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सफ़ेद घोड़ा

अहमद नदीम क़ासमी

सफ़ेद घोड़ा

अहमद नदीम क़ासमी

MORE BYअहमद नदीम क़ासमी

    ये इलियास का फ़ोन था।

    मैंने कहा, मैं अभी आया। वहीं अपने पुराने होटल में ठहरे हो ना?

    इलियास की आवाज़ आई, ठहरा भी वहीं हूँ और वहीं से बोल भी रहा हूँ। मगर तुम अभी आओ। इस वक़्त मैं एक दफ़्तर जारहा हूँ। बहुत ज़रूरी काम है। लाखों का मामला है। इसीलिए हवाई जहाज़ से आया हूँ और कल हवाई जहाज़ ही से वापस पिंडी चला जाऊंगा। तुम शाम को आना। ठीक आठ बजे बल्कि साढ़े सात बजे। और रऊफ़! सुनो, अब तो तुम और बड़े अफ़सर हो गए हो। आज कल तुम्हें कौन सा ब्रांड  पसंद है?

    मैंने जवाब दिया, वही जिसकी तुमने लत डाली है... सफ़ेद घोड़ा!

    इलियास बोला, बस ठीक है, सफ़ेद घोड़ा भी होगा और सफ़ेद घोड़ी भी।

    मैंने बन कर पूछा, ये कोई नया ब्रांड निकला है?

    और वो इतने ज़ोर से हंसा और हँसता चला गया कि मजबूरन मुझे हँसना पड़ा, वरना मैं ऐसी बातों पर शाज़ ही हँसता था। मैं हंसा तो वो समझ गया कि मैंने सफ़ेद घोड़ी का मफ़हूम पा लिया है। इसलिए बोला, ख़फ़ा तो नहीं होगए? फिर हँसते हुए कहने लगा, यार तुम अब तक उल्लू के उल्लू ही रहे। मैंने कहा, ये तो ख़ैर शाम को तै करेंगे कि हममें से बड़ा कौन है। वो बोला, बहुत अच्छा, तो फिर साढ़े सात बल्कि सवा सात बजे तै? मैंने कहा, तै।

    सवा सात बजे में इलियास के होटल में पहुँचा तो वो नहा रहा था। मैंने कहा, ये कौन सा वक़्त है नहाने का? ग़ुस्लख़ाने में से बोला, अरे तुम्हें अब तक ख़बर नहीं? मैं तो ग़ुस्ल करके व्हिस्की पीता हूँ। मेरा छोटा अटैची केस रखा है ना, उसे खोलो। उसमें तुम्हारा सफ़ेद घोड़ा बंद है। मैंने इधर उधर देख कर कहा, मुझे सफ़ेद घोड़े का ये थान कहीं दिखाई नहीं दे रहा। इलियास हँसने लगा। फिर बोला, अलमारी में होगा। तुम उसकी अगाड़ी पछाड़ी खोलो, मैं पहुँचता हूँ।

    मैंने अटैची में से वाइट हॉर्स की बोतल निकाल कर मेज़ पर रखी तो वो तौलिया लपेट कर बाहर गया। उसने मुझे हाथ से पकड़ा और साथ वाले कमरे में ले गया। वहाँ एक वसीअ-ओ-अरीज़ पलंग पर दो तकिये सजे थे। बोला, ये है सफ़ेद घोड़ी का थान।

    मुझे इलियास की इस हरकत से हमेशा की चिढ़ थी। इसलिए शायद मेरे तेवर देख कर वो बोला, ये सब नशे हैं मेरी जान। शराब पीना, औरत से प्यार करना, सच बोलना, डाका मारना... ये सब नशे हैं। जो शख़्स इनमें से कोई भी नशा करता है उसे दूसरे नशों पर एतराज़ नहीं करना चाहिए। तुम चलो, मैं कुरता पाजामा पहन कर अभी आया।

    फिर इधर से इलियास बड़े कमरे में दाख़िल हुआ, उधर से होटल का एक संजीदा और बा वक़ार बैरा आया। बहुत नेक आदमी लगता था, बस माथे पर मेहराब की कमी थी। फिर वो इलियास की तरफ़ देख कर मुस्कुराया। उस मुस्कुराहट ने उसकी पूरी शख़्सियत बदल डाली। ऐसा लगता था कि वो या तो आँख मार देगा या छुरा निकाल लेगा। मेरा अंदाज़ दुरुस्त निकला। उसने आँख मार दी और फिर दरवाज़े का परदा यूँ उठाया जैसे छुरा निकाला है।

    पहले एक औरत अंदर आई। यह बड़ी तंदुरुस्त औरत थी। ख़ून उसके पूरे चेहरे से फूटा पड़ रहा था। ये ख़ून उसकी आँखों में भी चमक रहा था और उसकी हथेलियों में भी। उसके जिस्म का बाक़ी हिस्सा बुर्क़े में था मगर मुझे यक़ीन है कि वो भी उसी तरह लहूलुहान होगा। मेरा जी चाहा, तआरुफ़ हो जाए तो उससे ये ज़रूर पूछूँगा कि आप कौन से विटामिन खाती हैं। एक क़दम अंदर आकर उसने हम दोनों को एक नज़र देखा। फिर इलियास का रुख़ करके उसने आँखें झुकाईं  और सलाम के तौर पर सर को ज़रा सा ख़म किया। फ़ौरन बाद वो पलट कर जैसे सरगोशी में बोली, आभी जाओ ना बिल्क़ीस। बैरा उसी तरह परदा उठाए खड़ा था और उसी तरह मुस्कुरा रहा था।

    औरत ने इलियास से कहा, नई नवेली है ना, डरती है। फिर वो दरवाज़े में गई, बेवक़ूफ़ हो तुम तो, बिल्कुल ही देहातन हो। अब ऐसा भी क्या, जाओ ना बिल्ली।

    इलियास ने तकिये के नीचे से बटुआ उठाकर एक सौ के बहुत से नोटों में से एक नोट निकाला और दरवाज़े के पास जाकर बोला, ये लीजिए मेरे कमरे की दहलीज़ उलांगने का नज़राना... औरत ने फ़ौरन इलियास के हाथ से नोट ले लिया और बोली, अब तो आना ही पड़ेगा बिल्लो। ये लो... उसने नोट वाला हाथ आगे बढ़ाया मगर फिर उसे तह करके मुट्ठी बंद करली और सरगोशी में बोली, अरी पगली! होटल का मामला है। चलो अब जल्दी से जाओ। एक घंटे से जो मैं तुम्हें समझा रही थी तो क्या इसका तुमपर यही असर हुआ? बेवक़ूफ़। फिर बाहर जाकर उसने बिल्क़ीस को जैसे धक्का दे दिया।

    बैरे ने परदा  गिरा दिया तो इलियास बोला, देखो सिराज! कुछ भेज दो। कबाब और तिक्के। क्यों ठीक है? उसने मुझसे पूछा मगर जवाब औरत ने दिया, ज़रा तेज़ मिर्चों वाले कबाब हों। समझे भाई सिराज? सिराज चला गया। इलियास ने बढ़ कर चिटख़नी चढ़ा दी और बोला, तशरीफ़ रखिए। सब बैठ गए। बिल्क़ीस भी बैठ गई मगर इसने बुर्क़े की नक़ाब गिरा रखी थी।

    ये मेरी अजीब दीवानी बेटी है। औरत ने अपने बुर्क़े के टिच खोलते हुए कहा, ये मेरी सबसे छोटी बेटी है। आपने उसका चेहरा तो अभी नहीं देखा मगर उसका क़द तो पसंद है ना आपको? इलियास बोला, जी हाँ... सुबहान अल्लाह! मैंने एक झटके के साथ पलट कर इलियास को देखा। इतने प्यारे और मुक़द्दस अलफ़ाज़ उसने कितने औबाश लहजे में अदा किए थे। इलियास मेरी इस हरकत से बहुत महज़ूज़ हुआ। वो हँसने लगा और बोला, ये मेरे दोस्त हैं मगर बहुत शर्मीले। इनसे क़सम ले लीजिए जो इन्होंने आज तक किसी औरत को छुआ भी हो। इनका नाम रऊफ़ है मगर आप इन्हें मर्दों का बिल्क़ीस समझ लीजिए।

    औरत बेइख़्तियार हँसने लगी। वो इतनी हँसी कि उसकी आँखों में आँसू आगए। फिर उसने बुर्क़ा उतार कर सोफ़े की पुश्त पर डाल दिया। तौबा! वो किस बला की सेहतमंद औरत थी। उसके नंगे बाज़ुओं में मछलियाँ तड़प रही थीं और उसका ब्लाउज़ फ़ौलाद की जाली से बना होगा, वरना जगह-जगह से फट चुका होता।

    सुन बिल्क़ीस! औरत बोली, ज़रा सी भी हया हो तो अब बुर्क़ा उतार दो। नहीं उतारोगी तो मैं तुम्हें औरतों की रऊफ़ कहने लगूँगी। अब के इलियास बेइख़्तियार हंसा  और साथ ही उसने मेरे बाज़ुओं में इस ज़ोर की चुटकी ली जैसे वो मेरा दुश्मन हो। मैंने उसमें इतनी वहशत कभी नहीं देखी थी। दरवाज़े पर किसी ने जैसे उंगली के जोड़े से पुर असरार दस्तक दी। इलियास ने दरवाज़ा खोला। सिराज ट्रे में कबाब और तिक्के सजाकर लाया और मेज़ पर रख कर बोला, और कोई हुक्म?

    ज़रूरत पड़ी तो मैं घंटी बजा दूंगा। इलियास ने कहा। सिराज वापस जाते हुए रुका। पहले बिल्क़ीस की तरफ़ देखा, फिर इलियास को वही ख़ौफ़नाक आँख मार कर बोला, यूँ कब तक बैठे रहेंगे साहब? मुँह दिखाई दीजिए और फिर...और फिर तिक्के खाइए। ये कह कर वो ज़ोर से हंसा और औरत मुसलसल हँसती चली गई। बड़ा बदमाश है ये सिराज, चल हट। और देख एक अच्छी सी नई टैक्सी रोके रखना। मीटर बेशक अभी से डाउन कर दे। क्यों जी? उसने इलियास से पूछा।

    ज़रूर-ज़रूर। इलियास बोला। सिराज चला गया तो उसने दरवाज़ा बंद करके और परदा खींच कर बटुवे में से एक सौ का नोट निकाल कर दोनों हाथों पर यूँ रखा जैसे तश्तरी में सजाया है। औरत ने उठाकर तह किया और पहले नोट समेत उसे ब्लाउज़ में उड़स कर मुस्कुराई। सर को यूँ जुंबिश दी जैसे इजाज़त दे रही है। इलियास पलटा और बिल्क़ीस की नक़ाब उलट दी।

    वो बड़ी अजीब सी लड़की थी। अजीब यूँ कि कुछ ऐसी ख़ूबसूरत तो नहीं थी मगर ख़ूबसूरत लगती थी। उसका रंग बहुत सफ़ेद था मगर उसके चेहरे को देख कर मैंने सोचा कि उसमें कुछ कमी रह गई है। अलबत्ता इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था कि कमी कहाँ रह गई है। उसका हर नक़्श दूसरे नक़्श का सहारा बना हुआ था। उसका हुस्न जंज़ीर की कड़ियों का सा था।

    नक़ाब उलटते ही इसने कनखियों से औरत की तरफ़ देखा तो वो बोली, लो, ऐसी वाहियात शर्म भी क्या! मैंने घर से चलते हुए बता नहीं दिया था कि अपने आदमी हैं। इलियास ने तिपाई उठाकर बिल्क़ीस के सामने रखी। फिर उसपर वाइट हॉर्स की बोतल और चार ग्लास रख दिए। और बिल्क़ीस पहली बार बोली, जी मैं तो इस नेमत से महरूम हूँ। इलियास ने एहतिजाज किया, इस नेमत से तो रऊफ़ का सा उल्लू भी महरूम नहीं है और आप। औरत ने इलियास की बात काटी, सिराज ने कहा था कि आपको ताज़ा माल चाहिए। मैंने उससे कह दिया था कि बिल्क़ीस आज पहली बार किसी होटल में जाएगी। उसे क्या पता कि ये सब क्या होता है। तिपाई यहाँ मेरे पास लाइए।

    मगर इलियास उठ कर औरत और बिल्क़ीस के दरमियान बैठ गया और बिल्क़ीस की ठोड़ी के नीचे से बुर्क़े की डोरी की गिरह खोलते हुए बाक़ायदा गाने लगा,

    साक़ी गरी की शर्म करो आज, वरना हम

    हर शब पिया ही करते हैं मै, जिस क़दर मिले

    मुझे तो कोई स्क्वॉश पिला दीजीए। बिल्क़ीस ने बच्चों की तरह फ़रमाइश की। और जब तक इलियास घंटी बजाने के लिए उठता, मैंने कहा, मैं लाता हूँ।

    हाएं...! औरत चहकी, रऊफ़ साहब तो बोलते भी हैं। इसपर औरत और इलियास के अलावा बिल्क़ीस भी हँसी और बिल्क़ीस को हँसता पाकर इलियास और ज़ोर से हंसा, और मैं बाहर निकल आया। सिराज को स्क्वॉश भिजवाने को कहा और वहाँ से घर की राह ली।

    ये लड़की मेरे ज़ेहन पर मुसल्लत हो गई थी। इलियास के हाँ यूँ तो मैंने कई औरतें देखी थीं। उनकी सूरतें मुख़्तलिफ़ थीं, मिजाज़ मुख़्तलिफ़ थे, मगर मुस्कुराहट के मामले में वो सब एक जैसी थीं। वो मुस्कुराती थीं तो लगता था वो ये मुस्कुराहट बाज़ार से ख़रीद कर लाई हैं। ये शर्माती थीं तो साफ़ मालूम होता था कि उन्हें बड़ा तकल्लुफ़ करना पड़ रहा है। मगर ये लड़की तो बिल्कुल ऐसी लड़की थी जैसी मुतवस्सित तबक़े के घरों में होती हैं... मासूम, बेख़बर और राज़ी बरज़ा... मुझे इलियास पर ग़ुस्सा तो कई बार आया था मगर नफ़रत आज पहली बार महसूस हुई।

    चंद बरस पहले मैंने बड़ी कोशिशों और सिफ़ारिशों के बाद उसे आटे और चीनी का डिपो दिलवाया था, तो वो कितना प्यारा आदमी था। बस कभी कभार शराब पीता था और सहगल की तर्ज़ में ग़ालिब की ग़ज़लें गाता था। आवाज़ बहुत रसीली थी, इसलिए शराबनोशी की हर महफ़िल में मदऊ होने लगा। यूँ उसकी वजह से मुझे भी शराबनोशी की लत पड़ गई। फिर ऊँचे तबक़े की महफ़िलों में मुसलसल शिरकत की बरकत से उसे चंद लाख का दर आमदी लाइसेंस मिल गया और थोड़े ही अरसे में वो कई लाख नक़द की आसामी बन गया। वो पिंडी चला गया और वहीं अपना सदर दफ़्तर क़ाइम किया। अब वो लाहौर और कराची में बाज़ मिलें लगाने की सोच रहा था। उन्ही दिनों वो एक बार पिंडी से लाहौर आया तो मुझे उसी होटल में मदऊ किया और वहीं पहली बार मुझे मालूम हुआ कि वो शराब के अलावा औरत से भी शौक़ करने लगा है।

    दोस्त आदमी था। और फिर उसने इतना अमीर हो जाने के बावजूद मेरे इब्तिदाई एहसान को याद रखा था, इसलिए वो जब भी लाहौर आया मैं उसकी ग़ुरूब-ए-आफ़ताब की मशग़ूलियतों में शामिल रहा। लाहौर में उसकी तीसरी या चौथी आमद पर मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि शराब की हद तक ठीक है कि तुम जिस सोसायटी में घूमते हो उसमें शराब नहीं पियोगे तो बदतहज़ीब कहलाओगे और कारोबार को भी नुक़सान पहुँचाओगे मगर ये औरत वाला क़िस्सा छोड़ो। औरत किसी किसी की बेटी या बीवी या माँ ज़रूर होती है। और हम पाकिस्तान के रहने वाले हैं और ये रिश्ते हमारे लिए आज भी मुक़द्दस हैं। सो तुम यूँ करो कि शादी करलो...उसने मुझे इत्तिला दी कि उसने शादी करली है और उसकी एक प्यारी सी बीवी है और तीन बच्चे हैं। और, फ़िक्र करो रऊफ़! मेरी बीवी पुराने ज़माने की औरत नहीं है। मैं उसे हर महीने दो हज़ार नक़द पेश कर देता हूँ और उसके बदले में उसने मुझे हर बात की इजाज़त दे रखी है।

    मैंने सोचा, सिर्फ़ जेब के भारी या ख़ाली होने से क़दरें  कैसे बदल जाती हैं। चुनाँचे मैं चुपका हो रहा। मगर जब भी गुफ़्तगू में कभी उसके घर का ज़िक्र आया तो मैंने उसकी बीवी के बारे में तुम्हारी बीवी कह कर बात की। उसे भाबी कहा। क्योंकि भाबियाँ अपने शौहरों को हर रात एक नई औरत का इंतज़ाम कर लेने की इजाज़त नहीं दिया करतीं। मैंने शायद सिर्फ़ अपने ज़मीर को मुत्मइन करने के लिए ये फ़लसफ़ा घड़ लिया था कि इलियास अगर अय्याश है तो उसकी अय्याशी सिर्फ़ ऐसी औरतों तक महदूद है, जो इलियास के पास नहीं आएंगी तो किसी और के पास चली जाएंगी। सो है तो ये ख़राब बात मगर कुछ ऐसी भी ख़राब नहीं है कि मैं इतने अच्छे दोस्त से नफ़रत करने लगूँ।

    मगर बिल्क़ीस को देख कर मुझे यक़ीन होगया था कि इलियास अय्याशी की मुक़र्ररा हदें फाँद गया है और मैंने तो पागलों को भी देखा है कि थूकना चाहेंगे और सामने फूलों से लदी झाड़ी होगी तो उससे हट कर थूकेंगे... ज़िंदगी में पहली बार मुझे यक़ीन हो गया था कि इलियास दरअस्ल कमीना आदमी है।

    ख़ासी देर तक पलंग पर करवटें बदलने के बाद मैं एक दम उठा और चप्पल घसीटता बाहर लपका। मैंने एक टैक्सी रोकी और ड्राइवर से कहा कि वो महफ़ूज़ हद तक जिस क़दर तेज़ चला सकता है चलाए। मैंने उसे मीटर से दो गुनी रक़म देने का वादा किया और कार इलियास के होटल की तरफ़ उड़ने लगी। मैंने बड़ा ज़ुल्म किया था कि इलियास के कमरे में उस लड़की के दाख़िल होते ही उसे रुख्सत कर दिया था। इलियास यक़ीनन बुरा मानता मगर वो मेरी नियत पर शुबहा नहीं कर सकता था। वो यक़ीनन मेरी बात मान लेता और एक मासूम लड़की हमेशा के लिए तबाह होने से बच जाती। वो लड़की जो उन सब लड़कियों की नुमाइंदा थी जिनके वालिदैन अपनी बेटियों के मुस्तक़्बिल की ख़ातिर अपने आपको बेच डालते हैं। मगर जब ये ज़रिया भी कारगर नहीं होता तो अपने मुस्तक़्बिल की ख़ातिर बेटियों को बेच डालते हैं।

    होटल के सामने टैक्सी रोक कर मैंने दो गुना किराया अदा किया और ऊपर लपका मगर सीढ़ियों ही में सिराज मिल गया। वो तिक्कों, कबाबों की ख़ाली प्लेटें उठाए ला रहा था। मुझे देखा तो वही शैतानी मुस्कुराहट उसके होंटों बल्कि उसके सारे चेहरे पर कौंदी। फिर वो बोला, साहब तो बीबी को लेकर अभी-अभी कहीं चले गए हैं।

    मैंने पूछा, कहाँ गए हैं? कुछ बताकर नहीं गए?

    वो हँसकर बोला, भोले बादशाहो! ये भी कोई बताने वाली बातें होती हैं।

    घर आकर मैंने इलियास को एक ख़त लिखा जिसमें उसे कमीना और ख़बीस और ज़लील तक कह डाला। मैंने उससे हमेशा के लिए क़ता तअल्लुक़ करलिया और उसे ख़बरदार किया कि वो आइन्दा मुझसे मिलने की कोशिश करे। मैं तुम जैसे अख़लाक़ बाख़्ता बदकिरदारों पर लानत भेजता हूँ। ज़ाहिर है उसके बाद इलियास से मेरी कभी मुलाक़ात हुई। फिर मेरा तबादला लाहौर से कराची हो गया और यूँ मैं पिंडी से दूर हो गया।

    कराची में पहले रोज़ जब मैं अपने स्टाफ़ से मिला तो उस सफ़ में अपने एक पुराने दोस्त और हम जमात मुश्ताक़ को भी खड़ा पाया। वो उस दफ़्तर में मेरा हेड क्लर्क था। उससे मिल कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। कालेज के ज़माने में वो बड़ा परहेज़गार मशहूर था और सबने उसके बारे में तरह-तरह के लतीफ़े घड़ रखे थे और उससे जन्नत के वीज़े लेने आते थे। अब भी मैंने देखा कि वो सूरत से बदस्तूर नेक आदमी है।

    शाम को उसने मुझे दावत पर अपने घर बुलाया और जब सब मोअज़्ज़िज़ीन-ए-शहर से मेरा तआरुफ़ करा चुका तो अलमारी में से वाइट हॉर्स की दो बोतलें निकालीं और हम सबके साथ पीने बैठ गया। हैरत तो हुई मगर शराबनोशी की हद तक मैं बड़ा फ़राख़ दिल हूँ। सबको माफ़ कर देता हूँ। इसलिए उसे भी माफ़ कर दिया। फिर जब खाने के बाद सब मेहमान चले गए तो वो बोला, आप दूसरा शौक़ भी यक़ीनन फ़रमाते होंगे। मैंने पूछा, दूसरा शौक़? और मुश्ताक़ कुछ इस तरह मुस्कुराया कि मैंने एक पल को ये भी सोचा कि कहीं मुश्ताक़ के रूप में ये लाहौर का बैरा सिराज तो नहीं है? फिर वो उठा और बोला, मैंने ये इंतज़ाम भी कर रखा है।

    उसने साथ वाले कमरे का दरवाज़ा खोला तो ख़ुशबू से लदी हुई एक औरत मटकती और मुस्कुराती हुई अंदर आगई। मैं समझा ये मुश्ताक़ की बीवी है, इसलिए मैं अदब में खड़ा हो गया। फिर जब मैं सोफ़े पर बैठा तो मुश्ताक़ उसी सिराज वाली मुस्कुराहट से बोला, शौक़ फ़रमाइए। इसके साथ ही वो औरत सोफ़े के उस तरफ़ से खिसक कर मेरे साथ लग कर बैठ गई।

    मेरा जिस्म जैसे बिजली के नंगे तार से छू गया। मैं तड़प कर उठा तो औरत और मुश्ताक़ बहुत ज़ोर से हँसे मगर जब मैं मुश्ताक़ को बाक़ायदा गालियाँ देने लगा तो औरत तीर की तरह दूसरे कमरे में घुस गई और मुश्ताक़ मुझसे माफ़ियाँ माँगने लगा।

    मैं घर आया तो जैसे उस औरत की ख़ुशबू मेरे साथ चिमटी चली आई थी। मैंने उसे सिर्फ़ एक नज़र देखा था मगर ऐसी औरतों को एक नज़र देखना भी काफ़ी होता है। ऐसी औरतें मैंने इतालवी मुसव्विरों और यूनानी मुजस्समा साज़ों के हाँ तो देखी हैं मगर आम ज़िंदगी में कभी नहीं देखीं। कितनी देर तक वो मेरे साथ लगी क़हक़हे मारती रही और ख़ूशबुएं लुंढाती रही। नींद में भी उसने मेरा पीछा छोड़ा। मेरी आँख खुली तो मुझे याद आया कि एक बार वो बादल को चादर की तरह लपेट कर आसमान पर जा बैठी थी और फिर सर पर सितारों भरी टोकरी रखे आई थी और उन्हें मेरे क़दमों पर निछावर करके मुझसे लिपट गई थी और मैं यूँ हड़बड़ाकर जाग उठा था जैसे मेरा जिस्म बिजली के नंगे तार से छू गया है।

    दूसरे रोज़ मैंने जान बूझ कर मुश्ताक़ को कोई दस-बारह मर्तबा अपने दफ़्तर में बुलाया मगर उसने मुझसे आँखें मिलाईं। वो मुझसे शर्मिंदा था, इसलिए उसे पता ही चला कि मैं उससे भी ज़्यादा शर्मिंदा हूँ।

    मैं बोला, मैं भी तुमसे बहुत शर्मिंदा हूँ मगर तुमसे भी ज़्यादा उस बेचारी औरत से शर्मिंदा हूँ। वो भी क्या सोचती होगी कि किस बदतमीज़ से साबिक़ा पड़ा। औरत चाहे कैसी भी हो उसका एहतराम करना चाहिए, और कल मैंने बड़ी बदतहज़ीबी, बड़े उजड्डपने का मुज़ाहरा क्या। दरअस्ल ये शराब इंसान को भी सफ़ेद घोड़ा बना देती है। तुम तो ख़ैर मेरे पुराने दोस्त हो। तुम्हें तो मैं तुम्हारे कान मरोड़ कर भी मना लूँगा, मगर किसी तरह मुझे उस औरत के पास ले चलो। मैं उससे माफ़ी नहीं माँगूँगा तो मेरा ज़मीर मेरे लिए अज़ाब बना रहेगा।

    वो बहुत कमाल की औरत निकली। उसने मुझे फ़ौरन माफ़ करदिया। फिर वो मुश्ताक़ की मौजूदगी ही में मुझसे लिपट कर रोने लगी और बोली, मुझे तो पहली ही नज़र में आपसे मोहब्बत हो गई है। और ज़ाहिर है कि उस फ़िक़रे को ख़त्म होने के फ़ौरन बाद मुझे भी उससे मोहब्बत हो गई।

    फिर अचानक वो औरत कहीं अंदरून सिंध चली गई और वहाँ किसी बड़े ज़मींदार से बाक़ायदा अक़्द करके परदे में बैठ गई। मैंने दफ़्तर से छुट्टी ले ली और मशरिक़ी पाकिस्तान के किसी इंतहाई मशरिक़ी गोशे में तबादला कराने का प्रोग्राम बना लिया मगर भला हो मुश्ताक़ का कि वो मेरी मदद को पहुँचा। कालेज की बाज़ हवाई दोस्तियाँ भी कितनी पायदार साबित होती हैं। इसने मेरे तबादले के प्रोग्राम मंसूख़ करके हर रात एक नई औरत का प्रोग्राम मुरत्तब किया और उस प्रोग्राम पर अमल करके मैंने अपनी मोहब्बत की नाकामी के सब ज़ख़्म मुंदमिल कर लिये।

    ये उन्हें दिनों की बात है जब मैंने सोचा कि मैंने कितनी ज़रा सी बात पर इलियास के से दोस्त से तअल्लुक़ ख़त्म कर दिए थे। मैंने इलियास को दिल से माफ़ कर दिया और उसे ख़त लिखा। उसका फ़ौरन जवाब आया। उसने लिखा था कि वो इस इत्तिला से इतना ख़ुश हुआ कि ज़िंदगी में पहली बार उसने दोपहर को शराब पी ली। उसने ये भी लिखा था कि वो दिसंबर में कराची आकर मुझसे एक बहुत बड़ा जश्न मनवाएगा। इसलिए सफ़ेद घोड़े के अलावा उसके लिए एक अछूती सफ़ेद घोड़ी मख़्सूस कर दी जाए।

    मैंने मुश्ताक़ से इसका ज़िक्र किया तो उसने एक बहुत अमीर कारोबारी के मुतअल्लिक़ बताया कि, अरसे से उसका एक काम अटका हुआ है। आपके क़लम की ज़रा सी जुंबिश से ये काम हो सकता है। मुझसे कई बार कह चुका है मगर कोठी की बात करता है कार की। कहता है साहब से कहो, मैं अछूते से अछूता माल पेश करने को तैयार हूँ। मैंने कहा, कारों कोठियों को मारो गोली। बहुत जमा होचुकी हैं। तुम आज ही उससे बात करो कि साहब मान गया है। फिर उसीसे इलियास का बंदोबस्त करने को भी कहेंगे... मुश्ताक़ गया और आध घंटे के अंदर वापस आकर इत्तिला दी कि आज शाम को सब इंतज़ाम हो जाएगा।

    शाम को मुश्ताक़ बड़ी संजीदा और बा वक़ार सूरत लिये मेरे कमरे में आया तो मैं  मेज़ पर वाइट हॉर्स की बोतल रखे बैठा था। फिर उसने मुझे सिराज की तरह आँख मारी और परदा उठा दिया। पहले एक औरत अंदर आई। यह बड़ी तंदुरुस्त औरत थी। ख़ून उसके पूरे चेहरे में से फूटा पड़ रहा था। ये ख़ून उसकी आँखों में भी चमक रहा था और उसकी हथेलियों में भी।

    उसने मेरी तरफ़ देखा और जैसे लम्हे भर के लिए मुंजमिद होकर रह गई मगर फिर फ़ौरन ही उसने आँखें झुकाईं, सलाम के तौर पर सर को ज़रा सा ख़म किया और जैसे सरगोशी में बोली, आभी जाओ रज़िया। फिर वो मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराई।  नई नवेली है ना, डरती है। फिर वो दरवाज़े में गई, जाओ ना रज़्ज़ो। फिर बाहर जाकर उसने रज़िया को जैसे धक्का दे दिया।

    उसने जूँही मेरे कमरे में क़दम रखा, मैंने बढ़ कर उसकी नक़ाब एक झटके से उलट  दी और वो सोफ़े पर गिर सी पड़ी। वो बड़ी अजीब सी लड़की थी। अजीब यूँ कि कुछ ऐसी ख़ूबसूरत तो नहीं थी मगर ख़ूबसूरत लगती थी। उसका हर नक़्श दूसरे नक़्श का सहारा बना हुआ था। उसका हुस्न जंज़ीर की कड़ियों का सा था।

    अच्छी हो बिल्क़ीस? मैं दांत भींच कर बोला। मैं ऐसा करता तो चीख़ पड़ता।

    मुश्ताक़ हँसने लगा, बिल्क़ीस नहीं साहब! रज़िया।

    औरत एक दम बोलने लगी, ज़रा जल्दी से जाओ मुश्ताक़ भाई। कुछ तिक्के कबाब भिजवा दो। और देखो कबाब ज़रा तेज़ मिर्चों वाले हों जो मुझे बिल्कुल रुला दें।

    मुश्ताक़ चला गया तो मैंने देखा कि औरत कबाबों के आने से पहले ही रो रही है। उसने लपक कर चिटख़नी चढ़ा दी और पलट कर मेरे क़दमों में ढेर हो गई। वो अपने भीगे हुए गाल मेरे पाँव से रगड़ने लगी और फ़रियाद करने लगी, मेरा परदा रख लीजिए साहब! मेरा और मेरी बेटी का परदा ख़ुदा के और आपके हाथ में है। मैं क्या करूँ साहब! मेरी एक ही बेटी है मगर सब नई बेटी माँगते हैं। मैं अपनी बेटी को कैसे बदलूं साहब! इसीलिए शहर बदल लेती हूँ...मुझ निगोड़ी को क्या पता था कि आप लोग भी शहर बदल लेते हैं। ख़ुदा के लिए साहब, ख़ुदा के लिए मेरा और मेरी बेटी का परदा रख लीजिए वरना कोई हमें दो पैसे को भी नहीं पूछेगा।

    दूसरे दिन मैंने इलियास को ख़त लिखा कि अपने कारोबार के सिलसिले में कराची आना चाहते तो हज़ार बार आओ मगर मेरे पास आना। मैं कल रात से मर चुका   हूँ।

    स्रोत:

    कपास का फ़ूल (Pg. 162)

    • लेखक: अहमद नदीम क़ासमी
      • प्रकाशक: संग-ए-मील पब्लिकेशन्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 2008

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