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सती

MORE BYप्रेमचंद

    स्टोरीलाइन

    शक घुन की तरह है, जो हर रिश्ते को खा जाता है। मुलिया जितनी ख़ूबसूरत है उसका पति उतना ही बदसूरत। फिर भी वह उससे प्यार करती है। एक रोज़ उसका पति उसे अपने चचेरे भाई के साथ देख लेता है और शक की बिना पर घुल-घुल कर मर जाता है। मगर यह तो बाद में ही पता चलता है कि मुलिया के दिल में अपने देवर के लिए कुछ नहीं था।

    दो सदियों से ज़्यादा ज़माना गुज़र चुका है मगर चिंता देवी का नाम बराबर क़ाइम है। बुंदेलखंड के एक उजाड़ मक़ाम पर आज भी मंगल के रोज़ हज़ारों औरत-मर्द चिंता देवी की परस्तिश के लिए जमा होते हैं। इस दिन ये उजाड़ फ़िज़ा सुहाने नग़्मों से गूँज उठती है। वहाँ के टीले और ठीकरे औरतों के रंग वाली पोशाकों से सज जाते हैं। देवी का मंदिर एक बहुत ऊँचे टीले पर बना हुआ है। उसके कलस पर लहराती हुई सुर्ख़ झंडी बहुत दूर से नज़र आती है। मंदिर इतना छोटा है कि उसमें दो आदमी एक साथ मुश्किल से समा सकते हैं। उसके अंदर कोई सूरत नहीं है। एक छोटी सी बेदी बनी हुई है। नीचे से मंदिर तक एक संगीन ज़ीना है। जिसके दोनों तरफ़ दीवार बनी हुई है कि भीड़ में धक्के से कोई नीचे गिर पड़े। यहीं चिंता देवी सती हुई थी। मगर दस्तूर ज़माना के मुताबिक़ वो अपने मुर्दा शौहर के साथ चिता पर नहीं बैठी थी। उसका शौहर दस्त बस्ता सामने खड़ा था। मगर वो उसकी तरफ़ आँख उठाकर भी देखती थी। वो शौहर के जिस्म के साथ नहीं बल्कि उसकी रूह के साथ सती हुई थी। उस चिता पर शौहर का जिस्म था। उसकी आबरू जल कर ख़ाक सियाह हो रही थी।

    जमुना के किनारे पर कालपी एक छोटी सी बस्ती है। चिंता उस मक़ाम के एक बहादुर बुंदेले की लड़की थी। उसकी माँ उसके बचपन ही में मर चुकी थी। उसकी परवरिश पर्दाख़्त का बार उसके बाप पर पड़ा था। वो लड़ाइयों का ज़माना था। सिपाहियों को कमर खोलने की भी फ़ुर्सत थी। वो घोड़े के पुश्त पर खाना खाते और वहीं ज़मान पर झपकियाँ ले लेते थे। चिंता का बचपन बाप के साथ मैदान-ए-जंग में गुज़रा। उसका बाप उसे किसी ग़ार में या किसी दरख़्त की आड़ में छुपा कर मैदान में चला जाता, बिला किसी ख़ौफ़ के इतमीनान से बैठी हुई मिट्टी के क़िले बनाती और बिगाड़ती। उसके घरौंदे क़िले होते थे। उसकी गुड़ियाँ ओढ़नी ओढ़ती थीं। वो सिपाहियों के गुड्डे बनाती और उन्हें लड़ाई के मैदान में खड़ा करती थी। कभी-कभी उसका बाप शाम को भी वापस आता। मगर चिंता को ख़ौफ़ छू तक गया था। वीरान जंगलों में भूकी-प्यासी रात भर बैठी रह जाती। उसने नेवले और गीदड़ की कहानियाँ कभी सुनी थीं। बहादुरों की जाँ बाज़ी के अफ़साने सिपाहियों की ज़बान से सुन-सुन कर वो मयार परस्त बन गई थी।

    एक मर्तबा तीन रोज़ तक चिंता को अपने बाप की कुछ ख़बर मिली। वो एक पहाड़ की ग़ार में बैठी हुई दिल ही दिल में एक ऐसा क़िला तैयार कर रही थी। जिसको दुश्मन किसी तरह भी फ़तह कर सकते। तमाम दिन वो उसी क़िले का नक़्शा सोचती और तमाम रात उसी क़िले का ख़्वाब देखती। तीसरे रोज़ शाम को उसके बाप के कई साथियों ने आकर उसके पास रोना शुरू किया। चिंता ने मुतअज्जिब होकर पूछा, दादा जी कहाँ हैं? तुम लोग क्यों रोते हो?

    किसी ने इस बात का जवाब दिया। वो ज़ोर से ढारें मार-मार रोने लगे। चिंता समझ गई कि उसका बाप मैदान-ए-जंग में मारा गया। उस तेरह साल वाली लड़की की आँखों से आँसू का एक क़तरा भी टपका। चेहरा ज़रा भी उदास हुआ। एक आह भी निकली। हँस कर बोली, अगर वो लड़ाई में काम आए तो तुम लोग रोते क्यों हो? सिपाहियों के लिए इससे बढ़ कर और कौन सी मौत हो सकती है? इससे बढ़ कर उनकी बहादुरी का और कौन सा सिला मिल सकता है? ये रोने का नहीं। बल्कि ख़ुशी मनाने का मौक़ा है।

    एक सिपाही ने मुतफ़क्किराना लहजे में कहा, हमें तुम्हारी फ़िक्र है, तुम अब कहाँ रहोगी चिंता। इसकी तुम कुछ फ़िक्र करो दादा। मैं अपने बाप की बेटी हूँ। जो कुछ उन्होंने किया, वही मैं भी करूँगी। अपने वतन की सर-ज़मीन को दुश्मन के पंजे से छुड़ाने में उन्होंने अपनी जान दे दी। मेरे सामने भी वही काम है। जाकर अपने आदमियों को संभालिए। मेरे लिए एक घोड़े और हथियारों का बंदोबस्त कर दीजिए। ईश्वर ने चाहा तो आप लोग मुझको किसी से पीछे पावेंगे। लेकिन अगर मुझे क़दम पीछे हटाते देखना तो तलवार के एक वार से मेरी ज़िंदगी का ख़ातिमा कर देना। यही आप से मेरी इल्तिजा है। जाइए, अब देर कीजिए।

    सिपाहियों को चिंता के ये बहादुराना अलफ़ाज़ सुन कर कुछ भी ताज्जुब नहीं हुआ। हाँ उन्हें ये अंदेशा ज़रूर हुआ कि क्या ये नाज़ुक-अंदाम लड़की अपने इस इरादे पर क़ाइम रह सकेगी?

    पाँच साल गुज़र गए। सारे सूबे में चिंता देवी की धाक बैठ गई। दुश्मनों के पैर उखड़ गए। वो फ़त्ह का ज़िंदा मुजस्सिमा थी। उसे तीरों और तफ़ंगों के सामने बे ख़ौफ़ खड़े देख कर सिपाहियों की हौसला अफ़ज़ाई होती रहती। उसकी मौजूदगी में वो कैसे पीछे क़दम हटाते। जब नाज़ुक-अंदाम औरत आगे बढ़े तो कौन मर्द क़दम पीछे हटाएगा? हुस्न की देवियों के सामने सिपाहियों की शुजाअत नाक़ाबिल-ए-फ़त्ह हो जाती है। औरत के लफ़्ज़ी तीर बहादुरों के लिए जाँ-बाज़ी के ख़ुफ़िया पैग़ाम हैं। उसकी एक चितवन बुज़-दिलों में भी मर्दानगी पैदा कर देती है।

    चिंता की ख़ूबसूरती और शोहरत ने मनचले सूरमाओं को चारों जानिब से खींच-खींच कर उसकी फ़ौज को सजा दिया। जान पर खेलने वाले भौंरे हर सम्त से आकर उस फूल पर मंडराने लगे। उन्ही बहादुरों में रतन सिंह नामी एक नौजवान राजपूत भी था।

    यूँ तो चिंता के सिपाहियों में सभी तलवार के धनी थे। बात पर जान देने वाले उसके इशारों पर आग में कूदने वाले, उसका हुक्म पाकर आसमान के तारे तोड़ लाने पर भी आमादा हो जाते। लेकिन रतन सिंह सबसे बढ़ा हुआ था। चिंता भी उसको दिल से चाहती थी। रतन सिंह दूसरे सिपाहियों की तरह अख्खड़, मुँह फुट या घमंडी था। और लोग अपनी-अपनी जवाँ मर्दी का ख़ौफ़ बढ़ा-बढ़ाकर बखान करते। ख़ुद सताई करते हुए उनकी ज़बान रुकती थी। वो जो कुछ करते, चिंता को दिखाने के लिए। उनका मक़सद-ए-ऊला उनका फ़र्ज़ था। बल्कि चिंता थी। रतन सिंह जो कुछ करता, ख़ामोशी तरीक़ा। अपनी तारीफ़ करनी तो दूर रही, वो ख़्वाह किसी शेर को ही मार कर क्यों आए। उसका तज़किरा तक करता था। उसकी आजिज़ी और इन्किसारी तअम्मुल की हद से भी मुतजाविज़ कर गई थी। दूसरों की मोहब्बत में ऐश-पसंदी थी। मगर रतन सिंह की मोहब्बत में ग़िना और ईसार और लोग मीठी नींद सोते थे। मगर सिंह तारे गिन-गिन कर रात काटता था और सभी अपने-अपने दिलों में समझते थे कि चिंता मेरी होगी। सिर्फ़ रतन सिंह ना उम्मीद था। और इस लिए उसको किसी से रग़बत नफ़रत। दूसरों को चिंता के सामने चहकते देख कर उसे उनकी गोयाई पर तअज्जुब होता।

    हर लम्हा इसकी यास अंगेज़ तारीकी और भी ज़्यादा गहरी हो जाती थी। कभी-कभी वो अपनी बेवक़ूफ़ी पर झुँझला उठता। क्यों ईश्वर ने उसे इन औसाफ़ से बे बहरा रखा जो औरतों के दिल को फ़रेफ़्ता करते हैं। उसको कौन पूछेगा? उसके दर्द दिल से कौन वाक़िफ़ है। मगर वो दिल में झुँझलाकर रह जाता था। उसकी दिखावे की सकत ही थी।

    निस्फ़ से ज़्यादा रात जा चुकी थी। चिंता अपने ख़ेमे में आराम कर रही थी। सिपाही भी सख़्त मंज़िल तै करने के बाद कुछ खा-पी कर ग़ाफ़िल पड़े हुए थे। आगे एक घना जंगल था। जंगल के दूसरी तरफ़ दुश्मनों का एक दस्ता पड़ाव डाले पड़ा था। चिंता उसकी आमद की ख़बर पाकर रवाँ-रवाँ चली रही थी। उसने अलस्-सबाह दुश्मनों पर हमला करने का तहैया कर लिया था। उसे यक़ीन था कि दुश्मनों को मेरे आने की ख़बर होगी। लेकिन ये उसका महज़ ख़्याल था। उसकी फ़ौज का एक आदमी दुश्मनों से मिला हुआ था। यहाँ की ख़बरें वहाँ रोज़ाना पहुँचती रहती थीं। उन्होंने चिंता से निजात पाने के लिए एक साज़िश कर रखी थी। उसको चुपचाप क़त्ल कर देने के लिए तीन शख़्सों को मुक़र्रर कर दिया था। हर सह अश्ख़ास दरिंदों की तरह दबे पाँव जंगल को पार करके आए और दरख़्तों की आड़ में खड़े होकर सोचने लगे कि चिंता का ख़ेमा कौन सा है? कुल फ़ौज बे ख़बर सो रही थी। इससे उन्हें अपनी कामयाबी में ज़रा भी शुबहा था। वो दरख़्तों की आड़ से निकले और ज़मीन पर लिगर की तरह रेंगते हुए चिंता के ख़ेमे की तरफ़ चले।

    सारी फ़ौज बे ख़बर सोती थी। पहरे वाले सिपाही भी थक कर चूर हो जाने के सबब नींद में ग़ाफ़िल पड़े थे। सिर्फ़ एक शख़्स ख़ेमे के पीछे सर्दी की वजह से सिकुड़ा हुआ बैठा था। ये रतन सिंह था। आज उसने ये कोई नई बात नहीं की थी। पड़ावों में उसकी रातें इसी तरह चिंता के ख़ेमे के पीछे बैठे-बैठे बसर होती थीं। हमला आवरों की आहट पाकर उसने तलवार निकाली और चौंक कर उठ खड़ा हुआ। देखा कि तीन आदमी झुके हुए रहे हैं। अब क्या करे? अगर शोर मचा दे तो फ़ौज में हलचल मच जावे और अंधेरे में लोग एक दूसरे पर वार करके आपस में कट मरें। उधर तन्हा तीन जवानों से मुक़ाबला करने में जान का अंदेशा। ज़्यादा सोचने का मौक़ा था उसमें बहादुरों के फ़ौरी इरादा करने की क़ुव्वत थी। उसने फ़ौरन तलवार खींच ली। और उनपर यक बारगी टूट पड़ा। कई मिनट तक तलवारें तेज़ी से चलती रहीं। फिर सन्नाटा हो गया। उधर वो तीनों ज़ख़्मी होकर गिर पड़े। इधर ये भी ज़ख़्मों से चूर होकर बेहोश हो गया।

    अलस्-सबाह चिंता उठी। तो चारों जवानों को ज़मीन पर पड़ा देखा। उसका कलेजा धक से हो गया। क़रीब जाकर देखा तो तीनों हमला आवरों की जान निकल चुकी थी। मगर रतन सिंह की साँस चल रही थी। सारा वाक़िआ मअन समझ में गया। निसाईयत ने मर्दानगी पर फ़तह पाई। जिन आँखों से बाप की मौत पर आँसू का एक क़तरा भी गिरा था। उन्ही आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उसने रतन सिंह के सर को अपने ज़ानू पर रख लिया और अपने दिल के सेहन में रचे हुए सोइंबर में उसके गले में जय माला डाल दी।

    एक महीना तक रतन सिंह की आँखें खुलीं और चिंता की आँखें बंद हुईं। चिंता उसके पास से एक लम्हे के लिए भी जुदा होती। उसे अपने इलाक़े की परवा थी दुश्मनों के बढ़े चले आने की फ़िक्र। वो रतन सिंह पर अपने सारे लवाज़िमात को निछावर कर चुकी थी। पूरा महीना गुज़र जाने के बाद रतन सिंह की आँख खुली। देखा कि ख़ुद चारपाई पर पड़ा हुआ था। और चिंता सामने पँखा लिए खड़ी है। कमज़ोर लहजे में बोला,चिंता! पँखा मुझे दे दो। तुम्हें तकलीफ़ हो रही है।

    चिंता का दिल मसर्रत से नग़्मा रेज़ हो गया। एक माह क़ब्ल जिस ख़स्ता-ओ-नहीफ़ शख़्स के सिरहाने बैठ कर वो मायूसी से रोया करती थी। उसे आज बोलते देख कर उसकी ख़ुशी की हद रही। उसने मोहब्बत-आमेज़ लहजे में कहा, स्वामी! अगर ये तकलीफ़ है तो आराम क्या है, मैं नहीं जानती।

    इस 'स्वामी' के लफ़्ज़ में अजब मंत्र की सी तासीर थी। रतन सिंह की आँखें चमक उठीं। बुझा हुआ चेहरा रौशन हो गया। रगों में एक नई ज़िंदगी की लहर पैदा हो गई। और वो ज़िंदगी कितनी जज़्बा-ख़ेज़ थी। उसमें कितना हौसला, कितनी हलावत, कितनी मसर्रत, कितनी रिक़्क़त थी। रतन सिंह का हर उज़्व भड़क उठा। उसे अपने बाज़ुओं में ग़ैर मामूली क़ुव्वत का एहसास होने लगा। ऐसा मालूम हुआ कि गोया वो कल दुनिया को फ़त्ह कर सकता है। उड़ कर आसमान पर पहुँच सकता है। पहाड़ों को फाड़ सकता है। एक लम्हा के लिए उसे ऐसी आसूदगी हुई। गोया उसकी सारी मुरादें पूरी हो गई हैं। गोया वो अब किसी से कुछ नहीं चाहता था। शायद महादेव जी को भी सामने खड़े हुए देख कर मुँह फेर लेगा। कोई बरदान माँगेगा। उसे अब किसी चीज़ की भी ख़्वाहिश थी। उसे ऐसा ग़ुरूर हो रहा था। गोया उससे ज़्यादा फ़ारिग़-उल-बाल, उससे ज़्यादा ख़ुश नसीब शख़्स दुनिया में और कोई होगा।

    चिंता अभी अपनी बात पूरी करने पाई थी। उसी सिलसिले में बोली, हाँ आपको मेरे सबब नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त तकलीफ़ उठानी पड़ी।

    रतन सिंह ने उठने की कोशिश करते हुए कहा, बिला तपस्या के फल नहीं मिलता।

    चिंता ने रतन सिंह को नाज़ुक हाथों से लिटाते हुए कहा, इस फल के लिए तुमने तपस्या नहीं की थी। झूट क्यों बोलते हो? तुम सिर्फ़ एक कमज़ोर औरत की हिफ़ाज़त कर रहे थे। अगर मेरे बजाय कोई दूसरी औरत होती तो भी तुम इतनी ही तन दही से उसकी हिफ़ाज़त करते। मुझे इसका यक़ीन है। मैं तुमसे सच कहती हूँ कि मैंने तमाम उम्र के लिए ब्रह्मचर्य (मुजर्रिद) का अहद कर लिया था। मगर तुम्हारी जान-निसारी ने मेरे इस अहद को तोड़ डाला। मेरी परवरिश बहादुरों की गोद में हुई है। मेरा दिल उसी शेर दिल शख़्स के क़दमों पर निछावर हो सकता है जो जान की बाज़ी लगा सकता हो। शौक़ीनों की तीर-अंदाज़ियों, ओबाशों की नज़र-बाज़ीयों और चालाकों की चालाकियों की मेरे दिल में ज़रा भी वक़अत नहीं। उनकी ज़ाहिर दारियों को मैं सिर्फ़ तमाशे की तरह देखती हूँ। तुम्हारे ही दिल में मैंने सच्चा ईसार पाया और तुम्हारी कनीज़ हो गई। आज नहीं बल्कि बहुत दिनों से।

    विसाल की शब-ए-अव्वलीन थी। चारों तरफ़ सन्नाटा था। सिर्फ़ दोनों मोहब्बत भरे दिलों में तमन्नाओं का तूफ़ान उठ रहा था। चारों तरफ़ इश्क़-अफ़रोज़ चाँदनी फैली हुई थी और उसके तबस्सुम-आगीं मंज़र में दूल्हा-दुल्हन इज़हार-ए-इश्क़ कर रहे थे।

    दफ़अतन ख़बर मिली कि दुश्मनों की फ़ौज क़िले की तरफ़ बढ़ती चली आती है। चिंता चौंक पड़ी। रतन सिंह खड़ा हो गया और उसने खूँटी से लटकती हुई तलवार उतार ली।

    चिंता ने उसकी तरफ़ बुज़दिलाना मोहब्बत की नज़र से देख कर कहा, कुछ आदमियों को उधर भेज दो, तुम्हारे जाने की क्या ज़रूरत है?

    रतन सिंह ने बंदूक़ को कँधे पर रखते हुए कहा, मुझे ख़ौफ़ है कि अब के वह लोग बहुत बड़ी तादाद में रहे हैं।

    चिंता, तो मैं भी चलूँगी।

    रतन, नहीं मुझे उम्मीद है कि वो लोग ठहर सकेंगे। मैं एक ही हमले में उनके क़दम उखाड़ दूँगा। ईश्वर की मर्ज़ी है कि हमारी सुहाग रात फ़त्ह की रात हो।

    चिंता, जाने मेरा दिल क्यों डर रहा है। जाने देने को जी नहीं चाहता।

    रतन सिंह ने इस सादा और मोहब्बत-आमेज़ गुफ़्तार से बे-क़रार होकर चिंता को गले से लगा लिया और कहा, मैं सुबह तक वापस जाऊँगा प्यारी।

    चिंता शौहर के गले में हाथ डाल कर बा-चश्म-ए-नम बोली, मुझे अंदेशा है कि तुम बहुत दिनों में वापस आओगे। मेरा दिल तुम्हारे साथ रहेगा। जाओ, मगर रोज़ाना ख़बर भेजते रहना। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। मौक़ा-ओ-महल का ख़्याल करके हमला करना, तुम्हारी आदत है कि दुश्मन को देखते ही बे-क़रार हो जाते हो और जान पर खेल कर उस पर टूट पड़ते हो। तुमसे मेरी यही इल्तिजा है कि मौक़ा देख कर काम करना। जाओ जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह दिखाओ।

    चिंता का दिल अफ़्सुर्दा हो गया। इससे पहले सिर्फ़ फ़त्ह की तमन्ना थी। अब आफ़ियत तमन्ना उस पर ग़ालिब थी। वही बहादुर लड़की जो शेरनी की तरह गरज कर दुश्मनों के कलेजे हिला देती थी। आज इतनी कमज़ोर हो रही थी कि जब रतन सिंह घोड़े पर सवार हुआ तो ख़ुद दिल ही दिल में देवी से उसकी जान की ख़ैर मना रही थी। जब तक वो दरख़्तों की आड़ में छुप गया। वो खड़ी उसे देखती रही। वहाँ सूना था। पहाड़ियों ने रतन सिंह को पहले ही अपनी गोद में छुपा लिया था। मगर चिंता को ऐसा मालूम होता था कि वो सामने चले जा रहे हैं। जब सुबह का सुर्ख़ मंज़र दरख़्तों के दरमियान से नज़र आने लगा तो उसकी मह्वियत दूर हुई। मालूम हुआ। चारों तरफ़ सूना है। वो रोती हुई बुर्ज से उतरी और पलंग पर मुँह ढाँप कर रोने लगी।

    रतन सिंह के साथ मुश्किल से सौ आदमी थे। मगर सभी मश्शाक़ी। मौक़ा और तादाद को ख़्याल में लाने वाले और ख़ुद अपनी जान के दुश्मन जो बहादुराना जोश से भरे हुए और उसी क़िस्म का एक मुतहर्रिक गीत गाते हुए घोड़ों को बढ़ाते चले जाते थे।

    बाँकी तेरी पाग सिपाही, उसकी रखना लाज

    तेग़ तीर कुछ काम आवे

    बकतर ढ़ाल यूँही रह जावे

    रखियो मन में लाग

    सिपाही बाँकी तेरी पाग, उसकी रखना लाज

    पहाड़ियाँ उन जंगी नग़्मों से गूँज रही थीं। घोड़ों के सुमों की आवाज़ ताल का काम दे रही थी। हत्ता कि रात गुज़र गई। आफ़ताब ने अपनी सुर्ख़ आँखें खोल दीं और उन जाँबाज़ों पर ज़र-अफ़्शानी करने लगे।

    वहीं ख़ूनीं उजाले में दुश्मनों की फ़ौज एक पहाड़ी पर ख़ेमे डाले हुए नज़र आई।

    रतन सिंह सर झुकाए और फ़ुर्क़त-ज़दा दिल को थामे हुए पीछे-पीछे चला आता था। क़दम आगे पड़ता था मगर दिल पीछे हटता था। आज ज़िंदगी में अव्वल मर्तबा ख़्यालात परेशान ने उसे मुशव्वश बना रखा था। कौन जानता है कि जंग का अंजाम क्या होगा? जिस बहिश्त की राहत को छोड़ कर वह आया था। उसकी याद रह-रह कर दिल को मसोस रही थी। चिंता की आँसू भरी आँखें याद आती थीं। जी चाहता था कि घोड़े की बाग डोर मोड़ दे। हर लम्हा जंग का हौसला कम होता जाता था। दफ़्अतन एक सरदार ने क़रीब आकर कहा, भैया! वो देखो ऊँची पहाड़ी पर दुश्मन डेरे डाला पड़ा है। तुम्हारी अब क्या राय है? हम तो चाहते हैं कि फ़ौरन उन पर हमला कर दें। ग़ाफ़िल पड़े हुए हैं, भाग खड़े होंगे। देर करने से वो भी संभल जाएंगे। और तब मामला नाज़ुक हो जाएगा। एक हज़ार से कम होंगे।

    रतन सिंह ने मुतफ़क्किराना निगाहों से दुश्मन की फ़ौज की तरफ़ देख कर कहा, हाँ मालूम तो होता है।

    सरदार, तो फिर धावा बोल दिया जाए ना?

    रतन सिंह, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी हो, तादाद ज़्यादा है, ये सोच लो।

    सरदार, इसकी परवा नहीं। हम इससे बड़ी फ़ौजों को शिकस्त दे चुके हैं।

    रतन, ये सच है मगर आग में कूदना मसलिहत नहीं।

    सरदार, भैया, तुम कहते क्या हो? सिपाही की तो ज़िंदगी ही आग में कूदने के लिए है। तुम्हारे हुक्म की देर है। फिर हमारा जीवट देखना।

    रतन, अभी हम लोग बहुत थके हुए हैं। ज़रा आराम कर लेना बेहतर है।

    सरदार, नहीं भैया! इन सभों को हमारी आहट मिल गई तो ग़ज़ब हो जाएगा।

    रतन, तो फिर धावा बोल ही दो।

    एक लम्हा में बहादुरों ने घोड़ों की बागें उठा दीं और नेज़े संभाले हुए दुश्मन की फ़ौज पर हमला-आवर हुए। मगर पहाड़ी पर जाते ही उन लोगों को मालूम हो गया कि दुश्मन ग़ाफ़िल नहीं है। उन लोगों ने उनके बारे में जो क़ियास किया था वो ग़लत था। वह काफ़ी होशियार ही नहीं थे बल्कि ख़ुद क़िले पर हमला करने की तैयारियाँ कर रहे थे। उन लोगों ने जब उन्हें सामने आते देखा तो समझ गए कि ग़लती हुई। लेकिन अब मुक़ाबला करने के सिवा चारा ही क्या था? फिर भी वो मायूस थे। रतन सिंह जैसे बा-कमाल अफ़सर के साथ उन्हें किसी क़िस्म का अंदेशा था वो इससे भी ज़्यादा मुश्किल मौक़े पर अपने जंगी कमाल की बदौलत फ़तह-याब हो चुका था कि आज वो अपना कमाल दिखाएगा? सारी आँखें रतन सिंह को खोज रही थीं। मगर उसका वहाँ कहीं पता था। वो कहाँ चला गया? ये कोई जानता था।

    मगर वो कहीं नहीं जा सकता। अपने साथियों को ऐसी नाज़ुक हालत में छोड़ कर वो कहीं नहीं जा सकता। ऐसा तो मुम्किन नहीं। वो ज़रूर यहीं है और हारी हुई बाज़ी के जीतने की कोई तदबीर सोच रहा है।

    एक लम्हे में दुश्मन उनके मुक़ाबिल पहुँचे। इतनी कसीर-उल-तादाद अफ़वाज के आगे ये मुट्ठी भर आदमी क्या कर सकते थे? चारों तरफ़ से रतन सिंह की पुकार होने लगी, भैया! तुम कहाँ हो, हमें क्या हुक्म देते हो? देखते हो, वो लोग सामने पहुँचे, मगर तुम अभी तक ख़ामोश खड़े हो। सामने आकर हमें रास्ता दिखलाओ, हमारा हौसला बढ़ाओ।

    मगर अब भी रतन सिंह दिखाई दिया। यहाँ तक कि दुश्मन की फ़ौज सर पर पहुंची। और दोनों फ़ौजों में तलवारें चलने लगीं। बुन्देलों ने सर-ब-कफ़ होकर लड़ना शुरू किया। मगर एक को एक बहुत होता है। एक और दस का मुक़ाबला क्या? ये लड़ाई थी। जान की बाज़ी थी। बुन्देलों में पास की ग़ैर-मामूली ताक़त थी। ख़ूब लड़े। मगर क्या मजाल कि क़दम पीछे हटे। उनमें अब ज़रा भी जमाअत-बंदी थी। जिससे जिस क़दर आगे बढ़ते बना, बढ़ा। अंजाम क्या होगा, इसकी किसी को फ़िक्र थी। कोई तो दुश्मनों की सफ़ें चीरता हुआ अफ़सर के क़रीब पहुँच गया। कोई उसके हाथी पर चढ़ने की कोशिश करता हुआ मारा गया। उसकी ग़ैर मामूली हिम्मत देख कर दुश्मनों के मुँह से भी सदाए आफ़रीन निकलती थी। लेकिन ऐसे जांबाज़ों ने नाम पाया है, फ़त्ह नहीं पाई।

    एक घंटे में स्टेज का पर्दा गिर गया। तमाशा ख़त्म हो गया। एक आँधी थी जो आई और दरख़्तों को उखाड़ती हुई चली गई। मुत्तहिद रह कर यही मुट्ठी भर आदमी दुश्मनों के दाँत खट्टे कर सकते थे। मगर जिसपर जमाअत-बंदी का बार था, उसका कहीं पता था। फ़त्ह-मंद मरहटों ने एक-एक नाश को ब-ग़ौर देखा। रतन सिंह उनकी आँखों में खटकता था। उसी पर उनके दाँत लगे थे। रतन सिंह के जीते जी उन्हें नींद हराम थी। लोगों ने पहाड़ी की एक-एक चट्टान देख डाली। मगर रतन सिंह हाथ आया। जीत हुई पर अधूरी।

    चिंता के दिल में आज जाने क्यों तरह-तरह के अंदेशे पैदा हो रहे थे। वो कभी इतनी कमज़ोर थी। बुन्देलों की हार ही क्यों होगी? इसका कोई सबब तो वो बता सकती थी। मगर ये ख़्याल उसके दिल से किसी तरह दूर होता था। उस बद-नसीब की क़िस्मत में मोहब्बत का सुख भोगना लिखा होता तो क्या बचपन ही में माँ मर जाती? बाप के साथ जंगल-जंगल घूमना पड़ता? गढ़ों और ग़ारों में रहना पड़ता? और वो सहारा भी तो बहुत दिन रहा। बाप भी मुँह मोड़ कर चल दिए। जब से उसको एक रोज़ भी तो चैन से बैठना नसीब हुआ। बद-क़िस्मती क्या अब अपना मकरूह तमाशा छोड़ देगी? आह उसके कमज़ोर दिल में इस वक़्त एक अजीब ख़्याल पैदा हुआ। ईश्वर उसके प्यारे शौहर को आज ब-ख़ैरीयत वापस लादे तो वो उसे लेकर किसी दूर के गाँव में जा बसेगी और अपने शौहर की ख़िदमत और परस्तिश में अपनी ज़िंदगी वक़्फ़ कर देगी। इस लड़ाई से हमेशा के लिए मुँह मोड़ लेगी। आज अव्वल मर्तबा निसाईयत का जज़्बा उसके दिल में पैदा हुआ।

    शाम हो गई थी। आफ़ताब किसी हारे हुए सिपाही की तरह सर झुकाए कोई छुपने की जगह तलाश कर रहा था। दफ़अतन एक सिपाही बरहना सर, बरहना पा, बिला किसी हथियार के उसके सामने आकर खड़ा हो गया। चिंता पर गोया बिजली गिर पड़ी। एक लम्हा तक वो मबहूत सी बैठी रही। फिर उठ कर घबराई हुई सिपाही के पास गई और मुज़्तरिबाना लहजा में पूछा, कौन-कौन बचा?

    सिपाही ने कहा, कोई नहीं।

    कोई नहीं! कोई नहीं! चिंता सर पकड़ कर ज़मीन पर बैठ गई।

    सिपाही ने फिर कहा, मरहटे क़रीब पहुँचे।

    क़रीब पहुँचे?

    बहुत क़रीब।

    तो फ़ौरन चिता तैयार करा, वक़्त नहीं है।

    अभी हम लोग तो सरफ़रोशी के लिए हाज़िर ही हैं।

    तुम्हारी जो मर्ज़ी, मेरे फ़र्ज़ का तो यहीं ख़ातिमा है।

    क़िला बंद कर के हम महीनों लड़ सकते हैं।

    तो जाकर लड़ो, मेरी लड़ाई अब किसी से नहीं।

    एक तरफ़ तारीकी रौशनी को पैरों तले कुचलना चाहती थी। दूसरी तरफ़ फ़ातिह मरहटे लहराते हुए खेतों को। और क़िले में चिता बन रही थी। ज्यों ही चराग़ जले को चिता में भी आग लगी। सती चिंता सोलहों सिंगार किए अपने हुस्न-ए-बे-नज़ीर का नज़ारा पेश करती हुई ख़ुशी-ख़ुशी आग की राह से अपने स्वामी के 'लोक' की जात्रा करने जा रही थी।

    चिंता के चारों तरफ़ औरत-मर्द जमा थे। हरीफ़ों ने क़िले को महसूर कर लिया है। उसकी किसी को फ़िक्र थी। रंज-ओ-ग़म से सबके चेहरे उदास और सर झुके हुए थे। अभी कल उसी सेहन में शादी का मंडप सजाया गया था, जहाँ इस वक़्त चिता सुलग रही है। वहीं कल 'हवन कुंड' था। कल भी इसी तरह आग के शोले उठ रहे थे। इसी तरह लोग जमा थे। मगर आज कल के मनाज़िर में कितना फ़र्क़ है। हाँ! माद्दी आँखों के लिए फ़र्क़ हो सकता था। मगर दर अस्ल ये उसी यज्ञ की आख़िरी आहूती और उसी अहद का ईफ़ा है।

    दफ़्अतन घोड़ों की टापों की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं। मालूम होता था कोई सिपाही घोड़े को सरपट भगाता हुआ चला रहा है। एक लम्हा में टापों की आवाज़ बंद हो गई और एक सिपाही दौड़ता हुआ पहुँचा। लोगों ने मुतहय्यर होकर देखा वो रतन सिंह था। रतन सिंह चिता के क़रीब जाकर हाँफता हुआ बोला, प्यारी! मैं तो अभी ज़िंदा हूँ, ये तुमने क्या कर डाला?

    चिता में आग लग चुकी थी। चिंता की साढ़ी से आग के शोले निकल रहे थे। रतन सिंह पागलों की तरह चिता में घुस गया और चिंता का हाथ पकड़ कर उठाने लगा। लोगों ने चारों तरफ़ से लपक-लपक कर चिता की लकड़ियाँ हटानी शुरू कीं। मगर चिंता ने शौहर की तरफ़ आँख उठाकर भी देखा। सिर्फ़ हाथों से उसको हट जाने का इशारा किया।

    रतन सिंह सर पीट कर बोला, हाय प्यारी! तुम्हें क्या हो गया है? मेरी तरफ़ देखती क्यों नहीं? मैं तो ज़िंदा हूँ।

    चिता से आवाज़ आई, तुम्हारा नाम रतन सिंह है मगर तुम मेरे रतन सिंह नहीं हो।

    तुम मेरी तरफ़ देखो तो। मैं ही तुम्हारा ख़ादिम, तुम्हारा अक़ीदत-मंद, तुम्हारा शौहर हूँ।

    मेरा शौहर बहादुरों की मौत मर चुका।

    हाय कैसे बुझाऊँ, अरे लोगो! किसी तरह आग ठंडा करो। मैं रतन सिंह ही हूँ प्यारी! क्या तुम मुझे पहचानती नहीं हो?

    आग की लपट चिंता के चेहरे तक पहुँच गई। आग में कंवल खिल गया। चिंता साफ़ लहजे में बोली, ख़ूब पहचानती हूँ। तुम मेरे रतन सिंह नहीं। मेरा रतन सिंह सच्चा सूरमा था। वो अपनी हिफ़ाज़त के लिए अपने इस निकम्मे जिस्म को बचाने के लिए अपने छतरी धर्म को तर्क कर सकता था। मैं जिस जवाँ मर्द के क़दमों पर निसार हो चुकी थी वो देवताओं के बहिश्त में रौनक़-अफ़रोज़ है। रतन सिंह को बदनाम मत करो। वो बहादुर राजपूत था। मैदान-ए-जंग से भागने वाला बुज़्दिल नहीं।

    आख़िरी अलफ़ाज़ निकले ही थे कि आग की लपट चिंता के सर के ऊपर जा पहुँची। फिर एक लम्हे में वो हुस्न की मूरत, वो आला बहादुरी की पुजारन, वो सच्ची सती आग में जल कर भस्म हो गई।

    रतन सिंह ख़ामोशी से मबहूत सा खड़ा हुआ। ये दर्दनाक नज़ारा देखता रहा। फिर यकायक एक आह-ए-सर्द भर कर उसी चिता में कूद पड़ा।

    स्रोत:

    Mere Behtareen Afsane (Pg. 134)

    • लेखक: प्रेमचंद
      • प्रकाशक: किताब मंज़िल, लाहौर

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