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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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सज़ा

MORE BYबलवंत सिंह

    स्टोरीलाइन

    यह एक सादा सी मुहब्बत की कहानी है। जीत कौर एक ग़रीब कन्या है, जो अपने बूढ़े दादा और छोटे भाई चन्नन के साथ बहुत मुश्किल से ज़िंदगी बसर कर रही है। नंबरदार के ऋणी होने की वजह से उसका घर कुर्की होने की नौबत आ गई। इस अवसर पर तारा सिंह ख़ामोशी से जीतू के बापू के एक सौ पच्चास रुपए दे आता है,जो उसने भैंस ख़रीदने के लिए जमा कर रखे थे। तारा सिंह जीतू से शादी का ख्वाहिशमंद था लेकिन जीतू उसे पसंद नहीं करती थी। उसे जब चन्नन की ज़बानी मालूम हुआ कि तारा ने ख़ामोशी से मदद की है तो उसके दिल में मुहब्बत का समुंदर लहरें मारने लगता है। एक पुरानी घटना के आधार पर तारा सिंह जीत कौर से कहता है कि आज फिर मेरी नीयत ख़राब हो रही है, आज सज़ा नहीं दोगी, तो जीत कौर अपने जूड़े से चमेली का हार निकाल कर तारा सिंह के गले में डाल देती है।

     

    ये कहानी पंजाब के एक गाँव से वाबस्ता है। छोटा सा गाँव था। दो एक हवेलियों को छोड़कर बाक़ी तमाम मकानात गारे के बने हुए थे। वही जोहड़, वही बबूल, शरींह और बेरियों के दरख़्त, वही घने पीपल के तले रूँ-रँ करते हुए रहट, वही सुब्ह के वक़्त कुँवों पर कुँवारियों के जमघट, दोपहर के वक़्त बड़े बूढ़ों की शतरंज और चौपड़, शाम को नौजवानों की कबड्डी और पुर-सुकूत रातों में वारिस अली शाह की हीर, हीर और क़ाज़ी के सवाल-ओ-जवाब, वही मज़बूत, नटखट और चंचल छोकरिया और वही सीधे सादे बुलंद-क़ामत और वजीह नौजवान…

    शाम हो चुकी थी। घर में पकाने के लिए कोई चीज़ न थी। इसलिए जीत कौर पैसा आँचल में बाँध कर दाल लेने के लिए घर से बाहर निकली लेकिन चार क़दम चल कर रुक गई, सामने पीपल के नीचे मुगदर के क़रीब फम्मन सिंह चारपाई पर बैठा मूँछों को बल दे रहा था। जीत कौर जानती थी कि जब वो उसके पास से गुज़रेगी तो वो उसे बग़ैर छेड़े हरगिज़ न रहेगा। लिहाज़ा उसने सोचा कि बजाए दाल के किसी खेत से साग ले आती हूँ। इस तरह वो पैसा छोटा भाई चन्नन ख़र्च कर लेगा। आज दोपहर भर वो खांड की रंगदार गोलियों के लिए रोता रहा था। ये सोच कर वो खेतों की तरफ़ चल दी।

    सूरज ग़ुरूब हो रहा था। बबूल और गन्नों के साए तवील होते जा रहे थे। जीत कौर छोटी-छोटी काँटेदार झाड़ियों से शलवार बचाती हुई चली जा रही थी। जामुन के क़रीब बेरों की झाड़ियाँ थीं, उसने थोड़े से बेर चन्नन के लिए तोड़ लिए, फिर आगे बढ़ी। उसके चेहरे से अफ़्सुर्दगी और ग़ुस्सा के आसार हुवैदा थे। इस वक़्त वो फम्मन सिंह की बाबत सोच रही थी। आख़िर फम्मन सिंह उसे क्यों दिक़ करता है। अगर और नहीं तो सुमित्री उससे कम हसीन तो न थी। वो उसे क्यों नहीं छेड़ता? लेकिन सुमित्री के तीन जवान भाई थे। अगर कोई उसकी तरफ़ उँगली भी उठाए तो वो उसका ख़ून पी जाएँ। ये ख़याल आते ही उसे अपना भाई याद आ गया। तीन साल पहले जब कि उसकी ‘उम्र पंद्रह बरस की थी, उसका भाई घर से खाना खा कर कुँए पर गया। जहाँ उसने तरबूज़ खा लिया और शाम तक हैज़ा से मर गया।

    उसका भाई गाँव भर में सबसे ज़ियादा दराज़-क़द था। उसका सीना ऐसा था जैसे किसी बड़ी चक्की का पाट। एक बालिशत ऊँची और मोटी गर्दन। चौड़े चकले मज़बूत हाथ। कलाई पकड़ने और कबड्डी खेलने में दूर-दूर तक कोई उसकी बराबरी का दा’वेदार न था। एक दफ़ा’ कबड्डी में उसने थप्पड़ मार कर अपने हरीफ़ नौजवान की हँसली की हड्डी तोड़ दी थी। ये बातें याद कर के जीत कौर की आँखों में आँसू आ गए, भला आज उसका भाई ज़िंदा होता तो क्या फम्मन सिंह की हिम्मत पड़ सकती थी कि उससे छेड़खानी करे। कल ही की तो बात है कि उस बदमाश ने उसका आँचल खींच कर उसका सर नंगा कर दिया था। ये सब इसीलिए तो था कि वो नंबरदार का लड़का था और दूसरे ये उनके क़र्ज़-दार थे।

    माँ की मौत के बा’द उन पर मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े। माँ के बा’द बाप मरा। बाप के बा’द उसका भाई मरा और अब बूढ़ा दादा रह गया था जिसे वो बापू कहा करती थी। या चन्नन था। छः साल का बच्चा। माँ-बाप की आख़िरी निशानी। कई दफ़ा’ फ़स्लें ख़राब हुईं। नंबरदार का डेढ़ सौ रुपये का क़र्ज़ा सर पर हो गया। ज़मीन ‘अलैहिदा रहन थी। बापू बूढ़ा था। इन तमाम मुसीबतों पर तुर्रा ये कि बे-शर्म फम्मन सिंह उसे दम न लेने देता था।

    अब जीत कौर का फिर से ख़ून खोलने लगा। उसके दिल में तमाम मर्दों के लिए नफ़रत पैदा हो रही थी। दिल ही दिल में कहने लगी, अब तारा सिंह को ही देखो, उसका आग़ा न पीछा। बस ले दे के उसकी माँ है थोड़े दिन की मेहमान। उसे भला काहे का फ़िक्र? ज़मीन है। एक कच्चा मकान। तीन बैल। एक भैंस और एक गाय भी है। उसे अपनी अकेली जान के लिए ये काफ़ी से ज़ियादा है। मारे बे-फ़िक्री के रांड का सांड हो रहा है। जब देखो मूँछ पे हाथ। इतना लंबा चौड़ा जवान हो कर बेचारी कमज़ोर लड़कियों पर आवाज़े कसते शर्म नहीं आती। मैं तो कहूँगी कि सभी मर्द परले दर्जे के मग़रूर, गुंडे और पाजी होते हैं। जब कभी पानी का घड़ा कुँए से उठाकर लाती हूँ तो कैसी भद्दी आवाज़ से गाता है,

    निक्का घड़ा चक लच्छिए तेरे लक नूँ जरब न आवे
    निक्का घड़ा चक लच्छिए

    बापू का ख़याल है कि मैं उससे शादी कर लूँ, मगर मैं ऐसे लफ़ंगे के साथ शादी करूँ क्यों? माना कि फम्मन सिंह की तरह उसने दस्त-दराज़ी कभी नहीं की। मगर इस क़िस्म के गाने नौजवान लड़कियों को सुना-सुना कर गाना भी तो भले आदमियों का काम नहीं। उस वक़्त जीत कौर को रह-रह कर ख़याल आता था कि काश वाहेगुरू अकाल पुरख उसे ताक़त देता, वो इन दिल-फेंक ‘आशिक़ों को ईंट का जवाब पत्थर से देती। चलते-चलते वो रुक गई। सामने गन्ने के खेतों के पास ही हरा-भरा साग का खेत था लेकिन वो खेत था तारा सिंह का। उसने इधर-उधर देखा। मवेशी बाँधने का मकान ख़ाली मा’लूम पड़ता था। रहट चल रहा था और पास ही बेल बँधा हुआ था।

    उसने जब अच्छी तरह से देख लिया कि नज़दीक कोई नहीं है तो चुपके से खेत में सिमट सिमटा कर बैठ गई और जल्दी-जल्दी साग तोड़ने लगी। म’अन एक आवाज़ सुनकर उसने सहम कर सर ऊपर उठाया। देखा कि दूर गन्ने के खेतों से तारो हाथ में फावड़ा लिए बुलंद आवाज़ से गालियाँ देता चला आता है। उसके जिस्म में सनसनी सी पैदा हुई और वो साग वहीं फेंक कर जल्दी-जल्दी दूसरी तरफ़ को चल दी। इतने में तारो वहाँ पहुँचा। उसने तोड़ा हुआ साग हाथ में उठा कर देखा और फिर उसकी तरफ़ लपका। इधर उसके छोटे-छोटे फटे हुए स्लीपर हरी घास पर बार-बार फिसलते थे। ये देखकर कि तारो उसको पकड़ा ही चाहता है, वो भाग खड़ी हुई। तारो भी दौड़ा। मुख़्तसर सी दौड़ के बा’द तारो ने उसे जा दबोचा और उसकी कलाई को मज़बूती से पकड़ कर बोला, “क्यों री जीतू हमसे ये चालाकियाँ? हर रोज़ तू ही साग चुरा कर ले जाती थी ना? आज मैं भी इसी ताक में बैठा था।”

    जीतू रोते हुए और उसकी आहनी गिरफ़्त से बाज़ू छुड़ाने की कोशिश करते हुए बोली, “मैं तो तेरे खेत में पहले कभी नहीं आई... छोड़ो मुझे।”

    “कभी नहीं आई थी...”, तारो दाँत पीसते हुए बोला, “चल आज मैं तुझे चखाता हूँ मज़ा।”

    तब तारो उसे घसीटता हुआ कच्चे मकान की तरफ़ ले गया और दरवाज़ा खोल कर उसे ज़ोर से अंदर धकेल दिया। वो भैंस के ऊपर गिरने से बाल-बाल बची। उसकी एक चूड़ी भी टूट गई। चूड़ी को टूटते देखकर दामन-ए-सब्र उसके हाथ से जाता रहा। चीख़ कर बोली, “तूने मेरी चूड़ी तोड़ दी। मैंने इतने शौक़ से मेले से ली थी...”, उसकी आवाज़ भरा गई और वो शिकस्ता चूड़ी के टुकड़ों को देख देखकर आँसू बहाने लगी। अब तारो नर्म पड़ गया। दिल में अफ़सोस भी पैदा हुआ। यकायक उसने देखा कि चूड़ी का टुकड़ा चुभ जाने से जीतू की कलाई से ख़ून बह रहा है। वो एक दम आगे बढ़ा, “ओहो जीतू तुम्हारी कलाई से ख़ून बह रहा है। लाओ...”

    “हट।”, जीतू ने दो क़दम पीछे हट कर कहा, “बदमाश... कलमुँहा... मुस्टंडा...”

    तारो गालियाँ खा कर ख़ामोश हो गया। उसे ये मा’लूम न था कि बात का बतंगड़ बन जाएगा। वो तो दो-घड़ी के लिए जीतू को परेशान करना चाहता था। क्योंकि उसे दिक़ करने में उसे मज़ा आता था। लेकिन उसका ये मंशा हरगिज़ न था कि जीतू का कोई नुक़्सान हो या वो उसे कोई जिस्मानी ईज़ा पहुँचाए। जीतू दीवार के पास खड़ी चुपके-चुपके रो रही थी और तारो अपनी गर्दन खुजा रहा था। उसके दिल में रहम के जज़्बात पैदा हो चुके थे। मगर वो हम-दर्दी का इज़हार न कर सकता था। दो-घड़ी बा’द वो बाहर निकल आया और दरवाज़ा बंद कर के खेतों की तरफ़ चला गया।

    थोड़ी देर बा’द तारो सरसों का ‘उम्दा साग लिए सेहन में दाख़िल हुआ। जीतू ने नज़र उठा कर उसकी तरफ़ देखा। उसकी भीगी-भीगी लाँबी पलकों को देखकर तारो के दिल में हूक सी उठी। उसको अपनी हरकत पर बहुत अफ़सोस हो रहा था। वो झुकता हुआ आगे बढ़ा और साग का गट्ठा आगे बढ़ाते हुए बोला, “जीतू, अब तुम घर जाओ। लो ये साग।”

    जीतू पहले ही भरी पड़ी थी। उसने झपट कर साग लिया और उल्टा उसके मुँह पर दे मारा। तमाम साग बिघर कर ज़मीन पर गिर पड़ा और दो-चार पत्ते तारो की छोटी-छोटी दाढ़ी में फँस कर रह गए। तारो मुँह से कुछ न बोला और झुक कर साग को चुनना शुरू’ कर दिया। जीतू जल्दी से बाहर निकल आई। तारो भी साग लिए पीछे-पीछे लपका। जीतू पानी की नाली फाँदने लगी, उसका एक पाँव ज़मीन में धँस गया क्योंकि ज़मीन नमी की वज्ह से नर्म हो रही थी। उसने पाँव बाहर खींच लिया लेकिन स्लीपर फंसा रह गया। तारो ने बढ़कर जल्दी से स्लीपर बाहर खींच लिया और कहने लगा, “तुम ठहरो मैं अभी धोए देता हूँ...”

    नाली के किनारे कपड़े धोने की सिल पड़ी थी। जीतू उस पर मुँह फुला कर बैठ गई और तारो पानी की धारा में पहले साग धोने लगा। वो अब कोई सुल्ह की गुफ़्तगू करना चाहता था। धीमी आवाज़ और अपनी दानिस्त में बहुत नर्म लहजे में कहना शुरू’ किया, “जीतू ये भैंस तो अब दो कौड़ी की नहीं रही। तीन सेर सिर्फ़ तीन सेर दूध देती है। भला ऐसी भैंस रखने से फ़ायदा...? एक भूरी भैंस मेरी नज़र में है। कम से कम सोलह सेर दूध देने वाली। दाम ज़ियादा हैं। मगर कुछ हर्ज नहीं। मुझे भैंस रखने का बहुत शौक़ है। मैंने एक सौ पचपन रुपये जमा’ किए हैं। बड़ी मुश्किल से, बहुत ही मुश्किल से। उस भैंस को ज़रूर ख़रीदूँगा। ऐसी मरियल भैंस रखने से क्या फ़ायदा? ऐसी भैंस...”

    तारो को अपनी बातें बिल्कुल मुहमल सी मा’लूम हो रही थीं। उसे इतना भी हौसला न पड़ता था कि नज़र उठा कर जीतू की तरफ़ देख ले। उसने साग धो कर एक तरफ़ रख दिया और अब टूटा हुआ स्लीपर धोने लगा। एक बात और सूझी। बोला, “और हाँ तुम दर्यामू को तो जानती ही हो। बहुत ही खोटा आदमी है। एक दिन क्या देखता हूँ कि चन्नन के कान ऐंठ रहा है। मैंने सबब पूछा तो कुछ डर गया। कहने लगा कि उसने खेत से एक ख़रबूज़ा चुराया था। मैंने चन्नन को उसके हाथ से छुड़ाया। बेचारा चिड़िया की तरह सहमा हुआ था और फिर मैंने दो धप दर्यामू की गर्दन पर दिए और कहा कि, “तू इतनी सी बात पर लौंडे को मारे डालता है। ख़बरदार जो इसे कभी हाथ भी लगाया तो... जानता नहीं चन्नन किसका भाई है?”

    ये कह कर तारो ख़ामोश हो गया और उसने चुपके से कनखियों से जीतू की तरफ़ देखा। मगर वो अभी तक मुँह फुलाए ख़ामोशी से अपने कबूतरों के से सफ़ेद-सफ़ेद पाँव को ठीकरी से रगड़-रगड़ कर धो रही थी। तारो उठा और स्लीपर उसके पाँव के पास रख दिए और साग उसकी झोली में डाल दिया। वो बे-नियाज़ी से उठी और इठलाती हुई चल दी। वो नज़दीकी रस्ता से जल्द-अज़-जल्द घर पहुँचना चाहती थी क्योंकि अब अँधेरा हो चला था। रस्ता ख़राब था। खेतों में पानी भरा था और मेंढ बहुत कम चौड़ी थी। जीतू ने स्लीपर हाथ में लेकर बजाए मेंढ के पानी से हो कर जाने की ठानी। तारो जल्दी से आगे बढ़ा और उसका बाज़ू थाम कर बोला, “तुम स्लीपर पहन कर मेंढ से चली चलो। क्योंकि पानी के अंदर काँटेदार झाड़ियाँ हैं... मैं तुम्हें सहारा दिए रहूँगा।”

    जीतू ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और कहने लगी, “तुम लोगों को शर्म नहीं आती। तुम लोग हर काम बुरी निय्यत से करते हो। मगर मैंने तहय्या कर लिया है कि अब तुम लोगों की इस क़िस्म की हरकात चुपके से बर्दाश्त न करूँगी।”

    ये “ख़राब निय्यत” के अल्फ़ाज़ सुनकर तारो ने अपनी सफ़ाई करना चाही। मगर जीतू चमक कर बोली, “और आज मैं तुम्हें ख़बरदार किए देती हूँ कि आइंदा मुझे हाथ लगाने की जुरअत हरगिज़ न करना वर्ना हाथ तोड़ दूँगी।”

    तारो ने पहले उसके नर्म-ओ-नाज़ुक नन्हे मुन्ने हाथों को देखा फिर अपने भारी भरकम, मैले-कुचैले और खुरदुरे हाथों पर नज़र डाली और तब उसके लबों पर तबस्सुम पैदा हुआ। जीतू को उसकी ये हरकत देखकर ज़हर सा चढ़ गया और उसने आव देखा ना ताव, तड़ाक से स्लीपर उसके मुँह पर दे मारा
    “जीतू!”, तारो म’अन शेर की तरह ग़ुस्से में गरजा। लेकिन फिर ना-मा’लूम क्या सोच कर ख़ामोश हो गया। कुछ देर के लिए दोनों तरफ़ सुकूत सा रहा। फिर जीतू बे-पर्वाई से शलवार उठा कर पानी में चल दी। स्लीपर की एक कील थोड़ी बाहर निकली हुई थी जिसकी वज्ह से तारो की पेशानी पर ख़राश आ गई और ख़ून बहने लगा। मगर वो ख़ून से बे-पर्वा जीतू के आगे-आगे चल रहा था। रास्ते में जो काँटेदार झाड़ी होती उसे अपने फावड़े के एक वार से उखाड़ कर जीतू का रास्ता साफ़ कर देता। जब ये पानी का रास्ता ख़त्म हो गया तो तारो ने बढ़ कर काँटेदार झाड़ी में से रास्ता बना दिया और ख़ुद ठहर गया। जीतू ने एक लम्हे के लिए उसके ख़ून से तर कुर्ते की तरफ़ देखा और फिर ख़ामोशी से घर की तरफ़ रवाना हो गई।
    तारीकी में उसने घर का दरवाज़ा खोला। एक तरफ़ चराग़ जल रहा था। बापू गंडासे से ज्वार काटने में मसरूफ़ था। चन्नन क़ैंची से काग़ज़ के फूल बनाने में मसरूफ़ था। जीतू अंदर दाख़िल हुई तो बापू ने एक दफ़ा’ सर उठाया और फिर झुक गया। चन्नन ने एक मर्तबा कहा, “बहन आ गई।” और फिर अपने काम में मशग़ूल हो गया। उसने कोने में से कपास की सूखी छड़ियाँ उठाईं और उन्हें तोड़ कर चूल्हे में रखा और ऊपर उपले रखकर आग जलाई, तब मिट्टी की हंडिया में साग पकने के लिए रख दिया। बापू आहिस्ता से बोला, “आज नंबरदार और सिपाही फिर आए थे।”

    वो सब कुछ समझ गई। उसके हाथ रुक गए। वो ‘आलम-ए-ख़याल में तारीकी की तरफ़ देखने लगी। उनकी बर्बादी और तबाही नाचती हुई दिखाई दे रही थी। जग-हँसाई इसके ‘इलावा थी। उसने सर्द आह भर कर सर झुका लिया और कुछ बेचैनी से उठी और आटा लेकर तनूर पर रोटी पकाने चली गई। रोटी खाते वक़्त बापू ने बताया कि सिपाही कहता था कि अगर परसों तक रुपये का इंतिज़ाम न हो सका गो घर की क़ुर्क़ी कर दी जाएगी। इंसान पर मुसीबत आती है तो एक नहीं बल्कि सैकड़ों मसाइब पै-दर-पै हमला-आवर हो कर इंसान को बेबस-ओ-लाचार बना देते हैं।

    आज गोया आख़िरी दिन था। बापू सुब्ह से बाहर गया हुआ दोपहर को घर वापिस आया। उसके उदास झुर्रियों और चेहरे से साफ़ ‘अयाँ था कि रुपये का बंद-ओ-बस्त न हो सका। जीतू की माँ का एक सोने का ज़ेवर बेचा था। कल बाईस रुपये जमा ‘हुए थे। बाक़ी एक सौ तीस कहाँ से आएँगे। घर के मवेशी बेचने से कुछ रुपया मिल सकता था मगर उन्हीं से तो रोज़ी थी। अगर वो बिक गए तो गोया दाल रोटी से भी गए। जीतू दोपहर का काम ख़त्म कर के घर से बाहर थोड़ी देर तक खुली हवा में खड़ी रही। नंबरदार अभी तक न आया था लेकिन उसे आना ज़रूर था और कल? कल तमाम दुनिया उनका तमाशा देखेगी।
    सामने से काली-घटा झूम कर उठी और आसमान पर छा गई। जीतू गुरूद्वारे की तरफ़ चल दी। ये छोटा सा गुरद्वारा गाँव से कम-ओ-बेश तीन फ़र्लांग के फ़ासले पर था। ‘इमारत पुरानी थी। दो-तीन कोठरियाँ मुसाफ़िरों के वास्ते बनी हुई थीं और साथ ही एक छोटा सा बाग़ था। गुरूद्वारे का काम एक परहेज़गार और पाक-बाज़ बुज़ुर्ग के सपुर्द था। जीतू के बापू की उनसे गाढ़ी छनती थी। ये बुज़ुर्ग जीतू को सिख गुरुओं की पाक ज़िंदगी के वाक़ि’आत, उनकी क़ुर्बानी और ईसार की कहानी सुनाया करते थे, जिससे जीतू के दिल को गूना तसल्ली होती थी। जब वो वहाँ पहुँची तो मा’लूम हुआ कि वो बुज़ुर्ग दूसरे गाँव में किसी काम की वज्ह से गए हैं। उसने कुँए पर अश्नान किया। किताब-ए-पाक के आगे सर झुकाया और बाबा नानक की दरगाह से रो-रो कर इस मुसीबत के टल जाने की दु’आएँ करती रही। फिर उसने चम्बेली के फूल चुने और चन्नन के लिए हार गूँधने लगी। क्योंकि आज सुब्ह उसने उससे हार का पक्का वा’दा किया था। इतने में बारिश शुरू’ हो गई। ख़ूब मूसलाधार हुई। आख़िर जब बारिश बंद हो गई और वो बुज़ुर्ग न आए तो जीतू ने हार अपने बालों के जूड़े से लपेटा और गाँव की तरफ़ चल दी।

    बादल अभी तक छाए हुए थे। रोशनी आहिस्ता-आहिस्ता कम हो रही थी। वो हनूज़ घर से काफ़ी दूर थी कि उसने देखा कि एक सिपाही और गाँव का नंबरदार उनके घर से बाहर आ रहे हैं। वो जहाँ थी वहीं खड़ी रह गई। उसके पाँव शल हो गए। आख़िर क्या हुआ होगा? कल... हाँ कल ढोल पिट जाएगा... वो आगे कुछ न सोच सकी। वो लड़खड़ाते हुए क़दमों से घर की तरफ़ जाने के बजाए और ही किसी तरफ़ चल दी। वो जानती थी कि इस वक़्त उसके बूढ़े दादा की क्या हालत हो रही होगी। मगर उसका हौसला न पड़ता था कि घर जाए। वो ‘अजब परेशानी में चलती गई कि ना-मा’लूम कितनी दूर तक... आख़िर उसकी टाँगों ने जवाब दे दिया और वो वहीं खेत के किनारे बैठ गई।

    हम दुख से इतना नहीं घबराते जितना कि दुख के तसव्वुर से। वो जानती थी कि इस तकलीफ़ का सामना उसे करना ही पड़ेगा। मगर वो चाहती थी कि तारीकी छा जाए और वो अँधेरे में सबकी नज़रों से बच कर चुपके से अपने घर में चली जाए। उसकी आँखों के सामने अपने घर की तस्वीर आ गई। जहाँ उसने बचपन से अब तक अपनी ज़िंदगी के दिन गुज़ारे थे और अब वो घर ग़ैरों का होने वाला था। तारीकियाँ छाने लगीं। आसमान पर इक्का-दुक्का तारा झिलमिलाने लगा। मवेशी वापिस गाँव को जा रहे थे। जोहड़ के किनारे पीले-पीले मेंढक टर्रा रहे थे। झाड़ियों में टिड्डे अपनी तेज़ आवाज़ से बोल रहे थे और गिध बेरों पर बैठे ऊँघ रहे थे।

    जीतू ने सर उठाया। सामने धुँदलके में तारो का कच्चा मकान और रहट नज़र आ रहा था। आज तारो का कुँआ देखकर जीतू पर एक कैफ़िय्यत सी तारी हो गई। पिछला वाक़ि’आ उसकी आँखों के सामने आ गया जब कि वो साग लेने गई थी। तारो की बद-मिज़ाजी, उसकी चूड़ी का टूटना, तारो का पछताना और उसे साग लाकर देना, उसका स्लीपर धोना फिर हाथ लगा देना, तब स्लीपर खाकर भी ज़ब्त करना, उसके रास्ते से काँटे साफ़ करना और उसकी पेशानी से लहू का बहना सब उसकी नज़रों के सामने फिर गया। वो सोचने लगी कि तारो में हज़ार ‘ऐब सही मगर दिल का बुरा नहीं और आज जब कि उसका दिल उमड़ा आता था वो चाहती थी कि कोई उसकी दास्तान-ए-ग़म सुने। अगर सुनने वाला हम-दर्दी के कलिमात भी कह दे तो उसके दिल को तसल्ली हो जाए मगर ऐसा हम-दर्द था कौन…

    तारो के कुँए पर उस वक़्त कैसा अम्न-ओ-सुकून था। इस वक़्त रहट की रूँ-रूँ और मवेशियों की घंटियों की टन-टन ने किया ‘अजब समाँ बाँध रखा था। शरींह के बुलंद दरख़्त हवा में झूम रहे थे। हरे-भरे खेत में सफ़ेद घोड़ी घास चर रही थी, गन्नों के खेत के पास कुत्ते खेल रहे थे। कभी दुम हवा में उठाकर ‘अजब अंदाज़ से चलते, कभी ग़ुर्रा कर एक दूसरे पर लपकते और फिर इकट्ठे हो कर नए खेल खेलने की तज्वीज़ें सोचने लगते।

    जीतू को ख़्वाह-मख़ाह यक़ीन होने लगा कि तारो उसका दुखड़ा ज़रूर हम-दर्दी से सुनेगा। ये सोच कर इस तरह से वक़्त भी कट जाएगा और उसके दिल का बार भी हल्का हो जाएगा, वो कुँए की तरफ़ चल दी। मदार के पेड़ों और काँटेदार झाड़ियों में से होती हुई वो कुँए पर पहुँच गई। हरी-हरी घास की सोंधी-सोंधी ख़ुश्बू आ रही थी। जीतू ने इधर-उधर तारो को देखा मगर वो नज़र न आया। वो दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी और कुछ ठिटकी। ठिटक कर बढ़ी और आहिस्ता से दस्तक दी।

    “कौन है?”, अंदर से तारो ने करख़्त और तहक्कुमाना अंदाज़ में पूछा। जीतू ख़ामोश रही।

    “अरे भई कौन है? चले आओ दरवाज़ा खुला हुआ है।”

    जीतू ने आहिस्ता से दरवाज़ा खोल दिया। तारो उसे देखते ही उछल पड़ा, “आओ जीतू तुम कैसे रस्ता भूल पड़ीं?”

    उससे कुछ जवाब न बन पड़ा। उसने तारो की तरफ़ जो कि पटरी पर बैठा गन्ना चूस रहा था, दबी नज़रों से देखा और आहिस्ता से बोली, “यूँही इधर आई थी। सोचा कि माँ से मिलती जाऊँ।”

    “माँ? माँ तो कुँए पर बहुत कम आती है। आती भी है तो दिन को। इस वक़्त घर पर ही रहती है।”
    वो जानती थी कि तारो की माँ कुँए पर नहीं रहती, गाँव में रहती है। ब-ज़ाहिर वो वापिस जाने के लिए लौटी तो तारो ने डरते-डरते पीढ़ी अपने तले से निकाल कर उसकी तरफ़ धकेल दिया और झिजकते हुए बोला, “जीतू अब आई हो तो बैठो... अगर तुम्हें जल्दी न हो तो बैठो। साग ले जाओ। चन्नन के लिए गन्ने लेती जाना। गन्ने बहुत मीठे हैं।”

    जीतू पीढ़ी लेकर तारीक कोने में बैठ गई। तारो शायद दिल में समझा होगा कि साग और गन्नों का दाव चल गया। तारो ने टाट पर बैठते हुए पूछा, “आज तो बारिश अच्छी हो गई। हवा मज़े की चल रही है... क्या तुम शर्बत पियोगी? बहुत ‘उम्दा गुड़ रखा है।”

    “नहीं, प्यास नहीं इस वक़्त।”

    “अच्छा कुछ हर्ज नहीं। तुम गुड़ घर ले जाना और कल को शर्बत बना कर देखना।”

    “अच्छा।”

    “मैंने चन्नन से कहा था कि गन्ने ले जाए, मगर वो आज तो आया नहीं। उसे यहाँ भेज दिया करो। रस्ता जानता ही है। रस (गन्नों का) पी जाया करेगा और ये हमारे पिछवाड़े पेड़ लगे हुए हैं, लाल-लाल बहुत मीठे। मैं तो इधर-उधर के छोकरों को तोड़ने नहीं देता। मैं कहता हूँ कि चन्नन आए तो खाए। आख़िर बच्चा है ना, उसे बेर बहुत भाते हैं। जब हम तो छोटे थे, याद है ना, हम भी तो बेर के खाने जाया करते थे।”

    “क्यों तारो तुम्हारे गन्ने तो ख़ूब हुए हैं अब के।”, जीतू ने बात का रुख़ बदल कर कहा।

    “हाँ सब “वाहेगुरू अकाल पुरख की कृपा है।”

    वो ख़ामोश रही।

    “कहो तो बाहर से गन्ना ला दूँ।”

    “नहीं तारो मेरा जी नहीं चाहता।”

    अब फिर कुछ देर के लिए ख़ामोशी रही। तारो उसकी ख़ामोशी का सबब जानना चाहता था। फिर बहुत एहतियात से कहने लगा, “जीतू... मुझे दर-अस्ल डर लगता है कुछ कहते हुए कहीं तुम ख़फ़ा न हो जाओ... आख़िर बताओ न तुम आज इस क़दर ख़ामोश क्यों हो? क्या कोई ख़ास बात है...?”

    ये हम-दर्दी का कलिमा सुनकर जीतू की आँखों में आँसू आ गए। मगर तारीकी की वज्ह से तारो उन्हें देख न सका। लेकिन वो अपनी भराई हुई आवाज़ को छुपा न सकी, “नहीं तारो... तुम्हें क्या बताऊँ...”
    तारो के चेहरे पर सख़्ती के आसार पैदा हो गए। आँखें ग़ुस्सा में चमकने लगीं। वो करख़्त आवाज़ में कड़क कर बोला, “फम्मन सिंह ने कोई हरकत तो नहीं की? बता दो जीतू वो देख सामने किरपान लटकी हुई है। मैंने आज ही तेज़ की है। मैं फम्मन की बाबत थोड़ा बहुत जानता हूँ। मगर अब उसकी मौत दूर नहीं। ये किरपान उसी का ख़ून पीने के लिए रखी है...”

    “नहीं तारो।”, जीतू हाथ उठा कर बोली, “ये बात नहीं। ये बात बिल्कुल नहीं... मैं बताती हूँ। तुमसे कुछ छिपा नहीं... अस्ल बात ये है कि...” दरवाज़ा आहिस्ता से खुला। तारो चीते की तरह चौकन्ना हो गया और उसका हाथ फ़ौरन पास पड़ी हुई कुल्हाड़ी पर जा पड़ा। जीतू ने चौंक कर दरवाज़े की तरफ़ देखा।
    “क्या मेरी बहन यहाँ है?”, चन्नन ने आहिस्ता से दरवाज़े में से सर निकाल कर तारो से पूछा। तारो ने इत्मीनान का साँस लिया और कुल्हाड़ी पीछे की तरफ़ सरका दी।

    “चाँद आ जाओ। मैं यहाँ हूँ।”, चन्नन दौड़ कर आया और अपनी बहन की गोद में चढ़ बैठा।

    “ढूँढ लिया न तुम्हें? मैं तुम्हें बहुत देर से ढूँढ रहा हूँ। फिर मैंने सोचा कि बहन ज़रूर हमारे लिए बेर लेने के लिए तारो के कुँए पर गई होगी।”

    जीतू उसकी पेशानी से बाल हटाते हुए बोली, “क्यों रे तुझे डर नहीं लगा अँधेरे में।”

    “नहीं।”

    तारो बोला, “वाह भला शेरों के बच्चों को भी कभी डर लगा है।”

    चन्नन ने तारो की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा, “अच्छा तुमने कहा था कि गन्ने देंगे। लाओ अब... मैं तो बहुत से लूँगा।”

    “आओ जितने चाहो ले लो।”

    “अच्छा, लाओ, दो।”

    ये कह कर वो गोदी से उतरने लगा। मगर फिर रुक गया, “ज़रा ठहरो, एक बात है तुम्हें नहीं बताएँगे फिर बहन के कान में कहने लगा, “बहन हमें एक पैसा दो। तुमने कहा था।”

    “घर पर लेना।”

    चन्नन शानों को हिला कर ज़िद से कहने लगा, “नहीं अभी दो।”

    “तुम बहुत अच्छे हो चन्नन।”, जीतू ने चुमकारते हुए कहा, “इस वक़्त नहीं।”

    “तो तारो से ले दो।”

    “उसके पास भी नहीं है।”

    “है क्यों नहीं... आज जब तुम बाहर चली गई थीं। तारो हमारे घर आया और बापू को उसने छन-छन करके बहुत से रुपये गिन दिए...”

    “चन्नन!”, जीतू हैरत से बोली। लेकिन चन्नन अपनी ही धुन में था, “मगर मैं तो कहता हूँ कि बापू ने बहुत बुरा किया। उसने शाम को सब रुपया नंबरदार को दे दिया...”

    जीतू की हैरानी की हद न रही, “मगर, ये तुमसे किसने कहा?”

    “किस ने कहा?”, चन्नन चीख़ कर बोला, “मैंने ख़ुद देखा। अच्छा बताओ अब मैं तारो से पैसे ले लूँ?”
    “तुमने ख़ुद देखा।”, ये कह कर वो ख़ामोशी से हवा में ताकने लगी। एक बड़े तूफ़ान और आँधी के बा’द गोया यकायक बादल फट गए, हवा ख़ामोश हो गई और हर तरफ़ बिल्कुल अम्न-ओ-सुकून हो गया। उसके दिमाग़ की परेशानियाँ दूर हो गईं। उसके दिल पर से एक बोझ सा हट गया। इस महवियत के ‘आलम में उसे मा’लूम ही नहीं हुआ कि कब चन्नन ने तारो से पैसा लिया और कब वो कुँए पर से गन्ने लेने के लिए बाहर दौड़ गया और कब तारो अपनी जगह से उठकर भैंस के पास जा खड़ा हुआ। इस राहत-आमेज़ महवियत में जीतू को तारो का ख़याल आया, वही दुनिया में उसका सच्चा हम-दर्द था। किस क़दर नेक। इतनी देर बातें करने के बावुजूद उसने उन रूपयों का इशारतन भी ज़िक्र नहीं किया। वो रुपये उसने किस क़दर मुसीबतों से जमा’ किए थे। मगर उसने अपनी ज़ाती ख़्वाहिश पर उसकी ज़रूरत को तरजीह दी।

    तारो का ख़याल आते ही उसकी सूरत उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई। जब उसने उससे कहा था कि वो हर काम ख़राब निय्यत से करता है। ये कैसे बे-मा’नी और ख़ुद-ग़रज़ाना अल्फ़ाज़ थे। वो उसकी ज़ख़्मी पेशानी, वो बहता हुआ ख़ून, वो उसका ज़ब्त-ओ-तहम्मुल। जीतू चौंकी और उसकी आँखें तारो को ढूँढने लगीं जो कि उसकी तरफ़ पुश्त किए भैंस के पास खड़ा था। जीतू उसके पास जा कर आहिस्ता से बोली, “तारो!”

    वो ख़ामोश रहा।

    “मेरी तरफ़ देखो तारो।”

    तारो ने देखा कि जीतू की बड़ी-बड़ी सुर्मगीं आँखों में आँसू डबडबा रहे हैं। वो अपनी भारी आवाज़ में बोला, “रोती क्यों हो जीतू। मैं तो हर वक़्त इसी कोशिश में रहता हूँ कि तुम्हारे काम आ सकूँ, मुझे उस दिन की अपनी हरकत पर बहुत अफ़सोस है।”

    जीतू ने आहिस्ता से अपना हाथ उसकी पेशानी पर रख दिया जिस जगह कि उसके कम्बख़्त हाथों ने स्लीपर मारा था। फिर धीरे से कहने लगी, “तारो अब मैं जाती हूँ। मैं फिर आऊँगी, अब तुम आराम करो, हाँ। मैं फिर आऊँगी।”

    ये कह कर वो वापिस पीढ़ी के पास आई और स्लीपर पहन कर लौटी तो देखा कि तारो रास्ता रोके दरवाज़े के आगे खड़ा है। वो मुस्कुरा कर अपने करख़्त लहजा में बोला, “जीतू आज फिर मेरी निय्यत ख़राब हो रही है। आज फिर सज़ा दे दो।”

    जीतू ने झेंप कर एक उचटती हुई निगाह तारो पर डाली, फिर जिस्म चुराती हुई उसकी तरफ़ बढ़ी, अपने जोड़े से चम्बेली का हार खोला और कुछ मुस्कुरा कर, कुछ लजा कर वो हार उसके गले में डाल दिया। तारो ने रास्ते से हट कर दरवाज़ा खोल दिया।

    आगे चन्नन गन्ने लिए भागा आ रहा था। जीतू ने गन्ने थाम लिए और उसे गोद में उठा लिया। गोबर और कीचड़ से पाँव बचाती हुई चल दी। चन्नन उसके गले के गर्द बाहें हमाइल कर के कहने लगा, “बहन, तारो मुझे बहुत अच्छा लगता है। तुम्हें कैसा लगता है।”, जीतू दिल ही दिल में शर्मा गई। उसने इधर-उधर देखकर कि कोई सुन तो नहीं रहा, जवाब दिया, “हाँ चन्नन तारो मुझे भी... तारो बहुत अच्छा आदमी है।”

    जीतू को अब भी तारो के गाने की भारी और बे-सुरी आवाज़ सुनाई दे रही थी।

    निक्का घड़ा चक लच्छिए तेरे लक नूँ जरब न आवे
    निक्का खड़ा चक लच्छिए


    हाशिया
    (1) ऐ दोशीज़ा तू छोटा घड़ा उठाया कर। मुझे ख़ौफ़ है कि तेरी नाज़ुक कमर में बल न आ जाए।

     

    स्रोत:

    Balwant Singh Ke Behtareen Afsane (Pg. 125)

      • प्रकाशक: साहित्य अकादमी, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1995

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