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ऐ रूद-ए-मूसा

वाजिदा तबस्सुम

ऐ रूद-ए-मूसा

वाजिदा तबस्सुम

MORE BYवाजिदा तबस्सुम

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसी ख़ुद्दार लड़की की कहानी है, जो दुनिया की ठोकरों में रुलती हुई वेश्या बन जाती है। विभाजन के दौरान हुए दंगों में उसके बाप के मारे जाने के बाद उसकी और उसकी माँ की ज़िम्मेदारी उसके भाई के सिर आ गई थी। एक रोज़ वह बहन के साथ अपने बॉस से मिलने गया था तो उन्होंने उससे उसका हाथ माँग लिया था। मगर अगले रोज़ बॉस के बाप ने भी उससे शादी करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी। उसने उस ख़्वाहिश को ठुकरा दिया था और घर से निकल भागी।

    तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे होना?

    सत्रह साल की उम्र में मैं ख़ूबसूरती का मुकम्मल नमूना थी। मेरा जिस्म मुतनासिब था, क़द लम्बा-लम्बा हाथ-पाँव संदलीं। आँखें शराब के प्याले। रंगत ऐसी जैसे किसी ने मैदा, गुलाबी पानी से गूँध कर रख दिया हो। तुम अगर उसे ख़ुद सताई कहो तो मैं ये कहने की जुर्रत करूँ कि मैंने दुनिया में ख़ुद से ज़्यादा हसीन शक्ल देखी और मेरे इस हुस्न का मोल भी बहुत ऊँचा था।

    मेरी मंगनी शहर के एक बहुत बड़े रईस के विलायत पलट लड़के से हो चुकी थी और इसीलिए भाई मियाँ मुझे बड़ी सरगर्मी से छुरी काँटे से खाना खाना सिखा रहे थे। कभी-कभी मैं काँटा ज़बान में चुभा लेती।

    या छुरी इस बेदर्दी से डबल रोटी पर ललचाती कि मेरी उंगली कट जाती। और नतीजे में भाई जान मेरे सर पर एक आध धौल जड़ देते। उन्होंने हज़ार बार बड़े प्यार से समझाया था कि काँटे में अटके रोटी या गोश्त के टुकड़े को दाँतों की मदद से बड़ी आहिस्तगी से ज़बान पर उतार लेना चाहिए। मगर मैं अक्सर काँटा इस अंदाज़ से मुँह में रखती कि ज़बान में चुभ-चुभ जाता। मगर काँटे की ये चुभन भी भली लगती। ये सब कुछ मैं अपनी नई ज़िंदगी में दाख़िल होने के लिए ही तो सीख रही थी ना?

    जब भाई मियाँ मुझे खाना सिखा रहे होते, दालान में अम्मां बैठी ख़ुशमगीं निगाहों से मुझे घूरते जातीं। जिस घराने में मेरी बात लगी हुई थी, वो घराना बड़ा फ़ारवर्ड था, वहाँ के सारे तौर-तरीक़े बिल्कुल अंग्रेज़ों के से थे, अम्मां डरती थीं कि मैंने अपनी नादानी की वजह से अगर कोई लट पलट बात कर दी तो अच्छा रिश्ता हाथों से निकल जाएगा। विलायत पलट लड़के कोई रोज़-रोज़ मिलते हैं जी? (तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे होना?)

    मैं सोचती अम्मां के ख़दशे भी बे-बुनियाद तो नहीं हैं। काँच के नाज़ुक और ख़ूबसूरत खिलौने को कोई ठोकर मार दे तो क्या अंजाम होता है? (वतन में हमारी ज़िंदगी भी तो ऐसी ही नाज़ुक-नाज़ुक ख़ूबसूरत काँच के खिलौने ऐसी थी) वक़्त की मज़बूत ठोकर पड़ी और खिलौना चकनाचूर था। पुरानी ज़िंदगी की याद को लेकर अब करना भी क्या था। वो सारी ख़ुशियाँ और वलवले तो सर्द पड़ गए थे। अब तो पेट की आग थी और कुछ नहीं। जिसे किसी किसी सूरत बुझाना था। अबा रास्ते में बलवाइयों के हाथों मारे गए और लुट लुटा कर मैं, अम्मां और भाई मियाँ किसी किसी तरह बच निकले। उन दिनों में किस क़दर ज़रा सी थी? फूल की तरह ताज़ा। काँच की तरह नाज़ुक। अम्मां मुझे इस तरह बचा बचा कर लाई थीं जैसे मुर्ग़ी, चील को मँडलाते देख अपने परों में अपने बच्चे को छुपा-छुपा लेती है। मैं अम्मां के परों में दबी धँसी, पता नहीं किन-किन रास्तों से गुज़र जाती थी। रास्ते में कभी कभार आँखें खोल कर ज़रा सर उठा कर रेल की खिड़की से बाहर झाँकती तो रात का पुर असरार अंधेरा और सन्नाटा जो कि मेरी रूह सल्ब किए लेता। मैं घबरा कर फिर आँखें मूँध लेती।

    ज़िंदगी का पहला सफ़र उन्ही अंधेरों में कटा। शायद इस दुनिया का यही दस्तूर है कि जो उजालों की चाह करते हैं उन्हीं को अँधेरे मिलते हैं। अपने पीछे हम कैसी ज़िंदगी छोड़ आए थे? भरा पुरा घर। हँसता झूमता वो बाग़। पोर्टिको में अभी-अभी आकर खड़ी हुई कार। वो नीले रंग के पर्दों वाला ड्राइंग रूम। और... और...

    हम आगे बढ़ आए, ज़िंदगी वहीं रह गई। मैंने अपनी किताबें कापियाँ जो मेज़ पर खोल रखी थीं शायद अभी तक खुली पड़ी हों। मेज़ के किनारे मैंने दवात का ढकना रख दिया था। कौन जाने वो वहीं पड़ा हो। अलजब्रा का एक सवाल मैंने अभी पूरा हल भी नहीं किया था। सुनहरी-सुनहरी रौशनी वहीं खो गई। शायद वो दवात लुढ़क गई थी। तभी तो सारे में सियाही फैल गई थी। रात की तरह तारीक और डरावनी। फिर सब कुछ उस सियाही, उस तारीकी में डूब गया, मिट गया, फ़ना हो गया और हम धीरे-धीरे चोरों की तरह अपने ही घर से यूँ निकल आए कि पीछे पलट कर देख भी सके। मैं तो पूछती हूँ इतने दिन गुज़रने पर भी ये दुख जी से क्यों नहीं जाता। माह-ओ-साल के कंधों पर रखा हुआ ये बोझ हल्का क्यों नहीं होता। क्यों नहीं होता? बोलो, बोलो,ना। मगर नहीं, मुझे इस तरह जज़्बाती नहीं होना चाहिए। मुझे आज तुमसे कोई सवाल नहीं करना है। बस तुम्हें सब कुछ सुनाना है। जी का ये बोझ किसी तरह तो हल्का पड़े। दिल का ये दुखड़ा कोई तो सुने। मेरे ग़म से भरे दिल को एक हल्की सी मसर्रत तो मिल जाए कि कोई तो था जिसने मेरा ग़म बाँटा। तुम्हारा ये पुर सुकून अंदाज़। तुम्हारी ख़ामोशी बता रही है कि वाक़ई तुम ग़ौर से मेरी बातें सुन रहे हो ना?

    मैं उलझे हुए धागों में सिरा तलाश करते-करते भटक जाती हूँ। भूल जाती हूँ कि मैं क्या कह रही थी। इतनी सारी बातें इकदम से ज़बान की नोक पर आकर मचलने लगें तो कैसे कोई राह भूले? कैसे मैं सिरा खो दूँ?

    हमने इस दयार-ए-ग़ैर में क़दम रखा तो कोई आसरा था। कोई सहारा था। भाई मियाँ अपनी अधूरी तालीम मुकम्मल करना चाहते थे, मगर कोई ज़रिया कोई आसरा था। वो डॉक्टर बनने के ख़्वाब देखते थे मगर सिर्फ़ एफ़ एस सी पर कर उनकी गाड़ी रुक गई। मैंने ज़िंदगी के जो सुहाने ख़्वाब बुने थे, सब जहाँ के तहाँ रह गए। भाई मियाँ जूतियाँ चटख़ाते सारे शहर की ख़ाक छाना करते कि कहीं से चार पैसे का आसरा मिल जाए और उधर मैं और अम्मां एक तंग तारीक से मकान में। (ऐसा मकान, जिसे मकान कहने को भी जी नहीं चाहता) ज़िंदगी की धूप छाँव के रंग देखा करतीं। क्या तुम समझते हो वीराने में खिलने वाली कली कभी फूल नहीं बनती? मैं उसी वीराने में कली से फूल बनने लगी। और सच जानो एक दिन उसी अँधियारे कमरे की दीवारों ने पहली बार चाँद की किरनों का सामना किया।

    भाई मियाँ को चालीस रूपये माहाना की बहुत बढ़िया सी मुलाज़मत मिल चुकी थी। जहाँ वो दिन भर मग़ज़पाशी करते और शाम को यूँ लौटते जैसे अभी-अभी मर जाएंगे। काश मर ही जाते। ज़मीन की छाती पर का बोझ कुछ तो कम होता। मगर ये सुनो कि हममें से कभी कोई मरा। दुनिया में ग़रीबों के लिए जीने की तो राह ही नहीं है। मगर मरने की भी कोई राह नहीं है। कोई क्या जिए कोई क्या मरे?

    माफ़ करना, तुम पता नहीं हमारे मुतअल्लिक़ क्या सोचो, मगर ये बात मैं सुनाए बग़ैर नहीं रहूँगी कि इन हालात के बावजूद मेरा इस क़दर आली घराना में रिश्ता तै पा जाना, किस वजह से था। वो महज़ एक सूट था। हाँ, हाँ ऊनी सूट। ग्रे कलर का। भले ही तुम उसे बुरा कह लो, मगर मैं नहीं कहूँगी। अगर आदमी को खाने को मिले, पहनने को मिले तो मैं समझती हूँ उसे हर ऐब को हुनर समझना चाहिए। भाई मियाँ कई दिनों से एक जोड़े पर गुज़ारा कर रहे थे। चालीस रूपये में क्या हो सकता है? शायद ये बात तुम्हारी समझ में आसके। मगर हम तो समझ सकते हैं ना। उस दिन चिकनी, काली, लम्बी, सड़क पर, जबकि कोई मोटर, साइकल, बस थी, अकेले भाई मियाँ चलते चले रहे थे और उनके आगे एक ख़ुश पोश नौजवान। (ओह, ज़रा सोचो। ग़रीबी किस क़दर बड़ी मुअल्लिम है) भाई मियाँ ने जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाए और पीछे से इस ख़ुश पोश की गर्दन पर एक धौल जमाई। भाई मियाँ ऐसे कोई ज़ालिम तो थे कि उसे जान से मारने के बारे में सोचते। वो तो महज़ अपनी ज़रूरत पूरी करना चाहते थे। थोड़ी देर बाद जब भाई मियाँ उसी तमकनत और भ्रम से सड़क पर चल रहे थे तो उनके जिस्म पर वो क़ीमती ग्रे कलर का सूट था और उस ख़ुश पोश नौजवान के जिस्म पर चिथड़े लटक रहे थे।

    हाँ तब मैंने जाना कि लिबास क़िस्मतें बदल दिया करता है। बदल सकता है। देखो हम लोग ग़रीब ज़रूर हैं। मगर अपना ऐब नहीं छुपाते। सच्चाई में जीत है ना। बस इसीलिए। रात को भाई मियाँ ने बड़े फ़ख़्र से बताया कि किस तरह पलक झपकते में एक क़ीमती सूट के मालिक बन बैठे थे। उस रात हम दोनों कितनी देर तक हँसते रहे थे। उफ़! पूछो मत। कैसी, ख़ुशी थी कि बस हँसी रुकती थी।

    दूसरे दिन वही सूट पहन कर भाई मियाँ अपनी सर्विस गए थे। अपनी मेज़ पर झुके क़लम चला रहे थे तो उनका बास उनके पास खड़ा हुआ। पहले तो वो सर से पाँव तक उनको देखता रहा, देखता रहा। फिर यूँ घूम फिर कर उनके गिर्द फेरे डाले जैसे कोई क़ुर्बानी के लिए बकरा ख़रीदना चाहता हो। देख लेना चाहता हो कि कोई कमी तो नहीं है। कन कटा तो नहीं है। लँगड़ा तो नहीं है। बीमार तो नहीं है। भाई मियाँ ने सर उठा कर देखा और घबरा कर सर झुका लिया।

    आजकल तो ये कपड़ा मिलता ही नहीं। कहाँ से ख़रीदा मिस्टर। वो बहुत सादगी से पूछ रहा था।

    जी, जी, जी। भाई मियाँ हकला कर बोले। अगर आपको यूँही भला लगता है तो ले लीजिए ना। ऐसी कौन जागीर चली जाएगी मेरी।

    बास मुस्कुरा कर रह गया।

    घर कर पूरी रूदाद भाई मियाँ ने मुझे बताई और ये भी कहा कि इस अहम फ़र्ज़ को मैं ही अंजाम दूँ कि उनके पास तक ये सूट पहुंचा दूँ। (उस लम्हा उनके चेहरे पर चराग़ सा जल रहा था। उम्मीद का ही होगा।

    पहले तो बड़ी देर तक हील हुज्जत होती रही कि मेरा जाना मुनासिब होगा भी या नहीं। और जब ये तै हो गया तो ये मसअला उठ खड़ा हुआ कि मैं इतने बड़े बँगले पर जाऊँगी तो सही मगर पहनूँगी क्या?

    तुम यूँ लम्बे-लम्बे साँस क्यों ले रहे हो? तरल, तरल, तरल। शायद ये सोच रहे हो कि आगे मैं क्या कहूँगी। हाँ शायद तुम यक़ीन करो कि ज़िंदगी क्या थी, कैसी थी। किस कमबख़्त के पास ख़ुशी थी? आँसू ही आँसू तो थे जो हर मौक़े पर बरस-बरस कर अंधेरों में उजाले पैदा करते थे। ख़ैर, उस इकलौती सफ़ेद साड़ी को जो अम्मां ने पता नहीं किस ख़्याल से सैंत कर रखी थी मैंने अपने जिस्म के गिर्द लपेटा। और तुम एक लम्हे को तो सोचो कि उस सफ़ेद लिबास में क्या क़यामत ढा रही हूँगी? यह गाल इस वक़्त मुरझा कर ज़र्द पड़ गए हैं तो क्या हुआ? ये लम्बे-लम्बे बाल अब धूल से अट गए हैं तो क्या हुआ। ये संदलीं बाज़ू और खिलता जिस्म अब निढाल-निढाल हो गया है तो क्या हुआ। तब तो मैं ऐसी थी। मैं तो शबनम में नहाया हुआ ताज़ा फूल थी। जिसकी पंखुड़ी पंखुड़ी से रस निथरता था।

    हुस्न अपनी क़ीमत अपनी बोली उठवाने चला था।

    भाई मियाँ ने फाटक को ज़रा-सा धक्का दिया। और एक बड़े-बड़े बालों वाले पीले रंग के कुत्ते ने भौंक-भौंक कर हमारा इस्तक़बाल क्या। भाई मियाँ तो मसलहतन बाहर जाकर छुप गए और मैं वहीं काग़ज़ में तह शुदा सूट सँभाले सहमी सहमी खड़ी रह गई। कुत्ते की आवाज़ सुन कर पहले तो चपरासी और फिर एक ख़ूबसूरत सा जवान आदमी बाहर निकल आया।

    अब मैं तुमसे ये बताऊँगी कि कितने लम्हे यूँही गुज़र गए थे। नहीं, एक लम्हा भी नहीं गुज़रा था। नहीं-नहीं। शायद मैं भूल गई हूँ। मुझे तो कुछ ऐसा याद पड़ता है कि सारी उम्र गुज़र गई थी। एक सदी से कम क्या गुज़री होगी। नहीं शायद वक़्त ठिठक कर यूँही साकित हो गया था, वक़्त तो मगर कभी नहीं रुकता ना? तो शायद मैं ही भूल रही हूँ।

    फिर मैं एक बहुत सजे सजाए ड्राइंग रूम में थी। हमारे दिल्ली वाले ड्राइंग रूम से भी बढ़-चढ़ कर सजा सजाया। तुम क्या समझते हो मैं अपना माज़ी भूल गई हूँ। भूल सकती हूँ अरे तौबा करो। औरत के चार आँखें होती हैं। दो चेहरे पर, दो पीठ पर। चेहरे पर की आँखें तो सभों को नज़र आती हैं। मगर वो जो पीठ पर होती हैं वो कोई नहीं देख सकता। सिर्फ़ औरत उन्हें महसूस करती है और इनसे माज़ी को देखती रहती है। पूजती रहती है। मर्द की निगाह मुस्तक़बिल पर होती है। और औरत माज़ी को देखती है पलट-पलट कर, मुड़-मुड़ कर बढ़ती है। मैं कैसे अपना माज़ी भूल जाती। बच्चा थी तो क्या हुआ, औरत तो थी।

    मैं सहमे हुए परिंदे की तरह सोफ़े के कोने में दुबकी बैठी थी और वो बच्चों की तरह मुझसे बर्ताव कर रहे थे। ये लो, वो लो। ये खाओ, वो चखो।

    इतने में दरवाज़े का परदा हटा और भाई मियाँ दाख़िल हुए। अपने अज़ली और इकलौते जोड़े में मलबूस। मैंने ज़रा तंज़ से बास की तरफ़ देखा।देख ली हमारी हक़ीक़त।

    मेरी निगाहें यही कुछ कह रही होंगी। इसका मुझे यक़ीन है। क्यों उसी लम्हा मेरी निगाहों को पढ़ कर उन्होंने फ़ौरन भाई मियाँ से कहा था।

    जमील साहब, बात बेढब और अचानक ही कह रहा हूँ। मगर आप अपनी बहन को मेरी दुल्हन बनाना पसंद करेंगे।

    वो बास थे और भाई मियाँ उनके मातहत। शायद कोई और मौक़ा होता, कोई दूसरा मुख़ातिब होता, तो उनके लहजे में इतनी बेतकल्लुफ़ी और अंदाज़ गुफ़्तगू इतना साफ़-साफ़ होता। मगर भाई मियाँ तो पाताल में थे।

    भाई मियाँ इस क़दर सरासीमा, इस क़दर हैरत ज़दा, इस क़दर परेशान से रह गए कि मुँह से कुछ निकला ही नहीं। बड़ी देर बाद वो बोलने पर आए तो फिर बोलते ही चले गए। और हमारी ज़िंदगी की कोई बात ऐसी थी, जो उन्होंने सुना दी हो।

    मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ। वो सिगार को मेज़ पर थपक-थपक कर इतना ही कहे जा रहे थे।

    आप जानते हैं ना, हम कितने ग़रीब हैं। आपको मालूम होगा ना कि मेरी बहन सिर्फ़ सातवीं क्लास पास है। आप तो ये भी जानते होंगे कि हमारे पास रहने को ढंग का मकान भी नहीं है, पहनने को कपड़े भी नहीं, सोने को बिस्तर भी नहीं। और...

    और। उन्होंने बात काट दी, और आप जानते हैं कि मैं एक नवाब बाप का बेटा हूँ। अपना एक ज़ाती बिज़नेस चलाए हुए हूँ, इतनी बड़ी दौलत का मालिक हूँ इतने बड़े बँगले में तन्हा रहता हूँ और तन्हा हक़दार हूँ। और आप ये भी जानते हैं कि मैं महज़ सिर के तौर पर हज़ारों रूपये ख़र्च करके लंदन हो आया हूँ। और आप ये भी जान रहे हैं कि मैं आपसे आपकी बहन का हाथ मांग रहा हूँ। और ये भी सुना दूँ, मैं पागल नहीं हूँ। आपसे मज़ाक़ भी नहीं कर रहा हूँ। आपको धोका भी नहीं दे रहा हूँ। आपकी बहन से बाक़ायदा शादी करूंगा। वो रुके। आगे बढ़े। मेरे क़रीब कर ठिठक गए और मेरा चेहरा ऊपर उठा कर बोले।

    ये इंसान नहीं, परी है। और मैं बहुत हुस्न परस्त वाक़े हुआ हूँ जमील। और वो उम्मीद भरी निगाहों से भाई मियाँ को देखने लगे।

    तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे होना?

    एक इंसान, ख़ुदा बन कर हमारी ज़िंदगी में आया और हम पर आसमान बन कर छा गया।

    ज़िंदगी किस क़दर हसीन थी। कितनी प्यारी। मगर, मगर क्या अंजाम भी उतना ही हसीन, उतना ही ख़ुशगवार, उतना ही प्यारा हो सकता था?

    तुम बेचैन हो रहे हो। हाँ तुम्हारी साकिन सतह पर ये कैसी हलचल है। क्या मेरी बातों से तुम्हारे दिल में भी दुख की लहरें पैदा हो रही हैं? रूद-ए-मूसा। ठहर जा, थम जा। मेरी बातें सुन ले। मेरे दिल का दर्द अपने दिल में भरले। मैं इस दर्द को अपने साथ ले जाना नहीं चाहती। नहीं ले जाना चाहती। आज अपनी ज़िंदगी की ख़ुशियों और मसर्रतों का हिसाब लेकर मैं तेरे पास आई हूँ। सुन ले मेरी दास्तान। सुन ले, सुन ले।

    ज़िंदगी पर छाए ग़म के गहरे बादल जैसे इकदम छुट कर रह गए। ज़िंदगी में सुकून और मसर्रत गई। ये ऐसी ख़ुशी थी जिसके बारे में सोचा भी जा सकता था। अम्मां मेरे लिए कितनी परेशान रहा करती थीं। ग़रीबी और हुस्न जहाँ एक जगह हो जाएं। वहाँ आपही आप एक चकला खुल जाता है। जवानी बहारें लुटाती आती है। और फिर किसी सहारे की ज़रूरत बाक़ी नहीं रह जाएगी। अब नाला-ए-मुश्क की तरह मेरी ख़ुशबू घर से बाहर निकल कर फैल रही थी। ज़िंदगी जिस राह पर जा रही थी। उसे देखते हुए इसके सिवा और सोचा भी क्या जा सकता था? मगर बिल्कुल इस तरह, जैसे काली रात में अचानक बिजली चमक जाए। उसी अंदाज़ से ज़िया मेरी ज़िंदगी में दाख़िल हो गया।

    भाई मियाँ मुझे सर पर धौल धप्पे जड़-जड़ कर छुरी काँटे से खाना सिखाने लगे और अम्मां मुझे रह-रह कर घूरने लगीं कि मैं ये रिश्ता खो बैठूँ।

    मूसा के गहरे पानियो, बेताब लहरो, ज़रा मेरे दिल में आकर झाँको। मूसा, तेरी ज़िंदगी तो उसी हैदराबादी में गुज़री है, यहाँ के चप्पे-चप्पे से तेरी शनासाई होगी। यहाँ की ज़िंदगी का हर-हर राज़ तेरे सीने में दफ़न होगा। मुझे ये तो बता यहाँ ऐसा भी होता है कि बाप, बेटियों के दिलों का ख़ून भी कर दें। दौलत के बल पर अपनी बूढ़ी रगों के लिए ताज़ा ख़ून ख़रीद लें। क्या यहाँ पैसा ही सब कुछ है। क्या नेकी सच्चाई और प्यार का कोई मोल नहीं। कोई क़ीमत नहीं? मैं इन उथल-पुथल लहरों से जवाब माँगती हूँ। बोलो, बोलो, मगर नहीं। मुझे आज कोई सवाल करना नहीं है। मुझे तो आज सिर्फ़ अपनी दास्तान सुनानी है ये दुख, ये कर्ब, ये ग़म, मैं अपने सीने में नहीं ले जाना चाहती। मैं फूल की तरह हल्की हो जाना चाहती हूँ।

    इस दिन मैं और भाई मियाँ ज़िया साहब के ड्राइंग रूम में बैठे हुए थे। वो ख़ुद कहीं बाहर गए हुए थे। बारिश ज़ोर-शोर से हो रही थी और मैंने सर्दी से बचने को अपनी साड़ी का आंचल अपने कानों और सर के गिर्द लपेट लिया था। बैठे-बैठे भाई मियाँ ने मुझे देखा और यूँही हँस कर कहा,मेहर! ख़ुदा की क़सम तू ख़तरनाक हद तक हसीन है। कोई हैरत की बात नहीं जो ज़िया साहब ने तुझे मांग लिया। मुझे तो फ़रिश्तों के बारे में भी शक करना पड़ेगा।

    मैंने ज़रा झेंप कर सर झुका लिया। मगर दूसरे ही लम्हे मुझे फिर से सर उठाना पड़ा क्योंकि धड़ से दरवाज़ा खुला और...

    हम दोनों घबरा कर उठ खड़े हुए। वो ज़िया साहब नहीं थे, कोई और था। आने वाले की निगाहें जैसे मुझपर जम कर रह गईं। और ख़ुद मैं भी घबरा कर भाई मियाँ को देखती थी कभी आने वाले को।

    आपकी तारीफ़? आख़िर आने वाले ने भाई मियाँ से मुख़ातिब हो कर ज़बान खोली।

    जी मैं जमील हूँ, ज़िया साहब मेरे बास हैं, और ये... ये मेरी बहन,मेहर।

    सचमुच मेहर। वो मुँह ही मुँह में बड़बड़ाया और बोला,और मैं ज़िया का वालिद हूँ नवाब आसिफ़ उददौला। नाम तो सुना होगा मेरा? वो मुस्कुरा कर मेरी तरफ़ घूमा,हैदराबाद में जितनी कोठियां मेरी हैं, उतनी शायद ही किसीने बनवाई हों। और फिर कोठियों की क्या बात है, बिज़नेस वग़ैरा भी चलते ही रहते हैं। और ज़िया मियाँ को जो काम मैंने सौंपा है वो भी बस... वो ख़ुद ही मुस्कुरा कर रुक गया। मगर हम दोनों में से कोई मुस्कुरा सका। पहली मुलाक़ात में आते ही ऐसी बे-सर पैर की हाँकना। कुछ अजीब-सा लग रहा था। यक़ीन नहीं आता था कि ये सब कुछ सच भी हो सकता है। इतने अजीब अंदाज़ में तो कोई अपने मुतअल्लिक़ नहीं बताता और हद ये कि किसीने झूटों भी पूछा था। फिर वो कहे गया।

    जब कभी अपने बेटे से मिलने आता हूँ तो बस यूँही अट छट कर चला आता हूँ। नौकरों और मुसाहिबों के जमघटे में बाहर निकलना मुझे मुतलक़ पसंद नहीं। कार भी ख़ुद ड्राइव करता आया हूँ। पूरे साठ हज़ार की है।

    यक़ीनन यह शख़्स पागल है। मैंने दिल ही दिल में सोचा। मगर उसे देख कर मैं इस क़दर सहम गई थी कि कुछ कही सकी।

    तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे होना? ज़रा दिल लगा कर सुनो ख़ुदा की बनाई ये दुनिया कैसी है, यहाँ बसने वाले कैसे हैं। तो तुम जानना चाहोगे ना कि फिर आख़िर हुआ क्या। सुनो इस बुड्ढे ने मुझे भाई मियाँ से मांग लिया।

    तरल, तरल, तरल, ये तुम्हारे सीने में बेचैनी कैसी? शायद तुम्हें हैरत हो रही है। मगर आएं हैरत की कौन-सी बात है मेरे शफ़ीक़ और मेहरबान दोस्त। ये तो दुनिया है, यहाँ तो ऐसा होता ही है। और जब भाई मियाँ ने इनकार किया तो वो सांप फन फना उठा। उसके हरम में शायद मुझ ऐसी बेबस रूह की ही कमी थी। जो मुझपर हर-हर हर्बा आज़माने पर तुल गया था और फिर इंसान ने इंसान के साथ शैतान की सी चाल चली।

    रूपया, रूपया, रूपया। इस दुनिया में रूपया क्या नहीं कर सकता? क्या नहीं कर सकता। मोहब्बत की बोली लगवा सकता है, प्यार का नीलाम करवा सकता है। बहन की मोहब्बत बिकवा सकता है। तुम जानो दस हज़ार रूपये मामूली चीज़ तो नहीं होते। भाई मियाँ ने मुझे बहकाना शुरू किया, मेहरू, तू ये सोच ज़िंदगी भर रूपों पर चलेगी। ज़िया जो इतना अमीर है तो नवाब साहब की गर्द को भी नहीं पहुँचता। नवाब साहब आसमान हैं वो पाताल है। तू तो मल्लिका बन कर राज रजेगी। हाँ देख इनकार करना।

    मैं कभी ग़ुस्से को छुपा कर उनकी तरफ़ देखती तो वो मेरी सुर्ख़ रंगत को शर्म पर महमूल करते। कैसी बेबसी थी? ज़रा सोचो ना।

    मैं यहाँ भाई मियाँ को इल्ज़ाम नहीं दूँगी। क्यों दूँ? ज़िंदगी से ख़ुशियाँ समेटने का हक़ हर इंसान को मिलना चाहिए। नहीं मिलता तो फिर वो टेढ़े मेढ़े रास्ते पर चलना शुरू कर देता है। भाई मियाँ ने अब तक कैसी ज़िंदगी गुज़ारी थी? ज़िया ने सिर्फ़ मुझे माँगा था। मेरे दुखों को समेट कर अपने दिल में छुपाना चाहा था। भाई मियाँ के सुखों के लिए उसने क्या क़ीमत अदा की। ये कुछ भी तो नहीं। अगर उन्हें यहाँ कोई फ़ायदा नज़र आया तो क्या बुरा किया, जो उन्होंने मेरी ज़िंदगी की बोली उठा दी? ये दुनिया है मेरे बूढ़े दोस्त। यहाँ ऐसा ही होना चाहिए।

    भाई मियाँ के जिस्म पर अब बेहतरीन कपड़े थे। रहने को ख़ूबसूरत-सा घर, और ज़िंदगी की हर आसाइश मुहैया थी। एक दिन नवाब साहब ने हमें ख़ास उलख़ास अपने दौलत कदे पर बुलवाया था। ड्राइंग रूम में दाख़िल हो कर जब हम आगे बढ़े तो एक लम्हे को मैं चकरा गई। क्या इस क़ैदख़ाने (वो ख़ूबसूरत ही सही) में मुझे रहना होगा? मैंने घबरा कर इधर-उधर देखना शुरू किया। मेरे ख़ुदा, यहाँ लोग कैसे रह सकते होंगे? इतनी ऊँची और हैबतनाक दीवारें। किसमें बूता था कि उनको फलांगने के बारे में सोच भी सकता। नर्म और गहरे सोफ़े में एक बेगम बैठी हुई थीं। बड़ी रऊनत से देखते हुए। भाई मियाँ ने आगे बढ़ कर तआरुफ़ करवाया।

    इनसे मिलो मेहर, ये नवाब साहब की बेगम साहिबा हैं और ये मेरी बहन है मेहर।

    मेरा ख़ून जोश खा गया। ये मेरा सगा भाई था। मेरा माँ जाया जो नवाब की बेगम से मेरा तआरुफ़ करवा रहा था। मैंने फों-फों करके उसकी तरफ़ देखा। मुझे उसकी जेब से नोट झाँकते नज़र आए। मैंने ख़ुद को मुतमइन कर लिया। हाँ, हाँ ठीक है। ठीक ही तो है। ऐसा ही होना चाहिए। इसके आगे इंसान सोच भी क्या सकता है?

    तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे होना?

    पता नहीं किन-किन मौज़ूआत पर गुफ़्तगू होती रही। फिर परदा उठा और एक बाँकी तरहदार लड़की कमरे में दाख़िल हुई। पता चला वो नवाब साहब की बेटी थी, (जो उम्र में मुझसे भी बड़ी थी। उसने लड़कों की तरह पतलून और क़मीस पहन रखी थी, सर के बाल पोडल कट की शक्ल में थे। वो मज़े में सिगरेट फूँके जारही थी। और धुएं के मारे मेरा दम घुट रहा था। यूँ तो हम औरतों की ज़िंदगी धुएं में ही गुज़रती है। मगर तुम जानो ये धुआँ तो दम घोंट देने के तुला हुआ था। इतने में फ़ोन की घंटी बजी और वो लड़की उछली। अपने होंटों का सिगरेट निकाल कर उसने झट अपनी माँ के मुँह में दे दिया।

    ममा, तुम ज़रा उसे इस्मोक करो, मैं भी आता हूँ। ममा ख़ुशी-ख़ुशी से इस्मोक करने लगीं।

    मैंने लरज़ कर देखा। ये कैसी तहज़ीब थी? क्या मैं उस माहौल में जी सकती थी? मेरा साँस रुक-रुक कर चलने लगा। भाई मियाँ लहक-लहक कर हँस-हँस कर सभों से बातें किए जारहे थे। मैं वहाँ थी मगर नहीं थी। मुझे होश आया तो वो लड़का नुमा लड़की कह रही थी।

    हलो पप्पा! ऐसा स्टेचू हम लूँगा म्यूज़ियम में देखे थे ना? उसका इशारा मेरी तरफ़ था।

    भाई मियाँ ने अपनी बहन के हुस्न की तारीफ़ को बड़ी ख़ुशदिली और फ़ख़्र से सुना और सीना तान कर मुझे देखने लगे जैसे, इस माल का हक़दार तो मैं ही हूँ।

    जब हम बाहर निकले तो मेरे क़दम इस क़दर वज़नी हो रहे थे कि मुझसे चलते बन रहा था। दिल-ओ-दिमाग़ में इस क़दर कशमकश हो रही थी। क्या करूँ क्या करूँ? इकदम मुझे नवाब साहब के मकरूह चेहरे और बड़े बुरे दाँतों का ख़्याल गया और मैंने तै कर लिया कि नहीं मैं अपने आपको कभी नहीं बेचूँगी। कभी नहीं, कभी नहीं। इस मौत से मौत क्या बुरी है?

    मैंने बड़ी हिम्मत करके, शरमाते, शरमाते, आहिस्तगी से भाई मियाँ से पूछा,

    नवाब साहब को मालूम नहीं कि मेरी शादी ज़िया साहब से होने वाली है?

    मालूम कैसे नहीं है, मैंने उन्हें पहले ही बता दिया था। मगर वो बात अधूरी छोड़ यूँही रुक गए।

    मैंने उनके चेहरे की तरफ़ देखा। मगर उसी लम्हा मुझे कोट की जेब से नोट झाँकते नज़र आगए। मैंने सोचा ठीक है। ठीक ही तो है, इसके आगे इंसान कुछ नहीं सोच सकता। अक़्ल चट हो जाती है।

    तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे होना?

    घर पहुँच कर भाई मियाँ ने अम्मां से मेरे पयाम के बारे में बात की, अम्मां भी राज़ी जैसी थीं। बेटियाँ तो अपने घर में फलती फूलती ही भली लगती हैं। और ऐसी बेटियाँ तो कभी कभार ही जन्म लेती हैं जो माँ-बाप का घर भी भरती जाएं। वरना बेटियाँ तो सदा घर ही ख़ाली करती गई हैं।

    अम्मां किसी काम से उठ कर गईं। तो मैंने अपनी सारी हिम्मत समेटी और मुँह से आवाज़ निकाली मगर मुझे बड़ी हैरत हुई कि ये वो बात थी जो मैं कहने चली थी। मैं कुछ भी बक गई। फिर से मैंने हिम्मत जमा की और सोचा, ये तो मेरी ज़िंदगी और मौत का सवाल है, ख़ामोशी से कुछ बनेगा। मुझे कि दुनिया ही चाहिए और मैंने फिर से ख़ुद को राज़ी किया।

    भाई मियाँ। मैं दूसरी तरफ़ देख रही थी। उनसे नज़र मिलाने की हिम्मत मुझमें थी।

    मैंने फिर थूक निगला और बोली,भाई मियाँ।

    फिर कुछ इस तरह जैसे लबलबी दबा देने पर फट से गोली निकल पड़े, मैं बोल गई,मैं नवाब साहब से शादी नहीं करूंगी।

    मेरे दिल पर से जैसे पहाड़ हट गया। भाई मियाँ ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो यूँही बैठे रहे शायद वो मुझे सूझ बूझ की मोहलत दे रहे थे। बड़ी देर बाद बोले,

    मेहर तुम अभी बच्ची हो।

    मैंने तेज़ी से कहा,बच्ची होती तो यूँ मेरा सौदा होता।

    अब के उन्होंने चौंक कर देखा और ख़ुद भी तेज़ी से बोले,

    बहुत समझदार हो गई हो।

    जब बड़े नासमझ हो जाएं तो छोटे ख़ुद बख़ुद समझदार हो जाते हैं। मैंने जल कर कहा।

    बक बक मत करो। वो गरजे।

    मैंने उनकी तरफ़ देखा।

    बक बक तो आप कर रहे हैं। मैं तो हमेशा से ही ख़ामोश तबियत हूँ।

    वो तेज़ी से उठे, मगर जाने क्या सोच कर रुक गए। बोले,

    ख़ैर आज नहीं तो कल तू जाने वाली ठहरी, इसलिए ख़ामोश हुआ जाता हूँ, वरना अभी इस बक बक का मतलब समझा देता।

    मैंने उसी लहजे में मज़बूती से कहा, मैंने कह दिया मैं नवाब साहब से शादी नहीं करूंगी। इससे अच्छा तो ये है कि इंसान शेर के साथ उसके भट्ट में जा रहे।

    भाई मेरे क़रीब आए और ख़ूंख़ार आँखों से देखते हुए बोले,

    नहीं करेगी नवाब साहब से शादी? और जो तेरे बाप का घर भर दिया है नवाब साहब ने? ये ऐश-ओ-आसाइश और कहाँ मिल सकती है, नासमझ कुतिया। भूल गई क्या दो दिन के फ़ाक़े करती थी, अँधेरे में सोती थी। नंगी फिरती थी। अब रहने को घर मिल गया, पहनने को रेशम मिल गया और पेट में तर माल पहुँच गया है तो ऐंठती है हरामज़ादी।

    तुम सुन रहे हो ना? ये मेरा भाई था,सगा भाई, जो मुझसे ये सब कुछ कह रहा था। मैंने हलबला कर कहा,

    मुझे ये सब कुछ नहीं चाहिए। मुझे अपनी वही ज़िंदगी पसंद है।

    है ना फ़क़ीरनी। अपनी असलियत पर ही जाने वाली। मगर अब मैं तुझे छोड़ूँगा।

    मैं उसी तेज़ी से नहीं-नहीं कहे गई और भाई मियाँ ने पैर से जूता निकाल लिया। इउनका दम उलट गया, मेरा जिस्म नीला पड़ गया, और मैं बेसुद्ध हो कर फ़र्श पर गिर पड़ी।

    देखता हूँ कैसे नहीं करती। जाते-जाते वो फिर सुना गए।

    फिर धीरे-धीरे रात गुज़रने लगी। चोटों से मेरा जिस्म दर्द कर रहा था। ज़ख़्म रिस रहे थे और चक्कर के मारे सर उठत था।

    भाग चल। ख़ुदा की इतनी बड़ी दुनिया में तेरा कोई तो ठिकाना होगा। यही वक़्त है, देर कर।

    मैंने ये पुकार सुनी और सर उठा कर इधर-उधर देखा। ज़ीरो पावर का बल्ब बड़ी उदास रौशनी बिखेर रहा था। अम्मां का कमरा परले सिरे पर था। भाई मियाँ के कमरे से ख़र्राटों की आवाज़ आरही थी। और, और...

    मैंने धीरे-धीरे ख़ुद को सहारा दिया और किसी सूरत खड़ी हो गई। जिस्म टूटा जा रहा था, आँसू बहे जारहे थे और सारा आलम डूबता महसूस हो रहा था। फिर मैंने धीरे-धीरे अपने जिस्म को पैरों के सहारे आगे बढ़ाना शुरू क्या। अलविदा मेरी प्यारी माँ, अलविदा। मैंने कमरे की तरफ़ देखा, जहाँ मेरी माँ सोई हुई थी। अपने दिल में कई अधूरी हसरतें लिये। बेटे के ब्याह की, बेटी की विदाई की। पोते खिलाने की, नवासे झुलाने की। आज ये सब हसरतें हमेशगी की नींद सो रही हैं, मेरी माँ अलविदा।

    भाई मियाँ के कमरे की तरफ़ मुँह करके मैं कुछ देर यूँही खड़ी रही। मालिक तूने औरत के सीने में इतना दर्द क्यों भर दिया? जो उसे दुख देता है, उसे ही प्यार करती है। जो इससे नफ़रत करता है, उसीसे मोहब्बत करती है। तूने औरत का दिल, बहन का दिल इतना दर्दमंद क्यों बनाया? अलविदा मेरे भैया, अलविदा। ज़ख़्मों के निशान जब तक मेरे जिस्म पर रहेंगे, फूल बन-बन कर महकेंगे और तुम्हारी याद दिलाएंगे। आज तुम्हारा प्यार दौलत के अंबार तले दब गया है। मगर कभी तो तुम्हें इस दिल की याद आएगी। जिसकी एक-एक अदा पर तुम दिल से हँसते थे, ख़ुश होते थे, प्यार करते थे, मुस्कुराते थे। अलविदा, दरवाज़े से सर लगा कर में कितनी ही देर खड़ी रही। रात आहिस्ता-आहिस्ता यूँ जा रही थी जैसे कोई दुल्हन मैके से पहली बार ससुराल को चले। क़दमों में वही बोझिलपन, दिल में वही ग़म, आँखों में वही सितारे। आज दो दुल्हनें अपने-अपने मैकों से टूट रही थीं। रात तेरा पिया तो उफ़ुक़ के उस पार तेरा मुंतज़िर है। तेरा पिया तो सूरज का तिलक लिए तेरी राह तक रहा है। देखते ही देखते तू मोहब्बत की दहलीज़ पर क़दम धरेगी, और तेरी ज़िंदगी में सुबह का नूर भर जाए। मगर मैं? मैं कौन-से पिया की मुंतज़िर हूँ? मेरी पेशानी पर कौन-से सूरज का टीका झुमकेगा? मैं कौन देश जा रही हूँ? ग़म की डोलती परछाइयों के साथ-साथ मेरे दिल में प्यार की रौशनी, उम्मीदों की किरनें और मोहब्बत के फूल क्यों नहीं महक रहे हैं? मैं कहाँ जा रही हूँ, कहाँ?

    मैंने एक बार पीछे पलट कर देखा और फिर आगे बढ़ती चली गई। तो सुना तुमने? मैं घर से निकल गई और आज मुझे घर से निकले पाँचवाँ दिन है। पाँचवाँ! और इन पाँच दिनों में ज़िंदगी से जी भर गया है। इन पाँच दिनों की कहानी भी तुम्हें सुना दूँ फिर मेरा दिल हल्का हो जाएगा। फिर मुझे ये ग़म नहीं रहेगा कि दुनिया में किसीने मेरी दास्तान-ए-ग़म सुनी कि एक लम्हे को ही सही, जी हल्का तो हो जाता। तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे हो ना?

    मैं घर से निकल तो गई मगर मालूम था कि कहाँ जाऊँगी, किधर जाऊँगी। एक नौजवान और ख़ूबसूरत औरत के लिए दुनिया में जगह हो भी कहाँ सकती है? मैं सुबह तक चलती रही। जब सूरज ने हर तरफ़ रौशनी बिखेरनी शुरू की, मैं एक नल के पास खड़ी थी। मैंने चुल्लूवों में पानी ले लेकर अपना चेहरा धोया और जब गर्द आलूद बाल छिटकाने लगी तो नल के पास खड़ी औरतें मुझसे पूछने लगीं।

    क्या तुम औरत हो?

    मैं हँसने लगी। औरत हूँ इसीलिए तो ये दुख उठाने पड़ रहे हैं, मैंने दिल में सोचा।

    मेरी हँसी पर वह और हैरतज़दा हुईं, और आपस में बोलने लगीं,सुबह आवारा रूहें भटका करती हैं। ये तो कोई हम तुम जैसी औरत नहीं मालूम पड़ती जी। और वो अपने-अपने मटके घड़े उठाए घरों को भागने लगीं। मुझे फिर हँसी आगई। आज सारा ज़माना मुझसे दूर भाग रहा है। मेरे दिल ने दर्द के साथ सोचा। मैंने आवाज़ दी, मैं रूह नहीं हूँ, एक दुखिया औरत हूँ। मेरी बात तो सुन लो। मेरे दिल का दर्द तो देख लो। मगर वो पीछे पलटीं। मैं ही आगे बढ़ गई।

    मैं इधर-उधर ठोकरें खाती बढ़ती रही, चलती रही। एक आदमी ने मुझे देख कर आँख मारी। मैं दुख से मुस्कुरा दी। औरत के लिए कहीं जाए फ़रार नहीं। यहाँ हर आदमी नवाब है जो पैसे दे कर औरत को ख़रीद लेना चाहता है। मैं उसके क़रीब पहुँची और कमज़ोर आवाज़ से बोली,

    भाई साहब आप...

    उसने ज़रा ग़ौर से मेरी सूरत देखी और फिर बौखला कर पलट गया,हुंह, भाई साहब।

    दुनिया किस क़दर गंदी जगह है। देखा तुमने? एक मर्द एक औरत को आँख मार कर इशारा कर सकता है कि चल मेरे साथ, लेकिन औरत अगर उसे भाई का सा पवित्र रिश्ता लगा कर सहारा माँगती है तो वो हुंह कह कर आगे बढ़ जाता है।

    मैंने फिर अपने बेजान क़दम बढ़ाए। इतने दिनों घर की चार दीवारी में बैठी रही, चलो, आज मौक़ा हाथ आया है तो दुनिया और दुनिया वालों की एक नज़र देख तो लूँ और मैं फिर चलने लगी। सुबह से दोपहर हुई, दोपहर से शाम, और शाम के बाद रात आई और फिर से मेरे ज़ख़्म जागने लगे। ये ज़िंदगी की पहली रात थी कि मैं अपने घर से, अपनी माँ से, अपने भाई से दूर रह कर सो रही थी। मगर कहाँ? चलते-चलते मैं क़ब्रिस्तान तक निकली थी। मैंने सोचा हम जैसों का सबसे अच्छा घर तो यहीं बन सकता है। मगर मैंने कहा ना कि ग़रीबों के लिए जीने की तो कोई राह है ही नहीं, मगर मरने की भी राह नहीं। ज़िंदगी अपने बस की नहीं। मौत भी बस की नहीं। छोटी बड़ी क़ब्रों के बीच में वहीं लेट गई। और कोई मौक़ा होता तो शायद मैं डर से लरज़-लरज़ जाती। मगर आज की बात और थी। पे दर पे सदमों और तन्हाइयों ने जैसे डर का एहसास ही छीन लिया था और मैं यूँ मज़े से क़ब्र के पहलू पहलू लेटी थी जैसे सुहागरात मना रही हूँ।

    फिर सुबह हो गई। मगर मेरी ज़िंदगी की सुबह कहाँ थी? और कौन जाने मेरे नसीबों में कितनी रातों की सियाही लिखी हुई थी? भूक से मेरी चाल डगमगा रही थी। आँखों में सियाह धब्बे नाच रहे थे और चक्कर के मारे क़दम उठाना मुहाल था मगर मैं चली जा रही थी। एक जगह जाकर मैं ठिठक गई। बहुत सारे मर्द बच्चे, और चंद औरतें किसी को घेरे में लिए खड़ी थीं। मैंने जगह बना कर झाँक कर देखा। घुंघरुओं की ताल पर कोई अल्हड़ सी औरत छम-छम नाच रही थी और कोई-कोई दिल वाला आने दो आने भी फेंक देता था।

    हाँ ज़िंदगी का एक रूप ये भी है। मैंने ठंडी साँस लेकर सोचा, और फिर बहके-बहके क़दम उठाने लगी। बड़ी देर चलते रहने के बाद आख़िर मैं एक नीम के नीचे बैठ गई.. नाचना शुरू करदूँ? मैंने बहुत सलाहियत के साथ सोचा। फिर ख़्याल आया औरत होकर ज़िंदा रहना ही मुसीबत है। दिल वाले मुझे कब ज़िंदा छोड़ेंगे? उस औरत की बात और थी, उसके साथ उसका एक रखवाला भी तो था। औरत के लिए रखवाले का वजूद भी किस क़दर ज़रूरी है? बग़ैर सहारे के तो यहाँ पत्ता भी नहीं हिल सकता।

    उफ़, मैं किस क़दर नीच होगई हूँ। सड़कों पर नाचना? भला किसने ऐसी ज़लील बात सोची भी होगी? उफ़, ये पेट!

    भूक, शदीद एहसास फिर से जागने लगा और मैं ललचाई निगाहों से उस फ़क़ीर को देखने लगी जो अभी-अभी पत्ते के दोने में सालन लिये चपड़ चपड़ रोटी से खा रहा था। मैंने बहुत देर तक उसे देखा। मगर इसने मेरा कोई नोटिस लिया। शायद वो सूरत से मुझे कोई बहुत अमीर कबीर लड़की समझ रहा होगा। बड़ी देर बाद मैंने कुछ इस अंदाज़ में, जैसे अपने आपसे मुख़ातिब हूँ कहना शुरू किया। (मगर दर-अस्ल मैं उस फ़क़ीर से मुख़ातिब थी।)

    मैं बड़ी दुखिया हूँ...

    उसने एक लम्हे को हैरत से मेरी तरफ़ देखा, फिर दूसरे ही लम्हे टाँगें झाड़ता हुआ ये कह कर चल दिया,ऊँह यहाँ सभी दुखी हैं, कौन किसका दुखड़ा सुनता फिरे।

    मैं उस जगह गई जहाँ वो बैठा था। रोटी के चंद टुकड़े इधर-उधर गिर गए थे। मैंने जल्दी-जल्दी हाथ मार कर समेटे और नदीदों की तरह मुँह में भरने लगी।

    तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे हो ना? हाँ, ये मैं थी मैं,जो एक फ़क़ीर के आगे के टुकड़े चुन-चुन कर खा रही थी। मगर मुझे अब हैरत नहीं होती क्योंकि इस दुनिया में रह कर मैंने जाना है कि इंसान को ज़लील करने वाला ये पेट ही तो होता है। ख़ाली पेट। और ये भूलो कि उस लम्हे मेरा पेट भी ख़ाली था।

    ये दूसरा दिन था जो मैं घर से अलग थी। चंद टुकड़े खा कर मेरी आग और भड़क गई। पता नहीं क्या जी चाह रहा था। किसे फाड़ डालूँ। मैं दीवानों की तरह इधर-उधर देखती बढ़ी। एक जगह कचरे के डिब्बे के पास केले के छिलके पड़े हुए थे। मैंने बग़ैर किसी तकल्लुफ़ या शर्म के वो छिलके उठाए और जल्दी-जल्दी मुँह चलाने लगी। अब मैं फिर उसी नीम तले बैठी थी। और राहगीर मुझे आते-जाते बड़ी शौक़ भरी निगाहों से देख रहे थे। एक मोटे से सेठ ने मुझे हद दर्जा मकरूह अंदाज़ में आँख मार कर देखा। मैंने मुतज़लज़ल हो कर उसे देखा। पारसाई और बेहयाई में बड़ी कशमकश हो रही थी। कोई इधर खींच लेता कोई उधर। मैं बीच में अधमरी बैठी थी।

    छी छी छी, ये मैं क्या सोचने लगी। क्या मैं इतनी नीच थी? क्या ज़िंदा रहना ऐसा ही ज़रूर है? क्या पेट के लिए इंसान इतना भी नीच हो जाया करता है। मेहर क्या ये तुम सोच रही हो तुम। तुम अपनी ख़ानदानी रवायात भूल गईं। दिल्ली की तुम्हारी शानदार हवेली, तुम्हारे घराने की वो इज़्ज़त। तुम्हारी वो लोगों के लिए क़ाबिल-ए- तक़लीद ज़िंदगी। अब तुम अपना जिस्म बेचोगी? हर रात एक नई सेज सजा कर, नये-नये मर्दों के साथ सोया करोगी? मैंने अपने कानों में अपनी उंगलियाँ भर लीं।

    नहीं-नहीं मैंने कभी इसके मुतअल्लिक़ सोचा भी नहीं। मैं सोच भी नहीं सकती। बंद करो ये बकवास।

    और फिर सब कुछ जैसे साकित हो गया। बैठे-बैठे ही जाने कितने जग बीत चले। मगर वो तसव्वुर की दुनिया थी। हक़ीक़त तो ये थी कि सिर्फ़ सह पहर का वक़्त बीत रहा था और धूपें तिरछी हो रही थीं। मैं बिला किसी इरादे और मक़सद के यूँही बेदिली से उठी और चलने लगी। रुकी तो मैं एक हॉस्पिटल के सामने थी। मरीज़ों के रिश्तेदार जारहे थे और किसी को इतनी फ़ुर्सत थी कि दो घड़ी को रुक कर मेरा हाल भी पूछ लेता। अब दिल बर्दाश्त की हद से इस तरह बाहर हो रहा था कि जी चाहता था कि चिल्ला-चिल्ला कर सारी दुनिया को सुना दूँ ,देखो, मेरे दिल के घाव देखो। मैं वो बदनसीब लड़की हूँ जिसे उसके सगे भाई ने बेच दिया। देखो रूपये की ताक़त कैसी होती है कि माँ जाया, एक बहन के जिस्म से ख़ून के फ़व्वारे उड़ा देता है और ये पेट की आग... मगर कोई था, कोई था। चपरासी ने मुझे वहाँ रुका देख कर पूछा,

    लड़की, तुम वहाँ क्यों खड़ी हो।

    मैंने ख़ुशी-ख़ुशी ज़बान खोली,बाबा, मेरा इस दुनिया में अब...

    यहाँ हम लोगों के दुखड़े सुनने नहीं खड़े जी। हस्पताल में जाना है तो जाओ, वरना रास्ता छोड़ दो, मोटरें आरही हैं।

    तो यहाँ कोई भी नहीं जो किसी बेकस की हाय ही सुन ले। ये कैसी दुनिया है मौला तेरी, ये कैसी ज़िंदगी है ख़ुदावंदा? मैं वहीं परे हट कर एक खम्बे से लग कर खड़ी हो गई।

    मेरी ज़िंदगी में आवारगी का कोई गुज़र था। वरना मुमकिन था कि मै भी अपने लिए कोई रास्ता ढूंढ ही लेती। मगर मैंने तुमसे बताया ना कि मैं एक शरीफ़ और आला घराने से तअल्लुक़ रखती थी। बदचलनी का मेरे पास एक सिरे से कोई तसव्वुर ही नहीं। अपना जिस्म बेच कर अपने दोज़ख़ की आग बुझाना,इस फ़लसफ़े को मानने की मेरे दिल में ताब नहीं।

    मैं फिर चलने लगी। चलते-चलते मैं शहर के पुर रौनक़ बाज़ार में आगई। हर तरफ़ रंग-ओ-बू का सैलाब था। मोटरें उड़ रही थीं। औरतें ज़र्क़ बर्क़ कपड़े पहने इतराती फिर रही थीं, आदमियों का हजूम था कि बस चला जा रहा था। एक दरिया की मानिंद रवा दवां। मेरे देखते ही देखते दो-चार मोटरें रुकीं। उसी तरह खम्बों का सहारा लेकर खड़ी हुई औरतों को इशारे से पास बुलाया गया और मोटर जूँ-जूँ , ये जा वो जा।

    बैठ जाऊँ मैं भी किसी मोटर में? मैंने दिल से सरगोशी की? छी छी छी। ऐसा सोचना भी पाप है। यहाँ तो मैं बस इसलिए खड़ी हूँ कि ज़िंदगी का तमाशा देखूँ।

    मैं जाने कब तक तमाशा देखती रहती कि इकदम किसी ने मेरा कँधा थपथपा कर कहा,क्या आप चंद लम्हे मेरे साथ गुज़ार सकती हैं?

    मैंने लरज़ कर देखा। एक अधेड़ उम्र का शख़्स था। नीले सुर्ख़ के सूट में मलबूस। सर के बालों में इक्का-दुक्का सफ़ेद बाल भी चमक रहा था। ऊँचा और चेहरे पर अजब बेकसी छाई हुई। मैंने फिर उसे ग़ौर से देखा। उसके तेवर आवारागर्दों के से थे। वो ख़ुद भी मुसीबत का मारा दिखाई दे रहा था।

    मैं आप ही से मुख़ातिब हूँ। वो बड़ी शाइस्तगी से बोला,क्या आप चंद लम्हों के लिए चल कर इस होटल में मेरे साथ बैठ सकेंगी?

    मैंने मुँह से एक लफ़्ज़ भी निकाला और जिधर उसने हाथ से इशारा किया था, उधर चलने लगी।

    हम दोनों एक होटल में दाख़िल हो गए। और इसने आगे बढ़ कर मेरे लिए कुर्सी खींची और ख़ुद भी एक कुर्सी घसीट कर बैठ गया।

    ज़िंदगी का ये पहला मौक़ा था कि मैं किसी होटल में आई थी। मैं हैरान-हैरान निगाहों से इधर-उधर देख रही थी। छत पर बिजली के पंखे चल रहे थे। सारे में कपों और बरतनों की खड़-खड़ हो रही थी। सिगरेट और सिगार के धुएं बगूले खा रहे थे और ठंडी रौशनियों में ये सब कुछ अजीब ख़्वाब की सी बात लग रही थी। हमारे अतराफ़ चंद मर्द बैठे ख़ुशगप्पियों में मसरूफ़ थे। जैसे ही उन्होंने मुझे देखा मुस्कुरा-मुस्कुरा कर एक-दूसरे को देखने लगे।

    शायद मेरे कपड़ों की हँसी उड़ा रहे हों। मैंने दिल में सोचा और बौखला कर निगाहें झुका लीं।

    उस शख़्स ने ब्वाय को जाने क्या-क्या अला बला लाने का हुक्म दे दिया था और अब मेज़ लदी हुई थी और मेरी आँखों में जैसे सितारे नाच रहे थे। उसने महज़ तकल्लुफ़न लीजिए ना। कहा और मैं जैसे पिल पड़ी।

    वो धीमे सुरों में गोया हुआ।

    आप जानती हैं मैं आपको यहाँ किसलिए लाया हूँ?

    उसके इस जुमले पर मुझे अपने सारे दुख याद आगए। मेरा तेज़ी से काम करता हाथ रुक गया और में बेबसी से बोली,

    मैं बहुत बदनसीब लड़की हूँ। आप नहीं समझ सकते कि मैं किन मुसीबतों में घिरी हूँ...

    उसने मेरी बात यूँही काट दी,आप अपने दुख एक लम्हे को अपने ही दिल में महफ़ूज़ रखिए पहले मेरी बात सुनिए।

    मगर मैं उसकी बात नहीं सुन रही थी। कोई भी ऐसा दिल वाला नहीं मिलता जो किसी ग़म नसीब के दुख को अपने सीने में मुंतक़िल करले। वो मुझे मुख़ातिब करके कहने लगा,

    आप जानती हैं मैं आपको यहाँ किसलिए लाया हूँ? आप जैसी औरतों को रात गुज़ारने को तो बहुत से मर्द ले जाते होंगे मगर... मगर उसके बाद मैंने कुछ सुना। आप जैसी औरतें, आप जैसी औरतें, आप जैसी औरतें...

    होटल में जैसे तूफ़ान आगया था। बादलों की गरज और जहाज़ों की खड़खड़ाहट से भी बढ़ कर कोई गूँज गरज थी जो मुझे हिला रही थी, थर्रा रही थी।

    आप जैसी औरतें...

    आप जैसी औरतें...

    मैंने कानों पर अपने हाथ रख लिए और तेज़ी से उठ भागी। भागते में मेज़ पर से दो तीन तश्तरियाँ और कप लुढ़क गए और बरतनों के शोर और क़हक़हों की गूँज में, मैं भागती ही चली गई। बाहर आकर मैंने लम्बी साँस ली।

    ये मेरी पारसाई का इनाम था। ये मेरी रियाज़त और पाकीज़गी का सिला था। ये दुनिया जहाँ दिलों का दर्द कोई नहीं देखता। तसल्ली के दो बोल कोई नहीं कहता मगर जहाँ इल्ज़ाम ख़ूब तराशे जाते हैं। इज़्ज़तें लूटी जाती हैं। कहाँ जाऊँ? कहाँ जाऊँ।

    मैंने बेबसी से आसमान की तरफ़ देखा। आसमान रौशन था। पास-पास सितारों के गुच्छे चमक रहे थे और उन सभों के बीच में चाँद था जो तैरता चला जा रहा था। अपनी मंज़िल की तरफ़।

    मुझे भी रौशनी दे-दे। मुझे भी उजाले दे-दे। मैं दुखे दिल को थाम कर बेबसी से बोली। मैं भी अपनी मंज़िल को जाना चाहती हूँ। मुझे रौशनी चाहिए, मुझे ज़िंदगी चाहिए।

    और मैं वहीं घुटनों में सर दबाए बैठ गई। और फिर मैंने कुछ यूँ महसूस किया जैसे मैं ज़मीन पर गिरी जारही हूँ। मेरे कानों में शोर की आवाज़ें और राहगीरों के क़हक़हे, हल्के और हल्के और हल्के हुए जा रहे थे। मेरे सामने हस्पताल की बुलंद-ओ-बाला दीवारें थीं और... फिर कुछ याद नहीं कि क्या हुआ।

    आँख खुली तो मैंने ख़ुद को एक बिस्तर पर पाया। मैं हस्पताल के बिस्तर पर पड़ी हुई थी। सफ़ेद-सफ़ेद लिबास पहने टिक-टिक करती नर्सें। इधर-उधर, उधर से इधर जा रही थीं स्टेथिस्कोप गले में डाले, डॉक्टर, मरीज़ों पर मेहरबान नज़रें डालते हुए जारहे थे। एक नर्स क़रीब से गुज़री तो मैंने पूछा,

    मुझे यहाँ किसने ला कर डाल दिया है?

    नर्स रुक कर बोली,हमारे को नईं मालूम। मरीज़ों को उधर से ऐडमिट करते। कोई तुम्हारे भाई बंद ही लाकर डाले होंगे।

    मेरा भाई बंद, हुंह! एक ज़हरख़ंद मुस्कुराहट मेरे लबों पर फैल गई।

    दो दिन मैंने हॉस्पिटल में काटे। नर्सें मशीन की तरह मसरूफ़ रहतीं। डॉक्टर टाइम से आते और जल्दी-जल्दी चले जाते। बाज़ू के बेड वाले पेशेंट को अपनी हाय-हाय से फ़ुर्सत थी, पूरा वार्ड ही आहों और कराहों का मस्कन था। कौन किसका दुख सुनने चला था।

    एक दिन मैंने डॉक्टर के कोट का दामन थाम ही लिया,डॉक्टर साहब, मेरे दिल में हरदम इक आग लगी रहती है। इस आग को बुझाने की कोई सूरत भी है?

    डॉक्टर साहब ने नर्स को आवाज़ दी,सिस्टर! टेम्परेचर लो। दिमाग़ पर गर्मी का असर मालूम होता है। बर्रा रही। मैंने तकिए पर सर पटख़ दिया।

    मैं पागल नहीं हूँ। मेरे दिमाग़ पर गर्मी नहीं है। मैं सब कुछ सोच समझ सकती हूँ। सब जानती हूँ, बूझती हूँ मगर मैं कहती हूँ, कोई मुझसे कभी हमदर्दी भी जताएगा या मैं यूँही मर जाऊँगी?

    नर्स ने आकर लाल शाल सर से पैर तक ओढ़ा दी।

    इत्ता पुकारा मत करो बीबी। दूसरे पेशेंट जाग जाएंगे। और वो मेरे मुँह में थर्मा मीटर की नलकी दे कर चली गई।

    मैंने थर्मामीटर मुँह से निकाल कर रख दिया और जब नर्स आई तो उससे बड़ी लजाजत से बोली,मुझे खाना चाहिए, भूक लग रही है।

    इत्ते बुख़ार में खाना नहीं दिया करते। चैन से सो जाओ। उठने के बाद दूध पी लेना मौसंबी ये रखी है। और वो पैर पटख़ती चली गई।

    मैंने सर उठा कर देखा। डॉक्टरों की राउंड का टाइम ख़त्म हो चुका था। नर्सें अपने-अपने कामों में थीं। मरीज़ बिस्तरों पर पड़े-पड़े हाय वाय कर रहे थे। पूरे वार्ड में अजीब सन्नाटा फैला हुआ था। कैसी ग़ैर-दिलचस्प ज़िंदगी है ख़ुदाया। दो एक दिन में डिस्चार्ज हो जाऊँगी। फिर वही ज़िंदगी और ज़िंदगी के सितम। ये दो दिन का आराम भी कौन भला लग रहा है मुझे? मैंने पड़े-पड़े मौसंबी खाई और धीरे-धीरे अपने जिस्म को उठ बैठने पर आमादा किया। बड़े से वार्ड में से हल्के-हल्के क़दम उठाती मैं बाहर निकल आई, दरवाज़े पर चपरासी ने पूछा,

    कहाँ जा रही हो।

    घर। मैं एक ही लफ़्ज़ बोल सकी और उस एक लफ़्ज़ ने फिर मेरे दिल में ग़म ही ग़म भर दिया।

    वो ग़ैर यक़ीनी अंदाज़ में बोला,मगर टिकट कहाँ है?

    मैं चिढ़ कर बोली,तो क्या मैं यूँही भागी जा रही हूँ?

    मेरे लहजे से वो ज़रा सहम गया और बाज़ू हट गया। मैं धीरे-धीरे हस्पताल के गेट से बाहर निकल गई।

    और आज पाँचवाँ दिन है कि मैं घर से बाहर हूँ। उस घर से भी जहाँ मैं अपनी माँ और भाई के साथ रहती थी। और उस घर से भी जहाँ तसव्वुर ही में सही मगर मैं अपने शौहर और बच्चों के साथ सुकून से रहती थी। घर! जिसकी लाल ईंटों की दीवारें थीं और जिसके फाटक पर बोगेनवेलिया के तिर्मिज़ी रंग के फूल, हरे-हरे पत्तों में छुपे मुस्कुराते झूमते थे।

    तुम मेरी बातें ग़ौर से सुन तो रहे हो ना?

    वही हैदराबाद की सड़कें थीं। वही राहगीर। वही चहल पहल और वही मैं, जिसका दिल क़ब्रिस्तान था। जहाँ कई आरज़ूएं पहलू पहलू सो रही थीं। जिन्हें ख़ुदा का हाथ भी ज़िंदा नहीं कर सकता था। मैं भूक से निढाल थी। मेरा चेहरा पीला पड़ गया था। मेरी साढ़ी धूल और गर्द से अट गई थी। मेरा दिल दुखी था, जिस्म बेजान और मेरे आस-पास मकरूह चेहरे थे और भूकी निगाहें। दिल जैसे बार-बार समझाता था।

    एक ही रास्ता है। एक ही रास्ता है। चल पड़ो, चल पड़ो। फिर दुख होंगे ग़म। बस ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ, हाँ एक ही रास्ता है...

    क्या उस रास्ते के अलावा और कोई राह नहीं है? क्या दुनिया में एक बेसहारा औरत के लिए सिवाए चकले के और कोई ठिकाना नहीं है? क्या सारे रास्ते उसी मंज़िल पर आकर ख़त्म होते हैं? और यूँही क़दम उठाते-उठाते मैं तुम तक पहुँची। और जैसे मेरे दिल में एक साथ कई चराग़ जल उठे।

    अरे! मुझे पता ही था। तुमसे बढ़ कर और कौन मंज़िल हो सकती है? तुमने कितनों को सहारा दिया है? कितनों के ग़मों की परदा पोशी की है, कितनी आँखों की फ़रियादें सुनी हैं। कितने दुखों को अपने दिल में जगह दी है। मैं,मैं भी तो उसी दर्द की मारी हुई हूँ। मुझे भी तो यहाँ पनाह मिल सकती है ना। दरिया-ए-मूसा, मेहरबान!

    मैंने अपने गर्दआलूद पाँव पानी में डाल दिए और तुमसे बातें करने लगी। इंसानों के दिलों से अच्छा तो तुम्हारा दिल है। तुम मेरी पुकार और ग़मज़दा आवाज़ सुनकर भागे नहीं। वरना यहाँ कौन किसी का दुख समेटता है। तुम उसी मतानत और सुकून से बह रहे हो। तुम्हारे दिल में सारों के ग़म समेट कर भर लेने की वुसअत है। औरों की तरह तुमने बेज़ार हो कर मुँह नहीं फेरा, हाथ नहीं झटका। ताने नहीं दिए और ग़ौर से मेरी बातें सुनते रहे।

    कुछ यूँ लग रहा है जैसे मैं ख़्वाब देख रही हूँ। हाँ ऐसी ऊट पटांग बातें बस ख़्वाब में ही तो नज़र आती हैं। रस्ती बस्ती ज़िंदगियाँ और कैसे उजड़ा करती हैं? तुम्हारा ये सुकून तुम्हारी ये ख़ामुशी। क्या सच तुमने मेरी बातें ग़ौर से सुनी हैं।

    ज़रा दिल पर हाथ रख कर बताओ कि मुझ ऐसी लड़की के लिए आज की तरक़्क़ी याफ़्ता दुनिया में और कौन रास्ता था? और कौन मंज़िल हो सकती थी? मैंने तो बहुत सोच समझ कर ये क़दम उठाया है। और अब मैं किस क़दर ख़ुश हूँ। मैं अब धीरे-धीरे पानी में उत्तर रही हूँ, ठंडा पानी मेरे जिस्म को छू रहा है। और मैं ज़िंदगी से क़रीब और क़रीब, और क़रीब होती जा रही हूँ।

    स्रोत:

    अाया बसन्त सखी (Pg. 109)

    • लेखक: वाजिदा तबस्सुम
      • प्रकाशक: अशफ़ाक़ अहमद
      • प्रकाशन वर्ष: 1974

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