुसैन ने ज़फ़र शाह से कहा, “अब मुझे आवाज़ें आनी शुरू होगई हैं।”

    ज़फ़र शाह ने पूछा, “कैसी आवाज़ें क़िबला।”

    “तुम्हारे मुतअल्लिक़।”

    “क्या कहती हैं।”

    “तुम ऐसी बातों के मुतअल्लिक़ मत पूछा करो।”

    “माफ़ी चाहता हूँ।”

    हाफ़िज़ साहब ने टटोल-टटोल कर मुर्ग़ की टांग उठाई और उसे दाँतों से काटते हुए कहा, “तुम असल में मुनकिर हो... आज़माना चाहते हो तो किसी कुएं पर चलो।”

    ज़फ़र शाह थरथरा गया, “हुज़ूर मैं आपको आज़माना नहीं चाहता, आपका हर लफ़्ज़ सदाक़त से लबरेज़ है।”

    हाफ़िज़ साहब ने सर को ज़ोर से जुंबिश दी, “नहीं, हम चाहते हैं कि तुम हमें आज़माओ। खाना खालें तो हमें किसी भी कुएं पर ले चलो।”

    “वहां क्या होगा क़िबला।”

    “मेरा मामूल आवाज़ देगा... वो कुँआं पानी से लबालब भर जाएगा और तुम्हारे पांव गीले हुए जाऐंगे, डरोगे तो नहीं?”

    ज़फ़र शाह डर गया था। हाफ़िज़ हुसैन दीन जिस लहजे में बातें कर रहा था बड़ा पुरहैबत था... लेकिन उसने इस ख़ौफ़ पर क़ाबू पाकर हाफ़िज़ साहब से कहा, “जी नहीं, आपकी ज़ात-ए-अक़्दस मेरे साथ होगी तो डर का सवाल ही पैदा नहीं होता।”

    जब सारा मुर्ग़ ख़त्म होगया तो हाफ़िज़ साहब ने ज़फ़र शाह से कहा, “मेरे हाथ धुलवाओ और किसी कुएं पर ले चलो।”

    ज़फ़र शाह ने उसके हाथ धुलवाए, तौलिए से पोंछे और उसे एक कुएं पर ले गया जो शहर से काफ़ी दूर था। ज़फ़र शाह चादर लपेट कर उसकी मुंडेर के पास बैठ गया। मगर हाफ़िज़ साहब ने चिल्ला कर कहा, “पाँच क़दम पीछे हट जाओ... मैं पढ़ने वाला हूँ। कुएं का पानी लबालब भर जाएगा, तुम डर जाओगे।”

    ज़फ़र शाह डर कर दस क़दम पीछे हट गया। हाफ़िज़ साहिब ने पढ़ना शुरू कर दिया।

    रमज़ान अली भी साथ था जिसने ज़फ़र शाह से हाफ़िज़ साहब का तआरुफ़ कराया था। वो दूर बैठा मूंगफली खा रहा था।

    हाफ़िज़ साहब ने कुएं पर आने से पहले ज़फ़र शाह से कहा था कि दो सेर चावल, डेढ़ सेर शकर और पाव भर काली मिर्चों की ज़रूरत है जो उसका मामूल खा जाएगा... ये तमाम चीज़ें हाफ़िज़ साहब की चादर में बंधी थीं।

    देर तक हाफ़िज़ हुसैन दीन मालूम नहीं किस ज़बान में पढ़ता रहा। मगर उसके मामूल की कोई आवाज़ आई... कुएं का पानी ऊपर। हाफ़िज़ ने चावल, शकर और मिर्चें कुएं में फेंक दीं। फिर भी कुछ हुआ। चंद लम्हात सुकूत तारी रहा। उसके बाद हाफ़िज़ पर जज़्ब की सी कैफ़ियत तारी हुई और वो बुलंद आवाज़ में बोला, “ज़फ़र शाह को कराची ले जाओ... उससे पाँच सौ रुपए लो और गुजरांवाला में ज़मीन अलॉट करा लो।”

    ज़फ़र शाह ने पाँच सौ रुपए हाफ़िज़ की ख़िदमत में पेश कर दिए। उसने ये रुपए अपनी जेब में डाल कर उससे बड़े जलाल में कहा, “ज़फ़र शाह, तू ये रुपए दे कर समझता है मुझ पर कोई एहसान किया।”

    ज़फ़र शाह ने सर-ता-पा इज्ज़ बन कर कहा, “नहीं हुज़ूर, मैंने तो आपके इरशाद की तामील की है।”

    हाफ़िज़ हुसैन दीन का लहजा ज़रा नर्म होगया, “देखो सर्दियों का मौसम है, हमें एक धुस्से की ज़रूरत है।”

    “चलिए अभी ख़रीद लेते हैं।”

    “दो घोड़े की बोस्की की क़मीस और एक पंप शू।”

    ज़फ़र शाह ने गुलामों की तरह कहा, “हुज़ूर, आपके हुक्म की तामील हो जाएगी।”

    हाफ़िज़ साहब के हुक्म की तामील होगई। पाँच सौ रुपए का धुस्सा, पचास रुपए की क़राक़ुली की टोपी, बीस रुपए का पंप शू... ज़फ़र शाह ख़ुश था कि उसने एक पहुंचे हुए बुज़ुर्ग की ख़िदमत की।

    हाफ़िज़ साहिब वाईट हाउस में सो रहे थे कि अचानक बड़बड़ाने लगे। ज़फ़र शाह फ़र्श पर लेटा था। उसकी आँख लगने ही वाली थी कि चौंक कर सुनने लगा। हाफ़िज़ साहिब कह रहे थे, “हुक्म हुआ है... अभी-अभी हुक्म हुआ है कि हाफ़िज़ हुसैन दीन तुम दरिया रावी जाओ और वहां चिल्ला काटो, चिल्ला काटो, वहां तुम अपने मामूल से बात कर सकोगे।”

    ज़फ़र शाह, हाफ़िज़ को टैक्सी में दरियाए रावी पर ले गया। वहां हाफ़िज़ छियालीस घंटे मालूम नहीं क्या कुछ पढ़ता रहा। उसके बाद उसने ऐसी आवाज़ में जो उसकी अपनी नहीं थी कहा, “ज़फ़र शाह से तीन सौ रुपया और लो... अपने भाई की आँखों का ईलाज करो... तुम इतने ग़ाफ़िल क्यों हो, अगर तुमने ईलाज कराया तो वो भी तुम्हारी तरह अंधा हो जाएगा।”

    ज़फ़र शाह ने तीन सौ रुपये और दे दिए। हाफ़िज़ हुसैन दीन ने अपनी बेनूर आँखें घुमाईं जिसमें मसर्रत की झलक नज़र सकती थी और कहा, “डाकखाने में मेरे बारह सौ रुपए जमा हैं... तुम कुछ फ़िक्र करो, पहले पाँच सौ और ये तीन सौ... कुल आठ सौ हुए, मैं तुम्हें अदा कर दूँगा।”

    ज़फ़र शाह बहुत मुतास्सिर हुआ, “जी नहीं, अदायगी की क्या ज़रूरत है। आपकी ख़िदमत करना मेरा फ़र्ज़ है।”

    ज़फ़र शाह देर तक हाफ़िज़ की ख़िदमत करता रहा। इसके इवज़ हाफ़िज़ ने चालीस दिन का चिल्ला काटा मगर कोई नतीजा बरामद हुआ।

    ज़फ़र शाह ने वैसे कई मर्तबा महसूस किया कि वो पूरा सय्यद बन गया है और उसकी ततहीर होगई है, मगर बाद में उसको मायूसी हुई क्योंकि वो अपने में कोई फ़र्क़ देखता, उसकी तश्फ़्फी नहीं हुई थी।

    उसने समझा कि शायद उसने हाफ़िज़ साहब की ख़िदमत पूरी तरह अदा नहीं की। जिसकी वजह से उसकी उम्मीद बर नहीं आई। चुनांचे उसने हाफ़िज़ साहब को रोज़ाना एक मुर्ग़ खिलाना शुरू कर दिया। बादामों की तादाद बढ़ा दी। दूध की मिक़दार भी ज़्यादा कर दी।

    एक दिन उसने हाफ़िज़ साहब से कहा, “पीर साहब, मेरे हाल पर करम फ़रमाईए, मेरी मुराद कभी तो पूरी होगी या नहीं?”

    हाफ़िज़ हुसैन दीन ने बड़े पीराना अंदाज़ में जवाब दिया “होगी... ज़रूर होगी, हम इतने चिल्ले काट चुके हैं, ऐसा मालूम होता है कि अल्लाह तबारक-ओ-ताला तुमसे नाराज़ हैं... तुमने ज़रूर अपनी ज़िंदगी में कोई गुनाह किया होगा।”

    ज़फ़र शाह ने कुछ देर सोचा, “हुज़ूर, मैंने... ऐसा कोई गुनाह नहीं किया जो...”

    हाफ़िज़ साहिब ने उसकी बात काट कर कहा, “नहीं ज़रूर किया होगा... ज़रा सोचो।”

    ज़फ़र शाह ने कुछ देर सोचा, “एक मर्तबा अपने वालिद साहब के बटुवे से आठ आने चुराए थे।”

    “ये कोई इतना बड़ा गुनाह नहीं... और सोचो... कभी तुमने किसी लड़की को बुरी निगाहों से देखा था?”

    ज़फ़र शाह ने हिचकिचाहट के बाद जवाब दिया, “हाँ पीर-ओ-मुर्शिद... सिर्फ़ एक मर्तबा।”

    “कौन थी वो लड़की?”

    “जी मेरे चचा की।”

    “कहाँ रहती है?”

    “जी इसी घर में।”

    हाफ़िज़ साहब ने हुक्म दिया, “बुलाओ उसको... क्या तुम उससे शादी करना चाहते हो?”

    “जी हाँ... हमारी मंगनी क़रीब-क़रीब तय हो चुकी है।”

    हाफ़िज़ साहब ने बड़े पुरजलाल लहजे में कहा, “ज़फ़र शाह, बुलाओ उसको... तुमने मुझसे पहले ही ये बात कह दी होती तो मुझे बेकार इतना वक़्त ज़ाए करना पड़ता।”

    ज़फ़र शाह शश-ओ-पंज में पड़ गया। वो हाफ़िज़ साहब का हुक्म टाल नहीं सकता था और फिर अपनी होने वाली मंगेतर से ये भी नहीं कह सकता था कि वो हाफ़िज़ साहब को मिले। बादल-ए-नाख़्वास्ता ऊपर गया।

    बिलक़ीस बैठी नावेल पढ़ रही थी। ज़फ़र शाह को देख कर ज़रा सिमट गई और कहा, “आप मेरे कमरे में कैसे आगए।”

    ज़फ़र शाह ने दबे दबे लहजे में जवाब दिया, “वो... जो हाफ़िज़ साहब आए हुए हैं ना...”

    बिलक़ीस ने नावेल एक तरफ़ रख दिया, “हाँ हाँ... मैंने उन्हें कई मर्तबा देखा है... क्या बात है?”

    “बात ये है कि तुमसे मिलना चाहते हैं।”

    बिलक़ीस ने हैरत का इज़हार किया, “वो मुझसे क्यों मिलना चाहते हैं... उनकी तो आँखें ही नहीं।”

    “वो तुमसे चंद बातें करना चाहते हैं... बड़े साहब-ए-कशफ़ बुज़ुर्ग हैं। उनकी बात से मुम्किन है हम दोनों का भला हो जाये।”

    बिलक़ीस मुस्कुराई, “मालूम नहीं आप इतने ज़ईफ़-उल-एतिका़द क्यों हैं... लेकिन चलिए। अंधा ही तो है, उससे क्या पर्दा है।”

    बिलक़ीस ज़फ़र शाह के साथ वाईट हाउस में गई। हाफ़िज़ हुसैन दीन बैठा चिलगोज़े खा रहा था। जब उसने क़दमों की चाप सुनी तो बोला, “आ गए ज़फ़र शाह।”

    ज़फ़र शाह ने ताज़ीमन जवाब दिया, “जी हाँ हुज़ूर।”

    “लड़की आई है?”

    “जी हाँ।”

    हाफ़िज़ साहब ने अपनी बेनूर आँखों से बिलक़ीस को देखने की कोशिश की और कहा, “बैठ जाओ मेरे सामने।”

    बिलक़ीस सामने स्टूल पर बैठ गई।

    हाफ़िज़ साहब ने ज़फ़र शाह से कहा, “अब तुम्हारी मुराद बर आऐगी... हम लड़की को वज़ीफ़ा बताएंगे... इंशाअल्लाह सब काम ठीक हो जाऐंगे।”

    ज़फ़र शाह बहुत ख़ुश हुआ। उसने फ़ौरन फल मंगवाए और बिलक़ीस से कहा, “हाफ़िज़ साहब, मालूम नहीं कितनी देर लगाऐं... उनकी ख़िदमत करना भूलना।”

    हाफ़िज़ साहब ने कहा, “देखो, हम तुमसे बहुत ख़ुश हैं। आज हमारी तबीयत चाहती है कि तुम्हें भी ख़ुश करदें। जाओ बाज़ार से चार तोले नौशादर, एक तौला चूना, दस तोले शिंगरफ़ और एक मिट्टी का कूज़ा ले आओ... जितना उसका वज़न है उतना ही सोना बन जाएगा।”

    ज़फ़र शाह भागा-भागा बाज़ार गया। और ये चीज़ें ले आया। जब अपने वाईट हाउस पहुंचा तो किवाड़ खुले थे और उसमें कोई नहीं था। ऊपर गया तो मालूम हुआ कि बीबी बिलक़ीस भी नहीं है।

    स्रोत:

    باقیات منٹو

      • प्रकाशन वर्ष: 2002

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