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रोने की आवाज़

सुरेंद्र प्रकाश

रोने की आवाज़

सुरेंद्र प्रकाश

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    स्टोरीलाइन

    यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। वह एक इमारत में कमरा लेकर तन्हा रहता है, और आस-पास की गतिविधियों को नोट करता रहता है। उसे हर वक़्त किसी के रोने की आवाज़ सुनाई देती रहती है। इन सब से तंग आकर वह बाहर जाने के लिए दरवाज़ा खोलता है, तो उसे पता चलता कि कोई और नहीं बल्कि वह ख़ुद रो रहा है।

    फ्लावर अंडर ट्री इज़ फ़्री

    सामने वाली कुर्सी पर बैठा अभी अभी वो गा रहा था। मगर अब कुर्सी की सीट पर उसके जिस्म के दबाव का निशान ही बाक़ी है। कितना अच्छा गाता है वो... मुझे मग़रिबी मौसीक़ी और शाइरी से कुछ ऐसी दिलचस्पी तो नहीं है। मगर वो कमबख़्त गाता ही कुछ इस तरह है कि मैं खो सा जाता हूँ। वो गाता रहा और मैं सोचता रहा। क्या फूल दरख़्त के साए तले वाक़ई आज़ाद है?

    वो अब जा चुका है। जिन सुरों में वो गा रहा था वो अपनी गूंज भी खो चुके हैं। मग अलफ़ाज़ से मैं अभी तक उलझा हुआ हूँ।

    “फ्लावर अंडर ट्री इज़ फ़्री”

    “Flower Under Tree Is Free”

    इस से एक बात ज़रूर साबित होती है कि अलफ़ाज़ की उम्र सर से लंबी होती है। शाम, जब वो मुझसे मिला ख़ासा नशे में था। तालिब-इल्मों के एक गिरोह ने दिन में उसे घेर लिया था, वो उसके मलिक के गीत उससे सुनते रहे और शराब पीते पिलाते रहे। मेरे कंधे पर अपना दायाँ हाथ रखते हुए उसने मुझे सारे दिन का क़िस्सा सुनाया और फिर कहने लगा, घर से जब निकला था तो मेरे ज़ेह्न में ये फ़ुतूर था कि सारी दुनिया पैदल घूम कर अपना हम-शक्ल तलाश करूँगा। आठ बरस होने को आए मुझे दूसरों के हमशक्ल तो मिलते रहे मगर अपना हमशक्ल अब तक नहीं मिला।

    “क्या कहें, तुम्हें कोई मेरा हमशक्ल मिला?” मैं ने मुसकरा कर पूछा।

    “हाँ! स्केण्डी नीविया में!” उसने मेरी तरफ़ देखे बग़ैर और अपने ज़ेह्न पर ज़ोर दिए बग़ैर जवाब दिया।

    रात गए तक हम सड़कों पर मारे मारे फिरते रहे। जब थक गए तो घर का रुख़ किया। वो कमरे में दाख़िल हुआ, कुर्सी पर बैठा, दो एक मिनट इधर उधर की बातें करता रहा फिर उसने एक दम अपना मख़्सूस गीत गाना शुरू कर दिया।

    मैं ने पुछा, “इस गीत में जो अलफ़ाज़ हैं उनके मानी क्या हैं?”

    “मानी कोई साथ नहीं देता, सिर्फ़ अलफ़ाज़ देता है। देता भी क्या है बस उन पर अपने मानी की मुहर सब्त कर देता है और हम उनमें से अपने मानी तलाश करते हैं! उसने जवाब दिया।” कुर्सी पर से उठते हुए उसने कमरे की बेतरतीबी का जाएज़ा लिया और फिर अचानक बोल उठा, “तुम शादी क्यूँ नहीं कर लेते अच्छे ख़ासे मामूली आदमी हो।” मैं बौखला सा गया।

    “बात दरअसल ये है।” मैंने उसके क़रीब होते हुए कहा, “हमारी बिल्डिंग के ऊपर वाली मंज़िल में एक दशनू बाबू रहते हैं। वो इस बिल्डिंग के मालिक भी हैं। हम सब उनके किरायादार हैं। बहुत साल पहले जब वो बिल्कुल मामूली आदमी थे तो उन्होंने एक लड़की से शादी की थी। जिसका नाम सरस्वती है। फिर अचानक दशनू बाबू एक मालदार औरत लक्ष्मी से टकरा गए। तब उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हुआ और उन्होंने लक्ष्मी से अपना दूसरा ब्याह रचा लिया। अब लक्ष्मी और दशनू दोनों आराम से ज़िंदगी बसर करते हैं। और बेचारी सरस्वती रात रात-भर सीढ़ियों में बैठी रोती रहती है। इसी हंगामे की वजह से मैं अभी तक तय नहीं कर पाया कि मुझे किसी सरस्वती से शादी करनी चाहिए थी या किसी लक्ष्मी से!”

    उसने मेरे चेहरे की तरफ़ ग़ौर से देखा, उसकी आँखों के सुर्ख़ डोरे उसके चेहरे को ख़ौफ़नाक बना रहे थे। फिर उसने एक दम से “गुड नाइट!” कहा और तेज़ी से सीढ़ियाँ उतर गया। अपनी इसी तरह की हरकतों और बातों की वजह से वो कभी कभी मुझे गोश्त-पोस्त के आदमी की बजाए कोई ख़याल लगता है जो समुंदर पार से यहाँ गया हो।

    जिस इमारत के एक कमरे में मैं रहता हूँ। उसके सब कमरों की दीवारें कहीं कहीं, जैसे-तैसे एक दूसरे से मुश्तर्क हैं। जिसकी वजह से एक कमरे के अंदर की आवाज़ या ख़ामोशी दूसरे में मुंतक़िल होती रहती है। मैं सोचता हूँ, मेरी आवाज़ या ख़ामोशी या फिर चंद लम्हे पहले मेरे कमरे में गूँजने वाली उसके गाने की आवाज़ भी ज़रूर कहीं कहीं पहुँची होगी।

    बाहर शायद रात ने सुबह की तरफ़ अपना सफ़र शुरू कर दिया है। इर्द-गिर्द के सब घरों की बत्तियाँ बुझ गई हैं। हर तरफ़ अंधेरा है। और ख़ामोशी दीमक की तरह हर तरफ़ आहिस्ता-आहिस्ता रेंगे जा रही है। मैं दरवाज़े की चटख़नी चढ़ा कर और मद्धम बत्ती जला कर अपने बिस्तर पर लेट गया हूँ।

    मद्धम रौशनी में सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ अपना जिस्म मुझे कफ़न में लिपटी हुई लाश की तरह लगता है। तन्हाई, तारीकी और ख़ामोशी में ऐसा ख़याल ख़ौफ़ज़दा कर ही देता है। जैसे ख़्वाब में बुलंदी से गिरते हुए आदमी का जिस्म और ज़ेह्न सुन्न हो जाते हैं। ऐसी ही मेरी कैफ़ियत है। धीरे धीरे मैं नीचे गिर रहा हूँ और फिर अचानक मुझे लगता है मैं अपने जिस्म में वापस गया हूँ।

    बाहर से किसी के रोने की आवाज़ रही है शायद सरस्वती और लक्ष्मी में फिर झगड़ा हुआ है और सरस्वती के रोने की आवाज़ सीढ़ी, सीढ़ी उतर कर नीचे मेरे कमरे के दरवाज़े तक गई है, मगर ये तो किसी बच्चे के रोने की आवाज़ है! मैं महसूस करता हूँ... ठीक है पड़ोस वालों का बच्चा अचानक भूक की वजह से रोने लग गया होगा और उसकी माँ बदस्तूर नींद में बेख़बर सो रही होगी या फिर शायद ऐसा भी तो हो सकता है कि वो मर गई हो और बच्चा बिलक बिलक के रो रहा हो। आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता क़रीब हो कर वाज़ेह होती जा रही है। फिर मुझे लगता है कि एक बच्चा मेरे ही पहलू में पड़ा रो रहा है। और कफ़न में लिपटी मेरी लाश में कोई हरकत नहीं हो रही।

    अगर दरख़्त तहज़ीब की अलामत है तो हम उसके साए में रोते हुए आज़ाद फूल हैं। मेरे ज़ेह्न में अचानक उसके अलफ़ाज़ के मानी खिल उठे हैं जिनके सर वो अपने साथ ले गया था।

    बच्चा बदस्तूर रो रहा है। धीरे धीरे उसकी आवाज़ में दर्द और दुख की लहरें शामिल होती जा रही हैं। जैसे उसे पता चल गया हो कि उसकी माँ मर गई है। मगर उसे ये किसने बताया होगा? उसके बाप ने? मगर वो तो बदस्तूर सो रहा है। क्यूँकि उसकी आवाज़ में उसके बाप की आवाज़ अभी शामिल नहीं हुई। ये तो हर किसी को आप ही पता चल जाता है कि उसकी माँ मर गई है। मुझे नहीं पता चल गया था...! बच्चे के रोने की आवाज़ मेरी आवाज़ से कितनी मिलती जुलती है...!

    फिर उसके अलफ़ाज़ मेरे कान में गूँजने लगे। अच्छे ख़ासे मामूली आदमी हो। मैं वाक़ई मामूली आदमी हूँ। हर सुब्ह अपने घर से तैयार हो कर निकलता हूँ। दरवाज़ा बंद करते हुए हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कहता हूँ। सूरज की तरफ़ मुंह कर के दिन-भर भागता रहता हूँ और रात होने पर अपने आप को घर के दरवाज़े पे खड़ा पाता हूँ।

    सुबह सबसे पहले सारस की तरह उड़ता हवा में उस इमारत तक जाता हूँ। जहाँ एक औरत ख़ूबसूरत के बन में गिलास टाप के मेज़ पर अपनी सफ़ेद मर्मरीं बाहें फैलाए घूमने वाली कुर्सी पर बैठी रहती है। वो अपने सफ़ेद बालों को हर-रोज़ ख़िज़ाब से रंग कर आती है। मेज़ पर फैली हुई उसकी बाहें। इस तरह लगती हैं कि जैसे किसी औरत की ब्रहना टांगें हों।

    केबिन के इर्द गिर्द से कई सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ती हैं। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैं उस केबिन के शीशों में से अक्सर झाँकता हूँ और सोचता हूँ कि अगर वो वाक़ई अपनी नंगी टांगें मेज़ पर फैलाए हुए है तो...! सीढ़ीयाँ जहाँ से शुरू होती हैं। वहाँ दाहिने तरफ़ एक बड़ी सी अलमारी लगी हुई है। जिसमें छोटे छोटे बैंक के लॉकरों जैसे कई ख़ाने बने हुए हैं जिनमें हर आदमी अपनी ज़ाती चीज़ें रख सकता है। मगर मैं हर-रोज़ अपनी ज़ात ही को इस में बंद कर के सीढ़ियाँ चढ़ जाता हूँ। और फिर शाम को जाते हुए दोबारा उसे निकाल लेता हूँ। बाहर थेटर वालों की गाड़ी खड़ी रहती है। उस का ड्राइवर मुझे आँखों के इशारे से बैठने के लिए कहता है और मैं शहर के जदीद-तरीन थेटर में पहुँचा दिया जाता हूँ। जिसका पिंडाल बिल्कुल सर्कस के पिंडाल के जैसा है। मैं उस थेटर में पिछले अठारह बरस से एक ही रोल अदा कर रहा हूँ। स्टेज बिल्कुल वस्त में है और मेरा पहला मेक-अप उतार कर अगली दर, का मेक-अप और लिबास पहना दिया जाता है। मुकालमे सब बैकग्रांउण्ड से होते हैं। मुझे सिर्फ़ लिलीपुट वालों की मार खाने का किरदार अदा करना होता है। उनके नन्हे नन्हे सुइयों जैसे भाले मेरे जिस्म में चुभते हैं। उनके कमानों से निकले हुए छोटे छोटे तीर मेरे जिस्म में पेवस्त हो जाते हैं। मेरे मुसामों से ख़ून की बूँदें पसीने की तरह निकलती हैं। मुझमें ख़ूबी बस यही है कि मैं तकलीफ़ का इज़हार नहीं करता इसलिए इतने बरसों से ये सब चल रहा है। यहां से मुझे मिलता कुछ भी नहीं ये तो महज़ हाबी के तौर पर है। फिर जब शो ख़त्म हो जाता है तो मुझे एक स्ट्रेचर पर लिटा कर एक बाथरूम में ले जाते हैं। जहाँ अल्कोहल से भरे हुए टब में मुझे डाल दिया जाता है। अल्कोहल मेरे ज़ख़्मों में टीसें पैदा करती है। फिर एक दम एक ख़ुनकी की लहर मेरे जिस्म में दौड़ जाती है और मैं ताज़ा दम हो कर घर की तरफ़ बढ़ता हूँ।

    एक दिन अजीब तमाशा हुआ। जब उस इमारत के दरवाज़े बंद होने का वक़्त आया तब मैं पेशाबख़ाने में था। मेरे पीछे धप से दरवाज़ा बंद हुआ, मैं घबरा कर ज़ोर ज़ोर से दरवाज़ा पीटने लगा तब एक आदमी ने कर दरवाज़ा खोला। मैं इस तसव्वुर से ही इस क़दर घबरा गया था कि अगर मुझे सारी रात उस पेशाब ख़ाने में बंद रहना पड़ता तो मेरी क्या हालत होती। घबराहट में चलते वक़्त मैंने उस केबिन की तरफ़ भी ध्यान दिया कि आया वो औरत चली गई है या नहीं। और ही उस लॉकर में रक्खी हुई अपनी ज़ात ही निकालने का ख़याल आया। बाहर थेटर की गाड़ी का ड्राइवर हॉर्न पर हॉर्न बजाए जा रहा था। मैं भागता हुआ गाड़ी में बैठा और गाड़ी चल दी।

    मैं बहुत परेशान था कि आज मैं अपनी ज़ात के बग़ैर अपना रोल कैसे अदा कर पाऊँगा। मगर मेरी हैरानी की इंतिहा रही जब मैं ने देखा कि उस दिन शो ख़त्म होने पर भीड़ अपनी कुर्सीयों से उठ कर मेरी तरफ़ लपकी और मेरी अदाकारी को इतना क़ुदरती बताया कि मैं ख़ुद भी हैरान रह गया।

    तब से मैंने अपनी ज़ात को उस लाकर ही में पड़ा रहने दिया है।

    हवा के एक झोंके ने खिड़की के पट को ज़ोर से पटख़ दिया है। मैं फिर अपने कमरे के माहौल की ख़ुशबू महसूस करने लगा हूँ... सीढ़ियों पर बैठी हुई सरस्वती की सिसकियों की आवाज़ रोते हुए बच्चे की कर्बनाक आवाज़ में अब एक और आदमी की आवाज़ भी शामिल हो गई है। शायद बच्चे का बाप भी जाग गया है। वो अपनी बीवी की लाश और बिलकते हुए बच्चे को सीख कर ज़ब्त कर सका।

    एक अच्छे पड़ोसी के नाते मेरा फ़र्ज़ है कि उनके सुख, दुख में हिस्सा बटाऊँ, क्यूँकि हम सब एक ही दरख़्त के साए तले खिले हुए आज़ाद फूल हैं।

    मेरा जी चाहता है कि, मैं अपने कमरे की चारों दीवारों में से एक एक ईंट उखाड़ कर इर्द-गिर्द के कमरों में झांक कर उन्हें सोते हुए या रोते हुए देखूँ। क्यूँ कि दोनों ही हालतों में आदमी बेबसी की हालत में होता है। मगर मैं भी कितना कमीना आदमी हूँ लोगों को बेबसी की हालत में देखने के शौक़ में सारे कमरे की दीवारें उखाड़ देना चाहता हूँ।

    मैंने फिर अपने आप को उठकर उनके कमरों में जा कर उनके रोने की वजह दरियाफ़्त करने पर आमादा किया। रोने की आवाज़ें अब काफ़ी बुलंद हो चुकी थीं और उनकी वजह से कमरे में बंद रहना मुम्किन था। मैं ने वही कफ़न जैसी सफ़ेद चादर अपने गिर्द लपेटी और सियाह स्लीपर पहन कर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा। ज्यूँ ही मैं ने दरवाज़े की चटख़्नी की तरफ़ हाथ बढ़ाया कि बाहर से किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी, मैं ने झट से दरवाज़ा खोल दिया।

    सीढ़ियों में बैठ कर रोने वाली सरस्वती, बिलक बिलक कर रोने वाला बच्चा, मरी हुई औरत और उसका मजबूर ख़ाविंद चारों बाहर खड़े थे। चारों ने यक ज़बान मुझसे पूछ,

    “क्या बात है, आप इतनी देर से रो रहे हैं? एक अच्छे पड़ोसी के नाते हमने अपना फ़र्ज़ समझा कि...!”

    स्रोत:

    Doosre Aadmi Ka Drawing Room (Pg. 12)

    • लेखक: सुरेंद्र प्रकाश
      • प्रकाशक: सय्यद रशीद क़ादिर
      • प्रकाशन वर्ष: 1968

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