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सिगरेट और फाउन्टेन पेन

सआदत हसन मंटो

सिगरेट और फाउन्टेन पेन

सआदत हसन मंटो

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    “मेरा पारकर फिफ्टी वन का क़लम कहाँ गया?”

    “जाने मेरी बला।”

    “मैंने सुबह देखा कि तुम उससे किसी को ख़त लिख रही थीं अब इनकार कर रही हो।”

    “मैंने ख़त लिखा था, मगर अब मुझे क्या मालूम कि वो कहाँ ग़ारत हो गया?”

    “यहां तो आए दिन कोई कोई चीज़ ग़ारत होती ही रहती है। मेंटल पीस पर आज से दस रोज़ हुए मैंने अपनी घड़ी रखी, सिर्फ़ इसलिए कि मेरी कलाई पर चंद फुंसियां निकल आई थीं। दूसरे दिन देखा वो ग़ायब थी।”

    “क्या मैंने चुरा ली थी?”

    “मैंने ये कब कहा, सवाल तो ये है कि वो गई कहाँ? तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैंने ये घड़ी वहीं रखी है उसके साथ ही दस रुपये आठ आने थे, ये तो वहीँ रहे, लेकिन घड़ी जिसकी क़ीमत दो सौ पछत्तर रुपये थी, वो ग़ायब हो गई। तुम पर मैंने चोरी का इल्ज़ाम कब लगाया है?”

    “एक घड़ी आपकी पहले भी गुम हो गई थी।”

    “हाँ।”

    “मैं तो ये कहती हूँ कि आपने ख़ुद उन्हें बेच खाया है।”

    “बेगम तुम ऐसी बेहूदा बातें किया करो, मुझे वो दोनों घड़ियां बहुत अज़ीज़ थीं। जिसके इलावा उन को बेचने का सवाल ही कहाँ पैदा होता था। तुम जानती हो कि मेरी आमदनी अल्लाह के फ़ज़ल से काफ़ी है। बैंक में इस वक़्त मेरे दस हज़ार से कुछ ऊपर रुपये जमा हैं, घड़ियां बेचने की ज़रूरत मुझे कैसे पेश सकती थी।”

    “किसी दोस्त को दे दी होगी।”

    “क्यों, क्या मुझे उनकी ज़रूरत नहीं थी। मैं तो घड़ी के बग़ैर रह ही नहीं सकता। ऐसा महसूस होता है कि मैं ऐसा छकड़ा हूँ जिसमें कोई पहिया नहीं। वक़्त का कुछ पता नहीं चलता, घर में क्लाक है मगर वो तुम्हारी तरह नाज़ुक मिज़ाज है। ज़रा मौसम बदले तो जनाब बंद हो जाते हैं फिर जब मौसम उनके मिज़ाज के मुवाफ़िक़ हो तो चलना शुरू कर देते हैं।”

    “या’नी मैं क्लाक हूँ?”

    “मैंने सिर्फ़ तशबीह के तौर पर कहा था। क्लाक तो बहुत काम की चीज़ है।”

    “और मैं किसी काम की चीज़ नहीं। शर्म नहीं आती आपको ऐसी बातें करते।”

    “मैंने तो सिर्फ़ मज़ाक़ के तौर पर ये कह दिया था तुम ख़्वाह-मख़्वाह नाराज़ हो गई हो।”

    “मैं आज तक कभी आपसे ख़्वाह-मख़्वाह नाराज़ हुई हूँ। आप ख़ुद ऐसे मौक़े देते हैं कि मुझे नाराज़ होना पड़ता है।”

    “तो चलिए अब सुलह हो जाये।”

    “सुलह वुलह के मुतअ’ल्लिक़ मैं कुछ नहीं जानती... इन बरसों में आपसे मैं पंद्रह हज़ार मर्तबा सुलह-सफ़ाई कर चुकी हूँ, मगर नतीजा क्या निकला है, वही ढाक के तीन पात।”

    “ढाक के तीन पातों को छोड़ो, तुम मुझे मेरा पारकर क़लम ला के दे दो। मुझे चंद बड़े ज़रूरी ख़त लिखने हैं।”

    “मुझे क्या पता है कि वो कहाँ है? ले गया होगा कोई उठा कर... अब मैं हर चीज़ का ध्यान तो नहीं रख सकती।”

    “तो फिर तुम किस मर्ज़ की दवा हो?”

    “मैं नहीं जानती लेकिन इतना ज़रूर जानती हूँ कि आप मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा रोग हैं।”

    “तो ये रोग दूर करो, हर रोग का कोई कोई ईलाज मौजूद होता है।”

    “ख़ुदा ही बेहतर करेगा ये रोग, ये किसी हकीम या डाक्टर से दूर होने वाला नहीं।”

    “अगर तुम्हारी यही ख़्वाहिश है कि मैं मर जाऊँ तो मैं इसके लिए तैयार हूँ... मेरे पास इत्तफ़ाक़ से इस वक़्त एक क़ातिल ज़हर मौजूद है, मैं खा कर मर जाता हूँ।”

    “मर जाईए।”

    “इसके लिए तो में तैयार हूँ ताकि रोज़ रोज़ की बक बक और झक झक ख़त्म हो जाये।”

    “आप तो चाहते हैं कि अपने फ़राइज़ से छुटकारा मिले। बीवी-बच्चे जाएं भाड़ में, आप आराम से क़ब्र

    में सोते रहें लेकिन मैं आपसे कहे देती हूँ कि वहां का अ’ज़ाब यहां के अ’ज़ाब से हज़ार गुना ज़्यादा होगा।”

    “हुआ करे... मैंने जो फ़ैसला किया है उस पर क़ायम हूँ।”

    “आप कभी अपने फ़ैसले पर क़ायम नहीं रहे।”

    “ये सब झूट है, मैं जब कोई फ़ैसला करता हूँ तो उस पर क़ायम रहता हूँ। अभी पिछले दिनों मैंने फ़ैसला किया था कि मैं सिगरेट नहीं पियूंगा, चुनांचे अब तक इस पर क़ायम हूँ।”

    “पाख़ाने में सिगरेट के टुकड़े कहाँ से आते हैं?”

    “मुझे क्या मालूम, तुम पीती होगी।”

    “मैं, मुझे तो उस चीज़ से सख़्त नफ़रत है।”

    “होगी मगर सवाल ये पैदा होता है कि आख़िर पाख़ाना भी कोई ऐसी मा’क़ूल जगह है जहां पर सिगरेट पिया जाए।”

    “चोरी छुपे जो पीना हुआ, पाख़ाने के इलावा और मौज़ूं-ओ-मुनासिब जगह क्या हो सकती है? आप मेरे साथ फ्रॉड नहीं कर सकते। मैं आपकी रग रग को पहचानती हूँ।”

    “ये तुमने मुझसे आज ही कहा कि मैं पाख़ाने में छुपछुप कर सिगरेट पीता हूँ।

    “मैंने इसलिए उसका ज़िक्र आपसे नहीं किया था। आप चूँकि तंबाकू के आदी हो चुके हैं इसलिए

    सिगरेट नोशी आप तर्क नहीं कर सकते, लेकिन ये बहरहाल बेहतर है कि आप दो एक सिगरेट दिन

    में पी लेते हैं, जहां आप पच्चास के क़रीब फूंकते थे।”

    “मैंने ढाई बरस में एक सिगरेट भी नहीं पिया, भंगी पीता होगा।”

    “भंगी गोल्ड फ्लेक और क्रेयोन नहीं पी सकता।”

    “हैरत है।”

    “किस बात की? हैरत तो मुझे है कि आप साफ़ इनकार कर रहे हैं, मुझे बना रहे हैं।”

    “नहीं, मैं सोच रहा हूँ कि ये सिगरेट वहां कौन पीता है?”

    “आपके सिवा और कौन पी सकता है। मुझे तो उसके धुएं से खांसी की शिकायत हो जाती है, मुझे तो इससे सख़्त नफ़रत है। मालूम नहीं आप लोग किस तरह इस वाहियात चीज़ का धुआं अपने अंदर खींचते हैं।”

    “ख़ैर इसको छोड़ो, मेरा पारकर का क़लम मुझे दो।”

    “मेरे पास नहीं है।”

    “तुम्हारे पास नहीं है तो क्या मेरे पास है? आज सुबह तुम ख़ुदा मालूम किसे ख़त लिख रही थीं। तुम्हारी उंगलियों में मेरा ही क़लम था।”

    “था, लेकिन मुझे क्या मालूम कहाँ गया। मैंने आपके मेज़ पर रखा होगा और आपने उठा कर

    किसी दोस्त को दे दिया होगा। आप हमेशा ऐसा ही करते हैं।”

    “देखो बेगम, मैं ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ कि क़लम मैंने किसी दोस्त को नहीं दिया। हो सकता है कि तुमने अपनी किसी सहेली को दे दिया हो।”

    “मैं क्यों इतनी क़ीमती चीज़ किसी सहेली को देने लगी। वो तो आप हैं कि हज़ारों अपने दोस्तों में लुटाते रहते हैं।”

    “अब सवाल ये है कि वो क़लम है कहाँ? मुझे चंद ज़रूरी ख़त लिखना हैं, जाओ मेरी जान, ज़रा थोड़ी सी तकलीफ़ करो, मुम्किन है ढ़ूढ़ने से मिल जाये।”

    “नहीं मिलेगा, आप फ़ुज़ूल मुझे तकलीफ़ देना चाहते हैं।”

    “तो ऐसा करो, दवात और पेन होल्डर ले आओ।”

    “दवात तो सुबह आपकी बच्ची ने तोड़ दी, पेन होल्डर भांजे के बेटे ने।”

    “इतने पेन होल्डर थे, कहाँ गए?”

    “मुझे क्या मालूम? आप ही इस्तेमाल करते हैं?”

    “मैंने तो आज तक पेन होल्डर कभी इस्तेमाल नहीं किया, कभी कभी तुम किया करती हो,जबकि मेरा फोंटेन पेन दस्तयाब हो।”

    “आपकी बच्चियां आफ़त की पुतलियां हैं, वही तोड़ फोड़ के बाहर फेंक देती होंगी।”

    “तुम ध्यान क्यों नहीं रखतीं।”

    “किस किस चीज़ का ध्यान रखूं, मुझे घर के काम काज ही से फ़ुर्सत नहीं मिलती।”

    “इसी लिए तो मेरी दो घड़ियां ग़ायब हुईं कि तुम्हें घर के काम काज से फ़ुर्सत नहीं मिलती। मैंने तो जब देखा, तुम पलंग पर लेटी हो। ख़ुदा मालूम तुम घर का काम काज वहीं लेटी लेटी करती हो।”

    “घर का सारा काम तो आप करते हैं।”

    “मैं इसका दा’वा नहीं करता, बहरहाल जो कुछ मैं कर सकता हूँ, करता रहता हूँ।”

    “क्या करते हैं आप?”

    “हफ़्ते में एक दो दफ़ा मार्किट जाता हूँ, मुर्ग़ और मछली ख़रीद कर लाता हूँ अंडे भी, कोयले की परमिट हासिल करता हूँ, घी का बंदोबस्त करता हूँ। अब मैं और क्या कर सकता हूँ? मसरूफ़ आदमी हूँ, दफ़्तर में जाना होता है। वहां जाऊं तो महीना ख़त्म होने के बाद सात सौ रुपये कैसे सकते हैं?”

    “इन सात सौ रूपों में से आप मुझे कितने देते हैं?”

    “पूरे सात सौ।”

    “ठीक है, लेकिन आप अपना गुज़ारा किस तरह करते हैं?”

    “अल्लाह बेहतर जानता है।”

    “रिश्वत लेते हैं और क्या, वर्ना सारी तनख़्वाह मुझे देने के बाद आप पाँच सौ पचपन के सिगरेट नहीं पी सकते।”

    “मैंने सिगरेट पीने तर्क कर दिए हैं।”

    “आप झूट क्यों बोलते हैं।”

    “मैं इस बहस में इस वक़्त जाना नहीं चाहता। तुम मेरा पारकर क़लम ज़रा ढूंढ के निकालो।”

    “मैं आपसे कह चुकी हूँ कि मेरे पास नहीं है।”

    “तो और किसके पास है?”

    “मुझे क्या मालूम, मैंने सुबह ख़त लिखा और मेंटल पीस पर रख दिया।”

    “वहां तो उसका नाम-ओ-निशान नहीं।”

    “आपने किसी दोस्त को बख़्श दिया होगा। ग्यारह बजे आपके चंद दोस्त आए थे।”

    “मेरे दोस्त कहाँ थे। सिर्फ़ मुलाक़ात करने आए थे, मैं तो उनका नाम भी नहीं जानता।”

    “मेरा नाम भी आप भूल गए होंगे, बताईए क्या है?”

    “तुम्हारा नाम... लेकिन बताने की ज़रूरत ही क्या है? तुम... तुम हो... बस?”

    “इन पंद्रह बरसों में आपको मेरा नाम भी याद नहीं रहा, मेरी समझ में नहीं आता आप किस क़िस्म के इंसान हैं?”

    “क़िस्में पूछोगी तो हैरान हो जाओगी, एक करोड़ से ज़्यादा होंगी। अब जाओ मेरा क़लम ढूंढ़ो।”

    “मैं नहीं जानती कहाँ है?”

    “ये क़मीस तुमने नई सिलवाई है?”

    “हाँ।”

    “गिरेबान बहुत ख़ूबसूरत है... अरे ये, इसमें तो मेरा क़लम अटका हुआ है।”

    “सच मैंने यहां उड़स लिया होगा, माफ़ कीजिएगा।”

    “ठहरो, मैं ख़ुद निकाल लेता हूँ। मुम्किन है तुम क़मीस फाड़ डालो”

    “ये क्या गिरा है?”

    “ये क्या है... अरे ये तो पाँच सौ पचपन सिगरटों का डिब्बा है, कहाँ से गया?”

    स्रोत:

    رتی،ماشہ،تولہ

      • प्रकाशन वर्ष: 1956

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