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आलाँ

MORE BYअहमद नदीम क़ासमी

    स्टोरीलाइन

    आलाँ गाँव के मरहूम मोची की एक अल्हड़ और खूबसूरत लड़की है जिसका बाप उसे बिना जूते गांठना सिखाए मर गया था। इसलिए वह सारे गाँव के घरों में काम करती है और अपना गुज़र-बसर करती है।आरिफ़ मियाँ गाँव में अपने बाप की बर्सी पर आया हुआ है। हवेली में उसकी मुलाकात आलाँ से होती है। गाँव के नौजवान लड़के समझते हैं कि आलाँ निकम्मी है और कुछ नहीं जानती। हालाँकि आलाँ सारे काम करना जानती है। वह आटा पीसती है, फर्श लीपती है, मिर्च कूटती है, पानी भरती है और भी बहुत से काम जानती है। जाने से पहले जब आरिफ़ उससे मिलने आता है तो वह उसके सामने राज़ फ़ाश करते हुए कहती है, आलाँ प्यार करना भी जानती है।

    अम्मां अभी दही बिलो रही थीं कि वो मिट्टी का प्याला लिये निकली। ये देख कर कि अभी मक्खन ही नहीं निकाला गया तो लस्सी कहाँ से मिलेगी? वो शश-ओ-पंज में पड़ गई कि वापस चली जाए या वहीं खड़ी रहे।

    “बैठ जाओ आलाँ! अम्माँ ने कहा, “अभी देती हूँ... कैसी हो?”

    “जी अच्छी हूँ!”

    वो वहीं बैठ गई जहाँ खड़ी थी। कुछ देर के बाद अम्माँ बोलीं, “अब मैं मक्खन निकालने लगी हूँ, बुरा मानना...”

    नियत बुरी हो तब भी नज़र लग जाती है! अभी पिछले दिनों नूराँ ने मुझे मक्खन का पेड़ा निकालते देखा था तो दूसरे दिन मुर्ग़ी के अंडे के बराबर मक्खन निकला... और उस से अगले दिन चिड़िया के अंडे के बराबर... गाय को तीन दिन मिर्चों की धूनी दी तो नज़र उतरी!

    आलाँ गटकी, “नज़र तो कभी-कभी मेरी भी लगती है बी-बी जी! इससे पहले आपका शीशे का एक गिलास तोड़ चुकी हूँ।”

    “हाँ हाँ!” अम्माँ को याद गया।

    तुमने कहा! “हाय बी-बी जी! कैसा साफ़-शफ़्फ़ाफ़ है कि नज़र आर-पार जाती है। और फिर यूँही पड़े पड़े छनाके से टूट गया! मैं तो हैरान रह गई।”

    फिर उन्होंने आलाँ को डाँटा मगर उस डाँट में ग़ुस्सा नहीं था। “लो...! अब परली तरफ़ देखो!”

    और वो मुस्कुराती हुई एक तरफ़ घूम गई और सामने देखने लगी, सामने मैं बैठा था। मुझे देखते ही वो दुपट्टे का पल्लू आधे सर पर से खींच कर माथे तक ले आई और बोली, “बीबी जी! अंदर छोटे मियाँ जी तो नहीं बैठे?”

    “अरी! वही आरिफ़ तो है...! रात आया है।”

    आलाँ उठ कर दरवाज़े तक आई और बोली, “रद बलाएँ दूर बलाएँ।”

    “कैसी हो आलाँ?” मैं ने पूछा।

    “जी अच्छी हूँ”, वो बोली।

    फिर उसके चेहरे पर शरारत चमकी, “पहले तो मैं आपको पहचानी ही नहीं! मैं समझी, कोई बच्चा मूँछें लगाए बैठा है।”

    इस पर अम्मां की हंसी छूट गई, तौबा है। कम्बख़्त ऐसी बातें करती है कि... तौबा है!

    आलाँ दहलीज़ पर यूँ बैठ गई कि उसका एक पाँव बाहर सेहन में था और एक कमरे के अंदर।

    “आरिफ़ मियाँ! परदेस में आप क्या करते हैं?”

    उसने मुझसे यूँ पूछा जैसे चौपाल में बैठी गप लड़ा रही है। साथ ही वो अलमूनियम के एक प्याले को फ़र्श पर एक उंगली से मुसलसल घुमाए जा रही थी।

    मैंने कहा, “नौकरी करता हूँ रुपया कमाता हूँ।”

    “बी-बी जी को कितना भेजते हैं?” उसने शरारत से मुस्कुरा कर पूछा!

    “ए लड़की!” अम्माँ ने उसे डाँटा, “अपनी उम्र के लड़कों से यूँ बातें नहीं करते। अब तू छोटी नहीं है… क्या अभी तक तुझे किसी ने नहीं बताया कि तू बड़ी हो गई है?”

    वो दहलीज़ पर बैठी बैठी अम्मां की तरफ़ घूम गई। अब उसके दोनों पाँव सेहन में थे और बालों का एक ढेर कमरे में था। “कौन बताए बी-बी जी?”

    वो बोली! “अम्माँ-अब्बा होते तो बताते! उन्हें तो ख़ुदा के पास जाने की इतनी जल्दी पड़ी थी कि मेरे सर पर से अपना हाथ उठाया तो इंतिज़ार भी नहीं किया कि कोई इस लड़की के सर पर हाथ रखे तो चलें”, आलाँ की आवाज़ को आँसुओं ने भिगो दिया था।

    मैंने कहा! “आलां… तुम्हारी माँ तो कब की चल बसी थी क्या बाप भी चल दिया?”

    अब के घूम कर उसने दोनों पांव कमरे में रख दिए और बोली, “जी! वो भी चला गया। मैं लड़का होती तो शायद मुझे जूते गांठना सिखा जाता पर वो मुझसे रोटियाँ ही पकवाता रहा। अब मैं एक मोची की बेटी हूँ पर अपने जूते दूसरों से मरम्मत करवाती हूँ।”

    “तो क्या हुआ?” अम्माँ बोलीं, “तुझे सिर्फ़ जूते गांठना नहीं आते न! बाक़ी तो सब काम आते हैं। अपनी मेहनत से कमाती और खाती हो। सारा गाँव तुम्हारी ता'रीफ़ करता है… लो लस्सी ले लो!”

    आलाँ जो अम्माँ की गुफ़्तुगू के दौरान में उन्ही की तरफ़ घूम गई थी, उठी और जा कर प्याला अम्माँ के पास रख दिया।

    वो लस्सी का प्याला ले कर जाने लगी मगर चंद क़दमों के बाद एक दम रुक गई और पलट कर बोली!

    “आज भी चक्की पीसने जाऊँ बी-बी जी?”

    “आ जाना जाना!” अम्मां बोलीं, “आटा तो ढेरों पड़ा है पर आरिफ़ के अब्बा की बरसी भी तो ज़्यादा दूर नहीं है। कई बोरियों की ज़रूरत पड़ेगी… जाना!”

    “जी अच्छा!” वो बोली, फिर वहीं खड़े खड़े मुझसे पूछा, “आरिफ़ मियां! आप कितनी छुट्टी पर आए हैं?”

    मैं ने कहा! “मैं अब्बा की बरसी कर के जाऊँगा।” बोली, “फिर तो बहुत दिन हैं।”

    मैं जब गांव में इधर-उधर घूम कर वापस आया तो वो अंदर एक कोठरिया में बैठी चक्की पीस रही थी। ओढ़नी उसके सर से उतर गई थी और खुले बाल चक्की के हर चक्कर के साथ उसके चेहरे को छुपा और खोल रहे थे, उसने एक टांग को पूरा फैला रखा था, नीला तहबंद उसकी पिंडलियों तक खिंच गया था। अगर ऐसी पिंडली को काट कर और शीशे के मर्तबान में रखकर ड्राइंगरूम में सजा दिया जाए तो कैसा रहे! मैंने इधर उधर देखा! अम्माँ कहीं नज़र आईं तो मैं पंजों के बल कोठरिया तक गया।

    दरवाज़े से आती हुई रौशनी एक दम कम हुई तो उसने चौंक कर देखा, चक्की रोक ली, बालों को झुक कर समेटा और ओढ़नी को सर पर खींच लिया मगर फैली हुई टांग को फैला रहने दिया। फिर वो चक्की की हत्थ को थाम कर आहिस्ता-आहिस्ता घुमाने लगी और मेरी तरफ़ देखती चली गई...।

    उस वक़्त मेरा पहला तास्सुर ये था एक मोची की बेटी की आँखों को इतना बड़ा नहीं होना चाहिए, ग़रीब-गुर्बा को छोटी छोटी आँखें ही किफ़ायत कर जाती हैं।

    उसके चेहरे पर शरारत थी और इस डर के मारे कि वो कोई फ़िक़रा मार दे मैंने पूछा, “अम्माँ कहाँ हैं?”

    वो बोली! “तो क्या आप बी-बी जी को देखने यहाँ तक आए थे?”

    “तो क्या तुम्हें देखने आया था?” मुझे हमले को मौक़ा मिल गया। उसने बस इतना किया कि टांग समेटी और फिर फैला दी। फिर वो कुछ कहने ही लगी थी कि मैं ने फिर पूछा, “अम्माँ कहाँ हैं?”

    “यहीं हवेली में हैं!” उसने कहा!

    “आप के चचा की बेटी बीमार हैं उन्हें देखने गई हैं।”

    मैंने कहा, “ये जो तुम पिसाई कर रही हो उसकी कितनी उजरत लोगी?”

    दो दिन का आटा तो मिल ही जाएगा, उसके लहजे में काट सी थी जाने तंज़ कर रही थी या उसका लहजा ऐसा था।

    “अच्छा दो दिन गुज़र गए तो फिर क्या करोगी?”

    “फिर जाऊँगी आटा पीसने, पानी भरने या छतें लीपने।”

    “छतें लीपने! क्या तुम्हें छतें लीपना भी आता है?” मैंने सचमुच हैरत से पूछा।

    वो बोली! “मुझे क्या नहीं आता आरिफ़ मियां!”

    “बस एक जूते गाँठने नहीं आते... और बहुत कुछ आता है।”

    “मसलन क्या क्या आता है?” मैं ने शरारत से पूछा।

    और... और... वो कुछ बताने लगी थी मगर जैसे सोच में पड़ गई और आख़िर बोली, “सभी कुछ आता है...! आप देख लेंगे हौले-हौले।”

    चंद लम्हे वो यूँ चक्की चलाने में मस्रूफ़ रही जैसे मुझे भूल गई है। फिर चक्की रोक कर उठ खड़ी हुई और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। मैं एक तरफ़ हटा तो वो बाहर गई और बोली,

    “प्यास लगी है... पर बीबी जी का कटोरा झूटा हो जाएगा, मुझे बक में पिला दीजिए!”

    “तुम कटोरे में ही पी लो!” मैंने कहा, और फिर डाँट के लहजे में कहा, “चलो ! उठाओ कटोरा...! पियो पानी!”

    उसकी मुस्कुराहट कितनी गुलाबी थी...।

    ज़िंदगी में पहली बार इन्किशाफ़ हुआ कि मुस्कुराहट का भी रंग होता है।

    वो पानी पी चुकी तो कटोरे को खंगालने के लिए उसमें ज़रा सा और पानी डाला। मैंने कहा! “भर दो कटोरा!”

    वो समझी शायद मैं कटोरे को पूरी तरह पाक कराना चाहता हूँ। कटोरा भर गया तो उसने मेरी तरफ़ देखा और मैंने कटोरा उसके हाथ से उचक कर मुँह से लगा लिया...।

    “आरिफ़ मियां जी...” वो इंतिहाई हैरत और सदमे से बोली, वो हवास बाख़्ता मेरी तरफ़ देखती रही और जब मैंने ख़ाली कटोरा वापस किया तो उसके हाथ में रअ'शा था और उसकी आँखों पर नमी की एक चमकीली तह नमूदार हो गई थी और उसने ओढ़नी को यूँ कस के लपेट लिया था जैसे नमाज़ पढ़ने चली है।

    गाँव में जवान लड़की का एक एक क़दम गिना जाता है एक एक नज़र का हिसाब रखा जाता है, बहुत से दोस्त बैठे थे लड़कियों का ज़िक्र हो रहा था फ़लाँ, फ़लाँ के साथ है।

    मैंने कहा! “एक लड़की आलाँ भी तो है नादिरे मोची की बेटी...”

    इस पर सब हँसने लगे... “वो...!”

    उन्होंने कहा, “वो किसी काम की नहीं है। घर-घर में काम करती फिरती है, रुपया कमा रही है, ख़ूबसूरत है पर निकम्मी है।”

    एक बार बेगू मुंछैल ने छेड़ा तो बोली! “मैं मोची की बेटी हूँ खाल उतार लेती हूँ।” बेगू को इतनी शर्म आई कि सीधा नाई के पास गया और मूंछों की नोकें कटवा दीं। सब हँसने लगे और देर तक हंसते रहे।

    मैंने कहा, “अगर वो इतनी मेहनती लड़की है तो उसकी इज़्ज़त करनी चाहिए।”

    एक बोला! “वो इज़्ज़त भी तो नहीं करने देती।”

    इस पर सबको एक-बार फिर हंसी का दौरा पड़ा।

    दूसरा बोला! “तुम्हारे हाँ तो वो बहुत काम-काज करती है कभी उसकी इज़्ज़त कर के देखो खाल उतार लेगी।”

    वो फिर हँसने लगे और मुझे उनकी हंसी में शरीक होना पड़ा मगर... मुझ से अपनी हंसी की आवाज़ पहचानी ही नहीं गई, बिल्कुल टीन के ख़ाली कनस्तर में कंकर बजने की आवाज़!

    मैं घर वापस आया तो वो दरवाज़े से निकल रही थी, चेहरा बिल्कुल तपा हुआ था आँखें भी सुर्ख़ हो रही थीं, मैं चौंका और पूछा, “क्या बात है आलाँ? तुम रोती रही हो?”

    वो हँसने लगी और हंसी के वक़फ़े में बोली, “रोएं मेरे दुश्मन, मैं क्यों रोऊँ? मैं तो मिर्चें कूटती रही हूँ आरिफ़ मियाँ!”

    “तुम मिर्चें भी कूट लेती हो?” मैंने पूछा कोई ऐसा काम भी है जो तुम्हें करना आता हो! “तुम इतने बहुत से काम क्यों करती हो आलाँ?”

    वो बोली, “रुपया कमा रही हूँ, आप तो जानते हैं रुपये वाले लोग ग़रीब लड़कियों को ख़रीद लेते हैं, मेरे पास रुपया होगा तो मुझ पर नज़र उठाने की किसी को मजाल नहीं होगी... है किसी की मजाल?”

    फिर वो मेरे क़रीब कर सरगोशी में बोली, “मैंने आप के कुर्ते के लिए मलमल ख़रीदी है, उस पर बेल-बूटे काढ़ रही हूँ!”

    “ये ग़लत बात है!” मैं ने एहतिजाज किया, “तुम्हारी मेहनत से कमाए हुए रुपये से ख़रीदा हुआ कुर्ता मुझे काटेगा।”

    “मैं किसी को बताऊंगी थोड़ी!” वो बोली, “आप भी ना बताइएगा, फिर नहीं काटेगा!” वो गटकी फिर एक दम घबरा गई, “हाय मैं मर जाऊँ!”

    “कहीं बीबी जी तो नहीं सुन रहीं...”

    बीबी जी के लफ़्ज़ पर मेरे जिस्म में भी सनसनी दौड़ गई। अंदर झाँका तो सेहन ख़ाली था पलट कर देखा तो वो जा चुकी थी।

    ठीक है! मैं ने सोचा, अच्छी लड़की है! प्यारी भी है! शोख़ भी है! सब कुछ है मगर आख़िर मोची की लड़की है और ख़ानदान के बुज़ुर्ग कह गए हैं कि बुलंदी पर खड़े हो कर गहरे खड्डे में नहीं झांकना चाहिए वर्ना आदमी गिर जाता है।

    अब्बा की बर्सी के रोज़ हमारे हाँ पूरा गाँव जमा था, मगर उस हुजूम में भी आलाँ की दौड़-भाग नुमायाँ थी वो फिरकनी की तरह घूमती फिर रही थी, यूँ मा'लूम होता था जैसे कि अगर ये लड़की इस हुजूम से निकल गई तो बर्सी की सारी तंज़ीम बिगड़ जाएगी। वो बिल्कुल बर्मे की तरह हुजूम में से रास्ता बनाती हुई पार हो जाती और पलट कर गड़ाप से अम्मी के कमरे में घुस कर किवाड़ धड़ से बंद कर देती वहाँ से हिदायात ले कर वो फिर बाहर निकलती और फिर से हुजूम में बर्मा लगा देती!

    इ'शा की अज़ान तक सारा गाँव खाना खा चुका था। ख़ाली देगें एक तरफ़ समेट दी गई थीं। नाई, धोबी, मीरासी, मोची सभी फ़ारिग़ कर दिए गए थे, दिन-भर के हंगामे के बाद एक बहुत भारी सन्नाटा घर पर टूट पड़ा था। आख़िरी मेहमान को रुख़्सत कर के जब मैं अम्मी के कमरे में आया तो मुझे यक़ीन था कि आलाँ बैठी अम्मी के बाज़ू और पिंडलियाँ दबा रही होगी। मगर अम्मी तो अकेली बैठी थीं, ज़िंदगी में शायद पहली बार अम्मी का लिहाज़ किए बग़ैर मैं उनसे पूछ बैठा, “आलाँ कहाँ है?”

    मगर अम्मी इस सवाल से बिल्कुल नहीं चौंकीं, बोलीं, “वो लड़की हीरा है बेटा! बालक हीरा!

    आज तो वो मेरी आँखें, मेरे बाज़ू मेरा सब कुछ थी। दिन-भर की थकी माँदी तो थी ही, खाने बैठी तो दो-चार निवालों के बाद जी भर गया। उठ कर जाने लगी तो मैंने उसे रोका उसकी देगची को चावलों से भरा और उसे ले जाने को कहा तो वो बोली!

    “ये चावल तो मुझे आरिफ़ मियां देते हुए भले लगते! औरों को रुख़्सत करते रहे पर उन्होंने मुझे तो पूछा ही नहीं...”

    मैं नहीं ले जाती, उस ने ये बात हंसी में कही! पर उसने ठीक कहा बेटा! अंदर का सारा काम उसी ने सँभाले रखा... तुम तो सबको रुख्सत कर ही रहे थे, उसे भी रुख़्सत कर देते! वैसे तो वो हंसती हुई चली गई है पर उसे हँसने की आ'दत है... और बेटा! जिन लोगों को हँसने की आ'दत होती है ना... उन्हें जब रोना भी होता है तो वो हँसने लगते हैं! जब वो हंसते हैं तो अंदर से रो रहे होते हैं। तुमने एक मोचन समझ कर आलाँ की इज़्ज़त की हालाँकि आलाँ का अपना मान है। उसका ये मान क़ायम रखो बेटा और चावलों की ये देगची उसे दे आओ! थोड़ी देर पहले गई है, सोई नहीं होगी। फिर कल सुबह तुम जा भी रहे हो। वो क्या याद करेगी तुम्हें...? जाओ!

    आलां अपने घरौंदे के दरवाज़े के पास चारपाई पर लेटी हुई थी, मैंने पास जा कर उसे आहिस्ता से पुकारा तो वो तड़प कर यूँ खड़ी हो गई जैसे उसके क़रीब कोई गोला फटा है।

    “आरिफ़ मियाँ जी! वो बोली, चावल देने आए होंगे!”

    मैंने कहा! “हाँ! चावल ही देने आया हूँ।”

    “लाइए!” उसने हाथ बढ़ाए, “बीबी जी ने बताया होगा... मैं ने क्या कहा था?” वो हँसने लगी।

    “हाँ! बताया है।” मैंने कहा!

    देगची लेकर उसने चारपाई पर रख दी और बोली, “वहाँ घर में देते तो ज़्यादा अच्छा लगता! वैसे अब भी अच्छा लग रहा है।”

    कुछ समझ में नहीं रहा था कि क्या कहूँ?

    आख़िर एक बात सूझी, “मैं कल वापस जा रहा हूँ!”

    “वो मुझे मा'लूम है!” आलाँ बोली।

    “मा'लूम था तो वहां घर में ज़रा सी देर रुक जातीं!” मैंने कहा।

    वो बोली! “आपके कुर्ते का आख़िरी टांका बाक़ी था वो के लगाया है... बक्से में उस कुर्ते की जगह तो होगी नाँ?”

    “और हाँ सुबह आपका बक्सा उठा कर बसों के अड्डे पर मुझे ही तो पहुँचाना है! बीबी जी ने कहा था।”

    मैंने कहा, “तुम क्या कुछ कर लेती हो आलाँ?”

    “चक्की तुम पीस लेती हो, छतें तुम लीप लेती हो, मिर्चें तुम कूट लेती हो, कुएँ से दो-दो तीन-तीन घड़े तुम पानी भर के लाती हो, पूरे घर का काम तुम सँभाल लेती हो, कुर्ते तुम काढ़ लेती हो, बोझ तुम उठा लेती हो। तुम किस मिट्टी की बनी हुई हो आलाँ?”

    वो ख़ामोश खड़ी रही, फिर दो क़दम उठा कर मेरे इतने क़रीब गई कि मुझे अपनी गर्दन पर उसकी साँसें महसूस होने लगीं...।

    “मैं तो और भी बहुत कुछ कर सकती हूँ! आरिफ़ मियाँ।”

    उसकी आवाज़ में झनकार सी थी! “आपको क्या मालूम...?”

    “मैं और क्या कुछ कर सकती हूँ...!”

    ज़रा से वक़फ़े के बाद वो बोली, “मुझसे पूछिए ना!... मैं और क्या कुछ कर सकती हूँ...?”

    पहली जमात के बच्चे की तरह मैंने उस से पूछा!

    “और क्या कुछ कर सकती हो...?”

    “मैं... प्यार भी कर सकती हूँ आरिफ़ मियां...!”

    उसने जैसे कायनात का राज़ फ़ाश कर दिया।

    स्रोत:

    Neela Patthar (Pg. 29)

    • लेखक: अहमद नदीम क़ासमी

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