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jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

समन पोश

MORE BYमजनूँ गोरखपुरी

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो अपनी बीवी से बे-पनाह मोहब्बत करता है। उसकी बीवी भी उसे दिल-ओ-जान से चाहती है। मगर एक रोज़ जब वह उसे अपने दोस्त की बाँहों में देखता है तो बिना हक़ीक़त जाने उसे क़त्ल कर देता है। बीवी के क़त्ल के बाद वह ख़ुद भी ज़्यादा अर्सा ज़िंदा नहीं रहता और उसकी जुदाई के दुख में ख़ुदकुशी कर लेता है।

    “शहीद ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-तग़ाफ़ुल-ए-अजरहा दारद”

    नाहीद से मेरा तआ’रुफ़ लखनऊ में हुआ जब मैंने पहली बार उसकी तस्वीर अपने एक अज़ीज़ दोस्त नासरी के कमरे में देखी थी। नासरी को फ़ने नक़्क़ाशी से ख़ास शग़फ़ था, जो जुनून की हद तक पहुंचा हुआ था। कोई दिलकश तस्वीर उसकी नज़र से गुज़र जाती फिर नामुमकिन था कि वो उसको किसी ना किसी ज़रिये से हासिल कर के उसकी नक़ल ना उतारता। उसको इस फ़न में काफ़ी महारत हो गई थी, और मुबस्सिरीन की निगाह में वो एक मुमताज़ हैसियत का मालिक था। मैंने ये जानना चाहा कि ये किस की तस्वीर है और उसका नाम क्या है। मगर ख़ुद नासरी को इसका कोई इल्म ना था। वो एक मुमताज़ हैसियत का मालिक था। मैंने ये जानना चाहा कि ये किस की तस्वीर है और इसका नाम क्या है। मगर ख़ुद नासरी को इसका कोई इल्म ना था। वो एक मशहूर दुकान से ख़रीदकर लाया था।इससे मुझको मालूम हुआ कि वो हिंदुस्तान के एक माहिर-ए-फ़न की सनअत थी। मुसव्विर के नाम का मुझ पर कोई असर ना हुआ, में उस पैकर-ए- जमाल में मह्व हो गया जो सफ़ा –ए- क़िरतास से मुझको देख रही थी। उसके होंटों पर एक ख़ामोश मगर बलीग़ तबस्सुम था। चम्बेली का एक हार उसके सीने पर लटक रहा था। अंदाज़ से वो ऐक्ट्रस मालूम होती थी। मुझे ऐसा मालूम हो रहा था कि उसको मैं पहले से जानता हूँ। उसकी आँखों में एक ग़ैरमामूली कशिश थी जिसने मेरी आँखों को मबहूत कर लिया, गोया वो कह रही थी, “ठहरो! और आग़ाज़ से अंजाम तक मेरी दास्तान सुनलो।” उसके रुख़्सार गुलाबी थे, बिखरे हुए बाल उसके नीम ब्रहना सीने से खेल रहे थे और मैं ख़्वाब में था या वाक़ई हवा में चम्बेली की महक फैली हुई थी? मैं अपने आलम-ए- मह्वियत से चौंका। एक लर्ज़िश-ए-ख़फ़ी मेरे तमाम आ’साब में दौड़ गई। मैं वहां से रुख़्सत होना चाहता था कि नासरी जो अपना सामाने नक़्क़ाशी लेने दूसरे कमरे में चला गया था, वापस गया और नाहीद की तस्वीर सामने रखकर उसका ख़ाका खींचने लगा। मैं रुक गया। नासिर का क़लम अपनी क़ुदरत दिखा रहा था। अलबत्ता जिस सन्नाअ’ का नाम मुझे बताया गया था। वो इस बाब में कामयाब हुआ था। अगर ये वाक़ई उसकी सनअ’त थी जिसका ना मुझको उस वक़्त यक़ीन था, ना अब है। मैं नासरी के मकान से ख़ामोश रवाना हो गया। बाहर बरामदे में पहुंच कर पीछे देखा तो वही दिलफ़रेब और जाज़िब-ए-नज़र सूरत सामने थी, जो मुझको पुकारती हुई मालूम होती थी। मुस्कुराहट जिसमें तास्सुरात की एक दुनिया पोशीदा थी, मेरे हवास में ख़लल पैदा हो रहा था अजीब-अजीब ख़्यालात ज़ेह्न में रहे थे। आख़िर-ए-कार ख़ुद अपने तुहमात से ख़ाइफ़ हो कर बरामदे से नीचे उतर आया और अपनी इक़ामतगाह की तरफ़ चला। मैं कैसरबाग की तरफ़ से जा रहा था, यकायक मेरे क़ल्ब की हरकत ख़ौफ़नाक तरीक़ा पर तेज़ हो गई। मैं हैरान हो कर जहां था वहीं रुक गया, मुजस्समा के पास बेंच पर बैठा हुआ कौन पढ़ रहा था, वही सफेदपोश औरत यहां भी सरनगूँ बैठी थी! उसके गले में वही चम्बेली का हार था। जिसके साथ वो बिला इरादा शुग़ल कर रही थी। रअशा बर अनदाम मैं उस की जानिब बढ़ा। मेरे क़दमों की आहट से वो चौंकी और उसकी ख़ुमार आगीं आँखों ने एक अलमनाक तबस्सुम के साथ मेरी तरफ़ देखा, बावजूद दिमाग़ की परेशानी के मैंने इस क़दर जायज़ा ले लिया कि उसका चेहरा ज़र्द था जिस्म की साख़्त नाज़ुक थी, रंग में सबाहत थी, दोश तक वो उर्यां थी, उस की बिलौरी गर्दन देखने वाली की आँखों में ताज़गी पैदा कर रही थी। हवा के हल्के झोंके उस की शबनमी सारी में शिकन पर शिकन डाल रहे थे, और वो उनको बराबर करती जा रही थी। मैंने इधर उधर देखा रास्ता चलने वालों में से कोई और भी इस ज़ुहरा अर्ज़ी को देख रहा था या नहीं? लेकिन कोई हमारी तरफ़ मुतवज्जेह नहीं था। मुझे हैरत हुई, इसलिए हुई कि ये कोई ऐसी सूरत थी जो बग़ैर अपना ख़ेराज लिए हुए किसी को गुज़र जाने देती। मैं काँपने लगा, क्या उसको मेरे इलावा कोई और नहीं देख रहा था? क्या मेरे मर्कज़ी निज़ाम- असबी में कोई इख़तिलाल रूनुमा हो चला था? कहते हुए शर्म आती है कि मैंने नफ़सियात, अज़वियात और दीगर उलूमे जदीदा का ग़ाइर मुता’ला किया है। जिसने मुझको मुश्किक बना कर छोड़ दिया है।

    इस मंज़र से मुझ पर वो हैबत तारी हुई कि मैं बेसाख़्ता चिल्ला उठा फिर देखा तो नशिस्त ख़ाली थी। वो अजीब उल-ख़िलक़त औरत वहां से जा चुकी थी और चम्बेली की शामा नाज़ महक भी अपने साथ लेती गई थी। मैं रग-रग में तकान महसूस कर रहा था। जल्द- जल्द क़दम उठाता हुआ कैसरबाग से बाहर निकला और एक ताँगे पर बैठ कर फ़्रैंच होटल में किसी ना किसी सूरत से पहुंच गया। जहां मैं अपने अहबाब के साथ मुक़ीम था। अपनी दास्तान अगर बयान करता मुज़हके का निशाना बनता, लिहाज़ा मैंने उस तस्वीर का भी कोई ज़िक्र नहीं किया। जिसको नासरी के ‘निगारख़ाने’ में देख आया था और जिसकी असर आफ़रीनियों ने इस हद तक मुझको बेक़ाबू कर दिया था। मेरे अहबाब की लुग़त में ज़िंदगी नाम था सिर्फ शाद केशी का, हमारे बेशतर औक़ात ख़ुश बाशियों में गुज़र जाते। सैर-ओ-तफ़रीह की लज़्ज़तों और मुख़्तलिफ़ दिलचस्पियों ने सुमन पोश नाज़नीन का तसव्वुर मेरे ज़ेह्न से मिटा दिया और अगर कभी उसकी याद ताज़ा हो जाती तो में उससे पहलू बचा जाता इस तरह दस बारह रोज़ गुज़र गए।

    एक रोज़ हम सबको मालूम हुआ कि अल्फ्रेड थेटर आया है। बिलइत्तिफ़ाक़ ये तै पाया कि पहली रात का खेल ज़रूर देखना चाहिए, चुनांचे उसका इंतिज़ाम किया गया। ज़िंदगी में ये पहला मौक़ा था कि मैं थेटर देख रहा था। मगर ना तो तमाशा की ग़ायत की तरफ़ ध्यान था, ना उसपर तन्क़ीद करने का होश, मैं बस एक चीज़ देख रहा था, या’नी वही औरत चम्बेली का हार जे़ब गुलू किए हुए अरचेस्टरा में बैठी हुई थी और मह्वियत के साथ मुझे देख रही थी, वो तन्हा थी, उसके लिबास में कोई तबदीली नहीं हुई थी, मैंने अपने दोस्त को मुख़ातिब करके कहा। “उसको देखते हो जो सामने शबनमी सारी ज़ेब-ए-तन किए हुए बैठी है? वही जिसके गले में हार है।”

    मेरे दोस्त ने निगाह उठाई और सर हिला कर जवाब दिया, ‘नहीं तो! कहाँ बैठी है?”

    “बिलकुल सामने” मैंने किसी क़दर मुतहय्यर हो कर फिर कहा, “आरचेस्टरा में देखो वो हमको देख रही है।”

    मेरा मुख़ातिब ताज्जुब से मुझको देखने लगा। “ख़्वाब तो नहीं देख रहे हो? ऑर्केस्ट्रा में कोई औरत नहीं है।” उसने मुझसे कहा, “कोई औरत नहीं!” अब मुझे होश आया। मैंने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा, “शायद मुझको मुग़ालता हुआ” और फ़ौरन मबहस बदल दिया। जबतक मैं थेटर हाल में था मेरे अहबाब समझ रहे थे कि तमाशा देखने में मसरूफ़ है, मगर वाक़िया ये है कि मैं अपनी नज़र उस जगह से हटा ही नहीं सकता था। जहां वो इस मतानत और ख़ामोशी के साथ बैठी दर्दमंद निगाहों से मेरी कुव्वतों को सलब कर रही थी, आज उसके सामाने आराइश में एक चीज़ का इज़ाफ़ा नज़र रहा था। या’नी एक ख़ूबसूरत पंखा जिसको कभी- कभी जुंबिश दे देती थी। रह-रह कर उसी पुर हस्रत अंदाज़ से मुस्कुराती जिसमें पोशीदा तो बहुत कुछ था लेकिन जो अपने राज़ को अफ़शा ना होने देता था। जब तमाशा ख़त्म हुआ और सब चलने के लिए खड़े हुए तो वो भी उठी और सारी का आँचल एक मा’सूमाना अदा से सँभालती हुई, हुजूम में ग़ायब हो गई। चंद लम्हों के बाद मैंने शाहराह पर फिर उसकी झलक देखी, उस का जिस्म इस क़दर नाज़ुक था, वो इस क़दर कमउम्र और ना-आज़मूदाकार मालूम होती थी कि मुझे उस पर तरस आने लगा। मैं डर रहा था कि लोगों के इस तूफ़ान में कहीं उसको कोई सदमा ना पहुंच जाये। “क्या ये कोई रूह है जिसको किसी ख़ास ग़रज़ से अज़ सर-ए-नौ इस दुनिया का क़ालिब अता किया गया है या महज़ मेरा वाहिमा है जो मुझे परेशान कर रहा है।” मैं अपने दिल से सवाल कर रहा था। “लेकिन उस की सूरत इस क़दर ग़मगीं और आज़ुर्दा है कि मेरा दिल उसके लिए दुख रहा है। ख़ाह वो ख़्वाब ही की मख़लूक़ क्यों ना हो।”

    इसी कश्मकश में मुब्तला अपने दोस्तों के साथ मजमे को पहाड़ता हुआ जा रहा था कि पीछे से किसी ने छू कर मुझे चौंका दिया। मैंने मुड़ कर देखा तो एक नाज़ुक हाथ मेरे शाने पर था जो देखते ही देखते ग़ायब हो गया। आज मेरे ज़ेह्न में एक तग़य्युर रूनुमा हुआ। या’नी मेरी वहशत दूर हो गई और मुझे ख़्याल हो गया कि ये दिलकश हस्ती ख़्याली हो या माद्दी, आलम-ए-अर्वाह से ता’ल्लुक़ रखती हो या आलम-ए-अज्साम से, किसी ना किसी ग़रज़ से मेरा तआ’क़ुब कर रही है। मैंने इरादा कर लिया कि अब उसको देखकर डरूंगा नहीं बल्कि हिम्मत के साथ वाक़ियात का तर्तीबवार मुताला’ करूँगा और मुझे इत्मिनान था कि अगर इस्तिक़लाल से काम लिया तो हक़ीक़त को ज़रूर बे-नक़ाब कर सकूँगा।

    लखनऊ में पंद्रह रोज़ और क़ियाम रहा लेकिन ‘सुमन पोश’ उस दौरान में फिर नज़र आई। अलबत्ता नासरी के साथ जाकर मैंने उसकी तस्वीर की एक कापी ख़रीद ली जो मेरे लिए एक ख़ास अहमियत रखने लगी थी। मुझे मालूम हुआ कि तस्वीर को असल से कोई मुनासिबत नहीं और इससे नाहीद की रा’नाइयों और दिलरुबाइयों का सही अंदाज़ा करना मुहाल था। उसके बाद मैं बाराबंकी चला आया और अपनी रोज़ाना की मस्रूफ़ियतों में नाहीद को फिर भूल गया। मैंने उसी साल बी.ए. किया था और दौर-ए- ता’तील से गुज़र रहा था जिससे स्कूल और कॉलेज का ज़माना ख़त्म करके कम-ओ-बेश हर शख़्स को गुज़रना होता है या’नी अभी ये फ़ैसला कर सका था कि मुझे करना क्या है।

    मेरे एक चचा की लड़की सायरा ज़िला सीतापुर के एक बावक़ार रईस अबदुलअली के लड़के शमीम से ब्याही हुई थी। शमीम ने भी उसी साल ऐम.एससी. किया था और चूँकि सरमायादार थे और कसबे मआ’श की फ़िक्र से बेनयाज़, इसलिए उनका इरादा था कि अपनी ज़मींदारी का इंतिज़ाम करेंगे।

    एक दिन मेरी माँ के नाम सायरा की तहरीर आई जिससे मालूम हुआ कि अबदुलअली साहिब ने हाल ही में एक नया गांव मअ’ एक आलीशान इमारत के ख़रीदा है और उन लोगों की ख़्वाहिश है कि हम सब उनकी मसर्रतों में शिरकत करें। सायरा का इसरार था कि कम अज़ कम मैं ज़रूर अपनी कैफ़ीयतों से उस के लुत्फ़ में इज़ाफ़ा करूँ वर्ना वो मुझे कभी माफ़ करेगी। मैं कह नहीं सकता सायरा को मेरी मुसाहिबत में क्या लुत्फ़ हो सकता था जबकि अक्सर अहबाब का ख़्याल है कि मेरी हंसी मस्नूई’ हुआ करती है और फ़िल-हक़ीक़त मेरा ख़मीर अलमनाकियों से हुआ है। ये और बात है कि मैं हर क़िस्म की सोहबत में शरीक हो जाया करता हूँ, बहर-ए-हाल सायरा को मेरी तरफ़ से हुस्न-ए-ज़न था जो ग़ुलू की हद तक पहुंचा हुआ था और वो चाहती थी कि ज़िंदगी के बेशतर फ़र्हतनाक लम्हे मेरी मईयत में गुज़रें। मुझे उज़्र ही क्या हो सकता था। वक़्त काटने के लिए कोई बहाना तलाश कर रहा था। मैंने फ़ौरन सामान दुरुस्त कर लिया, मेरी माँ अलबत्ता चंद अस्बाब की बिना पर जा सकीं।

    ‘जमाल मंज़िल’ वाक़ई निहायत ख़ूबसूरत और शानदार इमारत थी। जो एक वसीअ’ अहाते से घिरी हुई थी। शमीम की गाड़ी ने जिस वक़्त मुझे पेशगाह में ला कर उतारा तो मैं उसकी शौकत से मरऊ’ब हो गया, जिसने ऐसे देहात में इस ‘फ़िर्दोसी अर्ज़ी’ को अपने लिए ता’मीर कराया होगा। उसमें ज़ौक़-ए- सलीम और हुस्न-ए- लतीफ़ कहाँ तक रचा होगा। इसके इलावा ‘जमाल मंज़िल’ से उसके असल मालिक की माली इस्तिताअ’त का भी बख़ूबी अंदाज़ा होता था। चूँकि मैं शाम को पहुंचा था इसलिए अहाता और बाग़ की सैर सुबह तक मुल्तवी रखी गई।

    अबदुल अली और उनकी बीवी ने निहायत ख़ुलूस से मेरा ख़ैर-मक़्दम किया। शमीम ज़रूरत से ज़्यादा हंस रहा था और फिर भी उनको सेरी नज़र नहीं आई थी। सायरा ने संजीदगी और मतानत से अपनी ख़ुशी का इज़हार किया जैसा कि उसका दस्तूर था। अल-ग़र्ज़ मेरे आने से हर शख़्स अपनी-अपनी जगह काफ़ी मसरूर था।

    जब हम रात के खाने पर बैठे तो हमारी गुफ़्तगु का मौज़ूअ’ वही गांव और मकान था और इसमें शक नहीं कि मौज़ूअ’ दिलचस्प साबित हुआ। शमीम ने कहा, “तुम इस मकान पर इस हैसियत से ग़ौर करो कि जिस बदनसीब ने इसको हौसलों के साथ ता’मीर कराया था वो मुसन्निफ़ था, शाइर था, नक़्क़ाश था, और आज बीस बरस से ज़्यादा अर्सा गुज़रा है कि उसने ख़ुदकुशी कर के अपनी ज़िंदगी का ख़ात्मा कर लिया। तुम उसका नाम जानने के लिए बे-ताब होगे, उस का नाम ‘जमाल उद्दीन’ था।”

    ‘जमाल उद्दीन’ मैं चौंक पड़ा। मैंने उसके कुछ मुंतशिर अशआ’र का मुताला’ किया था और उसका एक ड्रामा ‘हिज़यान-ए- मुहब्बत’ भी पढ़ा था जिसका मुझ पर गहरा असर हुआ था, ये जानता था कि वो नक़्क़ाश भी है और ये ख़बर थी कि उसने अपने हाथों अपनी जान दी।

    सायरा ग़ौर से मुझे देख रही थी, और ख़ूब वाक़िफ़ थी कि मेरे आ’साब कितने सरी उलहिस और असर पज़ीर हैं। उसने शमीम से नापसंदीदगी के लहजे में कहा, “आपने बुरा किया। सुहेल भाई के लिए तमाम रात करवटें बदलते रहने और सर धुनने का सामान फ़राहम कर दिया। अभी वो सफ़र से माँदा-ओ-ख़स्ता चले रहे हैं। आपने उनको राहते शब से भी महरूम कर दिया।”

    मैंने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं! नहीं! क़िस्सा सुनने के लायक़ है। हाँ तो शमीम! ये नहीं मालूम कि हमारा शाइर नक़्क़ाश अपनी ज़िंदगी से बेज़ार क्यों हो गया।”

    “मैं ठीक नहीं कह सकता, सुना है उसको अपनी बीवी से बे-इंतिहा मुहब्बत थी जिसको किसी ने वल्लाह इल्म क्यों क़त्ल कर दिया। जमाल उद्दीन इस सदमे को बर्दाश्त कर सका और ग़ालिबन डेढ़ साल के बाद उसने भी अपना उंसरी जामा उतार फेंका। शाइर यूं भी ख़फ़क़ानी और अपने दिल के ग़ुलाम होते हैं और उनका किसी रौ में ख़ुदकुशी कर लेना कोई हैरत-अंगेज़ नहीं।”

    शुरू से आख़िर तक शमीम के लहजे से तमस्खुर इस्तिहज़ा पाया जाता था, मैं ये सोच रहा था कि इन्सान इस क़दर बे-हिस होता है। मैंने जवाब दिया, “शमीम! तुम्हारी गुफ़्तगु ने तो मुझे बहुत दुख पहुंचाया लेकिन तुमसे इसके सिवा उम्मीद ही क्या हो सकती थी, ये कोई तुम्हारा अपना ख़्याल नहीं, ये मर्ज़ आलमगीर है, जो सारी दुनिया में वबा की तरह फैला हुआ है। जो इन्सानियत और उलूहियत दोनों को कायनात से मफ़क़ूद कर रहा है। लेकिन तुम्हारे ज़ेह्न में तो शायद उन अलफ़ाज़ के कोई मअ’नी भी ना हों। तुम जो दिल को एक पारा गोश्त समझते हो जो पंप का काम देता है, तुम जो इन्सान को एक आला समझते हो, बताओ तुमने इतनी उम्र ज़ाए’ करके कौन सी नई बात हासिल की?

    आन-चे दिल-ए-नाम कर्दा-ई ब-मजाज़

    रू-ब-पेश-ए-सगान-ए-कू अंदाज़

    शायद हर शख़्स जो इन्सानों और हैवानों को मुतवातिर चीरता रहे और कुछ दिनों तक बराबर मुशाहिदा करता रहे। इस क़दर जान सकता है कि दिल सनोबरी शक्ल का एक टुकड़ा है जो गिलाफ़-ए- क़ल्ब (pericardium) में मलफ़ूफ़ है और जिसका काम ख़ून को अंदर खींचना और बाहर फेंकना है, मगर तुमको क्या कहूं, बड़े से बड़ा फ़लसफ़ी और बड़े से बड़ा हकीम इन्ही ख़ुद फ़रेबियों में मुब्तला है। वो अक़्ल की रहनुमाई में चलता है और वज्दानियत बदाहत को पीछे छोड़ता जाता है। कारलाइल ने इसी लिए ऐसे लोगों का नाम ‘मंतिक़ तराश’ (logic chopper) रखा है। इसीलिए किसी चीज़ की बाबत कोई क़त्तई हुक्म नहीं लगाया जा सकता। अक़्ल की इफ़रात ने इसकी रबूबियत छीन ली और इसके इर्तिक़ा का सद्द-ए-बाब हो गया। वो अपना नस्बउलऐन भूल गया बल्कि अपनी असलियत भी उसको याद ना रही। बेदिल ने हमको बहुत साइब राय इस बारे में दी है।

    हर चंद अक़्ल-ए-कुल शुदा बे-जुनूँ म-बाश

    ख़ैरियत ये है कि दुनिया में चंद ऐसे नफ़ूस हमेशा रहे जो कभी कभी हक़ीक़त की झलक देख लिया करते हैं और हमको अपने आग़ाज़-ओ-अंजाम से आगाह करते रहते हैं, वर्ना आज मैमथ की तरह ये मख़लूक़ भी सफ़-ए- हस्ती से मिट जाती जो ‘इन्सान’ कहलाती है।

    मेरे हैजान का दौर शुरू’ हो गया। मैं इन्सान का जह्ल -ए-मुरक्कब नहीं बर्दाश्त कर सकता, ये बीमारी शायद इन्सान के इलावा किसी दूसरे जानवर में नहीं पाई जाती कि वो अपनी जहालत को इल्म समझने की कोशिश करना चाहता है और अपनी इस दानिस्ता फ़रेब-कारी पर नाज़ करता है।

    शमीम बे-कैफ़ होने लगा था। मेरा मुबाहिसा अक्सर तल्ख़ हुआ करता है इसलिए जहां सूई से काम लेना चाहिए, वहां मैं नेज़ों और भालों के वार करने लगता हूँ और सुनने वाले मेरी सोहबत से लुतफ़ उठाते हैं मगर मेरा मुक़ाबिल हमेशा मुझसे मुतनफ्फर हो जाया करता है,चुनांचे मेरे चाहने वालों से वो लोग तादाद में ज़्यादा हैं जो मेरी तरफ़ से अपने दिलों में ग़ुबार लिए हुए हैं। शमीम ने मेरी रगों में चिनगारियां भर दी थीं और मैं आग बरसाने लगा था जिसका सिलसिला जाने कहाँ ख़त्म होता अगर उनकी वालिदा दरमयान में ना बोल दी होतीं। “अच्छा अब बेकार बहस को जाने दो, एक लतीफ़ा और सुनो, गाने वालों में मशहूर है कि ‘जमाल मंज़िल’ रूहों का मस्कन है और मेरा ख़्याल है कि बेचने वालों ने इसी वहम से इस को जुदा भी किया था मगर हम लोगों पर इस क़िस्म के जाहिलाना मो’तक़िदात का क्या असर हो सकता है।”

    मैंने अपने दिल में कहा, “ना जाने गाने वाले जाहिल हैं या आप।” शमीम से फिर ना रहा गया और मुझ पर हमला कर ही बैठे, उन्होंने कहा, “मगर अब मुझे इत्मिनान है कि मेरे घर में एक ऐसा मुहक़्क़िक़ मौजूद है जो हम को असलियत से ख़बरदार कर सकेगा।”

    “ग़लत ख़्याल है।” मैंने जवाब दिया, “मेरी तहक़ीक़-ओ-तदक़ीक़ से फ़ायदा उठाने की सलाहियत तुममें नहीं है, अगर कोई राज़ मुझ पर मुनकशिफ़ भी होगा तो में उसको तुमसे मख़फ़ी रखूँगा।”

    रात ज़्यादा हो चुकी थी हम एक दूसरे को “शब-बख़ैर” कह कर अपनी अपनी ख़्वाबगाह को रुख़्सत हुए। चलते हुए सायरा ने कहा, “आपका चेहरा धुँदला हो गया है, देखिए सोना नसीब होता है या नहीं, आज के मबहस पर ज़्यादा तब्सिरा ना कीजिएगा।”

    मैंने हंसकर जवाब दिया, “सायरा, बच्चों की सी बातें ना करो” और आकर बिस्तर पर लेट रहा, नींद की कोई अ’लामत मेरी आँखों में थी। मैं दो बजे रात तक पढ़ता रहा, गर्मी की सुहानी रात थी, पिछले-पहर हवा में एक सुकून-बख़्श ख़ुनकी पैदा हुई तो मेरी आँख लग गई। लेकिन पाँच ही बजे किसी के क़दमों की आहट से जाग गया। देखा तो शमीम थे। मैं उठ बैठा, “शमीम ने कहा, हवा ख़ुशगवार है, चलो बाग़ में तफ़रीह कर आएं, या रात की कबीदगी हनूज़ बाक़ी है?”

    “कहीं सायरा ने रात-भर तुम्हारे कान तो गर्म नहीं किए?” मैंने पूछा।

    शमीम हंस दिए और मेरा हाथ पकड़ कर कहने लगे, “तुम शायद रात-भर सोए नहीं? अच्छा चलो हवा कसल दूर कर देगी।”

    “हाँ! इसवक़्त की सैर ज़रूर रूह में बालीदगी पैदा करेगी”, ये कह कर में शमीम के साथ हो लिया।

    बाग़ को मैंने उम्मीदों से ज़्यादा दिलकश और फ़रहतनाक पाया। अहाते के वस्त में एक ख़ूबसूरत तालाब था। क़िस्म -क़िस्म के दरख़्त और मुख़्तलिफ़ रंग-ओ-बू के फूल रविशों के किनारे उलुए तख़य्युल का नमूना बने हुए थे। हर-चंद कि क़राइन से ज़ाहिर होता था कि मुद्दत से उनकी पर्दाख़्त करने वाला वहां कोई नहीं, तालाब के चारों तरफ़ चम्बेली की क्यारियाँ थीं जिनसे फ़िज़ा महक रही थी। मुझे बे-इख़्तियार अपनी ‘सुमन पोश’ याद आगई थोड़ी देर के लिए मैं फिर आलम-ए-ख़याल में गुम हो गया। शमीम ने ये देखकर पूछा, “क्या सोच रहे हो?”

    “कोई ख़ास बात नहीं”, मैंने जवाब दिया।

    शमीम ने कहा, “अब आओ मैं तुमको जमाल उद्दीन की बीवी की क़ब्र दिखाऊँ।” मैं सरापा इश्तियाक़ बन कर शमीम के साथ आगे बढ़ा, चम्बेली की एक क्यारी में एक पुख़्ता क़ब्र थी जिसकी शिकस्तगी कह रही थी कि अब ऐसा भी कोई नहीं जो उस की मरम्मत कराने की ज़हमत गवारा करे। लौह टूट कर अलैहदा ज़मीन में पैवस्त थी, उस पर घास उग आई थी। इससे पेशतर शमीम या किसी और की निगाह भी इस पर नहीं पड़ी थी, मैंने बैठ कर उसको साफ़ किया तो उसपर नाहीद लिखा हुआ पाया। शमीम ने मेरे ईमा पर एक ख़िदमतगार को बुलाया जिसने लौह को ज़मीन से बाहर निकाला, दूसरी तरफ़ भी कुछ कत्बा नज़र आया। ग़ौर करने से मा’लूम हुआ कि कोई फ़ारसी शे’र है मगर बावजूद सई’ बिस्यार के सही पढ़ा ना जा सका इसलिए कि वो हिस्सा तक़रीबन एक बालिशत ज़मीन के अंदर था, और ज़माने की रगड़ ने नुक़ूश को काफ़ी मिटा रखा था। मेरी रग-रग बेचैन हो रही थी कि किसी तौर से इस कत्बे को पढ़ लूं। लेकिन कुछ बस ना चला। शे’र भी कोई ऐसा था जो आम तौर पर मशहूर होता ताकि क़ियास से पढ़ लिया जाता, आख़िरकार मायूस लौटना पड़ा।

    यहां अबदुलअली साहिब सायरा वग़ैरा के साथ चाय पर हमारा इंतिज़ार कर रहे थे। आज की गुफ़्तगु का मर्कज़ ‘नाहीद का मज़ार’ रहा। मुझे रह-रह कर उसी कत्बे का ख़्याल आता था जिसने मुझे तारीकी में रख छोड़ा था। सारा दिन हारमोनियम, फोटोग्राफ, ताश और दीगर मशाग़ल में ज़ाए’ हुवा। मैं चाहता था कि कुछ लिखूँ, मगर यहां इसकी कोशिश करना ‘बुतपरस्तों के शहर में नमाज़’ के लिए जिहाद करने से कम था। शाम को शमीम ने गाड़ी तैयार कराई और मुझे लेकर हवा खाने निकल गए। मुख़्तसर ये कि मुझे इस क़दर मौक़ा ना मिला कि एक-बार फिर नाहीद की क़ब्र पर जाता और लौह पर नज़र-ए-सानी करता। जब खाने के बाद अपने बिस्तर पर गया तो किसी क़दर सुकून मयस्सर हुआ। दिल बहलाने की ग़रज़ से घंटों मसनवी मौलाना रोम देखता रहा।

    नींद के आसार उस दिन भी ग़ायब थे, रात का सन्नाटा बढ़ रहा था। मेरा मुताला’ बदस्तूर जारी था, कभी कभी किताब बंद करके कुछ सोचने लगता था। तक़रीबन एक बजे बिस्तर से उठा और सामने के कमरे से सिगरट लेकर वापस हो रहा था कि मुझे चार पाँच गज़ के फ़ासले पर एक औरत की शक्ल दिखाई दी जो देखते- देखते मेरे मुक़ाबिल थी। ये कौन? वही ‘सुमन पोश’। उस वक़्त मैंने हैरत को आ’साब पर क़ाबू पाने दिया ना हरास को। ये मेरी ख़ुशनसीबी थी कि मैं अपने हवास क़ायम रखने में कामयाब हो गया। मेरी निगाहें उसकी निगाहों से जिस वक़्त मिलीं तो उसने हाथ से कुछ इशारा किया, गोया मुझसे किसी बात की इल्तिजा कर रही है।

    “तुम यहां किस लिए आई हो”, मैंने आहिस्तगी से पूछा, “और मेरा तआ’क़ुब क्यूँ कर रही हो?”

    इसी तरह उसने फिर हाथ को हरकत दी और काँपती हुई आवाज़ में कहा, “इसलिए कि आपको मुझसे हमदर्दी है।”

    “क्या तुम सुकून से महरूम हो?”

    “यक क़लम।” ये कहते- कहते उसका दम फूलने लगा जैसे तशंनुज का दौरा पड़ रहा हो। मैं घबरा सा गया ताहम सिलसिले को मुन्क़ते’ होने दिया।

    “अच्छा तो बताओ मुझसे क्या चाहती हो?” मैं अपने बिस्तर पर बैठ गया।

    उसने अपनी हैजानी आँखें ऊपर उठा दीं जो नम आलूद थीं। “मेरे लिए दुआ कीजिए, जबसे मैं मरी हूँ किसी ने मेरे लिए दु’आ नहीं की। बीस बरस से किसी ने मुझपर तरस नहीं खाया।” उसने कुछ ऐसे लहजे में कहा कि मेरा जी भर आया।

    “तुम्हारी मौत का सबब किया हुआ था।” मैंने सवाल किया।

    अब ‘सुमन पोश’ क़रीब की एक कुर्सी पर बैठ गई, उसने एक ग़मगीं अंदाज़ से मुस्कुराते हुए अपने सीने से हार हटाया और मैंने देखा उस जगह उसके कपड़े पर ख़ून के गहरे धब्बे थे। उसने धब्बों की तरफ़ इशारा किया और फिर उनको अपने हार से छिपा लिया ,मैं समझ गया।

    “क़त्ल?” मेरी ज़बान से बेसाख़्ता निकल गया।

    “किसी को इसका सही इल्म नहीं”, उसने कहा, “आप मेरा पूरा अफ़साना-ए- हयात सुनना चाहते हैं तो सुनिए! मैं वही नाहीद हूँ जिसका मदफ़न आपने इस अहाते में देखा है।”

    “हाँ...!”

    “तुमको किसने क़त्ल किया और क्यों?” मैंने बात काटकर फिर पूछा। मेरे आ’साब फिर बेक़ाबू हो चले थे, में सब कुछ इसी एक मिनट में जान लेना चाहता था। ख़ुद नाहीद के बुशरे से ज़ाहिर होता था कि वो एक अंदरूनी कर्ब से बेबस हो रही है, गोया अपनी दास्तान को दोहराना उसके लिए बड़ी आज़माइश का काम था।

    “ज़रा सब्र कीजिए तो मैं कोशिश करके अपनी ज़िंदगी के वाक़ियात आपसे बयान करदूं।” उसने कहा, “मेरा क़ातिल मेरा शौहर है लेकिन उससे ये हरकत एक ज़बरदस्त ग़लतफ़हमी में सरज़द हुई थी। उसको धोका हुआ, जिसका मरते दम उसको इल्म हो सका। वो मुझसे मुहब्बत करता था। ऐसी मुहब्बत जिसकी मिसाल इस दौरे माद्दीयात में कम मिलेगी। मुबालग़ा ना समझिए, वो मुझको पूजता था...

    आप ख़ामोश सुनते जाइए। मेरे लिए वो अपने अज़ीज़ों से किनारा-कश हो गया और इस वीराने को आबाद करके बैठ गया। वो कहा करता था, मेरे दोनों जहां तेरी आँखों में हैं। ‘जमाल मंज़िल’ उसने मेरे लिए बनवाई थी और मैं! मैं तो ये समझती थी कि ज़मीन, आसमान, चांद, सूरज, दिन रात सब उसकी तजल्लियां हैं। मुझे यक़ीन था और अब भी है कि मुझे ज़िंदगी उसके तुफ़ैल मिली है। अगर इन्सानी दुनिया की तमाम ज़बानें मेरेजज़बात को म’रिज़-ए-इज़हार में लाने की मुत्तफ़िक़ा कोशिश करें तो ओहदा बर नहीं हो सकतीं।”

    नाहीद की ज़बान में कांटे पड़ गए थे, वो दम लेने के वास्ते रुक गई, में बे-ख़ुदी की हालत में उसको देख रहा था।

    “मैं पार्सी थी या’नी आतिश परस्त।” उसने आख़िरी अलफ़ाज़ पर-ज़ोर देते हुए फिर बयान शुरू कर दिया, “और ऐक्टिंग मेरा ज़रिया मआ’श लेकिन अगरचे मर्दों का साथ शब-ओ-रोज़ रहता था, मुझे किसी से भी इश्क़ हुआ था। जमाल ने मुझे एक नई लज़्ज़त से आश्ना किया। उसको मुझसे मुहब्बत पैदा हो गई। उस के एक- एक लफ़्ज़, उसकी एक- एक अदा से ख़ुलूस-ओ-सदाक़त की बू आती थी। मैं भी उसको दीवानों की तरह चाहने लगी। उसकी हस्ती मुझको दुनिया से निराली नज़र आई। उसकी हंसी में हमेशा दुख भरा होता था। उसकी आवाज़ में पपीहे की सी दिलदोज़ तासीर थी, सोज़-ओ-गुदाज़ उसके ख़मीर में था। वो सरापा तस्वीर दर्द था। मेरा मैलान ट्रेजडी की तरफ़ था इसलिए जमाल ने मुझे आसानी से जीत लिया।”

    वो फिर इस मर्तबा ज़बान तर करने को रुकी, मैंने यही मुनासिब समझा कि वो तर्तीबवार अपना सारा क़िस्सा बयान कर जाये लिहाज़ा ख़ामोश मुंतज़िर रहा।

    “मैं आपके आराम में मुख़िल तो नहीं हूँ?” उसने ना जाने किस हाल से पूछा, उस का चेहरा उसके वारदात-ए-क़ल्ब का आईना बन रहा था।

    “बिलकुल नहीं! में इस घड़ी का मुश्ताक़ था।” मैंने जवाब दिया।

    “मैं समझती थी कि आप मेरी ग़मख़्वारी करेंगे।” उसने मोतरतहमाना लहजा में कहा, “वर्ना आपका तआ’क़ुब ना करती।”

    “हाँ तो हमारी मुहब्बत ख़ुश आइंद साबित हुई। जमाल ने मुख़ालिफ़तों और अंगुश्तनुमाइयों से बेपर्वा हो कर मुझसे शादी कर ली और हम दोनों ने हंगामों से दूर इस जंगल में एक जन्नत बसाई। दोनों की ज़िंदगी एक मुसलसल लम्हा-ए- मुसर्रत थी। जमाल ने अपनी सारी दौलत मेरे लिए वक़्फ़ कर दी। वह मुतमव्विल आदमी था। अदबीयात और मुसव्विरी से उसको इन्हिमाक था। मुसव्विरी का वो माहिर हो चला था। उसने मेरी तस्वीरें खींचीं और उनमें से अक्सर की पब्लिक में नुमाइश भी की जिनसे उसको बड़ी शोहरत हासिल हुई। ये चम्बेली की क्यारियाँ मेरी मेहनतों का नतीजा है। शाम को जब हम बाग़ में गुल-गश्त करते होते तो वो फूल तोड़- तोड़ कर मुझे देता। मैं हार गूँध कर ख़ुद पहनती और उसको पहनाती। इसी तरह दो साल गुज़र गए। यकायक ज़माने ने ऐसी गर्दिश की कि बात की बात में हमारे ख़्वाब का तिलिस्म टूट गया। जमाल ने अगरचे तन्हाई इख्तियार कर ली थी,ताहम कभी- कभी उसके अहबाब उससे मिलने जाया करते थे और वो उनसे मिलकर ख़ुश होता था। उसके रिश्तेदारों में फ़िरोज़ जो उसका शैदा मशहूर था, हमको देखने अक्सर आता था और हफ़्तों आकर रहा करता था। फ़िरोज़ की तबीयत मुब्तज़िल और आ’मियाना थी, उसकी नफ़सानियत की दास्तानें अक्सर सुनी गई थी मगर जमाल उसकी हौलनाकियों से वाक़िफ़ था। वो मालूम नहीं क्यों फ़िरोज़ की क़द्र करता था, शाइर या सन्नाअ’ इन्सान को बहैसियत मज्मूई कितना ही सही क्यों समझले लेकिन जहां अफ़राद से साबिक़ा पड़ता है वो अक्सर धोका खा जाता है। फ़िरोज़ की निगाहें मुझे गिरां गुज़रती थीं, उसकी मुस्कुराहट मुझे नागवार होती थी। मैंने मुतअद्दिद बार चाहा कि जमाल को होशयार कर दूं मगर फिर ये ख़्याल हुआ कि बेकार बदमज़गी पैदा करना ग़लती है। मुझे अपनी अख़लाक़ी क़ुव्वत पर इस दर्जा गुरूर था कि मैं समझती थी फ़िरोज़ मुझसे मज़ाक़ करने की भी हिम्मत करेगा, और चूँकि वो उ’मूमन मेरे सामने मुहज़्ज़ब और शाइस्ता रहा करता था इसलिए और भी मुतमइन थी और जमाल को भी मुझ पर ए’तिमाद था।

    एक दफ़ा का ज़िक्र है कि फ़िरोज़ हमारा मेहमान था। जमाल को किसी अशद ज़रूरत से सीतापुर जाना पड़ा, रात को आठ बजे जब कि उसकी वापसी का वक़्त था, मैं उस कमरे में जो आपके कमरे के मुत्तसिल है, बैठी कुछ धीमी आवाज़ में गा रही थी, दफ़्अतन मुझको कमरा तारीक होता मालूम हुआ। पीछे मुड़ कर देखा तो फ़िरोज़ था। मैंने उससे पूछा, ‘ये रोशनी कम क्यूँ-कर दी?’ मैं सवाल ख़त्म करने पाई थी कि मेरा बाज़ू उसकी आहनी गिरफ्त में था और वो मुझे अपनी तरफ़ खींच रहा था। बा’ज़ साअ’तें होती हैं जो कमज़ोर दिल में ख़ौफ़नाक मुजरिमाना जिसारत पैदा कर देती है। मैंने अपने तमाम जिस्म की क़ुव्वत सर्फ कर के एक-बार उसकी गिरफ्त से अपना हाथ छुड़ा लिया मगर कमबख़्त पर बहैमियत का देव मुसल्लत था। दूसरे मिनट में मैं उसकी तंग आग़ोश में थी। मैंने अभी तक किसी नौकर को इसलिए नहीं बुलाया था कि उनमें इस वाक़िया के मुताल्लिक़ ख़्वाह-मख़ाह सरगोशियाँ होंगी। अब मैंने एक-बार फिर फ़िरोज़ के मोहलिक पंजों से आज़ाद हो कर ख़ादिमा को आवाज़ दी। उसके आने में ताख़ीर हुई। फ़िरोज़ फिर मेरी सिम्त बढ़ा लेकिन इतने में जमाल ने मुझे पुकारा फ़िरोज़ कमरे से बाहर निकल गया और मैं जमाल के पास दौड़ी। मेरा इरादा था कि उससे बे कम-ओ-कास्त सब माजरा कह कर फ़िरोज़ को उसी वक़्त निकलवा दूँगी, मगर इसकी नौबत नहीं आई। उसने अपनी आँखों से मुझे फ़िरोज़ की आग़ोश में देख लिया था और अपनी राय क़ायम कर चुका था। मालूम होता है जिस वक़्त उसने ये देखा उसी वक़्त मैंने अपने को फ़िरोज़ को गिरफ्त से छुड़ाया था। जमाल उफ़! उफ़! करता हुआ अपने स्टूडियो में टहल रहा था। मैंने उसको कभी ग़ज़बनाक नहीं देखा था। उसकी आँखें ख़ून की मानिंद सुर्ख़ हो रही थीं। सूरत जोश-ए-ग़ज़ब में मसख़ हो गई थी। मैं कमरे में दाख़िल भी ना होने पाई थी उसने मजरूह शेर की तरह मेरे कलाई पकड़ ली और कहा, ‘दग़ाबाज़’ तेरी ज़िंदगी का एक- एक पल अब मेरी रूह को नापाक कर रहा है। मुझमें पिंदार ऐसा था कि ‘दग़ाबाज़’ ख़िताब पा जाने के बाद मैंने अपनी बरीयत के लिए एक हर्फ़ भी कहा और वो कुछ ऐसे आ’लम में था कि अगर मैं कुछ कहती भी तो वो मुझे झूटा समझता। जमाल बे-इंतिहा मग़्लूब उल-जज़्बात और ज़की उलहिस वाक़े’ हुआ था। उसके अ’ज़लात फड़क रहे थे, उसका दम घुट रहा था। उसने एक निगाह मेरी इस ना-मुकम्मल तस्वीर पर डाली जिसके लिए वो उन दिनों बड़ी मेहनत कर रहा था और मेज़ की दराज़ से पेशक़ब्ज़ निकाल कर मेरे सीने में उतार दिया। ये सब ऐसी ग़ैर मुतवक़्क़े सुरअत के साथ हुआ कि मेरी समझ में कुछ आया। तबाही का शैतान फ़िरोज़ पाँच मिनट के अंदर मुझको मेरी जन्नत से महरूम कर गया। उसके बाद हर-चंद कि जमाल पर कोई इल्ज़ाम ना आया और मशहूर हो गया कि मुझे किसी दुश्मन ने क़त्ल कर दिया है। लेकिन उसकी ज़िंदगी इस क़दर अलमनाक हो गई कि छः महीने के बाद अगर उसने ख़ुदकुशी कर ली होती तो वो जाकर क़त्ल का इक़बाल कर लेता।”

    नाहीद के आँसू गिरने लगे। मैं तड़प गया, चाहता था कि उसके आँसू पोछूँ लेकिन उसने हाथ के इशारा से मना कर दिया और फिर सिलसिला यूं शुरू किया।

    “आप जमाल को ख़ूँख़ार और वहशी कहेंगे। मगर मेरा ईमान ये है कि उसको मेरे साथ शदीद क़िस्म की मुहब्बत थी। ये मुहब्बत की इंतिहा थी कि उसने मुहब्बत के फ़ना हो जाने के डर से मुझे हमेशा के लिए खो दिया। मुझे याद है कि एक मर्तबा उसने शेक्सपियर के मशहूर ड्रामा ‘ओथेलो’ का तर्जुमा करके सुनाया था। मैं घंटों ‘डसडीमोना’ पर रश्क करती रही। मैंने जमाल से कहा था कि काश! मुझे उसका पार्ट ही करना नसीब होता। इस पर उसने मुझे बहुत प्यार किया था!”

    नाहीद थक गई थी लेकिन अब उसके चेहरे से आसूदगी टपक रही थी। सुबह की सपेदी नमूदार हो चली थी। वो रुख़्सत होने के लिए उठी, चलते चलते उसने कहा, हाँ एक बात भूल गई। जमाल ने एक ज़ुल्म मुझ पर किया है। मुझे मार कर उसे तस्कीन हुई उसने मेरे मज़ार की लौह पर ये शे’र कुंदा करा दिया,

    वफ़ा आमोख़्ती उज़्मा ब-कार दीगरान कर दी

    रबूदी गौहरे अज़ मानसार दीगरान कर दी

    उसको आख़िर वक़्त तक मुग़ालता रहा। अब इस शे’र को मिटा कर ये शे’र कुंदा करा दीजिए,

    मन कि जज़्बा तो पर्दाख़्ता उम

    गर बख़ुद साख़ता उम साख़ता उम

    बस मुझे इत्मिनान कुल्ली मयस्सर हो जाएगा और मैं सुकून का सांस ले सकूँगी। आपको फिर कभी तकलीफ़ दूँगी। हाँ! अगर आपका जी चाहे तो जा कर उस पेशक़ब्ज़ को भी देख लीजिए जिसने दो हस्तियों को हमेशा के लिए जुदा कर दिया और जो स्टूडीयो में अभी तक एक बोसीदा संदूक़ में पड़ा हुआ है।” ये कह कर नाहीद ने अलविदा कहा। मैंने सुमन मज़ार तक उसको जाते देखा, जहां वो निगाह से ग़ायब हो गई।

    मैं हाथ मुँह धो कर चाय के वक़्त से पहले ही सायरा से तन्हाई में मिला। उसको लेकर सीधा उस कमरे में गया जो जमाल का स्टूडीयो रह चुका था। सबसे पहले मेरी निगाह जिस चीज़ पर ठहरी वो एक शिकस्ता संदूक़ था। उसमें किर्म-ख़ुर्दा काग़ज़ात का एक अंबार था जिसके दरमयान मुझे वो पेशक़ब्ज़ मिला जो बावजूद ज़ंगआलूद होने के अपनी ख़ून आशामी का इक़रार आप करता हुआ मालूम होता था। मैंने सायरा से कहा इस घर में जितने अफ़राद हैं उनमें से एक तुम ऐसी हो जिसके सामने मैं अपने मुशाहेदात बयान कर सकता हूँ इसलिए कि तुम मुझको कभी दीवाना या फ़ातिरुलअक़्ल नहीं समझोगी।

    मैंने सायरा को हक़ीक़त से आगाह किया तो वो हैरत से मेरा मुँह तकने लगी। वो मुझको झूटा तो समझ सकती थी और ऐसी बातों को आसानी से सही मान लेना भी कोई मा’मूली काम नहीं। सायरा ने अबदुलअली और शमीम वग़ैरा से इसका तज़किरा किया और बहुत इसरार के साथ कहा कि मज़ार की लौह पर वो दूसरा शे’र कुंदा किराया जाये जो नाहीद मुझे बता गई थी। लेकिन इसका जवाब वही मिला जिसकी मुझे उम्मीद थी। या’नी मेरे साथ- साथ उसका भी ख़ूब मज़हका उड़ाया गया। मुझको अफ़सोस ज़रूर है कि नाहीद की आख़िरी ख़्वाहिश पूरी करसका मगर मेरे इमकान में जो कुछ था वो किया और अब भी इससे ग़ाफ़िल नहीं हूँ। मैं उसके लिए बराबर दुआ’एं करता रहता हूँ क्योंकि मेरा दुआ’ई ए’तिक़ाद ये है कि रूहों के ता’ल्लुक़ात इस दुनिया से कभी मुन्क़ते’ नहीं होते।

    ये वाक़िया मुद्दतों मेरे ग़ौर-ओ-फ़िक्र का मौज़ू’ रहा है। मैं सोचता हूँ और किसी नतीजे पर नहीं पहुंचता। मुहब्बत भीक्या मुअ’म्मा है। कोई ऐसा दिमाग़ आज तक पैदा हुआ जो इस तिलिस्म को तोड़ सकता। मंतक़ी अपने उसूल, मौज़ू’ और उ’लूमे मुतआ’रिफ़ा लिए हुए बैठा रह जाता था। और हम देख लेते थे कि ‘ज़िद्दैन’ का इज्तिमा’ और ‘नक़ीफैन’ का तताबुक़ ना सिर्फ मुम्किन है बल्कि हस्ती का असल राज़ है। हम इस गुत्थी कोमल, स्पेंसर या सेना और फ़ाराबी की मदद से नहीं सुलझा सकते। अब आख़िर में उ’लमाए नफ़सियात और माहिरीन अ’सबियात को भी असल वाक़ए की तरफ़ मुतवज्जा करना चाहता हूँ। मुझे कामिल यक़ीन है कि वो इस को ख़्वाब या इल्तिबासे नज़र बता कर ग़ैर ज़िम्मादाराना तौर पर अपने फ़र्ज़ से सुबुकदोशी हासिल कर लेंगे, लेकिन दूसरी तरफ़ मुझे ये भी इत्मिनान है कि ख़ुद उनको अपनी इस राय पर भरोसा करना होगा। वो ख़ुद फ़रेबियों के ज़रीये से अपने इस कर्ब-ओ-इज़तिराब को दूर करना चाहते हैं जो तश्कीक का लाज़िमी नतीजा होता है। कैसी मुसर्रत की बात है कि इल्मे इन्सानी की तंग माइगी का पर्दा अब फ़ाश हो रहा है।

    अफ़साना को ख़त्म करते हुए मैं ये भी कहना चाहता हूँ कि नाहीद की जो तस्वीर नासरी के पास थी वो उस मशहूर मुसव्विर की सन्नाई’ नहीं है जिसका नाम मुझे बताया गया। बल्कि जमाल की सह्र तराज़ी है जिसका इल्म मेरे सिवा किसी को नहीं।

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