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ऐ दिल ऐ दिल

जिलानी बानो

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जिलानी बानो

MORE BYजिलानी बानो

    स्टोरीलाइन

    नादीदा महबूबा के इश्क़ में मुब्तिला होने की दिलचस्प दास्तान है। इसमें इंसान की नफ़्सियाती पेचीदगियों को सुंदर ढंग से बयान किया गया है। महमूद एक शर्मीला और भोला सा कॉलेज का छात्र है जबकि उसका दोस्त तारिक़ एक मनचले क़िस्म का नौजवान है, जो राह चलते लड़कियों पर फ़ब्तियाँ कसने और बालकनियों में खड़ी कुमारियों को देखकर आहें भरने से भी बाज़ नहीं आता। एक दिन तारिक़ ने अपनी आदत के अनुसार बालकनी में खड़ी एक लड़की को देखकर आहें भरनी शुरू कीं और फिर उसकी तारीफ़ों में क़सीदे पढ़ने शुरू कर दिए। महमूद पर उन तारीफ़ों का अजीब नफ़्सियाती असर हुआ। कुछ तो तारिक़ की वाकपटुता और कुछ अपनी स्वाभाविक जिज्ञासा के आधार पर वो नादीदा महबूब की मुहब्बत में मुब्तिला होता गया। अपने ग़म को ग़लत करने की ख़ातिर उसने शायरी शुरू कर दी और बहुत जल्द उसकी गिनती शहर के मशहूर शायरों में होने लगी। शादी की तरफ़ से उसका दिल उचाट था लेकिन बहनों के आग्रह से मजबूर हो कर उसने शादी कर ली। तीन बच्चों की पैदाइश की बावजूद वो अपनी बीवी को मुहब्बत और तवज्जो न दे सका। दस साल के बाद जब तारिक़ उसके घर आता है और उसकी बीवी को देखता है तो ये रहस्य खुलता है कि महमूद जिस नादीदा महबूबा के फ़िराक़ में घुले जा रहे हैं वो उनकी यही बीवी है।

    ये औ’रत ज़ात भी अ’जीब गोरखधंदा है। मिल जाए तो नज़र नहीं आती और मिले तो उसके सिवा कुछ सुझाई नहीं देता। मुझसे कोई पूछे कि मैंने ज़िंदगी-भर क्या किया है तो मेरा जवाब यही होगा कि मैंने सिर्फ़ औ’रत की ख़ूबसूरती का ज़हर पिया है। ये ज़हर मेरी रग-रग में दौड़ रहा है। ये मेरी सारी ज़िंदगी में कड़वाहट घोल गया है। आज कैसी सर्द रात है। हाथ पाँव ठंडे बर्फ़ होते जा रहे हैं। बाहर हवा कितनी तेज़ी से चल रही है। जैसे बंद दरवाज़ों और बंद दिलों को आज झिंझोड़ने पर तुली हुई हो। ये तेज़ हवा आज हर बदन को सर्द कर देगी। हर दिल की भड़कती हुई आग बुझा देगी।

    आज दस बरस के बा’द तारिक़ आया था मगर वो अपने साथ क्या-क्या ले गया। मैं उस आदमी की तरह गिरा जा रहा हूँ जिसके सर पर दस बरस तक दस मन बोझ रक्खा हो। मैंने शाम से अब तक शराब की दो बोतलें चढ़ा डाली हैं। लेकिन पता नहीं आज शराब को भी क्या हो गया है। आज मेरी शाइ’री कहाँ चली गई। आज मेरे मूड को क्या हो गया। सब मेरा साथ छोड़ चुके हैं। कोई मेरे पास नहीं है... जमीला भी... वो अपने बच्चों को सीने से लगाए गर्म लिहाफ़ में दुबकी बड़े सुख की नींद सो रही है। कितना सुकून है मेरी बीवी के चेहरे पर... वो बिल्कुल नहीं जानती कि उसने अपनी मा’सूमियत, इस दहकते हुए हसीन चेहरे की आग से किसी की पूरी ज़िंदगी तबाह कर डाली है।

    कोई मुझसे पूछे कि मैंने ज़िंदगी-भर क्या किया है? बस यही कि एक औ’रत की एक झलक देखने के लिए इंतिज़ार करता रहा। इस इंतिज़ार में लड़कपन से बुढ़ापे की सरहद पर लगा। इसी धुन में ज़िंदगी के सारे लुत्फ़, तमाम मज़े, उमंगों की उ’म्र का तमाम हुस्न... सब मेरे आस-पास से मुझे छूए बग़ैर गए।

    अपने ऊपर लिहाफ़ खींच कर में तारीकी की गोद में छिप जाता हूँ, जैसे अब मुझे बाहर की रौशनी से, तीखी सर्द रात से, और बे-ख़ुद बना देने वाली चाँदनी के जादू से कोई सरोकार हो। अँधरे में पूरी तरह आँखें खोल कर मैं पंद्रह साल पहले की ज़िंदगी की एक-एक याद को सामने रख रहा हूँ। वक़्त की गर्द झाड़ पोंछ कर उन्हें चमका रहा हूँ।

    मैं इस वक़्त कहाँ हूँ। कहाँ गया हूँ? मेरे पास पलंग पर मेरे तीनों बच्चे सो रहे हैं। और वो... वो औ’रत जो मेरी बीवी है... वो हमेशा दूसरे पलंग पर अपने बच्चों के साथ सोती है, क्योंकि मैं हमेशा उससे बहुत दूर रहा हूँ। जब कभी दो पैसे की टकेहाई की तरह ज़रा देर के लिए में उसे अपने पास बुलाता तो मेरे तसव्वुर में कोई और औ’रत होती और इस वक़्त में ये सोच सोच कर हसद की आग में जलने लगता कि वो भी किसी मर्द की बाँहों में होगी। फिर मैं जमीला को पलंग पर धकेल देता था और अपनी सिसकियों को हलक़ में दबा कर ख़ुद ही पलंग पर गिर जाता था। कुछ दिन बा’द जमीला इस भेद को समझ गई थी। ऐसे वक़्त वो मेरे बालों पर हाथ फेरने लगती, अपने गाल मेरे कांधे से लगा कर कहती, “कभी मुझे भी तो बताइए वो कौन थी? कहाँ है?”

    उस रात हम दोनों जागते थे। मैं उसकी याद में, और जमीला मेरा साथ देने के लिए। जमीला का हाथ मेरे हाथ में होता। जमीला के कांधे पर मेरी गर्दन होती। उसके खुले हुए बाल मेरे आँसुओं से भीग जाते, कैसी अ’जीब औ’रत है ये जमीला... मुझे अक्सर तअ’ज्जुब होता कि वो मुझे छोड़कर क्यों नहीं चली जाती? वो मुझसे क्या पाने की उम्मीद में बैठी है? जमीला की इसी अदा ने मुझे घेरे रक्खा था और इसी चक्कर में आकर में उसके तीन बच्चों का बाप बन गया।

    हालाँकि मेरा दिल अभी तक कुँवारा था। मैंने अपनी चाहत, अपनी प्यास, अपनी मुहब्बत का हीरा अभी तक अपने ही दिल में छुपाए रक्खा था।

    मर्द की भी अ’जीब ज़ात होती है... इ’श्क़ के धंदे में वो कभी बीवी को शामिल नहीं करता। बीवी रोटी सालन की तरह ज़िंदगी की एक ज़रूरत बन जाती है, लेकिन उसकी ज़िंदगी की तकमील हमेशा महबूबा से होती है।

    वो अनकहा जज़्बा, वो बे-नाम सी तड़प, दिल की वो गिरहें जो किसी के चाहने से खुल जाती हैं, मेरे दिल में बंद पड़ी थीं और मैं पुर्वा में दुखने वाले ज़ख़्म की तरह यादों के घाव को समेटे बैठा था। एक ऐसे दुख को जो सिर्फ़ मेरा था। मुझे ख़ुद याद नहीं था कि ये क़िस्सा कब शुरू’ हुआ था।

    मैं फ़र्स्ट ईयर के लिए पहली बार कॉलेज गया तो तारिक़ से दोस्ती हो गई। इससे पहले मैं एक अम्माँ की सख़्त निगरानी में पला हुआ हाईस्कूल का एक भोला-भाला लड़का था। कभी अकेले सिनेमा जाने की इजाज़त मिली थी रूमानी नावल पढ़ने की। अम्माँ ज़ालिम बा’दशाहों की तरह निगरानी करती थीं। और अब्बा कहते थे कि लड़कों का काम सिर्फ़ ये है कि दिन रात आँखों से किताबें लगाए रखें। मैं भी अपनी इस हालत पर क़ाने’ हो चुका था कि शरीफ़ लड़कों का यही वतीरा होता है।

    मगर कॉलेज में तारिक़ क्या मिला कि उसने अम्माँ के सारे अहकाम दिमाग़ से निकाल फेंके। तारिक़ बड़ा छटा हुआ था। वो मेरे सामने ऐसी-ऐसी बातें ले बैठता कि घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल हो जाता था। वो दुनिया की हर बात जानता था। मुहल्ले की लड़कियों से इ’श्क़ लड़ाता था और छुप-छुप कर सिगरेट भी पीता था। मैं तारिक़ से दूर-दूर रहना चाहता था मगर कोई अनजानी कशिश मुझे उसके क़रीब खींच कर ले जाती थी।

    तारिक़ बड़ा बातूनी और बे-बाक था। रास्ता चलती लड़कियों को देखकर बे-झिजक सीटियाँ बजाता, उनके नाक-नक़्शे पर फ़िक़रे कसता, उनकी अदाओं का ज़िक्र कर के मुहब्बत के ना’रे लगाता। मुझे उसकी बातें सुनकर बड़ी शर्म आती थी। इसके बावजूद मैं गुम-सुम उसके साथ-साथ चलता। एक दिन हम दोनों कॉलेज जा रहे थे कि अचानक तारिक़ ने कहीं ऊपर देखते हुए कहा, “खड़ी है... खड़ी है... अरे! हाय हाय अंदर चली गई!”

    “कौन? कौन थी?”, मैंने ऊपर देखते हुए पूछा।

    ”हाय हाय! क्या चीज़ है ज़ालिम मैं तुझे बता नहीं सकता। यार ये बता तुझे शाइ’री करना आती है?”

    “शाइ’री...?”, मैंने डरते डरते कहा, “बस थोड़ी-थोड़ी आती है। अस्ल में अब्बा बड़े अच्छे शाइ’र हैं।”

    “अरे हटा यार... हमें ऐसी बासी, फीकी सेठी फटीचर शाइ’री नहीं चाहिए... काश, काश। हाय काश कोई शाइ’र उसे देख ले।”

    “किसे?”, मैंने फिर डरते-डरते पूछा।

    “अरे उसी परी-रुख़, शोला-बदन, माहपारा को... यार ख़ुदा की क़सम रंग तो ऐसा जैसे गुलाब जामुनों का खोया गुँधा रक्खा हो... और होंट ऐसे रसीले कि... कि...”, वो बड़ी शरारत से मेरी तरफ़ देखने लगा। मेरे तो जाने क्यों हाथ पाँव ठंडे होने लगे। उस दिन क्लास में मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया। घर आया तो इख़्तिलाज सा हो रहा था। मैंने खाना खाया और आँखें बंद कर के लेट गया। दो रस भरे नाज़ुक से होंट मेरे बिल्कुल क़रीब जाते थे और मैं काँप जाता। फिर घबरा कर इधर-उधर देखता कि कहीं अम्माँ को तो मेरे ख़यालों की आवारगी नज़र नहीं रही है। उस दिन अम्माँ के साथ में खाना खाने बैठा तो मैंने डरते-डरते कहा ,“अम्माँ! तुम गुलाब जामुन क्यों नहीं बनातीं?”

    “अच्छा कल बना दूँगी”, अम्माँ को तरह-तरह की मिठाईयाँ बनाने का बड़ा शौक़ था।

    “अम्माँ, गुलाब जामुनों में क्या खोया डालते हैं?”, मैंने जाने क्यों पूछ लिया।

    “हाँ खोया... मैदा... शक्कर और घी...”, खोया... मैदा... शुक्र और घी। मैंने अपने होंट दाँतों में दबा कर सोचा कि मैं भी शाइ’री करूँगा। उस दिन शाम होते ही मैं बड़ी बेताबी से बाहर निकला और उसी जगह खड़े हो कर इधर-उधर देखने लगा। एक मोटी सी उधेड़ उ’म्र की पंजाबन सूप लिए बालकनी में आई और कद्दू के बीज और छिलके नीचे फेंक गई। फिर दो बच्चे लड़ते हुए गुज़र गए। एक मोटा सा सियाह-फ़ाम मर्द रेलिंग से नीचे झुककर नाक साफ़ करने लगा। ऊपर देखते-देखते मेरी गर्दन दुख गई। ढीले ढाले क़दमों से मैं घर की तरफ़ लौट आया।

    “ला यार, मिला हाथ गुलाब जामुन वाला... अभी-अभी जब मैं तुझसे मिलने रहा था तो...”, तारिक़ हाँप रहा था।

    “तो क्या हुआ?”, मेरा दम सीने में रुक रहा था।

    “यार आज तो गुलाबी कपड़े पहने हुए है। बस कुछ पूछो नहीं... ख़ुदा की क़सम मैंने तो आज उसके ऊपर से सूरज, चाँद, सितारे सब वार कर फेंक दिए। शोले की तरह दहक रही है कमबख़्त।”

    “चलो देखें।”, बे-ख़ुदी में तारिक़ का हाथ पकड़ के में तक़रीबन भागने लगा।

    “जो शर्ट अलगनी पर पड़ी है न, उसी की है। कल यही शर्ट पहने हुए थी।”, सियाह प्रिंटेड शर्ट अलगनी पर झूम रही थी, इतरा रही थी। जैसे हँस हँसकर हम दोनों को धता बता रही हो।

    “बस कमर तो इतनी सी है।”, तारिक़ ने अपने अंगूठे और पहली उँगली को मिला कर दायरा सा बना दिया। मेरी रग-रग में किसी तेज़ शराब का नशा सा दौड़ रहा था। मेरे सामने एक हयूला उभरा। एक शोला-बदन, परी-रुख़, माह-वश हसीना... मीठी-मीठी सेहर-अंगेज़।

    “चल यार, गुलाब जामुन खाने को जी चाह रहा है।”, तारिक़ ने थूक निगल कर कहा। हलवाई की दुकान पर जब हम दोनों खड़े गुलाब जामुन खा रहे थे तो तारिक़ को बिल्कुल एहसास था कि मेरे बदन पर कैसा लर्ज़ा तारी था।

    इतनी पतली कमर... कैसी नाज़ुक होगी वो... बिस्तर में लेट कर मैंने सोचा। गुलाबी लिबास में चमकती, गुलाब जामुन की तरह मज़ेदार। मेरे सीने में हल्का-हल्का सा दर्द होने लगा। लड़कपन की उदासी और तन्हाई ने मुझे घेरा और एक ग़ैर-महसूस महरूमी पर मेरी आँखें छलक पड़ीं। मैंने उसे अभी तक नहीं देखा। हल्की-हल्की सिसकियों से मेरा बदन लरज़ने लगा। जब आदमी किसी एक का हो जाए तो सारी दुनिया कितनी बे-मा’नी सी लगती है। कैसे अचानक बहुत दूर चली है! मेरे चारों तरफ़ अजनबी दीवारें उठने लगीं। कहानियों के भूले-बिसरे किरदारों की तरह मैं अम्माँ-अब्बा और बहन-भाईयों को देखने लगा। अब मैं सिर्फ़ उसी का हूँ। एक दिन मैंने अपनी नौजवानी के तमाम अ’ज़्म को समेट कर इरादा किया। मैं उसी के लिए पढूँगा, उसी के लिए जियूँगा।

    “हाय-हाय! हँसते वक़्त गालों पर कैसे प्यारे गड्डे से पड़ जाते हैं। जी चाहता है पर लग जाएँ और उसके पास पहुँच जाऊँ।”, तारिक़ आज फिर मूड में था।

    “क्या तुम्हें देखकर हँसी थी?”, मैंने धड़कते हुए दिल के साथ पूछा।

    “अरे नहीं यार... मगर कभी कभी वो दिन भी ही जाएगा। मेरा जी चाह रहा था कि वहीं से हाथ बढ़ा कर उसे नीचे उतार लूँ।”, हम दोनों खिसिया के हँसने लगे।

    “तूने अभी तक उसे नहीं देखा?”, एक दिन तारिक़ ने तअ’ज्जुब से पूछा।

    “नहीं मगर मैं तो... मैंने सोच लिया है कि... कि...”, मैं हकलाने लगा।

    “अरे यार ख़ुदा की क़सम सोचते तो हम भी हैं। मगर कमबख़्त हाथ कैसे लगे?”

    फिर कुछ सोच कर तारिक़ ने कहा, “सुन महमूद! वो कमला नेहरू पॉलीटेक्निक में पढ़ती है। किसी दिन विद्या से मिलने के बहाने वहाँ पहुँच जाओ। विद्या से उसकी बड़ी दोस्ती है।”

    “तुम्हें कैसे मा’लूम हुआ?”, मैंने तअ’ज्जुब से सोचा कि तारिक़ कैसे इतने बड़े-बड़े मरहले तय कर डालता है? विद्या हम दोनों की दोस्त थी और हमारी क्लासमेट भी रह चुकी थी। फिर एक दिन तारिक़ ने विद्या से कहा, “विद्या ज़रा उस शोला-बदन, परी-रुख़, माहपारा की एक झलक महमूद मियाँ को भी दिखा दो। ये बेचारे बस उसके तसव्वुर ही में अपना दिल धड़काते फिरते हैं।”

    “तुम दोनों तो पागल हो गए हो!”, विद्या ने बुरा मान कर कहा, “वो बड़ी शरीफ़ लड़की है। अगर उसे ये बात मा’लूम हो गई तो सच कहती हूँ कि वो बदनामी के डर से ज़हर-वहर खा लेगी।”

    विद्या चली गई तो मेरे पाँव मन-मन भर के हो गए। मीर, दर्द, ग़ालिब और दाग़ के जाने कितने शे’र मेरे कानों में गूँजने लगे। चिलमनों के पीछे से दीखने वाले उस मुखड़े पे मैं सौ जान से निसार हो गया। एक पर्दा-नशीन हसीना के तसव्वुर को मैंने अपने हवस-आलूद दिल से बहुत ऊपर बिठाया। कई बार मैं कमला नेहरू पॉलीटेक्निक गया। मगर इस ख़याल से दिल दहल-दहल गया कि कहीं मेरी नज़र उस पर पड़ जाए। वो एक मावराई हस्ती थी जिसके गिर्द मैं घूम रहा था।

    मैं उसे पाने की जुस्तजू में मरा जा रहा था और उसे देखने की ताब नहीं रखता था। आज मैं सोचता हूँ कि ये कैसा अफ़लातूनी इ’श्क़ था मेरा, मगर उस वक़्त अंग्रेज़ी नावलों, उर्दू शाइ’री और न्यू थियेटर्ज़ की फिल्मों ने मेरी उठती जवानी को एक ऐसा रूमानी सा रंग दिया था जिससे बाहर निकलना मुश्किल था।

    जब दिल में कोई भेद हो तो बदन कैसा भारी-भारी लगता है। यादों के बादल हर वक़्त छाए रहते। फिर अचानक कहीं से अँधियारी सी जाती और मुझे कुछ सुझाई नहीं देता। दूर कहीं से अपने आपको ख़्वाबों के दश्त में तन्हा भटकते हुए देखता हूँ। ये सब कैसे हो था! मैं ख़ुद हैरान था। जब अँधियारी रातों में अचानक कहीं से बादल जाते हैं और बिजलियाँ दिल दहलाने पर तुल जाती हैं तो मैं फ़ौरन रज़ाई में मुँह छिपा कर लेट जाता हूँ। मेरी पाँच बरस की लड़की राशिदा हँस हँसकर कहती है, “अब्बा बिजली से डरते हैं।”, उसे क्या मा’लूम कि मैं जाने किस-किस से डरता हूँ।

    ठंडे मोतियों जैसे मींह की फुवार मेरे दिल में आग लगा देती थी। उसे देखने के जाने कितने मौक़े आकर निकल गए, लेकिन मेरे दिल में उसका एक मद्धम सा तसव्वुर सलीब की तरह जम गया था। मैंने इस मौहूम से हयूले को एक ज़िंदा बदन दे दिया था... एक हया-परवर किरदार जिसकी अ’ज़्मत उसे याद करने में थी, उसे छूने या पाने में नहीं। फिर मैंने शाइ’री शुरू’ की। एक शकर-लब, शोला-बदन, परी-रुख़ के लब-ओ-रुख़सार की शाइ’री... तारिक़ ने सुनी तो ख़ूब दाद दी। फिर जब मैंने इंजीनियरिंग का डिप्लोमा लिया तो मेरी शाइ’री कॉलेज से निकल कर शहर के शाइ’रों तक पहुँच गई। मैं कॉलेज की लड़कियों का पसंदीदा शाइ’र बन गया। लेकिन मेरे दिल की आग और भी भड़क उठी। दुख और जुदाई के आँसुओं में डूबे हुए अपने अश’आर पर मैं ख़ुद ही रोता था। तारिक़ मेडीसिन में जा चुका था, इसलिए इस मौज़ू’ पर बात करने वाला अब कोई था।

    कई बार मेरी सूरत पर बरसते हुए सवाल मेरी बहनों ने पढ़ डाले और इसरार किया कि मैं अपने लिए कोई लड़की तलाश करूँ। मगर मैं उसे कहाँ ढूँढता। वो बालकनी तो अब ख़ाली हो चुकी थी। कई बार विद्या से मिला मगर कुछ पूछने की हिम्मत पड़ी। इतने बड़े शहर में जाने वो कहाँ होगी? एक मर्तबा मैं सर-ए-शाम कहीं जा रहा था तो अचानक ऐसा महसूस हुआ जैसे सारी कायनात गुलाबी रंग में नहा गई है। ऐसा क्यों हो रहा है? मैंने तअ’ज्जुब से सोचा।

    ज़रूर वो यहीं कहीं मुस्कुरा रही होगी। दीवानों की तरह मैंने सारे मुहल्ले की बालकनियाँ, खिड़कियाँ देख डालीं। आख़िर एक दिन मेरी बहन ने फ़ैसला सुना दिया, “हमने आपके लिए लड़की देख ली है। बहुत ख़ूबसूरत है। गोरी चिट्टी, हज़ारों में एक, हँसती है तो गालों में गड्ढ़े से पड़ते हैं। गुलाबी कपड़ों में बिल्कुल गुलाब की कली सी लगती है।”

    ये ख़ुसूसियात मेरी बहन ने मेरी नज़्मों से अख़ज़ की थीं।

    फिर वही हुआ... शादी की रात मैं यूँ सिसक-सिसक कर रोया जैसे हर बाज़ी हार चुका हूँ। फिर मैंने घूँघट उठा के अपनी दुल्हन को देखा। वो अच्छी ख़ासी, काबिल-ए-बर्दाश्त थी... और मैं बर्दाश्त किए गया। लेकिन अब मेरी तिश्नगी और बढ़ गई थी। अगर वो मिल जाती तो।

    अपनी बीवी जमीला की जगह मैंने उसे तरह-तरह सजा कर देखा। मुझे अपने बच्चे उसकी गोद में हुमकते नज़र आए। और मैं खोई-खोई नज़रों से हर तरफ़ उसे ढूँढे जाता। हर ख़ूबसूरत औ’रत में मुझे उसकी कोई कोई अदा मिलती, और मैं चंद दिन तक उसी औ’रत का दीवाना हो जाता। उसे याद करने के लिए मैंने शाइ’री की और उसे भुलाने के लिए शराब चखी। फिर मैं शराब में डूबता चला गया... मगर वो मुझे और भी याद आने लगी। उसकी याद मेरी रगों में ख़ून बन कर दौड़ने लगी थी। मैं सारा दिन ऑफ़िस में गुज़ारता, शाम को क्लब जा कर शराब में ग़र्क़ होता, रात-भर टहल-टहल कर शाइ’री करता था। मेरी पहली बच्ची लेटे-लेटे उठकर बैठने लगी थी। वो भागते-भागते मुझे पकड़ने को दौड़ती। लेकिन मैं उसे कैसे थामता? मैं तो ख़ुद ही लड़खड़ा रहा था।

    जमीला ने भी मुझे थामने की बहुत कोशिश की। पहले उसने अपनी शक्ल-ओ-सूरत से रिझाना चाहा। फिर अपनी मुहब्बत और ख़िदमत के फाहे मेरे जलते हुए ज़ख़्मों पर रखे और उसके बा’द मायूस हो कर घर के काम-धंदों में खो गई... लेकिन मैंने कभी जमीला की चारों तरफ़ से घेरती हुई, कुछ माँगती हुई आँखों में कुछ नहीं देखा, मैं हमेशा उसकी तरफ़ से करवट बदल कर सोया।

    और आज... आज दस बरस बा’द तारिक़ गया। वही रौशनियाँ बिखेरते हुए क़हक़हे, वैसा ही तेज़-तरार... उसने ज़िंदगी के सारे मज़े चखे थे। छः-सात इ’श्क़ किए और फिर एक अजनबी औ’रत से शादी भी कर ली। इसके बावजूद वो मस्त था, गा रहा था, हँस रहा था, मुझे हँसाने की कोशिश कर रहा था, उसे देखते ही मेरे सब्र का पैमाना छलक उठा। मेरा जी चाहा तारिक़ से लिपट कर ख़ूब रोऊँ। वही तो मुझे इस आग में धकेल गया था। मैंने तय कर लिया था कि आज अपनी महरूमी का सारा हाल उसे सुनाऊँगा।

    मेरे उदास चेहरे और आँसुओं में भीगी हुई आँखों को देखकर उसने मुस्कुराते हुए पूछा, “और सुना यार, अपने अफ़लातूनी इ’श्क़ का अंजाम?”, मेरे जवाब देने से पहले जमीला अंदर गई। हाथ में स्नैक्स की ट्रे लिए नज़रें झुकाए चुप-चाप। उसने झुक कर तारिक़ को सलाम किया तो तारिक़ ने बड़े ग़ौर से उसे देखा, फिर एकदम उछल पड़ा। घबराहट में उसने कई सलाम कर डाले, और जब जमीला चाय लाने अंदर गई तो वो चिल्ला कर बोला, “तो ये बात हुई यार! तू तो हमारा भी उस्ताद निकला!”

    “क्यों... क्या हुआ?”, मैं परेशान हो गया।

    “तो बना डाला तूने उस परी-रुख़, शोला-बदन, माहपारा को अपनी बीवी! ला यार, मिला हाथ गुलाब जामुन वाला।”

    स्रोत:

    Paraya Ghar (Pg. 88)

    • लेखक: जिलानी बानो
      • प्रकाशक: उर्दू मर्कज़, हैदराबाद
      • प्रकाशन वर्ष: 1979

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