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jis ke hote hue hote the zamāne mere

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सौदा

MORE BYख़दीजा मस्तूर

    जब वो अफ़सर बहादुर के घर नौकरी के लिए भेजा गया तो उसपर अजीब सी वहशत तारी थी। शाने झुके हुए, रंग पीला, आँखों तले अंधेरा। इतनी बड़ी कोठरी में वो यूँ खो गया जैसे सचमुच मर गया हो। यतीमों की तरह खड़ा टुकुर-टुकुर दूसरे नौकरों का मुँह तक रहा था और वो सब इस क़दर मसरूफ़ थे कि किसी ने उसकी तरफ़ नज़र उठा कर भी देखा।

    किस क़दर फ़ुज़ूल सी चीज़ समझ रहा था अपने आपको। उसका बस चलता तो यहाँ  कभी भी आता मगर बुरा हो माँ-बाप का जिन्होंने सारी बिरादरी से ज़ोर डलवा कर उसे भिजवा दिया। सब उसके इनकार पर हैरान थे। किसे मिलती है अफ़सरों के घर नौकरी। कमबख़्त ऐसी ख़ुशनसीबी पर लात मार रहा था। माँ-बाप का ख़ुशी से बुरा हाल था। वह गाँव  में फ़ख़्रिया सर ऊँचा करके ये तो कह सकते थे कि उनका बेटा सरकारी अफ़सर के घर नौकर है। गाँव वालों पर रोब पड़ेगा। दुश्मन भी दोस्ती का दम भरने लगेंगे। उनके गाँव से कई आदमी सरकारी अफ़सरों के घर नौकरी करने गए थे। ऐसी शानदार तनख़्वाह कि अपने-अपने घर भर लिये थे और फिर किसी की मजाल थी जो उनसे ऊँची आवाज़ में बात भी कर सकें, मोची, मीरासी होकर मलिक जी कहलवाने लगे थे। छुट्टी पर आते तो लेडी हमिल्टन की क़मीज़ पहने होते।

    इन तमाम बातों के बावजूद वो सख़्त डरा हुआ था। अगर अफ़सर बहादुर के घर ठीक से काम कर सका तो जाने उसका क्या हश्र हो। उसको बचपन ही से अफ़सर के नाम से डर लगता था। उसने तो बिरादरी की बात भी रद्द करदी लेकिन रानी ने ऐन वक़्त पर चुपके से मिल कर यही मशवरा दिया कि नौकरी पर चला जाए। इसके बाद उसके बाप की मजाल है जो रिश्ते से इनकार कर दे।

    सर झुकाए जूतों पर नज़रें गाड़े-गाड़े जब काफ़ी देर होगई तो आया उसे अपने साथ बेगम के कमरे में ले गई। सुर्ख़ी पाउडर से लिपी पुती गुड़िया जैसी बेगम को अपने बिस्तर में मोम के गद्दे में ग़ोते लगाते देख कर वो थर-थर काँपने लगा। भला उसका क्या क़सूर था। उसे तो आया ले आई थी, उसने पहले देख ही लिया होता कि कहीं बेगम लेटी तो नहीं।

    तुमको कौन-सा काम करना आता है? बेगम ने बड़े रोब से सवाल किया और टांगें फैलाकर चित लेट गईं।

    जो कहीं बीबी जी। उसने डरते-डरते बेगम की तरफ़ देख कर नज़रें झुका लीं। इस तरह तो कभी उसके सामने रानी भी लेटी थी। अगर यूँ लेटी होती तो... तो... वो गड़बड़ा गया। सर तोड़ देता उसका।

    एक बात कान खोल कर सुन लो। आया, ख़ानसामाँ और माली से लड़ाई झगड़ा नहीं करोगे। गुड़िया की आवाज़ बड़ी करख़्त थी।

    बहुत अच्छा।

    तुम्हारा काम ये है कि रात को साहब के और बच्चों के जूतों पर पॉलिश करोगे। भैंस की देख-भाल करोगे, मेज़ पर खाना लगाओगे, खाने के कमरे की झाड़ पोंछ  करोगे और कल सुबह से बाज़ार से सौदा भी लाओगे।

    जी बीबी जी। काम तो कुछ भी नहीं। वो जी ही जी में ख़ुश होगया।

    तनख़्वाह पन्द्रह रूपया महीना मिलेगी। यहाँ बहुत ख़ुश रहोगे। फ़िक्र करना। हाँ।

    जी... जीह... पन्द्रह रूपये महीने की बात पर उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने सर पर लाठी खींच मारी हो, पच्चीस तीस रूपये और साल का अनाज तो वो मेहनत मज़दूरी करके कमा लेता था। अब अम्माँ अब्बा की तबियत ठीक होगी। भूके मरेंगे तो फिर बिरादरी रोटी देने जाएगी। जाने कौन-से ज़माने के अफ़सर होंगे जो नौकरों को लम्बी तनख़्वाहें देते थे। ऐसे घरों में नौकरी करके चाँदी हो जाती थी। यहाँ तो लोहे के दाम भी मिले। उसपर कुछ ऐसी मायूसी तारी हुई कि सर झुकाए खड़ा का खड़ा रह गया।

    समझ गए। बेगम ने उसे यूँ खड़ा देख कर सख़्ती से कहा,कोई गड़बड़ मैं पसंद नहीं करती।

    जी बीबी जी। वो घबराकर इधर-उधर देखने लगा। गड़बड़ करने की उसमें कब हिम्मत थी। ऐसी हिम्मत करने वालों का अंजाम देख चुका था। एक नौकर के उसने ख़ुद अपनी आँखों से हथकड़ी लगे देखा था। हथकड़ी के तसव्वुर ही से उसपर फिर एक बार लर्ज़ा तारी होगया।

    जाओ, अब ख़ानसामाँ से खाना मांग लो। तुम्हें भूक लग रही होगी। इस बार बेगम की आवाज़ में बड़ी नर्मी थी। कमरे से वो यूँ निकला जैसे वाक़ई क़ैद से आज़ाद होगया हो।

    बावर्चीख़ाने में जाकर वो बड़ी ख़ामोशी से एक तरफ़ खड़ा होगया। आया, माली और ख़ानसामाँ बान से बनी हुई पुरानी पीढ़ियों पर बैठे, अपने-अपने हिस्से का खाना खा रहे थे और दोनों अधेड़ उम्र की आया से हल्के-हल्के फ़ुहश मज़ाक़ करते जा रहे थे। आया का मियाँ जवानी में मर गया था। उसने दूसरी शादी की और यही हसरत उसकी आँखों से झाँकती रहती। ऐसी वैसी बातें सुन कर ज़रा जी शाद कर लिया करती। वैसे तो बेगम ऐसी सख़्त थीं कि मजाल है कोई अपनी मनमानी कर सके। वो चुपचाप खड़ा उनकी बातें सुन रहा था और जी ही जी में कुढ़ भी रहा था। लालच कैसी बुरी चीज़ है। माँ-बाप अपनी औलाद को भी दांव  पर लगा देते हैं। जाने यहाँ से कब जान छुटेगी।

    उठा प्लेट। थोड़ी देर बाद ख़ानसामाँ उसकी तरफ़ मुतवज्जेह हुआ,क्या नाम है तेरा?

    साबिर। इसने अलमारी से प्लेट उठाली।

    अबे ये प्लेट नहीं चलेगी, ये मालिकों के बरतन हैं। नौकरों के बरतन उधर फट्टे  पर रखे हैं। ख़ानसामाँ ने उंगली से इशारा किया। साबिर ने दूसरी प्लेट उठाली। उसे ये सब कुछ अजीब लग रहा था। नौकर मर्द नहीं होता, बेगमें टाँगें फैलाए लेटी रहती हैं। कुत्तों की तरह नौकर के बरतन अलग होते हैं।

    बेगम ने तेरे ज़िम्मे कौन कौन-से काम लगाए हैं? ख़ानसामाँ ने सालन निकालते हुए पूछा।

    रात को जूतों पर पॉलिश करना, भैंस की ख़िदमत, खाने के कमरे में सफ़ाई और सौदा लाना।

    सौदा? ख़ानसामाँ की मूंछें एक दम खड़ी हो गईं,कैसा सौदा? अभी आया और अभी सौदा लाएगा? मेरी बारी ख़त्म नहीं हुई और तू सौदा लाएगा? अबे क्या घाँस खा लिया है? मुझे जानता नहीं?

    मेरा क्या क़सूर? वो बड़ी मिसकीनी से बोला, बेगम ने कहा है कि मैं कल से सौदा भी लाऊँगा।

    मेरा क्या क़सूर... ख़ानसामाँ ने उसकी नक़ल की,याद रखियो मेरा नाम दिलावर है। बड़ा ख़राब आदमी हूँ। उसने दो मोटी-मोटी रोटियाँ और सालन की प्लेट इस तरह आगे बढ़ाई जैसे खींच कर मार रहा हो। साबिर की आँखों में आँसू आगए।

    ख़ानसामाँ जी मुझसे क्यों नाराज़ होते हो।

    देखो कैसा शरीफ़ नज़र रहा है जैसे कुछ जानता ही नहीं। आँसू देखकर ख़ानसामाँ को और भी ग़ुस्सा गया।

    रहने भी दे दिलावर, नया-नया है, अभी इसको क्या पता, फिर जो कुछ तू कहेगा वही करेगा।

    हाँ-हाँ बड़ा मासूम है, उसे क्या पता, जब दोनों हाथो से जेबें भरेगा तो फिर पता चलेगा। हथकड़ी लगवा दूंगा  बेटा के।

    बस कर दिलावर, तेरे कहे पर चले तो फिर बात कीजियो। आया बड़ी मक्कारी से बातें कर रही थी मगर साबिर को वो बड़ी अच्छी लगी।

    ख़ानसामाँ सौदा तू ले आया करना, मैं तेरे हिस्से का काम कर दूँगा, मैं तो तेरा भाई हूँ।

    तौबा कर, तेरी बारी पर मैं सौदा ला सकता हूँ? बेगम बड़ी वैसी है। हर तरफ़ सूँघती फिरती है। दुकानों से पुछवा लेती है। कोई बहाना चलेगा। ख़ानसामाँ अब ज़रा नर्म पड़ गया था।

    फिर मैं क्या करूँ?

    बेशक सौदा लेने जा मगर मैं जो कुछ कहूँगा वही करना, मेरी बात मानी तो याद रखियो, मैं सात साल पुराना काम करने वाला हूँ। मेरा कोई कुछ बिगाड़ सकेगा। अंग्रेज़ी और उर्दू दोनों खाने पका लेता हूँ। इससे पहले अंग्रेज़ों की नौकरी करता था। हाँ गड़बड़ की तो तुझे पार लगादूँगा। ख़ानसामाँ एक आँख पिचकाकर ज़ोर से हंसा। उस वक़्त वो ये बात भूल गया था कि बेगम उसका बेतहाशा बढ़ा हुआ तन-ओ-तोष देख कर रूठी-रूठी रहती थीं। कई बार झाड़ भी चुकी थीं। इशारों-इशारों में तंबीह भी की थी कि अपनी खाल के अंदर रहे और अब जैसे ही नया नौकर आया तो ख़ानसामाँ की लगाम खींच दी। अरे हाँ क्या पता कि कहीं हाथ से निकल जाए। ऐसा अच्छा खाना पकाने वाला कहाँ मिल सकता था। फिर आख़िर दूसरे नौकरों को भी तो जीना था।

    देख बेटा, सौदे से जो कुछ बचेगा। उसमें एक हिस्सा मेरा भी होगा। समझ गया? तुझसे पहले जो नौकर था उसे मैंने यूँ चुटकी बजाते मैंने उड़ाया है, मुझे उल्लू बनाने लगा था। ख़ानसामाँ ने मूँछ का कोना मरोड़कर और ऊँचा कर दिया। हिस्से की बात सुन कर साबिर सबकुछ समझ गया। उसने सोच लिया कि वो कोई ऐसा काम करेगा। कल को बेगम ने जेल भिजवा दिया तो ख़ानसामाँ हिस्सा बटाने तो जाएगा।

    ख़ानसामाँ जी, मैं सौदे से एक पैसा काटूँगा, पन्द्रह रूपया महीने मिलेगा वही ठीक है, बेशक माँ-बाप भूके मर जाएं। कहीं कोई ऐसी वैसी बात होगई तो?

    अबे क्यों मरा जाता है। बाज़ार गया तो चाँद की सैर कर आएगा। ख़ानसामाँ ने ज़ोर का क़हक़हा लगाया, बस ये बता देना कि किस घर से आया है। समझा? ख़ानसामाँ ने बड़ी शफ़क़त से साबिर की कमर पर एक धौल रसीद करदी, ले अब खा ख़ूब डटकर, महीने तक सौदा लाया तो इन सूखी हुई हड्डियों पर असली घी की चिकनाई चढ़ जाएगी।

    बेगम के पुकारने की आवाज़ आई तो साबिर दौड़ता हुआ कमरे में पहुँच गया।भैंस को पानी पिला देना और देखो सब नौकरों से कह दो कि अब मैं सो रही हूँ, आया से कहो कि बच्चों के कमरे में जाए, दोपहर में कोई बाहर निकले।

    बहुत अच्छा बीबी जी।

    भैंस को पानी पिलाते हुए उसे बराबर रानी याद आती रही। गोरी चिट्टी रानी, जब सियाह चमकती हुई भैंस को साथ लेकर चराने जाती तो और भी गोरी नज़र आती। कितनी बार उसका जी चाहा था कि अल्लाह उसे भी भैंस बना दे। कम से कम रानी के साथ तो रह सकेगा। मगर अब तो रानी ने उसे उल्लू बनाकर यहाँ भेज दिया था।

    लालची, कुत्ते की औलाद... वो रानी को याद करके गालियाँ देता रहा। भैंस को पानी पिलाने के बाद, ख़ानसामाँ से पूछ कर उसने खाट उठाई और लॉन के एक सिरे पर घने दरख़्त के साए में बिछा कर लेट गया। ऐसी गर्म-गर्म हवा चल रही थी कि जिस्म झुलसा जाता। ज़रा देर बाद ख़ानसामाँ और माली भी आगए।

    ले बेटा उठ जा, दुनिया ही में जन्नत के मेवे खा ले। ख़ानसामाँ ने ऐसे प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा कि वो जल्दी से उठ बैठा। ख़ानसामाँ ने बग़ल में दबी हुई पोटली निकाल कर खाट पर रख दी। फिर बड़े फ़ख़्र से गिरह खोली। पीले-पीले पके हुए बड़े-बड़े आठ आम सामने पड़े थे। ऐसे आम तो साबिर ने अपनी ज़िंदगी में कभी देखे थे। फ़सल पर कभी-कभी कोई आम बेचने वाला उधर उसके गाँव में भी निकलता। नन्हे आम जिनमें रस बराए  नाम होता।

    ले खा। दो आम उसने साबिर की तरफ़ बढ़ा दिए  और दो माली को दे दिए और चार आम ऐसी तेज़ी से चीर फाड़ कर खा गया कि साबिर मुँह तकता रह गया। अबे खा तू मुँह क्यों तक रहा है? यहाँ इन चीज़ों की कमी नहीं। इतनी होती हैं कि आदमी खाए थके। हमारे साहब किसी से और कुछ नहीं लेते। बड़े ईमानदार मशहूर हैं। अब अगर कोई फल फ्रूट के टोकरे ले आए तो हाथ भी नहीं पकड़ लेते। बाप-दादा की तरफ़ से बीस-पच्चीस मुरब्बे मिले हैं, किस चीज़ की कमी है जो बेईमानी करें?

    बेगम से पूछ कर लाए हो ख़ानसामाँ? साबिर ने पूछा। उसे तो क़दम-क़दम पर जेल नज़र आरही थी। कहीं ख़ानसामाँ उसे भी ले डूबे।

    अबे उल्लू की कान, मैं यहाँ तेरे बाप के समान हूँ, जो कहूँ वो कर, पूछ कर भी कुछ मिला है। बेगम हाथ उठा कर किसी को कुछ नहीं देती। हम लोग अपना हिस्सा ख़ुद लेते हैं। बेगम को पता भी नहीं चलता। हिसाब कर करके मर जाए जब भी उसे पता चले। यहाँ ऐसी चीज़ें बेहिसाब आती हैं। तो ख़्वाह मख़्वाह डरा जाता है।

    नया है ना, थोड़े दिन में ठीक हो जाएगा। माली ने अपने आम रूमाल में बाँध लिये और बाहर से फाटक भेड़ कर चला गया। डर के बावजूद चोरी के आम बड़े मीठे थे। ख़ानसामाँ अगर अपने आम मिनटों में चट कर जाता तो शायद उससे एक आम की फ़रमाइश और कर देता।

    दूसरे दिन बेगम ने उसे दस का नोट पकड़ा दिया,एक मुर्ग़ी, आधा सेर बकरी का गोश्त, आधा सेर टमाटर, दो खीरे, आधा सेर प्याज़। नौकरों के लिए आधा सेर गाय का गोश्त।

    बस बीबी जी?

    हाँ बस, ख़ानसामाँ को मेरे पास भेजो और तुम माली के साथ बाज़ार होआओ।

    ख़ानसामाँ को बेगम के पास भेज कर साबिर माली के साथ बाज़ार चला गया। कोई बहुत बड़ा बाज़ार तो था नहीं, थोड़ी देर में सारी दुकानें देख लीं। माली ने चाय वाली की दुकान से बासी पेस्ट्री खाईं  और चाय की प्याली पी कर चलता बना मगर साबिर अपनी आवभगत देख कर चकराया जारहा था। हर सौदे के दाम आधे से भी कम थे। सब्ज़ी वाले ने दाम लेने से बिल्कुल ही इनकार कर दिया। सब उसके सामने यूँ बिछे जाते जैसे वो कहीं का हाकिम हो। उसे अपनी अहमियत का इस क़दर सख़्त एहसास हो रहा था कि पाँव ज़मीन पर पड़ रहे थे। उसके तो छोटे भाई ने भी कभी उसकी इज़्ज़त की थी। गाँव वाले अलग तू तकार पर उतरे रहते। बाप भी सुबह होते ही उसे किसी किसी बात पर एक आध गाली ज़रूर टिका देता।

    क़साई मदारात में सबसे आगे बढ़ गया। उसने अपनी पसंदीदा दुकान से साबिर के लिए चाय मंगवाई। जिस दुकान से माली ने चाय पी थी, उसकी बुराई की, फिर दबी-दबी ज़बान से ये भी बताया कि माली और ख़ानसामाँ उसी दुकान से चाय पीते हैं, उसके आड़े वक़्त काम आते हैं। उसके दोस्त की दुकान का रुख़ नहीं करते। बड़े चालाक हैं दोनों। उसका दुश्मन चाय वाला ऐसा बदज़ात है कि ठाट से लकड़ियाँ जलाता है। धुवें के मारे सबकी आँखें फूटती हैं। फिर ऐसी गंदी चाय बनाता है, क्या मुक़ाबला करेगा मेरे यार की चाय से। तुमको वहाँ का हलवा पूरी खिलाऊँगा। बड़ी मशहूर है। ख़ानसामाँ ने दस बार कहा कि इस कमबख़्त को बेगम साहब की तरफ़ से धमकी दे दो मगर कौन सुनता है।

    क़साई के अख़लाक़ में कुछ ऐसी छुरी जैसी तेज़ी थी कि साबिर उसकी हर बात मानता गया और घर वापस जाते-जाते चाय वाले को लकड़ी जलाने से मना करने पहुँच गया। माली ने उससे साबिर को मिलवाया था, इसलिए वो एकदम बिफर गया लेकिन जैसे ही साबिर ने अफ़सर के घर और बेगम की धौंस जमाई तो सिम सिम खुल जा का असर हुआ। चाय वाला ख़ुशामदों पर उतर आया।

    अरे मेरे भाई! यहाँ तो ख़ानसामाँ, माली और तुझसे पहले जितने नौकर आए सब चाय पीते थे। पहले कभी बेगम साहब ने ऐसा हुक्म दिया। ये सब क़साई की शरारत है। ग़रीब बंदा हूँ। लकड़ी तो मुफ़्त में काट लाता था। अब कोयला ख़रीदना पड़ेगा। तुम्हारी हर तरह ख़िदमत करूँगा।

    कुछ दिन कोयला जलाओ, फिर लकड़ी जलाने की इजाज़त दिलवा दूँगा। साबिर ने बड़े ग़ुरूर से कहा मगर दिल में ख़ानसामाँ से डर रहा था। उसे पता चला तो नाराज़ हो। सौदा लेकर कोठी पहुँचा तो ख़ानसामाँ उसका इंतज़ार ही कर रहा था। उसे देखते ही आँख मारी। साबिर उस मरी हुई आँख का मतलब तो समझ गया मगर वो ईमानदारी से बेगम को हिसाब देने के लिए जारहा था। ख़ानसामाँ ने तैश में आकर उसे पीढ़ी पर धक्का देकर बिठा दिया।

    अबे उल्लू की कान। यहाँ ऐसी ईमानदारी नहीं चलेगी। बेगम को पता चला कि तू उनके नाम पर सस्ता सौदा लाता है तो सर तोड़ देंगी, जेल पहुंचा देंगी। निकाल जेब से कितना बचा लाया है। साबिर ने डर कर जेब से पाँच रूपये निकाल दिए।

    बस इतना बचा है।

    पाँच रूपये? बस ठीक है। बेगम को बता दीजियो, मुर्ग़ी साढ़े पाँच रूपये की, गोश्त ढाई रूपये का, सब्ज़ी एक रूपये की, गाय का गोश्त आठ आने का। बेगम की अठन्नी बची। डेढ़ रूपया मेरा तीन रूपये तेरे। अपने डेढ़ रूपये से चवन्नी आया को दे दूंगा। बेचारी बेवा है। उसे देना सवाब का काम है। पान तम्बाकू खा लिया करती है। साबिर तीन रूपये जेब में डाल कर बैठा तो हिसाब लगाने लगा कि महीने में कितने रूपये बनेंगे। नव्वे रूपये के ख़्याल ही से उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। इसके साथ बेगम के ख़ौफ़ की तलवार ज़ोर-ज़ोर से गर्दन पर वार करने लगी।

    ख़ानसामाँ ने उसे यूँ डरा सहमा, चुपचाप बैठे देखा तो सर पर प्यार से हाथ फेरने लगा,अबे तू क्यों डरता है। मेरे होते तुझे किस बात की फ़िक्र। ले एक ग्लास दूध पी ले, आख़िर तू भैंस की रखवाली भी तो करता ही है। ख़ानसामाँ ने पतीली से गर्म-गर्म दूध उंडेल कर ग्लास उसके हाथ में थमा दिया। बस एक बात का ख़्याल रखियो, बेगम को किसी बात की ख़बर लगे और मेरे हिस्से की बात तो उसे कभी मालूम हो। घर की बात बाहर भी किजियो हाँ। साबिर दूध पीते हुए हर बात पर अच्छा-अच्छा करता रहा। ख़ानसामाँ के तसल्ली देने से उसकी ढारस बँध गई थी। ख़ानसामाँ भी तो सस्ता सौदा लाता है। बेगम को इस बात की ख़बर नहीं तो फिर वो नाहक़ डरा जाता है।

    कुछ दिन तो डरते-डरते गुज़रे फिर हिम्मत बढ़ गई। सौदा लाते महीना गुज़रा तो साबिर सौ रूपे कमा चुका था। उसने तो कभी ख़्वाब में सोचा था कि वो सौ रुपया महीना कमा सकेगा। उसके जिस्म में जैसे बिजलियाँ सी मचलने लगी थीं। यूँ दौड़-दौड़ कर काम करता, बेगम के मुँह से भी तारीफ़ निकल ही जाती। कभी-कभी उसे देख कर लाड़ से मुस्कुरा भी देतीं। उस वक़्त साबिर मारे ग़ुरूर के चाँद पर हो भी आता। लेकिन ख़ानसामाँ कमबख़्त से कद बढ़ता जारहा था। मुफ़्त में उसके हिस्से का डेढ़ रूपया रोज़ हज़म कर जाता। दुकानदार उससे बेज़ार थे। उन्होंने साबिर को बताया था कि कभी-कभी ख़ानसामाँ क़र्ज़ सौदा ले जाता है और फिर पलट कर एक आना नहीं देता। सख़्त इतना कि ज़रा तड़पड़ करो तो जान को जाता है। बस इतनी अच्छाई है कि हर एक के बुरे वक़्त में काम आता है। कैसा ही काम हो मिनटों में करा देता है।

    साबिर से सब ख़ुश थे। तो उसने कभी क़र्ज़ सौदा लेकर पूरे दाम डब में किए और कभी किसीपर सख़्ती की। आधे पौने दाम ज़रूर देकर ही आता। चाय वाले को लकड़ी जलाने से मना करने पर क़साई ऐसा ख़ुश हुआ था कि उसने साबिर के लिए लेडी हमिल्टन की एक क़मीज़ बनवा दी थी। ख़ानसामाँ को क़मीज़ की हवा भी लगने दी। छुपाकर लाया और बक्स में बंद करदी। उसने सोचा था कि ये क़मीज़ शादी में पहनेगा। रानी ने कैसी दानाई की जो उसे यहाँ भिजवा दिया था। अब तो उसने रानी के नाम की सारी गालियाँ वापस ले ली थीं।

    सौ रूपे घर मनीऑर्डर करने के बाद साबिर ने धीरे-धीरे ख़ानसामाँ की तरफ़ से हाथ खींचना शुरू करदिया, आज तो सिर्फ़ चार रूपये बचे हैं तू एक रूपया ले-ले। ख़ानसामाँ ने पहले तो उसे बेतहाशा घूरा फिर एकदम भड़क गया,अबे उल्लू की कान हमसे ऊँचा उड़ता है?

    मैं क्या करूँ, दुकान वाले ज़्यादा सस्ता सौदा नहीं देते। साबिर ढ़िटाई से आँखों में आँखें डाल कर जवाब देता। अब उसे यक़ीन होगया था कि ख़ानसामाँ बेगम से शिकायत नहीं कर सकता। शीशे के घर में बैठ कर कौन पत्थर मार सकता है। ख़ानसामाँ ने दांत किटकिटाकर रूपया ही जेब में डाल लिया। देखूँगा तुझे बेटा। वो धमकाता तो साबिर को दिल ही दिल में हँसी आती। मैं तो सच कहता हूँ, तू यूँ ही ग़ुस्सा करता है। दुकानदार अब धौंस में नहीं आते। तुमसे तो डरते हैं।

    जब मैं सौदा लाऊँगा तो फिर तेरा सारा झूट खुल जाएगा। दुकानदार धौंस में नहीं आते। हुँह, सारे के सारे बँध जाएंगे जो हमसे ऊँचे उड़ें। समझ गया। सब बेईमान हैं साले।

    होंगे, मुझे क्या। साबिर और भी मासूम बनता तो ख़ानसामाँ को चुप होने के सिवा कुछ नज़र आता। इंतक़ामन सबसे बुरा खाना देता। सालन में कच्चा पानी उंडेल देता। रोटियाँ ऐसी कच्ची कि खाकर बदहज़मी हो जाए या फिर हैज़ा हो जाए या फिर मर जाए। साबिर मरा बीमार पड़ा। वो तो कंकर, पत्थर भी हज़म कर जाता इन दिनों। आज कल तो एफ़.ए, बी.ए रोज़गार की तलाश में धक्के खाते फिरते हैं, वो जाहिल होकर सौ रुपया महीना कमा रहा था। उधर बेगम उससे इतनी ख़ुश थीं कि ख़ानसामाँ उसे खुले ख़ज़ाने नुक़सान भी पहुँचा सकता था। कुढ़-कुढ़ कर वक़्त गुज़ार रहा था और साबिर उसे कुढ़ाकर अपनी होशियारी पर नाज़ाँ था।

    बेगम साबिर से ज़्यादा ख़ुश हुईं तो उन्होंने स्टोर की चाबी इसके सुपुर्द करदी। अब वो कमबख़्त नाप तौल कर घी, चावल, सेवइयाँ वग़ैरा निकाला करता। पहले ये काम आया करती थी और घी निकालते वक़्त ख़ानसामाँ की ख़स्ता रोटियों का लिहाज़ रखती थी। अब सूखी रोटी खाते हुए वो साबिर को दिल से बददुआएं देता।

    मुर्ग़ी वाला मरी हुई मुर्ग़ी ज़ब्ह करके बेचने के जुर्म में पकड़ा गया। मुर्ग़ी वाले को छुड़ाना साबिर के हद-ए-इख़्तियार से बाहर था। मौक़ा ताक कर उसने डरते-डरते बेगम से ज़िक्र करदिया और गवाही भी दे दी कि वो मुर्ग़ी ज़िंदा थी। यूँ ही आँख मूँद कर पड़ गई थी। उसके सामने ज़ब्ह की गई थी। लोगों ने यूँही शोर मचा दिया। बेगम ने सब सुनकर ग़ौर से साबिर की तरफ़ देखा तो उसकी जान सन्न से होगई। फिर वो एकदम खिलखिलाकर हँस पड़ी,अब तू बड़ा होशियार होगया है। झूट भी बोलने लगा है।

    क़सम ले लीजिए बीबी जी जो मैं  झूट बोल रहा हूँ। साबिर की जान में जान आई तो वो हुमक कर बोला,मैंने अपनी आँखों से देखा था। ग़रीब बाल-बच्चों वाला है।

    अच्छा अब बातें बना। मैं कहला दूँगी मगर अपने मुर्ग़ी वाले को समझा दीजियो  कि अब ऐसी हरकत करे। ग़ज़ब ख़ुदा का मुसलमानों को हराम गोश्त खिलाता है।

    साबिर का मारे ख़ुशी के बुरा हाल होगया। उसने ख़ानसामाँ को सारा क़िस्सा सुनाकर धौंस जमाना चाही तो वो ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे लगाने लगा,बेटा इस सात साल में बेगम से सात हज़ार काम करा चुका हूँ तू एक काम लेकर उथला हो रहा है। तू अपने को समझता क्या है। ख़्वाह मख़्वाह ज़्यादा सर चढ़, उतार के फेंक दूंगा।

    वो तो देखा जाएगा। साबिर ने दिल ही दिल में सोचा।

    मुर्ग़ी वाले की पकड़ धकड़ से जान बची तो उसने साबिर से पन्द्रह दिन तक मुर्ग़ी का एक पैसा लिया। उसने कई बार कहा भी कि क्यों अपना नुक़सान करता है मगर मुर्ग़ी वाले ने एक बात सुनी। साबिर ने पन्द्रह दिन के अंदर ही अंदर साठ रूपये का मनीऑर्डर घर भिजवा दिया। क़साई से ख़त भी लिखवा दिया कि रानी का रिश्ता मांग लो। अगर मानें तो उनसे कहो कि गाँव में रहना मुश्किल कर दूँगा।

    ख़ानसामाँ मुर्ग़ी वाले की रिहाई का मतलब ख़ूब समझता था। वो रोज़ साबिर से लड़ता कि उसका भी हिस्सा लगाए मगर साबिर ऐसा मासूम बन जाता जैसे कुछ जानता ही नहीं। थक हार कर ख़ानसामाँ ख़ुशामद पर उतर आया,देख साबिर बाल-बच्चों वाला हूँ, अब तुझे क्या बताऊँ, ज़बान से नहीं निकाल सकता। दो बीवियाँ हैं, नौ बच्चे। जाने कमबख़्त वो ईसनी कहाँ से आगई थी मेरे गले पड़ने। जवानी का नशा था जो उससे भी निकाह कर बैठा। रूपये रोज़ में क्या गुज़ारा होगा। तुझसे पहले जो नौकर आए, वो सब आधा-आधा करते थे।

    वो कोई और उल्लू की कान होंगे दिलावर, मेरा नाम साबिर है। वो दिल ही दिल में सोच कर ख़ुश होता। अब कैसी ख़ुशामद पर उतर आया है। कैसा झूटा है। पक्का मकान बनवा लिया होगा। सात साल से काम कर रहा है। क्या करूँ ख़ानसामाँ, दुकानदार अब पहले जैसा नहीं रहा। साबिर बड़ी मासूमियत से ख़ानसामाँ को यक़ीन दिलाता। ऐसी शिकस्त तो ख़ानसामाँ को कभी भी हुई थी। आया, माली और दूसरे काम करने वाले सभी उसके हुक्म पर नाचते थे। अब कल के छोकरे ने उसे नचा मारा है। बेगम के डर से कुछ कर पाता। मारे ग़म के अटवाटी खटवाटी  लेकर पड़ गया। उसने सोचा, ज़रा बेगम को पता भी तो चले। दो-चार दिन खाना मिला तो तबियत साफ़ हो जाएगी। पकवाएं अपने साबिर से।

    साबिर ऐसा चालाक कि ख़ानसामाँ के लेटते ही फ़टाफ़ट खाना पकाने लगा। ख़ानसामाँ को पकाते देख कर थोड़ा-बहुत सीख गया था। फिर भी वो बात कहाँ, इसके बावजूद बेगम ने दो-चार लुक़्मे खाकर तारीफ़ करदी।

    अगर ख़ानसामाँ मर जाए तो तू अच्छा पका लेगा। बेगम ने हँसकर कहा और साबिर ने मम्नूनियत से दांत निकाल दिए। उसे एहसास था कि बेगम से खाया नहीं गया। आठ-दस दिन ख़ानसामाँ यूँ ही पड़ा रहे तो उससे ज़्यादा अच्छा पका ले तो जबकी बात। शाम को बेगम साहिबा ने ख़ानसामाँ को अपने कमरे में तलब किया और जब वो आया तो रंग पीला होने के बावजूद मरज़ दूर होगया था। खाट खड़ी करके जी जान से मुर्ग़ी पकाने लगा। दूसरे दिन उसने साबिर से रूपया भी माँगा और बड़े प्यार से बोला तो साबिर की मारे हैरत के बुरी हालत होगई। साबिर ने रूपया दिया तो ग़ुस्से से डाँटने लगा,अबे रख अपने पास, इतना भी ख़्याल नहीं कि तेरी मंगनी हो चुकी है। शादी के लिए जमा कराओ। ज़रूरत पड़े तो मुझसे ले लीजियो, तू कोई ग़ैर है।

    साबिर ने ज़बरदस्ती रूपया उसकी जेब में डाल दिया। उस दिन से लड़ाई झगड़ा ख़त्म होगया। ख़ानसामाँ उससे अपनी औलाद की तरह सुलूक करता। एक दिन ख़ानसामाँ ने उसे मशवरा दिया कि बेगम ख़ुश हैं तो लगे हाथों तनख़्वाह बढ़वा ले। दिलावर को तो तनख़्वाह का कभी ख़्याल ही आया था। उसने तनख़्वाह मांगी।

    यार मैं तो कहूँगा, क्या रखा है तनख़्वाह में?

    वाह क्यों नहीं रखा है, मुझसे तो बेगम साहिबा जब भी ख़ुश होती थीं दो-तीन रूपये बढ़वा लेता था। बीस रूपये महीना तो करा ही ले, पाँच महीने के पक्के सौ बन जाया करेंगे। तू तो बच्चा है। तुझे अभी पैसे की परवा नहीं होती, मुझे तो तेरी फ़िक्र खाए लेती है। सौ रूपे की बात समझ में आने वाली थी। उसने सोचा कि ज़रूर कह देगा। शादी में जाते-जाते डेढ़ सौ तो बन जाएंगे। बिरादरी को खिलाने के लिए दाम निकल आएंगे। ज़र्दे की देगें चढ़वाएगा।

    रात को साबिर खाना खिला रहा था और मौक़े की तलाश में था कि बेगम ने ख़ुद ही ऐसी बात छेड़दी,आया कहती थी तेरी मंगनी होगई है?

    जी बीबी जी... साबिर ने नज़रें झुका दीं, ईद की दस तारीख़ को शादी होगी।

    फिर तो तू बड़ा ख़ुश होगा... उन्होंने साबिर की तरफ़ तिरछी नज़रों से देखा, छुट्टी आठ दिन से ज़्यादा की मिलेगी।

    उसे भी ले आऊँगा, आपकी ख़िदमत करेगी। तनख़्वाह थोड़ी है बीबी जी, शादी के बाद गुज़ारा कैसे होगा।

    हूँ! बेगम ने ऐसी लम्बी करख़्त हूँ की कि साबिर का गला तक ख़ुश्क होगया। तनख़्वाह कम है, गुज़ारा कैसे होगा। उन्होंने साबिर को खा जानेवाली नज़रों से इस तरह घूरा कि सारा जिस्म ज़ेर-ओ-ज़बर होकर रह गया। वो कुर्सी छोड़ कर अपने कमरे में चली गईं।

    बरतन उठाए जब वो बावर्चीख़ाने में पहुँचा तो ख़ानसामाँ चेहरा देखते ही ताड़ गया, कह आया तनख़्वाह के लिए, कितने रूपये बढ़ाए? साबिर का बस चलता तो ख़ानसामाँ की बोटियाँ नोच डालता,अभी मैंने बात नहीं की। वो साफ़  झूट बोल गया। भला वो क्यों बताता कि उसकी क्या गत बनी। दिल ही दिल में दुआएं कर रहा था कि बेगम ज़्यादा नाराज़ हो। उसकी और उसके बाप-दादा की तौबा जो अब कभी तनख़्वाह बढ़ाने की बात करे। वो तो छुट्टियों से पहले की तनख़्वाह भी माँगेगा, चाहे उसकी अम्मां ज़्यादा रूपों की फ़रमाइश कर करके मर जाए। ख़ानसामाँ उसके साफ़ झूट को ताड़ गया,तू बात करे या करे, मैं पैंतीस रूपये पर आया था, बढ़वा बढ़वाकर साठ रूपये कर लिये।

    करलिये होंगे, मुझे तो कहते शर्म आती है। वो मालिक हैं, जब दिल चाहेगा तो ख़ुद ही तनख़्वाह बढ़ा देंगी। साबिर ने ऐसी हमाहमी से कहा कि ख़ानसामाँ भी चकमे में गया।

    मत कर बात, मेरा क्या बिगड़ता है तेरी फ़िक्र होती है तो कह देता हूँ। अपनी मर्ज़ी का मालिक है तू तो।

    दूसरे दिन बेगम ने सौदे पर ख़ानसामाँ की ड्यूटी लगादी। महीना ख़त्म होने में हफ़्ता बाक़ी था। साबिर कलेजा थाम कर रह गया। बेगम की नाराज़गी आख़िर रंग लाकर रही। ख़ानसामाँ बेहद ख़ुश था। बाज़ार जाते-जाते साबिर का कलेजा नोच गया, बेटा तूने अच्छा ही किया जो तनख़्वाह बढ़ाने की बात नहीं की। ठीक है ना? साबिर ने कोई जवाब दिया। झाड़न उठा कर कमरा साफ़ करने चला गया, कोई बात नहीं उसे ख़िदमत करनी आती है। बेगम को राज़ी करलेगा।

    ख़ानसामाँ सौदा लेकर आया तो साबिर ने डेढ़ रूपये का मुतालबा करदिया। वो भी तो बीस पच्चीस दिन डेढ़ रूपया रोज़ देता था। साबर के मुतालबे पर ख़ानसामाँ की आँखें फटी की फटी रह गईं, अबे मुझसे माँगता है। अब तक तेरे जैसे बहुत आए, सबने हिस्सा दिया है, लिया किसी ने नहीं।

    वो कोई और होंगे जो तेरी ख़ुशामद करते होंगे। साबिर भी अकड़ गया।

    बेगम से शिकायत करदी तो अंदर करा देंगी, मेरे सर चढ़। ख़ानसामाँ ने मूंछें उचकाईं।

    चल चार-छ आने तू भी दे दिया कर दिलावर, क्यों झगड़ता है, बेगम को पता चला तो ग़रीब को निकाल देंगी। तुझे पता है वो लड़ाई झगड़ा पसंद नहीं करतीं। आया ने बड़ी मक्कारी से सुलह करानी चाही।

    मैं लड़ रहा हूँ कि ये ख़्वाह मख़्वाह फ़साद करता है। ख़ानसामाँ और भी बिफरा, मैं तो यही चाहता हूँ कि बेगम तक बात पहुँचे।

    जा-जा, बेगम से सौ बार कह दे। नौकरी जाएगी तो सबकी जाएगी। मैं उन्हें बता दूंगा कि इसने मुझे ये काम सिखाया था और फिर हिस्सा लगाता था। मुफ़्त के रूपये तुझे हज़म होने दूंगा।

    वो भी जानता था कि बेगम के पास शिकायत लेकर कोई जासकेगा। ख़ानसामाँ एकदम ज़च होगया। साबिर तो टेढ़ी खीर था। ज़रा रोब पड़ा। उसे तो इस ख़्याल ही से ख़ौफ़ आता कि बेगम को हिस्से बख़रे वाली बात मालूम हो। वो तो ऐसी उसूल की पक्की कि ज़रा सी गड़बड़ बर्दाश्त करे।

    बस बेटा, तेरा सारा पता चल गया। मैं तो तुझे आज़मा रहा था कि देखें, मुझे बाप समझता भी है कि नहीं। ये ले डेढ़ रूपया और भी जितने रूपों की ज़रूरत हो ले-ले, तेरी शादी पर मेरी पाई-पाई काम जाए तो मैं ख़ुश हूँगा। साबिर ने कुछ कहा मगर डेढ़ रूपया जेब में डाल लिया। ऐसी कच्ची गोलियाँ नहीं खेले हुए था कि बातों में आकर वापस कर देता।

    बेगम ने कई हफ़्ते साबिर से बात भी की। आख़िर बेगम को चुप तोड़ना पड़ी। ऐसी मेहनत से काम करता कि उनका दिल भी पसीज ही गया। आहिस्ता-आहिस्ता वो फिर ख़ुश हो गईं मगर जैसे ही ख़ानसामाँ की बारी ख़त्म हुई तो हफ़्ते के लिए माली की ड्यूटी लग गई। माली को दूसरे तीसरे महीने सिर्फ़ हफ़्ते की ड्यूटी मिलती। वैसे भी वो रात दिन काम करने वाला था। दो-चार घंटे बग़ीचे को सँवारता और फिर दूसरी कोठियों में चला जाता। अब साबिर बेचैनी से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। माली से तो लेन देन भी था। पूरा हफ़्ता सूखा ही गुज़र गया। शादी के दिन क़रीब आरहे थे। माँ हर ख़त में बड़ी फ़राख़ दिली से चीज़ों की फ़रमाइश करती रहती, वो भी बस ये समझ रही थी कि बेटा हुंडी पर बैठा है।

    हफ़्ता ख़त्म हुआ तो सौदे पर साबिर की ड्यूटी लगादी गई मगर बेगम का दिल अभी उसकी तरफ़ से शायद पूरी तरह साफ़ हुआ था। पहले ही कह दिया कि एक महीने तक तू सौदा लाएगा। दूसरे महीने ख़ानसामाँ। उसने सोचा चलो ये भी ठीक है। राज़ी तो हुईं। इस महीने रानी के सब कपड़े बनवा लेगा। सुनार का काम कराने के बदले में उसे एक नन्हा सा सोने का टीका और पैरों के लिए चाँदी की पायल मिल गई थी। इन चीज़ों को उसने ऐसे ख़ामोशी से छुपा रखा था कि किसी को हवा तक लगने दी।

    दुकानदारों ने इस बार साबिर का बड़ी गर्मजोशी से इस्तक़बाल किया। ख़ानसामाँ की हज़ार शिकायतें कीं। साबिर ने भी उनके साथ मिल कर अच्छी तरह दिल की भड़ास निकाली। उन्हें भड़काया भी कि अब वो हरामज़ादा आए तो मुफ़्त में खिलाओ पिलाओ। उसकी फूँ-फ़ाँ से मत डरो। इस बार साबिर ने ख़ानसामाँ को हिस्सा देने से साफ़ इनकार करदिया। ख़ानसामाँ ने बहुत समझाया, ख़ुशामदें कीं मगर साबिर का दिल पसीजा। बस आया को दूवन्नी दे दिया करता। वो भी ख़ानसामाँ की आँख बचाकर लिया करती। साबिर जब सौदा लाता तो ख़ानसामाँ उसे हैरत से देखता, कितना कमा लाया है माँ के लाल?

    बस यही पाँच रूपये होंगे। उसे जलाने के लिए साबिर चार के करदिया करता। ख़ानसामाँ को उसकी ज़ात से नफ़र हो जाती। मुँह फेर कर सौदा उठा लेता और दिल ही दिल में साबिर को घनी-घनी गालियाँ देता। ये कमबख़्त तो उसके लिए अज़ाब बन गया था। कभी ऐसा भी हुआ था कि ख़ानसामाँ होकर वो सिर्फ़ एक महीने सौदा लाए। उसका बस चलता तो उसे कहीं जीता-जीता गाड़ आता। कैसे बदज़ात आदमी से पाला पड़ गया था। कुछ करते बन पड़ती।

    रमज़ान के महीने में ख़ानसामाँ की ड्यूटी लग गई थी। साबिर इस बार बहुत ललचाया। रमज़ान के महीने में सौदा भी बहुत आता और रूपये भी दस के बारह हो गए थे मगर अब तो उसकी बारी भी नहीं आनी थी। जो कमाना था सो कमा लिया। ईद की चार तारीख़ को छुट्टी पर जाना था। उसने सोच लिया था कि चार-पाँच दिन से ज़्यादा गाँव ठहरेगा। कहीं ऐसा हो कि ख़ानसामाँ उसके ख़िलाफ़ बेगम को भड़काए। उसे तो उसकी सूरत से ऐसी नफ़रत हुई थी कि देख कर जोड़ी चढ़ती मगर ख़ानसामाँ जाने किस हड्डी का बना हुआ था। रमज़ान शुरू होते ही साबिर से बोलने चालने लगा। रात को उसे एक ग्लास दूध भी दे दिया करता, ले पी ले नहीं तो सारा दिन प्यास लगेगी।

    साबिर चुपके से ग्लास ग़टार लेता। अब तो वो ख़ुद भी उससे लड़ना चाहता था। वो छुट्टी पर जारहा है। क्या फ़ायदा कि पीठ पीछे उसका बुरा चाहे, इस वक़्त तो बनाकर रखनी चाहिए। जब छुट्टी से वापस आएगा तो फिर सारी कसर निकाल लेगा।

    चार तारीख़ को साबिर की एक हफ़्ते की छुट्टी मंज़ूर होगई। सामान बाँध कर तैयार होने लगा तो ख़ानसामाँ मुँह बिसूरने लगा और फिर आँखों पर अँगोछा रख कर रोने लगा, तेरे बग़ैर जी लगेगा बेटा। जल्दी आईयो। साबिर अपने सुलूक पर शर्मिंदा होगया और ख़ानसामाँ की मोहब्बत पर जी जान से ईमान ले आया, बस चार दिन में जाऊँगा  ख़ानसामाँ, मेरा कहा सुना माफ़ करना, अब हमेशा तेरी ख़िदमत करूंगा। साबिर भी रंजीदा होगया।

    तनख़्वाह ले ली? ख़ानसामाँ ने आँसू पोंछ कर पूछा। अगर ज़्यादा रूपों की ज़रूरत हो तो कुछ मुझसे भी ले-ले। ख़ूब धूम से शादी कीजियो।

    अभी तो नहीं मांगी, जाते वक़्त बेगम आपही दे देंगी। मुझे माँगते हुए बुरा लगता है।

    ले तो भी हद करता है, बड़े आदमियों को ऐसी बातें कहाँ याद रहती हैं। चलते वक़्त याद दिला दीजियो। और देख जल्दी जाईयो, मैं अकेले में घबराऊँगा।

    दोपहर को जब वो जाने लगा तो बेगम को सलाम करने गया और फिर नज़रें झुकाकर खड़ा होगया।

    जाओ हफ़्ते के बाद ज़रूर आजाना।

    इससे भी पहले जाऊँगा  बीबी जी।

    ठीक है। बेगम ने ख़ुश होकर कहा, अब जाओ ठाट से शादी करो। बेगम ने हँस कर उसे देखा।

    और बीबी जी तनख़्वाह...?

    तनख़्वाह...? लेटी हुई बेगम इस तरह बिलबिला कर उठ गईं जैसे बिस्तर में बिच्छू गया हो।

    हराम ज़ादा। फिर वो ज़ोर से चीखीं, ख़ानसामाँ। ख़ानसामाँ ऐसी जल्दी से गया जैसे कहीं पास ही खड़ा हो। तुमने इसे कुछ नहीं बताया था? पहले तनख़्वाह बढ़ाने की बात की तो मैंने माफ़ करदिया था और अब... मारे ग़ुस्से के वो सुर्ख़ भभूका हो रही थीं।

    सब बता दिया था, बीबी जी, शरीर आदमी है, कहता था कि मेहनत करता हूँ तो तनख़्वाह भी लूँगा। ख़ानसामाँ बड़ा मिस्कीन नज़र रहा था।

    ले जाओ इस पाजी को, ख़बरदार जो अब यहाँ आया, शादी करने जारहा है वरना  कहीं का कहीं भिजवा देती हरामख़ोर को।

    ख़ानसामाँ ने साबिर को शाने से पकड़ कर खींचा। उसपर तो जैसे ग़शी सी तारी थी। आँखों तले ऐसा गहरा अंधेरा कि कुछ सुझाई देता। ख़ानसामाँ उसे खींचता हुआ बाहर ले गया, बेटा हमसे उड़ते थे। उसने एक ख़ौफ़नाक क़हक़हा लगाया। मिल गई तनख़्वाह? हमने सात साल में कभी तनख़्वाह नहीं मांगी, अब दौड़ जा साले हमसे बनाकर रखता तो सब समझा देते, अब दफ़ा हो। उसने साबिर को बावर्चीख़ाने से धक्का देकर निकाल दिया और इतने ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हा लगाने लगा कि भागते हुए साबिर को महसूस हुआ जैसे बहुत से भूत उसका पीछा कर रहे हूँ। वो तो मारे ख़ौफ़ के अपना बक्स उठाना भी भूल गया था।

    स्रोत:

    Thanda Meetha Pani (Pg. 76)

    • लेखक: ख़दीजा मस्तूर
      • प्रकाशक: ख़ालिद अहमद
      • प्रकाशन वर्ष: 1981

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