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तफ़रीह की एक दोपहर

ख़ालिद जावेद

तफ़रीह की एक दोपहर

ख़ालिद जावेद

MORE BYख़ालिद जावेद

    दुख ने मेरे चेहरे पर एक नक़ाब डाल दी है।

    दुनिया से एक जीव कम हो जाता है।

    आसमान में एक फ़रिश्ता बढ़ जाता है।

    (फ़र्नांडो पेसोवा)

    (1)

    ये मई की दोपहर है। दो बज रहे हैं और लू भी चलना शुरू हो गई है। मेरा ख़्याल है कि मेरी कहानी सुनने के लिए यही वक़्त बेहतरीन है। मैं जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ उसके मख़सूस तरीन क़ारी वो लोग हैं जो दोपहर के खाने के बाद क़ैलूला करेंगे, फिर उठ कर शाम के शो में सिनेमा देखने चले जाएंगे। जो लोग शाम को तफ़रीह या कुछ ख़रीदने की ग़रज़ से बाज़ार जाने का इरादा रखते हैं वो इस कहानी को सुन पाएंगे, पढ़ पाएंगे क्योंकि मैं इस बात पर मुकम्मल दस्तरस रखता हूँ कि उन पर अपनी कहानी का दरवाज़ा खोलूँ या खोलूँ। दर अस्ल अब इस बात को ज़ियादा देर पोशीदा रखने का क्या फ़ायदा कि मैं एक भूत हूँ। इस कहानी से आपको पहली बार भूत के बारे में सच्चा और मुस्तनद इल्म हासिल होगा। ये मेरा वादा है। मगर इससे पहले मुझे चंद बातें गोश-ए-गुज़ार करना हैं। इन चंद बातों को आप एक भूत का पेश-ए-लफ़्ज़ या अर्ज़-ए-मुसन्निफ़ वग़ैरा समझ सकते हैं।

    तो पहली बात तो ये कि में लफ़्ज़ की तारीख़ी हैसियत से क़तई मुतअस्सिर नहीं हूँ। मैं उसे सिर्फ़ एक आवाज़ मानता हूँ इसलिए मैं मानी की नहीं, लय की तलाश में हूँ। मैं ज़बान को अपने जानने की नहीं बल्कि अपने होने की ज़बान बना रहा हूँ। मुझे इस शक्ल से नफ़रत है जिसकी ज़बान, सांप की तरह हमेशा कुछ कुछ जानने के लिए बाहर लपकती रहती है। इसलिए मुमकिन है कि मैं लफ़्ज़ों और आवाज़ों, दोनों ही के इन्हिदाम पर आमादा हो जाऊँ।

    जैसा कि मैं कह रहा था 'लय' या 'सुर' ही वो शय है जो मेरे दिल में एक ना-क़ाबिल-ए-बयान और ग़ै-सिफ़ाती मअ्नी की गूँज पैदा कर सकती है। अब मुझे आहिस्ता-आहिस्ता अपना 'सुर' लगाना है। अपनी 'लय' बनाना है। इसके लिए यक़ीनन मुझे अपने एक सफ़र पर निकलना है। अपनी मूसीक़ी के आलात तलाश करने के लिए ये एक ख़तरनाक मुहिम होगी। रास्ता तारीक है और भयानक, जानवरों की आवाज़ों और ख़तरनाक-तरीन जुग़राफ़िए से भरा हुआ है। लेकिन मैं मजबूर हूँ। मुझे जिस सुर की तलाश है उसके वास्ते आलात मूसीक़ी तो वहीं दबे रह गए हैं, यानी उस दलदल में जहाँ आपकी दुनिया की तहज़ीब, तारीख़, तमद्दुन और अख़्लाक़ियात का कोई गुज़र नहीं है।

    तो आप मुझे इजाज़त दें कि मैं अपने उन आलात मूसीक़ी को तलाश करने के लिए निकलूँ जो सदियों पहले उस अंधेरी दुनिया में कहीं पड़े रह गए थे। क्या आप को मालूम है कि भूतदर अस्ल होता क्या है? नहीं वो ज़रूरी तजहीज़-ओ-तकफ़ीन वग़ैरा की बात अलग रखें और तवज्जो से सुनें। भूत दर अस्ल वो 'ज़ेहन' है जो दौरान-ए-मौत पागल हो गया हो। मौत की तकलीफ़ को हर ज़ेहन बर्दाश्त नहीं कर सकता। दर अस्ल थोड़ी बहुत तफ़रीह के बग़ैर ज़ेहन किसी भी तकलीफ़ को बर्दाश्त नहीं कर सकता। मौत तफ़रीह से एक दम ख़ाली है। ये एक क़िस्म की ला-मुतनाही हैरत है और उस वक़्त का क्या कहना जब मौत की सूरत-ए-हाल और उसके असबाब भी शिद्दत से ज़ेहन को हैरत में डाल देने वाले हों।

    मेरे साथ ऐसा ही हुआ था। मैं उस हैरत और तकलीफ़ को बर्दाश्त नहीं कर सका। वैसे भी मेरा ज़ेहन बहुत कमज़ोर था और सिवाए तफ़रीह के, वो किसी जज़्बे को बहुत ज़ियादा बर्दाश्त करने के क़ाबिल तो कभी नहीं रहा। इस तरह के ज़ेहन मौत के दौरान ही पागल हो जाते हैं। उनके जिस्म से मरने के बाद एक पागल रूह माइल ब-परवाज़ होती है। उस पागल रूह का मुक़द्दर मेरा मुक़द्दर है। यानी एक भूत का जिसके बस में अब इसके सिवा कुछ नहीं कि वो ज़िंदों को परेशान करता या फिर और उन पाक साफ़ रूहों को रश्क-ओ-हसद के साथ देखता रहे जो दौरान-ए-मौत अपना ज़ेहनी तवाज़ुन बरक़रार रखने में कामयाब रहें।

    देखिए जब भूत कहानी बयान करेगा तो उसमें बेचैनी, झल्लाहट, कर्ब और बे-रबती के अनासिर ना-गुज़ीर हो जाएंगे। क्योंकि भूत का ज़मीर ही इन चीज़ों से तश्कील पाता है। इसलिए इस जुर्म का एहसास मुझे है कि मैं लाख शऊरी कोशिश करने पर भी ज़िंदा और सेहत-मंद लोगों की तरह नहीं लिख पा रहा हूँ। फिर ये भी है कि आपके लिए एक भूत के तजुर्बे उसके शऊर और उसकी मंतिक़ को पूरी तरह समझ पाना भी मुहाल है। इसलिए इस कहानी की बे-रब्ती सिर्फ़ आपके लिए ही बे-रब्ती है क्योंकि आपको कायनात के बारे में इल्म ही कितना है या आप अपनी ठोस और अहमक़ाना दुनिया से मावरा जानते ही क्या हैं? मुझे कभी-कभी आप पर रश्क आता है कि आप कितने एतिमाद के साथ मंतिक़ी जवाज़, इल्लत-ओ-मालूल और लफ़्ज़ मानी वग़ैरा के बाहमी रिश्तों पर मब्नी अपने समाजी, सियासी और मज़हबी अख़लाक़ पर फ़ैसले और हुक्म सादर करते रहते हैं।

    सच बताऊँ मुझे सबसे ज़ियादा चिड़चिड़ाहट तो आपकी उन ही हरकतों पर होती है जिसके बाइस मैं कभी तो रास्ता चलते हुए आपको सड़क पर पटख़नी दे देता हूँ और कभी आप का बच्चा ग़ायब करके आप ही के घर की किसी कोठरी में रखे संदूक़ में उसे बंद कर देता हूँ और आप तमाम दुनिया में अपना बच्चा तलाश करते फिरते हैं और कुछ नहीं तो झुँझला कर अंधेरी रात में तरह-तरह की बेतुकी और भयानक आवाज़ें निकाला करता हूँ (मैं ये अभी भी करके दिखा सकता हूँ क्योंकि दर अस्ल मैं लिख या सुना नहीं रहा हूँ, बल्कि नूह थियेटर के एक किरदार की तरह करके दिखा रहा हूँ। एक मास्क लगाकर जो मेरे चेहरे की ख़ाली जगह पर भद्देपन से झूल रहा है। मगर ठहरिए! ये भयानक, भी आपकी दुनिया का लफ़्ज़ है मेरी दुनिया में ये सब फ़ित्री और आम है। जिस तरह आप शतरंज खेलते हैं, सुबह के नाश्ते में अंडा तोस लेते हैं, कसरत करते हैं या अपनी महबूबा को प्यार करते हैं, उसी तरह मेरी ये हरकात-ओ-सकनात भी बेहद आम और क़तई तौर पर नज़र-अंदाज़ कर देने के लायक़ हैं।

    ख़ैर आपकी दुनिया के अलफ़ाज़ तो मैंने अपना लिए हैं मगर इनसे निकलने वाली आवाज़ों को मैं कुछ का कुछ बना सकने पर क़ादिर हूँ और मानी तो, मेरे लिए कोई मानी ही नहीं रखते। अब जहाँ तक किरदारों का सवाल है तो एक भूत की किरदार-निगारी की पहली शर्त तो इसके ज़रिए तश्कील किए किरदारों के सरों का ग़ायब होना है। यानी मैं सिर्फ़ सिर कटे किरदारों के बारे में ही बात कर सकता हूँ। इसलिए इन किरदारों में किसी झोल का होना आपके अपने उसूलों पर मब्नी है। मैं इससे मुबर्रा हूँ।

    दूसरे ये कि ये एक सनकी सी कहानी भी हो सकती है। आप जानते हैं कि सनक और मंतिक़ी शऊर में बस बाल बराबर का फ़र्क़ है, मगर आपको ये फ़र्क़ समझते-समझते ज़माना गुज़र गया। वैसे मैं ईमानदारी से कह रहा हूँ कि कहानी की वहदत-ए-तअस्सुर को जान-बूझ कर सदमा नहीं पहुँचाऊँगा मगर कहीं मेरी फ़ित्री भूताना झल्लाहट ऊद कर आए तो ये मुमकिन भी है।

    हज़रात आपको ये सवाल करने का पूरा हक़ है कि आख़िर आप एक भूत के ज़रिए लिखी गई कहानी पढ़ने पर मजबूर क्यों किए जाएँ? तो कान खोल कर सुन लें कि मेरा तो काम ही आपको उलटी-सीधी बातों पर मजबूर करना है। मेरे ऊपर आपकी दुनिया की अख़लाक़ियात का जादू नहीं चल सकता। मसलन अगर मैंने आपको ख़ौफ़-ज़दा करने या ज़च करने की ठान ली है तो आपकी क्या मजाल कि मुझे रोक सकें।

    मैं ये भी याद दिलाता चलूँ कि मैं शैतान नहीं हूँ। शैतान का मक़ाम मुझसे बहुत बुलंद है। वो तो कायनात की दूसरी बड़ी ताक़त है। शैतान की अख़लाक़ियात, भूतों की अख़लाक़ियात से आला है। शुरू-शुरू में शैतान पर लाहौल पढ़ करा आप उसको ख़ौफ़ ज़दा कर सकते हैं मगर भूत शैतानी अख़लाक़ियात के पाबंद हैं और उलूही अख़्लाक़ियात के। अरे हम भूत तो एक क़िस्म के मा-बाद-उत-तबीआती बच्चे हैं, ज़िद्दी और बिगड़े बच्चे जिनके लिए कोई यतीम ख़ाना, आश्रम, इदारा और घर नहीं। हमें लाहौल पढ़ कर नहीं बल्कि तावीज़, गंडे और पाक आयात से ही दूर भगाया जा सकता है। इन चीज़ों से वाक़ई हम किसी क़दर डरते हैं लेकिन ये डरना भी बस कुछ इस तरह का है जैसे ढ़ीट और बेहया बच्चों को दूर से बेंत दिखाया जाए।

    या फिर आपको ख़ुद अपना ही दिल दहला देने वाले कुछ सिफ़ली अमल करना होंगे। मिसाल के तौर पर शमशान घाट जाकर किसी चिता की ताज़ा राख पर एक पैर से पूरी रात खड़े रहना, उल्लू को क़त्ल करके उसका वज़ीफ़ा याद करना या काले मुर्ग़ के ख़ून से भरी तांबे की बद-क़लई बाल्टी में अपने बाएँ हाथ के नाख़ुन डुबोना फिर उस ख़ून में अपना अक्स देखना। ख़ैर छोड़िए, इन तरकीबों की तो एक बहुत लंबी फ़ेहरिस्त है।

    मगर हाँ याद आया। माफ़ कीजिएगा एक और मानी में शैतान को मुझसे ख़ासी बरतरी हासिल है। कभी-कभी वो आपको लाहौल पढ़ने का मौक़ा ही नहीं फ़राहम करता। वो आपकी रूह को अपने क़ब्ज़े में ले लेता है और आप शैतान की तरह ही हो जाते हैं। मगर भूत... वो बेचारा तो सिर्फ़ आपके जिस्म पर वक़्ती उछल-कूद कर सकता है। वो आपको भूत में नहीं बदल सकता और यहीं से मेरी कहानी आपके लिए एक अजनबी दुनिया की शय बन जाती है। सुन लें कि शैतान की दस्तरस में ये भी है कि वो ख़ुद को कायनात के रेशे-रेशे में समा सकता है मगर भूत उसी भरी पुरी कायनात में लावारिसों की तरह सिर्फ़ भटक सकता है। वो ख़ुदा और शैतान दोनों की सरपरस्ती और शफ़क़त से यकसर महरूम है।

    और क्या आप जानते हैं कि भूत को ख़त्म कर देना दर अस्ल उसका भटकना बंद कर देना है। और जब कोई भूत मार दिया जाता है तो वो भटकना बंद करके, अपने हाफ़िज़े के सदर दरवाज़े पर ताला लगा कर दोबारा एक इंसान बन जाता है, तब वो इज़्ज़त की मौत मरता है। उसकी तजहीज़-ओ-तकफ़ीन मज़हबी उसूलों की बुनियाद पर होती है। वो मौत की तकलीफ़ से पागल नहीं होता है और चील कव्वे उसका गोश्त नहीं खाते। मेरा गोश्त चील-कव्वों ने खाया था और किसी को पता भी चला। अरसे तक लोग यही समझते रहे कि उधर झाड़ियों में कोई जानवर सड़ रहा है। मरते वक़्त मैं पाक-साफ़ नहीं था। मरने से थोड़ी देर पहले मैं अपनी बीवी से हम बिस्तर हुआ था और तहारत नहीं हो सकी थी। मैं मौत की तकलीफ़ को बर्दाश्त नहीं कर सका। अस्ल में वो मौत की तकलीफ़ के साथ-साथ हैरत और ग़ुस्से की ज़ियादती की तकलीफ़ भी थी। तकलीफ़ और झुँझलाहट और शायद कुछ समझ पाने के बाइस मेरा मामूली सा तफ़रीह-ज़दा ज़ेहन मौत का साथ दे सका। ज़ेहन पागल हो गया।

    मगर ये तो मेरी कहानी है। मेरे ज़रिए लिखी जाने वाली कहानी दूसरी है। मगर ज़ाहिर है कि आप मेरी मौत को मेरी सवानेह हयात का एक हिस्सा बल्कि एक इख़्तिताम और बाक़ी जो कुछ मैं लिख रहा हूँ उसे अफ़साना समझने पर हक़ ब-जानिब होंगे।

    मगर एक गड़बड़ हो गई है और मैं उसे आपसे पोशीदा नहीं रखना चाहता। आपकी दुनिया का एक बदनाम क़िस्सा नवीस इस भयानक तारीक सफ़र में मेरा तआक़ुब कर रहा है। अब मुझे अपना सुर और लय तलाश करने में और मुश्किल हो जाएगी। ये कहानी ख़ालिस मेरी नहीं रहेगी। ये जो मेरा क़िस्सा नवीस है, कहा जाता है कि कमबख़्त कहानी में फ़लसफ़ियाना लाफ़-ओ-गज़ाफ़ से बहुत काम लेता है। इसलिए आगाह कर दूँ कि जहाँ आपको इस क़िस्म की बातें मिलें तो समझ लीजिएगा कि ये उसी मरदूद क़िस्सा-नवीस का काम है, मेरा नहीं। मुझे दर-अस्ल उस पर बे वजह रहम गया है वरना मैं सिर्फ़ एक मुहीब फुँकार निकालूँगा और ये भाग खड़ा होगा। वैसे मैं तो बा-क़ायदा किसी उम्दा क़िस्सा-नवीस को किराए पर ले लेता जो सिर्फ़ मेरी कहानी को दिलचस्प-तरीन बना देता बल्कि ज़िंदगी के इंतिहाई रौशन पहलू भी नुमायाँ कर देता। ये बद मज़ाक़ क़िस्सा-नवीस तो अच्छी-ख़ासी शगुफ़्ता और रौशन कहानी में भी उदासी, मायूसी और तारीकी वग़ैरा को इस तरह चस्पाँ कर देता है जिस तरह आज कल घटिया क़िस्म के मूसीक़ार पुरानी फ़िल्मों के गीतो को 'री-मिक्स' करके उन्हें 'पोप' बना देते हैं। अफ़सोस मेरी क़िस्मत में यही ग़बी क़िस्सा-नवीस लिखा हुआ था।

    मैं जो भी कह रहा हूँ आप लोगों के ज़ख़ीरा अलफ़ाज़ से काम लेकर ही कह रहा हूँ। वैसे ये ज़ख़ीरा अलफ़ाज़ कभी तो मेरा भी था अब नहीं है। अब सिर्फ़ इशारे हैं मगर ख़ुदारा इस कहानी को इशारों वाली कहानी समझ लीजिएगा। मुझे अलामत से बहुत डर लगता है। आख़िर तंत्र-मंत्र में अलामतों के सिवा और क्या होता है? अब तक आपने कम से कम बीस बार सोचा होगा कि इस भूत की लफ़्फ़ाज़ी ही ख़त्म नहीं होती, आख़िर कहानी कहाँ है? तो सुनिए कि लफ़्ज़ों की इस बमबारी से मैं जो कुछ तबाह कर रहा हूँ, और जो पत्थर तोड़ रहा हूँ उसके मलबे को साफ़ कर देने के बाद ही साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ कहानी को आप अपने सामने ठंडी-मीठी झील की तरह ठाठें मारते देखेंगे।

    (2)

    मैं भूत बनने के बाद तफ़रीह का और भी ज़ियादा शाइक़ हो गया हूँ। अब कोई फ़िक्र ही नहीं रही। क़ब्रिस्तान या किसी मक़बरे से या खंडर से चमगादड़ बन कर सीधा उड़ता हूँ और किसी पुराने सिनेमा घर की छत पर बैठ जाता हूँ। मैं बहरहाल उस मशहूर ज़माना भूत की ख़ुश-नसीबी की मेराज तक तो नहीं पहुँच सकता जिसपर बनाई गईं ख़ौफ़नाक फ़िल्मों का सिलसिला अभी तक नहीं रुका है और जब उसपर बनाई गई एक फ़िल्म शहर के एक सुनसान से सिनेमा हॉल में दिखाई जा रही थी तो वो ख़ुद भी हॉल के अंधेरे में एक ख़ाली कुर्सी पर बैठ जाया करता था और उदास आँखों से अपनी परछाईं तकता रहता था। आपको याद है कि लोगों ने जब एक हड्डियों के ढाँचे को कुर्सी पर बैठे फ़िल्म देखते पाया तो शहर में कैसा कुहराम मच गया था?

    मेरी उम्र चौदह या पन्द्रह साल रही होगी। सिनेमा हॉल के अंधेरे में अचानक परवीन ने मेरा हाथ पकड़ लिया। दोपहर का शो चल रहा था। हॉल के रौशन-दान से छन-छन कर धूप की एक किरण भी अंधेरे में चली आई थी और परवीन के हाथ पर आकर ठहर गई थी। मैंने घबराकर इधर-उधर देखा।

    मैं तुम्हारे बराबर पढ़ूँगी। वो आहिस्ता से बोली।

    मैं पढ़ी हुई नहीं हूँ ना, इस लिए तुम मेरे तरफ़ नहीं देखते। उसने मेरा हाथ दबाया। मुझे पसीना रहा था। हॉल की तारीकी में Exit और No Smoking के लाल हुरूफ़ रौशन थे। अचानक इंटरवल हो गया। अपिया और बज्जो ने अपने-अपने बुर्क़ा की नक़ाबें चेहरे पर डाल लीं। लोग पागलों की तरह समोसे लेने भागे। परवीन ने दुपट्टे की गिरह खोल कर पाँच का एक सिक्का निकाला।

    लो समोसे ले आओ।

    परवीन के साँवले हाथ बाजरे के आटे में गूँधे हुए महसूस हुए। उनमें ऊदी चूड़ियाँ खनक रही थीं। उसका चेहरा बिल्कुल गोल था। मैंने किसी लड़की का इतना गोल चेहरा आज तक नहीं देखा। वो एक ग़रीब लड़की थी। सारियों पर ज़री का काम करके अपना और अपनी बीमार माँ का ख़र्च पूरा किया करती थी। वो पहली लड़की थी जिसने मुझे छुआ था। उसके हाथों में हड्डियाँ कहाँ थीं, उसका अंदाज़ करना मुश्किल था। वहाँ सिर्फ़ गोश्त-पोस्त वाली गोल और भरी-भरी कलाइयाँ थीं। आख़िरी बार जब मैंने उसे देखा उसे दमा हो चुका था। दमा उसको विरासत में मिला था। उसकी माँ भी हमेशा अपने ख़स्ता-हाल घर की चौखट पर बैठ कर खाँसती और थूकती रहती थी।

    दस साल बाद अपने शहर वापस आने पर उस पुरानी गली से गुज़रते वक़्त मैंने परवीन को खाँसते हुए सुना। मई की तपती हुई दोपहर थी। वो जाने किसकी चौखट पर बैठी खाँस रही थी। उसकी साँस धौंकनी की तरह चल रही थी। उसका गोल चेहरा उसकी कमज़ोर गर्दन पर काग़ज़ के मुखौटे की तरह हिल रहा था। सामने पड़े घूरे पर एक कुत्ते की लाश सड़ रही थी। मैंने मुँह पर रूमाल रखा। उसने मुझे अजनबी नज़रों से देखा फिर दूसरी तरफ़ मुँह करके ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगी। उसकी खाँसी बहुत दूर तक मेरे जूतों के तले में चिपक कर साथ-साथ चलती गई। तब मैंने जूतों को कोलतार की जलती हुई सड़क पर ज़ोर से रगड़ दिया।

    किसी ज़माने के उस अज़ीमुश्शान सिनेमा घर पर जब कुदाल चलाई जाने लगी तो उसके अंदर पचास साल से जज़्ब होती आईं आवाज़ें आहिस्ता-आहिस्ता हवा में उड़ने लगीं। उसकी दीवारों में डूबी हुई परछाइयाँ उतर कर ईंटों, गारे और मिट्टी के मलबे में खोने लगीं... उसका लंबा-चौड़ा सफ़ेद पर्दा धूल-ख़ाक में लिपटा ज़मीन पर गिरा पड़ा था। कुर्सियाँ जिनके गद्दों में सुराख़ थे, नीलाम होने वाली थीं और उनमें दुबके हुए खटमल ख़ामोशी से हंस रहे थे। वो सफ़ेद पर्दा अचानक भयानक मगर लाचार नज़र आया। उसी जगह अंधेरे में परवीन ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा था, मैं तुम्हारे बराबर पढ़ूँगी। समोसे खाओगे। आज मेरी नफ़री मिली है। मेरे पास पाँच रूपये हैं।

    उसी जगह घटिया और बेतुकी फ़िल्में देख कर मैं कितना रोया था। फिर ख़ुश हुआ था। यहाँ कैसी-कैसी आवाज़ें दफ़न हैं। अदाकारों के नक़ली और देखने वालों के असली आँसू भी यहीं दबे पड़े हैं। मेरी शख़्सियत की तश्कील में सिनेमा से हासिल होने वाली तफ़रीह (और बसीरत?) का बहुत दख़ल रहा था। स्कूल से भाग कर मैं यूँ ही सिनेमा हॉल के सामने खड़े होकर वहाँ दिखाई जाने वाली फ़िल्म के पोस्टर देख करता था। पोस्टरों से मुझे इश्क़ था। एक बार जब तेज़ बारिश हो रही थी! सिनेमा हॉल की दीवार पर लगा एक पोस्टर हवा और पानी के ज़ोर से फड़फड़ाने लगा। मैंने सबकी नज़रों से बचाकर उसे अलग कर लिया और बसते में रख लिया। ये पोस्टर उस हीरो का था जो अपने ज़माने में ट्रेजडी का बादशाह कहा जाता था। शाम को जब घर पर मेरे स्कूल के बसते से वो भीगा हुआ पोस्टर बरामद हुआ तो बड़े अब्बा ने अपना जूता मुझ पर निकाल लिया। पोस्टर पर लगी हुई ताज़ा आटे की लेही की बू मेरे चारों तरफ़ गर्दिश करने लगी। मुझे याद नहीं कि मैं कब तक मुजरिम सा बना हुआ जूतों की उस बारिश में भीगता रहा।

    पूरा बचपन उसी तरह गुज़रा। सिनेमा मेरा दोस्त था। स्कूल से भाग कर जाने कितनी फ़िल्में मैंने वापसी का टिकट लेकर देखी थीं। उस ज़माने में वापसी का टिकट बहुत आम था। इसके लिए करना सिर्फ़ ये होता था कि कोई भी शख़्स जिसकी जेब में फ़िल्म देखे के लिए पूरे पैसे नहीं होते थे, वो फ़िल्म के इंटरवल के वक़्त सिनेमा हॉल के सामने जाकर खड़ा हो जाता था। एक भिकारी की तरह। अगर कोई शख़्स जिसे वो फ़िल्म पसंद नहीं आती थी, तो वो वापसी पुकारता हुआ बाहर आता था और अपनी टिकट आधी क़ीमत में फ़रोख़्त कर दिया करता था।

    मास्टर का बब्बू वापसी बेचने में बहुत मशहूर था। वो अपनी सिलाई की दुकान से भाग कर हमेशा दोपहर के शो का टिकट ख़रीदता था। आधी फ़िल्म देख कर फ़िल्म के वक़्फ़े में वो उसे बेच दिया करता था। जिस रात मास्टर के बब्बू ने ख़ुद पर मिट्टी का तेल डाल कर ख़ुदकुशी की थी, इस दिन दोपहर में उसने एक बहुत ही कामयाब और शोहरा-ए-आफ़ाक़ फ़िल्म का वापसी का टिकट मुझे मुफ़्त दे दिया था और फिर अपनी साँप जैसी चमकीली आँखों से मुझे घूरता हुआ भीड़ में गुम हो गया था। बिल्कुल दोस्तोयेव्स्की के उस किरदार की तरह जो वक़ार और ख़ुद्दारी के साथ ख़ुदा को उसकी तमाशा-गाह का टिकट वापस करने की जुरअत रखता था। लेकिन कुछ सिनेमा घर ऐसे भी थे जहाँ बिल्कुल आगे वाली क़तार के लिए कोई टिकट था। खिड़की पर बैठा आदमी बड़ी बेरहमी के साथ तमाशाइयों की हथेलियों पर एक नाक़ाबिल-ए-फ़हम मुहर लगा दिया करता था और बस। जब कोई मुस्लिम सोशल फ़िल्म शहर में नुमाइश के लिए पेश की जाती तो सिनेमा घर पर बुर्क़ा पोश लड़कियों और औरतों का जम्म-ए-ग़फ़ीर उमंड पड़ता। मुझे अच्छी तरह याद है उस सिनेमा हॉल की जालियों में लोहोक रही थी। अपिया और बज्जो उस मक़बूल फ़िल्म के अलमिया अंजाम पर नक़ाब के अंदर ही अंदर सिसक रही थीं। गोल चक्कर-दार ज़ीने की सीढ़ियाँ उतरने के बाद, बाहर ठेले पर फ़िल्म के गानों की किताबें मिल रही थीं। अपिया ने मुझे चवन्नी दी।

    जाओ, जाकर किताब ले आओ।

    उस फ़िल्म के गाने बेहद रुमानी और दर्द भरे थे। लोग, जो शो देख कर निकल रहे थे वो अब यहाँ रुक गए थे और गानों की किताब पर टूटे पड़ रहे थे। मैं बड़ी मुश्किल से एक किताब हासिल कर पाया। मगर उसका आख़िरी वरक़ उस धींगा मुश्ती में फट कर कहीं गिर गया। उस आख़िरी वरक़ पर ही सबसे अहम गीत था। उस शाम बड़े अब्बा ने अपिया और बज्जो को भी मारा।

    क्या कर रहे हो। शर्म नहीं आती जवान बहनों पर हाथ उठाते हुए। अम्माँ भागी आईं। उनके हाथ आटे में सने हुए थे।

    खोद के गाड़ दूँगा। जब देखो दरवाज़े पर टँगी रहती हैं। बड़े अब्बा गरजे। उन दिनों ढ़ोल-ताशे के साथ फ़िल्मी पोस्टरों की बारात भी निकला करती थी। जब भी कोई ऐसी बारात गली से होकर गुज़रती, अपिया और बज्जो भाग कर दरवाज़े में खड़ी हो जातीं और किवाड़ों की ओट से पोस्टरों को बड़े शौक़ और लगन के साथ देखा करतीं।

    मगर अपिया और बज्जो की बारात कभी सकी। अपिया तो ऐन जवानी में ही एक पुर असरार बुख़ार की ज़द में आकर मर गईं और बज्जो ने उसके बाद तमाम उम्र इबादत में गुज़ार दी। मैं जब तक ज़िंदा रहा, मैंने उन्हें सिर्फ़ नमाज़, तिलावत-ए-क़ुरान और क़िस्म-क़िस्म की नियाज़-ओ-फ़ातिहा में ही मसरूफ़ देखा। उस वक़्त तक उनके सर के तमाम बाल सफ़ेद हो चुके थे और चेहरे पर बे-शुमार झाइयाँ नमूदार हो गई थीं।

    जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैं सिर्फ़ तफ़रीह की ग़रज़ से ही सिनेमा का शाइक़ था। तफ़रीह की अपनी एक पुर-असरार आज़ादी होती है। ये अपना भारी लबादा उतार कर सड़क पर फेंकते हुए, हाथ-पैर चलाते हुए आवारा-गर्दी करने जैसा है। कभी-कभी सड़क पर दाईं तरफ़ चलने की क़दरे मुजरिमाना सी मसर्रत की तरह ख़ुशी और इतमीनान-ए-क़ल्ब एक बहुत ही पेचीदा सी कैफ़ियत का नाम है और उसी तरह दिल का भर आना भी। ये एक पुर असरार भूल भुलैय्याँ है।

    और मेरा क्या है। मैं तो बेहद घटिया और सस्ती जज़्बाती फ़िल्मों के सतही मुकालमों पर या मनाज़िर पर भी अक्सर रोया हूँ। इंसान को घटिया और हक़ीर चीज़ों से ख़ुश हो जाने या दुखी हो जाने से भला कौन रोक सका है? मगर घटिया पन और सस्ते जज़्बात की अपनी एक ना पाईदार सी पाकीज़गी भी होती है। ठेले पर बिकते हुए सस्ते कंघे, मामूली सी लिपस्टिक, बसों और रेल के थर्ड क्लास कम्पार्टमेंट में पॉलिश किए हुए, टीन के हार और बुंदे फ़रोख़्त करता हुआ मैले लिबास वाला आदमी और ख़राब तेल के समोसे बेचता हुआ ख़्वांचे वाला। ये सब यक़ीनन घटिया हैं मगर सस्ते। और घटियापन से उगते हुए ख़्वाब सस्ते नहीं होते। वो अपने माख़ज़ से मावरा जाते हैं। पाँव ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठते हैं। ये एक नशे की सी हालत है।

    तफ़रीह अपनी माहीयत में क़तई ख़ालिस है और अब भूत बन जाने के बाद तो मेरा ईमान सिर्फ़ इसी में क़ाइम रह गया है। तफ़रीह में सुख और दुख दोनों ही शामिल रहे हैं। रोकर, ग़म-ज़दा होकर भी हम तफ़रीह करते हैं। ये दुखी होने का सुख है। ये किसी जनाज़े के पीछे चलते जाने का इतमीनान है, ऐसा इतमीनान जो क़ब्र पर मिट्टी डाल कर और ख़ास तौर पर वो आयतें पढ़ कर, जिनसे मुर्दे के भूत बन कर भटकने के इम्कानात तक़रीबन ना-मुम्किन हो जाते हैं, हासिल होता है। मुझे अफ़सोस है कि मेरा मुर्दा किसी इंसान को इस क़िस्म का कोई सुख या दुख बहम पहुँचा सका। वो तो उधर झाड़ियों में सड़ रहा था और एक अरसे बाद जब वो मिला तो पोस्टमार्टम के बाद उसे ला-वारिस समझ कर ज़ाएअ कर दिया गया।

    अब मैं सोचता हूँ कि घटियापन के ज़रिए ही ख़ुश हो जाने में भला कौन सी बुराई थी? किसी को गाली दे कर गंदा फ़ुहश लतीफ़ा सुनाकर, आँख दबाकर हाथ से कोई फ़ुहश इशारा करने से भी तो ख़ुशी ही मिलती है और कौन सी दौलत मिल जाती है? नहीं साहब कोई फ़र्क़ नहीं है। ख़ुशी की मिक़दार भले ही आप नाप लें मगर उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत एक ढकोसला है। ख़ुशी के मौक़े पर हमारे ग़दूद घटियापन या शाइस्तगी के अहकाम के मुहताज या पाबंद नहीं होते। वो सिनेमा घर आहिस्ता-आहिस्ता ढ़ैह रहा है। सिनेमा घर के बराबर में वो पीपल का दरख़्त है, मैं उसकी शाख़ों में छुप कर बैठा हूँ। दोपहर है, लू के झक्कड़ों में मलबे की ख़ाक और मिट्टी बगूला बन कर उड़ रही है। कुदाल चलाने वाले मज़दूर खाना खाकर दरख़्त के साये में बीड़ी सुलगाने बैठ गए हैं। यूँ देखा जाए तो आसमान में चील अंडा छोड़ रही है। मैंने सोचा है कि मैं ख़ुद को अब एक चील के रूप में ही तब्दील कर लूँ लेकिन इससे पहले मैं आपको अपने बारे में एक राज़ की बात बताना चाहता हूँ।

    दर अस्ल भूत का कोई भी सरापा नहीं होता। ये सब इंसानों के ज़रिए फैलाई गई अफ़वाहें हैं और उनकी क़ुव्वत-ए-कलाम या बदीआत वग़ैरा, जिनकी वजह से भूत के नुकीले दाँत और हड्डियों के ढ़ाँचे वग़ैरा का तसव्वुर कर लिया जाता है। हाँ, इतना ज़रूर है कि हम भूत लोग उससे फ़ायदा ज़रूर उठा लेते हैं मगर ये हमारा अस्ल हुलिया नहीं है। वक़्त ज़रूरत हम कैसी भी शक्ल में भटकने के लिए निकल सकते हैं। ख़ुद हमारी अपनी कोई भी शक्ल नहीं है। अब इंसान अगर ख़ौफ़-ज़दा होता है तो इसमें मेरा बहरहाल कोई क़सूर नहीं। इंसान को अपने ग़ुदूद की कार-कर्दगी का मुताला करना चाहिए।

    भूत के साथ तो 'जनाब-ए-आला' मामला ये है कि हर शक्ल, हर साख़्त उसके लिए अपना रास्ता खोल देती है। नहीं... अपनी वुसअत-उल-क़ल्बी का सबूत देने के लिए नहीं बल्कि दर अस्ल वो नोट्स ही नहीं लेती और अपनी हैअत को एक बद-रूह की मार के लिए मुकम्मल तौर पर सुपुर्द कर देती है। मुझे सबसे ज़ियादा मज़ा तो तब आया था, जब मैं एक सब्ज़ रंग के टिड्डे की शक्ल में बदल कर सिनेमा के सफ़ेद पर्दे पर उछल रहा था। हाँ एक बार मैं ख़ुद को हड्डियों के ढाँचे में मुंतक़िल करके एक सुनसान से सिनेमा घर में रात का शो देखने गया था मगर यक़ीन कीजिए कि मेरी शऊरी कोशिश कभी नहीं रही कि मैं किसी को हिरासाँ या परेशान करूँ।

    फ़िलहाल तो मैं चील बना हुआ उस सिनेमा घर को देख रहा हूँ जिस पर कुदालें चलाई जा रही हैं, हालांकि मेरा देखना भी क्या। अब जो आँखें मेरे पास हैं वो आँखों की नफ़ी हैं। अब तो मैं देखने से ज़ियादा जानता हूँ और जानने से ज़ियादा तफ़रीह करता हूँ। अब मेरे आला हवास ग़ैर-इंसानी हैं। ये एक भूत के आला हवास हैं जो एक धुएं की तरह मुझसे बाहर निकल कर हर जगह चहल-क़दमी कर सकते हैं। ये मुझसे आज़ाद हैं। इनकी सही तादाद का इल्म ख़ुद मुझे भी नहीं वरना आपको ज़रूर बता देता। उसी सिनेमा घर में घटिया तफ़रीह फ़िल्में देख कर कितना रंजीदा और कितना सरशार हुआ था। टूटते हुए उस सिनेमा घर की बुनियादों में एक कमर्शियल प्लाज़ा रेंग रहा है। एक बाज़ार उभर कर आने के लिए तैयार है। अपनी संजीदगी के साथ तफ़रीह को क़त्ल करने के लिए।

    बाज़ार एक अजीब शय है। वहाँ तफ़रीह नहीं। तफ़रीह का इल्तिबास है। वो इन बे-तुकी फ़िल्मों से ज़ियादा घटिया है, वो सिनेमा हॉल के गाढ़े अंधेरे से ज़ियादा ग़ैर-इंसानी है। उस गाढ़े अंधेरे में तो सिसकियाँ उभरती थीं, क़हक़हे गूँजते थे। मगर बाज़ार में किसी दुकान पर कोई शख़्स रूमाल से अपने आँसू पोंछता नज़र नहीं आता। कोई इस तरह हँसता है कि पेट फूल जाए। यहाँ होशियारी के अलावा और कोई मंज़र नहीं। ये असली मसनूई पन है और हड्डियों तक उतर जाने वाली बे-रहमी है। यहाँ ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त के वास्ते मरीज़ाना अना और ग़ुरूर के साथ नपे-तुले अंदाज़ के साथ चढ़ते उतरते क़दम हैं, हर इंसानी इम्कान और जज़्बे से यकसर ख़ाली, हड्डियों के पिंजर की तरह ख़ौफ़-नाक, इधर से उधर कड़कड़ाते हुए बजते हुए। हम भूतों को भी उनसे शर्म आती है।

    किसने कहा था? ख़ुदा हमसे कठ पुतलियों की तरह खेलता है। ये सब स्टेज है। तब तक कम से कम दोस्तोयेव्स्की का किरदार अपना टिकट वापस कर देने की जुरअत तो रखता था। और वो लोग कौन थे जो दुनिया को रंग-मंच, माया और तमाशा कहते थे। बहरहाल ये सब तमसीलात थीं, मगर कितनी इंसानी और फ़ित्री तमसीलात! इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि इस तमसील का भी ख़ातिमा हुआ। तमाशा और 'खेल' का जब इन्हिदाम होता है तो उसके खंडर-नुमा मलबे से बाज़ार का जन्म होता है। बाज़ार जिसकी बुनियादें अगरचे तमाशा और खेल ही होती हैं मगर उसका वजूद तमाशे के इंसानी पहलू को हलाक करता है और उसकी सरहदें...!

    वहाँ जो मुहाफ़िज़ खड़े हैं उन्हें कोई अपना टिकट वापस करने नहीं आता। यहाँ टिकट वापस करना भी बाज़ार के एक ख़ूबसूरत शो केस में सजी हुई मम्मी की तरह बदल जाने जैसा है। जीना और मरना दोनों क़ाबिल सिर्फ़ शय है। ख़ुदकुशी कोई फे़ल नहीं सिर्फ़ एक क़ाबिल सिर्फ़ शय है। तो ये है बाज़ार की तफ़रीह जिससे उम्दा तफ़रीह तो हम भूत लोग अंधेरी रात में आपसी उछल-कूद करके और तरह-तरह की आवाज़ें निकाल कर कर लेते हैं।

    (ठहरिए। मेरा क़िस्सा-नवीस सिगरेट पी रहा है कमबख़्त ने मुंदरजा-बाला सतरें किसी घटिया फ़िल्म के सीन की तरह लिख दी हैं।

    मगर वो बाज़ार भी ऐसा ही था। उस बे हंगम और ख़ौफ़नाक फ़्लाई-ओवर वाले महानगर के बीच में उग आए एक बे-तुके जंगल के टुकड़े की तरह यकसर नक़ली और मसनूई। वो दूसरे बाज़ारों की तरह ही था मगर उनसे भी ज़ियादा बहुरूपिया। वहाँ ईंटों के खरंजे का फ़र्श था, खपरैल और टाइलों की छतें थीं। लोक कला, देही कला वग़ैरा की नुमाइश हो रही थी जो एक बनावटी मुस्कुराहट की तरह थी जिसका पहला वार ख़ुद उसके होंटों और जबड़ों पर ही होता है। वो तकलीफ़-देह हद तक फैल जाते हैं ख़ुद पर दाँत निकालते हुए। दिल्ली हाट के ये दाँत बाज़ार के निज़ाम को ज़ियादा सफ़्फ़ाकी के साथ नुमायाँ कर रहे थे।

    मैंने ख़ुद को एक भूरे चूहे की शक्ल में तब्दील किया और एक तरफ़ दुबक कर शॉर्ट्स पहनी और तंदुरुस्त लड़कियों को देखने लगा जो अपने मर्द साथियों के हाथ में हाथ डाले अपने कल्चर्ड जमालियाती ज़ौक़ का दिखावा करती हुई पिज़्ज़ा खा रही थीं।

    मैं आपको बताऊँ कि जब मेरी मौत वाक़ेअ नहीं हुई थी तो अक्सर इस शहर में एक जंगल मेरे पीछे पड़ जाता था। वो मेरा तआक़ुब करता था। रास्ता बदल-बदल कर घूम कर चक्कर लगा कर आता था। किसी तेंदुए या गुलदार की तरह ब-ज़ाहिर ला-तअल्लुक़ सा मगर अचानक ही वो मेरे सामने होता था। कनॉट प्लेस की सफ़ेद गोल इमारतों में, क़रोल बाग़ के जूतों के झालों में, फ़िल्मिस्तान सिनेमा को जाने वाली सड़क पर क़तार से लटकते हुए काले टायरों में, सरोजनी नगर में बाँस के डंडों पर झूलती बे-रहम सख़्त चमड़े की जैकेटों में, कमला नगर में सड़क पर बिखरे फूलों के गुलदस्तों में और लाजपत नगर में आइस क्रीम या चाट खाती हुई बद-निय्यत, सुर्ख़ होंटों वाली गुदाज़ और फ़ुहश जिस्म वाली औरतों में।

    अब ऐसा नहीं होता। अब मैं ख़ुद एक जंगल में बदल चुका हूँ मगर दिल्ली हाट में लोक कला का तशद्दुद मैंने अपने चूहे बने जिस्म पर कुछ इस तरह महसूस किया जिसे कोई भूत सिर्फ़ उस वक़्त ही महसूस करता है जब उसे भगाने के लिए तंत्र-मंत्र का सहारा लिया जा रहा हो। 'लोक कला' की मार कितनी मानी-ख़ेज़ होती है। ये आपको मेरी कहानी में आगे चल कर पता चलेगा।

    अब सिनेमा हॉल का वो हिस्सा तोड़ा जा रहा है जहाँ क़तार से पानी की टोंटियाँ हुआ करती थीं। फ़िल्म के वक़्फ़े में तेल से बने सोंधे-सोंधे समोसे खा कर तमाशाई इन टोंटियों में मुँह लगा देते। फ़र्श पर पड़े मूँगफलियों और केलों के छिलकों पर उनके पैर फिसल-फिसल जाते। पानी पीते-पीते अक्सर इंटरवल ख़त्म हो जाता तब तमाशाई हवास-बाख़्ता होकर हॉल के अंधेरे की तरफ़ दौड़ते और वो मेहरबान अंधेरा सबको अपनी आग़ोश में ले लेता।

    मैं चील बना हुआ इस बात पर हँस रहा हूँ कि सिनेमा हॉल टूटने के बाद जो 'वास्तुकार' इस बाज़ार का नक़्शा बनाएगा वो सबसे ज़ियादा इस बात का ख़्याल रखेगा कि उसकी बुनियादों में कोई साँप या उसका बिल हो। वास्तु के इल्म की बारीकियाँ और नज़ाकतें अब मुझसे ज़ियादा कौन जान सकता है। मैं उस अहमक़ को बता सकता हूँ कि इस हॉल को तोड़ कर जो कमर्शियल प्लाज़ा बनाया जाएगा वो सिर्फ़ जिस्म-फ़रोशी के अड्डे के तौर पर ही कामयाब हो सकता है और दिल तो मेरा ये भी चाहता है कि मैं ख़ुद ही साँप बन कर इसकी बुनियादों में रेंगने लगूँ। एक बद-शगुनी की मानिंद।

    अभी यहाँ वो खिड़कियाँ सलामत हैं जहाँ से टिकट ख़रीदा जाता था। शादी के बाद मैं अपनी बीवी को पहली बार इस सिनेमा हॉल में फ़िल्म दिखाने लाया था। मेरी बीवी फ़िल्म की शौक़ीन नहीं थी। उसे घर-दारी के सामान के लिए शॉपिंग करने का शौक़ था। मेरा ख़्याल है कि वो मेरा दिल रखने के लिए ही फ़िल्म देखने आती थी। उसी दिन टिकट की खिड़की पर ज़बरदस्त भीड़ देख कर मैं घबरा गया। मैं मायूस होकर वापस ही जाने वाला था कि मेरे बचपन का एक दोस्त नज़र गया। वो साइकिलों की मरम्मत और उनके पंक्चर जोड़ने का काम करता था। उसके कपड़े हमेशा काली चिकनाई से चिकट रहते थे। आज भी वो ऐसे ही कपड़े पहने था।

    फ़िक्र मत करो यार। मैं हूँ ना। भाबी देखो मेरा कमाल। उसने मेरी बीवी की तरफ़ देख कर फ़ख़्रिया कहा। मैं तो उसके कमाल से अच्छी तरह वाक़िफ़ था मगर मेरी बीवी की आँखें हैरत से फटी रह गईं। मेरे दोस्त ने तीसरे दर्जे की क़तार के बिल्कुल पीछे जाकर अचानक एक जस्त लगाई और टिकट लेने के लिए खड़े हुए लोगों के सरों के ऊपर किसी छिपकली की तरह पेट के बल लेट गया। अब उसका हाथ खिड़की के अंदर था और बड़ी आसानी के साथ पहला टिकट ख़रीदने वाला वो ही थी। अपना ख़तरनाक करतब दिखाने की ख़ुशी में उसे लोगों से मिलने वाली गालियों का ज़र्रा बराबर भी होश था। उसी तरह एक बार और उसने मेरी मदद करने या मुझे चौंकाने की हत्तल-इम्कान कोशिश की थी और बुरी तरह नाकाम रहा था लेकिन ये बहुत बाद की बात है।

    इस मुलाक़ात के कुछ ही दिनों बाद मुझे इल्म हुआ कि उसने एक दिन अपनी ग़ुर्बत, बीवी की बद-चलनी और क़र्ज़े से तंग आकर अपनी बीवी को क़त्ल कर दिया और फिर ख़ुद भी रेल के सामने जाकर कट कर मर गया अब कभी-कभी उसके भूत से मुलाक़ात होती है मगर दर-अस्ल ख़ुदकुशी करके भूत बनने वाले हम जैसों से अलग-थलग ही रहते हैं। उनके भटकने के औक़ात और मक़ामात भी दूसरे हैं। मुझे ये भी महसूस होता है कि वो एक क़िस्म के एहसास-ए-बरतरी के शिकार हैं क्योंकि उन्होंने ख़ुद ही ज़िंदगी के मुँह पर थूक दिया था। उन ख़ुदकुशी करने वालों ने तो मौत को अपनी आदत बना लिया है और इस तरह मौत की तमाम चमक-दमक और तौक़ीर को गोया ख़त्म ही कर दिया है।

    मुझे कहने दीजिए कि अगर आप ख़ुदकुशी को थोड़ा नया रंग दे सकें यानी अगर आप उन लोगों में शामिल हो जाएं जो महज़ नए-पन या फ़ैंटेसी की ख़ातिर ख़ुद को आदम-ख़ोरों की जदीद तंज़ीम के सुपुर्द कर देते हैं और अपने जिस्म के आहिस्ता-आहिस्ता क़तले करवाते हुए मर जाते हैं तो ये ख़ुदकुशी एक नई और तवाना ख़ुदकुशी होगी, वरना लोग तो बस आदतन मर रहे हैं कुछ इस तरह जैसे सुबह की चाय पीने को मिले तो झल्ला रहे हैं... ऐसी मौत की क्या औक़ात जनाब!

    वो दोपहर का शो था। मैंने ज़ियादा फ़िल्में दोपहर ही में देखीं। अगरचे सिनेमा हॉल का गेट-कीपर दोपहर के शो में आने वाले तमाशाइयों को बहुत एहतराम से नहीं देखता था। वो बरसात के दिन थे। बारिश होने लगी। फिर इतनी तेज़ हो गई कि हॉल की टीन की छत टपकने लगी। मैं और मेरी बीवी ने वह फ़िल्म तक़रीबन भीगते हुए देखी थी मगर इस बात का मुझे आज तक अफ़सोस है कि हम दोनों जब हॉल के अंदर दाख़िल हुए थे तो नंबर फेंके जा चुके थे। नंबर फेंकने का मतलब फ़िल्म की शुरुआत में उसकी कास्ट दिखाए जाने से था। अवाम में नम्बरों की बहुत अहमियत थी। वो लिखे हुए नामों को नंबर कहते थे।

    शायद हिंदसों को अलफ़ाज़ समझना इतनी अहमक़ाना बात भी नहीं कि उसे अवाम की जहालत पर महमूल समझ कर हिक़ारत से हँस दिया जाए। मुझे तो ये लफ़्ज़ को ज़ियादा शफ़्फ़ाफ़ और ईमानदार बनाना ही लगता है जिसके लिए हमें इन जाहिल लोगों की नियत का एहतिराम करना चाहिए। बहर-हाल भीग कर देखी गई उस फ़िल्म का एक सीन मुझे याद रह गया है।

    अंधेरी रात में एक खिड़की किसी मकान की ऊपरी मंज़िल पर रौशन हुई। नीचे एक कुत्ते की परछाईं गली के मोड़ पर ग़ायब होती नज़र आई। ये कुत्ता अब कहाँ होगा? मैं सोचता हूँ कि चालीस साल पहले जिस कुत्ते को इस कैमरे ने शूट किया था आज उसका पिंजर कौन सी हवाओं में झूल रहा होगा? रुक जाइए। मैं अपने आलात मूसीक़ी तलाश करने के सफ़र में थोड़ा सा भटक रहा हूँ। मुझे कुछ वक़्त लगेगा। मेरा क़िस्सा-गो भी मेरे पीछे साकित-ओ-जामिद खड़ा है। लेकिन मैं अपने सामने जो भयानक दलदल देख रहा हूँ शायद यही मेरी मंज़िल साबित हो। इसलिए मैं हिम्मत करके इस काली दलदल की तरफ़ अपना क़दम बढ़ाता हूँ। मगर मैं ये भी ख़ूब जानता हूँ कि ये मेरे ही पैर के पुराने निशान पर नए और दूसरे निशान की तरह है। अभी वो पुराना निशान भी गीला है।

    (3)

    मैं अपनी बीवी से बहुत मोहब्बत करता था। उसे उमूर-ए-ख़ानादारी में बहुत दिलचस्पी थी। उसने तकियों के ग़िलाफ़ इतने ख़ूबसूरत काढ़ रखे थे कि मुझे अपने ऊपर फ़ख़्र होता था।

    वो एक तवील-क़ामत मगर दुबली-पतली औरत थी। उसके पेट पर ज़रूर एक ख़ास मक़ाम पर काफ़ी चर्बी इकट्ठा हो गई थी। चर्बी का ये गोल उभरा हुआ ढेर उसके दुबले-पतले जिस्म पर बहुत अजीब सा महसूस होता था। उसका चेहरा लंबोत्रा था और जब वो किसी काम में पूरे इन्हिमाक के साथ मशग़ूल होती, ख़ास तौर पर वो जब कशीदा-कारी कर रही होती तो उसका झुका हुआ चेहरा घोड़े के मुँह से मुशाबेह नज़र आता था। मुझे उस घोड़े जैसे चेहरे पर बहुत प्यार आता था और मैं उसके गालों पर बे-तहाशा बोसे सब्त कर दिया करता था। उसने कभी मेरी क़लील आमदनी का कोई शिकवा नहीं किया था बल्कि बड़े सलीक़े और किफ़ायत-शिआरी का मुज़ाहिरा करके घर को हत्तल-इमकान अच्छे तरीक़े से सजा सँवार रखा था। हमारे कोई औलाद नहीं थी मगर इस महरूमी से भी मैंने उसे कभी रंजीदा-ख़ातिर नहीं देखा। मैं उससे बहुत ज़िद करता था कि दिल बहलाने के लिए वो हर हफ़्ते मेरे साथ फ़िल्म देखने चला करे मगर इसके बजाय उसने ख़ुद को घर के कामों में ही मसरूफ़ रखना बेहतर समझा।

    जहाँ तक मेरा मामला है, मैंने तो अपनी ज़िंदगी का बुरे से बुरा वक़्त भी फ़िल्में देख-देखकर काट दिया था। ये उस ज़माने में मुम्किन था। अब मुमकिन नहीं है। अगरचे फ़िल्में तो अब भी बनती हैं और सिनेमा घरों में नुमाइश के लिए पेश भी की जाती हैं मगर एक तो वो कुछ फूहड़, बेशर्म और जल्द-बाज़ हो गई हैं, दूसरे जिन सिनेमा घरों में चलती हैं वो अपने आपमें ख़ुद एक एयर-कंडीशंड प्लाज़ा या मल्टी-प्लेक्स में तब्दील हो गए हैं। उन नाम-निहाद सिनेमा घरों में चलती हुई ये फ़िल्में उस दुनिया को पेश करती हैं जो दुनिया सिनेमा हॉल के बाहर टहलती नज़र आती है। जो लड़कियाँ बाहर फ़ैशनेबल लिबास पहने और ख़ास तौर से अपनी नाफ़ की नुमाइश करती हुई, ख़ूबसूरत और नई कारों से उतरती नज़र आती हैं, बस पर्दे पर भी ऐसी ही लड़कियाँ नज़र आती हैं। उन सिनेमा हॉलों का अंधेरा अभी बस बराए नाम है। ये मद्धम चाँदनी वाली रातों की तरह है।

    इसलिए फ़िल्में अब तफ़रीह के गहरे, वसीअ और इंसानी मफ़हूम का अहाता नहीं कर पातीं। अब ये एक ही बोर दुनिया है। सिनेमा घर के अंदर भी और उससे बाहर भी। बल्कि वो तो आपके बेडरूम में चली आई हैं। उनके साथ-साथ सौदा बेचने वालों की सदाएँ भी आपके घर में गई हैं। अब यहाँ पूरा बाज़ार लग गया है। क्या आप उसे तफ़रीह समझते हैं? ज़रा फैशन टी वी पर दिखाई जाने वाली तक़रीबन उर्यां लड़कियों के चेहरे तो देखिए। उनसे ज़ियादा ख़ुश-मिज़ाज और शगुफ़्ता चेहरे तो हम भूतों के होते हैं। काश आपके हवास-ओ-आसाब उन्हें देखने पर क़ादिर होते!

    मुझे यक़ीन है कि अब मेरी बक-बक आपके लिए क़तई तौर पर नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हो चुकी होगी बिल्कुल उसी तरह एक भूत का वुजूद भी आप लोग कभी बर्दाश्त कर सके। लेकिन इतमीनान रखिए। मेरा क़िस्सा-गो वाक़िआ को इस रत्ब-ओ-याबिस से खींच कर आपके सामने घसीटता हुआ ले आएगा। वाक़िए का नंगा-पन देखने के लिए ही तो आप लोग कहानी पढ़ रहे हैं (या सुन रहे हैं?) बस थोड़ा सब्र कीजिए। फिर वाक़िआ पर दिल भर कर हँस लीजिएगा। तो मैं अर्ज़ कर रहा था कि फ़िल्में अब ज़ियादा फूहड़ और बे-शर्म हो गई हैं, मगर इसके बावजूद मेरा ख़्याल है कि हर फ़न में बहर-हाल एक क़िस्म की बे-शर्मी तो होती ही है अपना वुजूद बरक़रार रखने के लिए, अपनी हिफ़ाज़त के लिए ये बे-शर्मी ज़रूरी है। कभी-कभी ऐसा दौर भी आता है जब लगता है कि फ़न ख़त्म हो गया (इस कहानी को पढ़ते वक़्त भी आपको यही एहसास हो रहा होगा। मगर दर-अस्ल ऐसा होता नहीं है। ये ख़ुद को बचाने की कोशिश है। इस गाढ़े सियाह माद्दे से जो चला रहा है सब कुछ ढ़क लेने के लिए।

    यही वजह है कि मुझे सिनेमा घर के दरवाज़े की तरफ़ बढ़ती हुई भीड़ हमेशा मानी-ख़ेज़ नज़र आती है। एक मुशतर्का मक़सद होने के नाते ये एक बा-अख़लाक़ भीड़ है। अगरचे उसमें बहुत सी आवाज़ें फ़ुहश लतीफ़ों, गाली-गलौज और हाओ-भिड़ाओ की भी शामिल हैं मगर फिर भी ये सब मिल कर उस अंधेरे की तरफ़ जा रहे हैं। जल्दी-जल्दी अपनी कुर्सियाँ महफ़ूज़ कर लेने के लिए। ये भीड़ प्लेटफ़ार्म भीड़ से कितनी मुख़्तलिफ़ है जहाँ हर का अपना-अपना स्टेशन होता है। ये मेले की भीड़ से भी अलग है। मेले में हर एक की दिलचस्पी का अलग-अलग सामान होता है जैसे मुझे मेले या नुमाइश में सिर्फ़ मौत के कुँवें ने ही अपनी तरफ़ खींचा है।

    और पुर-लुत्फ़ बात तो ये है कि जेब कतरता हुआ शख़्स भी दूसरे जेब-कतरों के मुक़ाबले में ज़ियादा हस्सास होता है। वो हमेशा तब जेब काटता है जब पर्दे पर कोई बे-हद रुमानी फड़कता हुआ या फिर अलम-नाक गीत चल रहा हो।

    देखिए मेरा क़िस्सा-नवीस मुझे बे-वजह धमकी दे रहा है। उसके अदबी कैरियर का सवाल है। उसका ख़्याल है कि ये उसकी नाकाम-तरीन कहानी साबित होगी क्योंकि उसमें कहानी पन नदारद है। मगर ये तो मुझे पहले ही से पता था। भूत पर चौदह तबक़ रौशन हैं और साफ़ बात तो ये है कि ये मेरी कहानी है और उसे सिर्फ़ मेरे नुकीले नाख़ुन ख़ला में लिख रहे हैं। हवाओं में लिखी जाने वाली ये कहानी मेरे क़िस्सा-नवीस की नहीं, मेरी है और मैं ज़बरदस्ती आपको सुना रहा हूँ। क्या मुझे ये इल्म नहीं कि आप हरगिज़ नहीं सुन रहे!

    और आप मेरी उन आवाज़ों को भी नहीं सुन रहे हैं जो भूत बनने के बाद अक्सर मेरे मुँह से निकला करती हैं और लोग बे-वजह ख़ौफ़-ज़दा हो जाते हैं। जिस तरह मज़दूर मेहनत करते वक़्त हो-हो, हो-हो की आवाज़ से अपनी जफ़ा-कशी की मूसीक़ी तश्कील करता है, उसी तरह हम भूत भी कुछ आवाज़ें निकालते हैं। ये बड़ी ईमानदार आवाज़ें हैं, जिनसे हमारे वुजूद को कोई कोई मानी ज़रूर फ़राहम हो जाता है। अब मुझे एहसास होता है कि अपनी बीवी से जिस्मानी क़ुर्बत के लम्हात में मेरे मुँह से जो आवाज़ें बाहर आती थीं वो उन आवाज़ों से बहुत मुख़्तलिफ़ थीं। ऐसा इसलिए हरगिज़ था कि मैं शहवानियत में शराबोर हो जाता था बल्कि इसलिए था कि मैं एक नक़ली शहवानियत को ख़ुद पर मुसल्लत करके अदाकारी कर रहा होता था। ये आवाज़ें कुछ इसलिए भी मुँह से निकलतीं कि अंधेरे में अगर मैं उसकी छातियों पर झुकता तो वो कहीं और होतीं। पहले एक ख़ाली-पन, गर्दन की पतली हड्डी या फिर कमज़ोर कंधा ही मिलता।

    अगर होंट चूमने झुकता तो मेरे मुँह में उसके तेल से चुपड़े एक दो बाल चले आते और अगर मैं शहवानियत में भरे हुए होने की अदाकारी कर रहा होता तो ऐसे वक़्त अपनी उबकाई को ज़ब्त करना मेरे लिए मुम्किन था। मैं हमेशा ग़लत तरीक़े से ग़लत जगह ही चूमा करता। अंदाज़े की ऐसी बे-शुमार ग़लतियों के बावजूद मेरी बीवी ने हमेशा मेरे कामयाब-तरीन मर्द होने की तस्दीक़ की। ख़ुद मैंने सेक्स को किसी गहरे और संजीदा मफ़हूम की रौशनी में समझने की कोशिश कभी नहीं की। सेक्स भी तफ़रीह ही है। जमालियाती तशद्दुद से भरी एक तफ़रीह। मगर इस तफ़रीह में सिर्फ़ एक क़बाहत है। यहाँ भी उकता जाने पर अपनी वापसी टिकट किसी को थमा देना आसान काम नहीं है।

    उन दिनों मेरे मआशी हालात पहले से भी ज़ियादा ख़राब हो गये थे और मैं अपना ज़ियादा-तर वक़्त सिनेमा घरों के तीसरे दर्जे में गुज़ारने लगा। मेरी बीवी को हर वक़्त नज़्ला घेरे रहता था। अस्ल में वो रोज़ाना पूरा घर और ख़ास तौर से फ़र्श ज़रूर धोया करती थी। जाड़ा, गर्मी और बरसात हर मौसम में ज़ियादा-तर ठंडे पानी से क़ुर्बत रहने की वजह से वो दाइमी तौर पर नज़ला का शिकार हो गई थी और उसकी नाक से हमेशा शुँ-शुँ की आवाज़ें निकला करती थीं।

    यही ज़माना था जब मेरी बीवी का रिश्ते का एक भाई हमारे घर आकर ठहर गया। वो उम्र में मेरी बीवी से बहुत छोटा था। चार साल तक सउदी अरब में रहने के बाद उसने काफ़ी दौलत कमा ली थी। वहाँ वो राजगीरी का काम किया करता था। अब यहाँ कोई कारोबार क़ाइम करना चाहता था। उसे भी फ़िल्मों से क़तई दिलचस्पी नहीं थी और वो अपना ज़ियादा-तर वक़्त शरई अहकामात और बुज़ुर्गान-ए-इस्लाम के तज़्किरों में गुज़ारा करता। ख़ास तौर पर इस्लाम में कारोबार करने की जो फ़ज़ीलत बयान की गई है उस पर तो वो बे-तकान बोला करता था। क्योंकि मेरी बीवी का भी उन ही चीज़ों की तरफ़ रुजहान था इसलिए उसने ये बातें बहुत तवज्जो और ध्यान के साथ सुनना शुरू कर दी थीं।

    भाई के चेहरे पर सिन्न-ए-बुलूग़ तक पहुँचने के बावजूद दाढ़ी और मूँछों के बाल नहीं नमूदार हो सके थे। उसकी खाल की रंगत ने हमेशा मुझे कुछ फ़िक्र में डाला था। वो तक़रीबन ज़र्द थी। यरक़ान के मरीज़ की तरह। मगर मेरी बीवी का कहना था कि डरने की कोई बात नहीं। वो बचपन ही से ऐसा है और ये तो दर-अस्ल सुनहरा रंग है जो बहुत कम देखने में आता है। ये रंग तो परहेज़गार, नफ़्स-कुश और खाना कम खाने वाले इंसानों की पहचान है। वो इतना दुबला-पतला और छोटा सा था कि कभी-कभी मैं उसे यूँ ही तफ़रीहन एक हाथ से उठाकर बच्चों की तरह चक फेरी करा देता। वो तो ख़ामोश रहता मगर ये मंज़र देख कर मेरी बीवी ख़ुशी से तालियाँ बजाया करती और उसके दुबले-पतले पेट पर उभर आया वो चर्बी का गोला बुरी तरह फूलने और पिचकने लगता। वैसे भी उन दिनों वो कुछ ज़ियादा ख़ुश-मिज़ाज रहने लगी थी और उसने मुझसे घर के ख़र्च के लिए पैसे माँगना बंद कर दिए थे बल्कि वो तो उल्टा मुझ ही को फ़िल्म देख आने के लिए अपनी पस-अंदाज़ की हुई रक़म में से पैसे निकाल कर दे देती थी।

    मैं अपनी बीवी की ख़ुश-मिज़ाजी का हमेशा से क़ाइल रहा हूँ। वरना जो हालात मेरे थे, उनमें किसी औरत का मेरे साथ निबाह कर पाना क़तई ना-मुम्किन था। वो बेचारी तो कभी-कभी मुझे ख़ुश करने के लिए मस्ख़रा-पन करने से भी नहीं चूकती थी। जिस रात मेरा क़त्ल हुआ है उस दिन दोपहर के खाने में उसने मेरे लिए लम्बे वाले भुने हुए सालिम बैगन बनाए थे। मैं फ़र्श पर पालती मार कर बैठा हुआ खाना खा रहा था और मेरा चेहरा शायद इसलिए कुछ उदास नज़र आता होगा कि अभी-अभी मैं एक अलमिया फ़िल्म देख कर आया था तब ही मेरी बीवी उस नीले रंग की झाड़न को ले आई जिस से वो घर की धूल साफ़ किया करती थी। वो उस झाड़न को मेरे मुँह और आँखों पर नचाने लगी। जाने क्यों उसे ये नज़र नहीं आया कि झाड़न से धूल भरे ज़र्रात मेरे सर और खाने पर गिर रहे थे। मैं भी उसकी उस बच्काना हरकत को ख़ुश दिली से बर्दाश्त करता रहा। वो तो कहिए उस वक़्त ज़ुहर की अज़ान हो गई और वो नमाज़ पढ़ने के लिए हवास-बाख़्ता हो कर भागी। अज़ान हो जाने पर वो हमेशा उसी तरह भागती थी मगर ये बहुत तारीफ़ की बात थी कि इस तरह भागने या दौड़ने में दूसरी औरतों की तरह उसके पिस्तान हिलते हुए नज़र नहीं आते थे। ये उसके भागने का सलीक़ा था।

    अब यहाँ सिर्फ़ ख़ाली ज़मीन का एक टुकड़ा रह गया है। शाम होने वाली है। वो सिनेमा घर अब मुकम्मल तौर से मुंहदिम हो चुका है जिसे मैं चील बना हुआ देख रहा था। आसमान पर कव्वे और कुछ पतंगें उड़ रही हैं। सड़क के किनारे टूटी हुई कुर्सियों का ढ़ेर पड़ा है। हैरत है कि सारी कुर्सियाँ तक़रीबन एक ही जगह से फटी हुई हैं। मैंने अब बिल्ली का रूप धारण कर लिया है। दर-अस्ल बिल्ली की शक्ल में मैं उस दीवार पर चढ़ना चाहता हूँ जो अब यहाँ नहीं है, वो दीवार जिसके दायरा-नुमा शिगाफ़ से तस्वीर को रौशनी की शुआ में बदल कर पर्दे पर डाला जाता था। मैं अक्सर मुड़ कर उस रौशनी की शुआ को देख रहा था। अब मैं ख़ुद भी उन ज़र्रात भरी रौशनी जैसा हो गया हूँ या अंधेरे जैसा!

    मगर बिल्ली बना-बना मैं अचानक ठिठक गया हूँ। सिनेमा घर टूटने से उसके अक़ब का क़ब्रिस्तान साफ़ नज़र आने लगा है। जहाँ अभी-अभी एक साथ चार जनाज़े दाख़िल हुए हैं। उनमें से तीन ने एक साथ ख़ुदकुशी की है और चौथे को सर-ए-राह क़त्ल कर दिया गया है।

    क्या आप ये बात संजीदगी से नहीं सोचते कि वो मुआशरा जिसमें इतनी छोटी और हक़ीर बातों के लिए इंसान ख़ुदकुशी कर लेता है या क़त्ल कर दिया जाता है, उस मुआशरे में तफ़रीह कितनी बड़ी ज़रूरत होगी? आप तफ़रीह को इतनी कमज़ोर और छोटी चीज़ क्यों समझते हैं। मैं देख रहा हूँ कि ख़ुदकुशी करने वालों या क़त्ल होने वालों की तादाद बढ़ रही है। सरहद पर लड़ती फ़ौजों के बारे में पता नहीं आपका क्या ख़्याल है? मगर यह तो आपको भी मानना पड़ेगा कि मेरी दुनिया में भूतों की तादाद बढ़ रही है।

    नहीं, बाज़ार से आप क्या ख़रीदेंगे! यक़ीनन चंद अश्या मगर। नफ़रत, तशद्दुद, जंग और बद-किरदारी की चमक-दमक में सिर्फ़ ऐसी अश्या रह जाएंगी जो बहुत ही हक़ीर थीं। इंसानों की तफ़रीह से बहुत हक़ीर मगर उन्हें बहुत बड़ा मसअला बना दिया गया। नफ़रत, झल्लाहट और जंग क़ा मुक़ाबला सिर्फ़ तफ़रीह से किया जा सकता है। तफ़रीह का ईसार मामूली तो नहीं। अब मुझे ही देख लीजिए कि मैं अपने क़त्ल होने से आध घंटे पहले तक तफ़रीह में मस्त रहा था। बस सिवाए इसके कि मेरे जिस्म के निचले हिस्से में कुछ जलन सी हो रही थी जिसकी वजह से मुझे क़दरे झल्लाहट महसूस होने लगी मगर फिर बार-बार वहाँ मज़हका-ख़ेज़ अंदाज़ में खुजा कर अपनी बीवी को हँसने पर मजबूर करके मैंने उस झल्लाहट पर क़ाबू पा लिया था।

    उस रात मेरे घर के रौशन-दान में जाने कौन सा परिंदा बे वक़्त चहकने लगा। मुझे आधी रात में बाक़ायदा चहकने वाले उस परिंदे से ख़ौफ़ सा महसूस हुआ और मेरी बीवी ने उसे हुश,हुश करके उड़ा दिया। उस वक़्त तो मुझे नहीं पता था मगर अब मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि वो कौन था। वो उस साइकिल वाले दोस्त का भूत था।

    (4)

    मुझे एतिराफ़ है कि उस रात बड़ी गहरी ख़ामोशी छाई हुई थी। हालांकि ख़ामोशी कभी मुतअल्लिक़ नहीं होती। आवाज़ ज़रूर होती है, हमारे आस-पास ख़ामोशी का मुखौटा लगाए। मैंने रात का खाना नहीं खाया था। दिन में खाए हुए, भुने हुए बैंगनों की डकारें चली रही थीं। एक बात और है जो मुझे याद आती है और वो ये कि उस रात बीवी से हम बिस्तर होने के बाद जाने क्यों पल भर के लिए मुझे ये एहसास हुआ था कि जैसे मैंने किसी गंदे ग्लास में दूध पिया था और उसके बाद ही मुझे अपने जिस्म के निचले हिस्से में जलन का सा शाइबा होने लगा था।

    तुमने खाना नहीं खाया है। कमज़ोरी लग रही होगी, थोड़ा दूध पी लो। बीवी हँसते हुए बोली।

    ले आओ। मैंने कहा, साथ ही मुझे बैगन की एक लंबी डकार आई। बीवी जब दूध का ग्लास लेकर आई तो उसके हाथ में पँखा भी था। उस वक़्त उमस बे-तहाशा बढ़ गई थी। हाथ का पँखा हमेशा से औरत और मर्द के मुहब्बत भरे तअल्लुक़ात की अलामत रहा है। मर्द के सफ़र से वापस आने पर, पुराने ज़माने की औरत एक हाथ में दूध का कटोरा और दूसरे में पँखा ले कर उसका इस्तिक़बाल करती थी। मेरी बीवी के हाथ में जो पँखा था, उसमें एक ख़ुशबूदार घास भरी हुई थी या शायद गेहूँ के डंठल थे। उस पर जो ग़िलाफ़ चढ़ा था वो रेशमी और रंगीन था। ये पँखा लोक कला का बेहतरीन नमूना था।

    दूध का गलास हाथ में लेकर जैसे ही मैंने उसे होंटों से लगाना चाहा, अचानक मेरी नज़र बग़ल वाले दरवाज़े पर पड़ी। वो वहाँ हाथ में बड़ा सा छुरा लिए ख़ामोश खड़ा था। उसकी खाल का ज़र्द रंग उस वक़्त तांबे की तरह सुर्ख़ हो रहा था और आँखें पहले से ज़ियादा अंदर धँस गईं थीं मगर गालों की नुकीली हड्डियाँ बाहर उभर आई थीं। वो बिजली की सी तेज़ी के साथ मुझ पर झपटा और अपने बौने-पन की पूरी क़ुव्वत के साथ मेरी पीठ में छुरा घोंप दिया।

    जब छुरे से वार किया गया था तो बीवी ने झपट कर पँखे की डंडी मेरे मुँह में घुसेड़ दी... हलक़ तक मैंने उस डंडी को महसूस किया। मेरे अंदर से ख़ून की क़ै बाहर आई जो शायद पँखे के ख़ुश रंगों वाली कशीदा-कारी पर जम कर रह गई होगी। उसका चेहरा मुझे एक वहशी घोड़े का सा नज़र आया जिसकी थूथनी से सफ़ेद झाग निकल रहे थे।

    छुरे के वार से पहले तो सारे जिस्म में सिर्फ़ च्यूंटीयाँ सी रेंगी थीं। मगर फिर फ़ौरन ही तकलीफ़ के मारे मेरा सर फटने लगा। अजीब बात ये थी कि जहाँ-जहाँ छुरे का वार किया जाता था वहाँ तकलीफ़ का कोई एहसास नहीं था। तकलीफ़ बस सर में हो रही थी जिसमें शायद इंतिहा तक पहुँची मेरी हैरत-ज़दगी भी शामिल थी।

    थोड़ी देर पहले का साफ़-सुथरा फ़र्श अब पूरी तरह ख़ून से तर था और उसमें मेरे हाथ से गिर गए दूध की सफ़ेदी भी आहिस्ता-आहिस्ता शामिल होती जा रही थी। मेरा ख़्याल है कि छुरे के उन भयानक वारों से मैं क़दरे सुकून के साथ मर जाता मगर हाथ का पँखा मेरे लिए मोहलक हैरत-ज़दगी का बाइस बन गया और दौरान मौत ही किसी मनहूस लम्हे में मेरा ज़ेहन पागल हो गया। पँखा मेरी बीवी अपने साथ जहेज़ में लाई थी और उसकी सुर्ख़ गोट बड़े चाव के साथ उसने अपने हाथों से लगाई थी।

    कहिए... अब देखा आपने लोक कला का तशद्दुद? ये ज़ियादा ख़तरनाक होता है क्योंकि उसे बस एक ग़लत ज़ाविए से मोड़ देने पर ही वो तबाह-कुन बन जाता है। मशीन बेचारी इस तरह उल्टे-सीधे तरीक़े से तो चल ही नहीं सकती और पिस्तौल, तलवार या छुरी से आप किसी को पँखा भी नहीं झल सकते। देखिए मेरी ज़ेहनी रौ बहक रही है। मुझे बे-इख़्तियार अफ़सोस हो रहा है कि मैंने शादी क्यों की? एक बंदर क्यों पाल लिया जो सीख जाने के बाद मुझे पँखा भी झल सकता था।

    मरते वक़्त मुझे इतना भी याद है कि बाद में, बीवी ने घबरा कर नीम के ख़िलालों के गुच्छे को ताक़ से उतार कर उसे मेरी आँखों में दीवाना-वार चुभाया था मगर मेरी आँखें साकित-ओ-जामिद थीं। हो सकता है कि मेरी जान मेरे हवास से पहले ही निकल गई हो क्योंकि बहुत देर तक मेरी आँखों में सामने खूँटी पर लटकता हुआ चाबियों का गुच्छा और बराबर में मेरे सियाह मोज़े ही हिलते हुए नज़र आते रहे थे या शायद आख़िरी मंज़र वो था जब वो अलगनी पर कपड़े टाँगने वाली लोहे की चिमटियों में मेरी नाक के बाँसे को फाँस रही थी। दर अस्ल वो भी आसाब-ज़दा और हवास-बाख़्ता हो गई थी। कुतिया, छिनाल!

    उसके बाद जो भी देखा है वो इंसानी आँखों से नहीं देखा है। मसलन जब मेरी रूह भूत बन कर ख़ला में ऊपर उठ रही थी, उस वक़्त एक नौ-ज़ाईदा मासूम बच्चे की रूह भी उस ख़ला में तक़रीबन मुझे छूती हुई गुज़र गई। शायद उस बच्चे की मौत का वक़्त भी वही था जो मेरी मौत का था। मेरी लाश के पोस्टमार्टम में सबसे अहम मगर समझ में आने वाली बात ये थी कि मेरे जिस्म और चेहरे का अच्छा ख़ासा गोश्त चील-कव्वों के खाने के बावजूद और सड़ जाने के बाद भी मेरे गालों की खाल और गर्दन पर आँसुओं के गहरे खारी निशान जमे हुए पाए गए। ये आँसू कब निकले थे और कैसे अब तक वहाँ मौजूद रहे, ये मेरे लिए भी ना-क़ाबिल-ए-फ़हम वाक़िआ है।

    भूत बन कर आपकी दुनिया को ज़ियादा क़रीब से देखने का मौक़ा मिला है। आपकी दुनिया का आख़िरी ख़ूबसूरत मंज़र वो था, जब कुछ दिन पहले मैंने कोढ़ियों को रात में बारिश में नहाते देखा। वो अपनी ख़ारिश को कम करने के लिए नहा रहे थे और ख़ुश होकर कोई गीत भी गा रहे थे। बस यही मंज़र था जिसे देख कर मुझे ज़िंदगी पर रश्क आया और फिर मैं उदास हो गया।

    आप बुरा मानें तो मैं कहूँ कि आपकी दुनिया मेरी सूरत से भी ज़ियादा करीह है। ये एक ख़ाली सिनेमा घर की तरह है जहाँ कोई फ़िल्म का पर्दा नहीं है। फिर भी एक फ़िल्म चलती है ख़ुदा के ज़रिए या फिर यक़ीनन शैतान के ज़रिए। उस तन्हा अंधेरे में तीसरे दर्जे के लोग अपनी-अपनी मजबूर हथेलियों पर एक ना-क़ाबिल-ए-फ़हम मुहर लगा कर धक्के खाते हुए दाख़िल होते जाते हैं। नहीं मैंने उन दोनों से कोई इंतिक़ाम नहीं लिया। मैं मरने के बाद फिर उस घर की तरफ़ कभी भटका भी नहीं जो कभी मेरा ही था और जहाँ अब वो दोनों बहुत आराम से रह रहे हैं।

    उनसे बदला लेने के बजाय मैंने तफ़रीह करना ही बेहतर समझा। आपकी कायनात में इंतिक़ाम, इंसाफ़, सज़ा वग़ैरा बड़े अलफ़ाज़ हैं मगर हम भूत उन्हें खिलंडरे अंदाज़ में क़बूल करते हैं। इंतिक़ाम लेना सिवाय वक़्त की बर्बादी के और कुछ था और फिर हमारी दुनिया की अपनी शराइत हैं, मजबूरियाँ हैं जो आपकी समझ में हरगिज़ नहीं सकतीं। बस इतना ज़रूर सोच कर देखें कि ये जो लोग तंग आकर मौत की दुआ माँगते हैं या मौत को जो अज़ीम और अबदी छुटकारा कहा गया है, ये एक ग़लतफ़हमी भी हो सकती है। मुमकिन है कि अस्ल परेशानी मरने के बाद ही शुरू होती हो।

    अब मैं आपको ये कहने से नहीं रोक सकता कि ये 'कहानी' हो कर सिर्फ़ एक लतीफ़ा है लेकिन इतना याद रखिए कि हर लतीफ़े की अपनी एक निजी दहशत होती है। देखना सिर्फ़ ये है कि ये दहशत लतीफ़े से रेंग-रेंग कर कब बाहर आती है और किस बद-नसीब रूह को अपने लिए मुंतख़ब करती है।

    बिल्ली बन कर बहुत भटक चुका। अब मैं वापस अपने खंडर की तरफ़ रहा हूँ। वो सिनेमा हॉल अब नहीं है। उसकी कुर्सियाँ भी नीलाम हो चुकी हैं। कब की बात है जब मैं बाज़ार में फ़िल्म देखने गया था जिसे सिनेमा घर भी कहते हैं? मगर वहाँ कोई तस्वीर नहीं थी। बस तने हुए कफ़न की तरह एक सफ़ेद पर्दा था। मैं उस वीरानी से उकता कर बाज़ार से अपने लिए एक जोड़ा जुराब ख़रीद लाया जो मेरे ग़ैर मरई पैरों में ही नहीं रहा है और उनसे अलग लटक रहा है जैसे हवा की खूँटी पर टाँक दिया गया हो।

    आपकी दोपहर अब ढ़ल चुकी है। लू के झक्कड़ भी कम हो गये हैं। मैं आपको इस फ़िल्म की वापसी का टिकट मुफ़्त देता हूँ और आपसे रुख़्सत चाहता हूँ।

    पस-नविश्त, (क़िस्सा-नवीस का एक मुख़्तसर सा नोट)

    अब वो पूरी तरह मेरी नज़रों से ओझल हो चुका है। वो एक भयानक सियाह दलदल में उतर चुका है। उसे अपने सुर और अपनी लय के लिए एक आला मूसीक़ी मिल गया है और उसने वो पुर-असरार धुन बजाना शुरू कर दी है जो उसके वुजूद ही की तरह तजरीदी है। उसके चारों तरफ़ ख़तरनाक जानवरों की दहाड़ें और ज़हरीले हशरात-उल-अर्ज़ की सरगोशियाँ हैं। मैं उस दलदल से बाहर खड़ा हूँ। कुछ देर तक मैं उसकी उस धुन को सुनूँगा और फिर उसे हमेशा के लिए उस दलदल में धँसा हुआ छोड़ कर वापस लौट आऊँगा।

    स्रोत:

    (Pg. 131)

    • लेखक: ख़ालिद जावेद
      • प्रकाशक: पेंगुइन बुक्स, इंडिया

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