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फ़ासले

MORE BYहाजरा मसरूर

    स्टोरीलाइन

    "औरत की वफ़ादारी और बे-लौस मुहब्बत की कहानी है। ज़ोहरा रियाज़ नामी शख़्स से मुहब्बत करती है लेकिन उसकी शादी नईम से हो जाती है। शादी के दिन रियाज़ ज़ोहरा से वादा कराता है कि वह नईम से मुहब्बत करेगी और इसके बाद वो दक्षिण अफ़्रीक़ा चला जाता है। उधर शादी के दिन ज़ोहरा अपने शौहर को देखकर बेहोश हो जाती है जिसके नतीजे में दोनों में अलैहदगी हो जाती है। काफ़ी अर्से बाद जब रियाज़ ज़ोहरा से मुलाक़ात की ख़्वाहिश ज़ाहिर करता है तो ज़ोहरा पुरानी यादों में गुम हो जाती है और उसकी आमद पर किसी तरह की तैयारी नहीं करती है, जब रियाज़ उससे मुलाक़ात के लिए आता है तो वो सिर्फ अपने बीवी-बच्चों और दुनियावी समस्याओं की ही बातें करता रहता है। अपने लिए किसी प्रकार की लालसा और जिज्ञासा न पा कर ज़ोहरा बुझ सी जाती है। इज़हार-ए-मोहब्बत के नाम पर वो जिस तरह के प्रदर्शन करता है उससे ज़ुहरा को निराशा होती है और वो कहती है कि वो तो कोई मसख़रा था, रियाज़ तो आया ही नहीं।"

    नानी को ऐ’न वक़्त पर नानीपने की सूझ रही थी…

    “भला चक़माक़ पत्थर में रगड़ लगे और चिंगारी गिरे?”, नानी दरवाज़े के पास अड़ कर बोलीं और सितारा का जी चाहा कि अपना सर पीट ले।

    “चक़माक़! चक़माक़ यहाँ कहाँ से टपक पड़ा?”, सितारा ने बड़े ज़ब्त के साथ सवाल किया।

    “ए ये एक बात कही कि लड़की को लड़के के पास अकेला कैसे छोड़ दूँ?”, नानी ने जवाब दिया।

    “चह भई रियाज़ लड़का हैं?”, सितारा झुँझला कर बोली। नौ बजने में पंद्रह मिनट थे। उसे डर था कि बहसा-बहसी में ये भांडा ही फूट जाए जो ठीक वक़्त पर रियाज़ यहाँ पहुँच जाएँ। जमील कह नहीं रहे थे कि अफ़्रीक़ा कालों का वतन सही मगर वहाँ जाने वाले या तो अंग्रेज़ हो जाते हैं या गांधी...

    सो रियाज़ भी एक दम साहब बहादुर हो गए हैं।

    इस अंग्रेज़ीयत के धूम-धड़क्के ने सितारा को सुब्ह से थका मारा था। उनके फ़्लैट में था ही क्या। चंद कुर्सियाँ और दो मेज़ें, सितारा कल से अब तक इन चीज़ों को हर ज़ाविए से सजा कर चूर हो चुकी थी। इस पर से कमबख़्त दरी और सर पर सवार थी। आज दस साल से मामूँ जान के जूतों की धूल चाट-चाट कर वो मिट्टी जैसी हो चुकी थी। सुब्ह से बीसियों मर्तबा सितारा उस पर ब्रश रगड़ चुकी थी मगर उसका रंग बदलना था बदला। मामूँ जान बेचारे क्या करते, अब ये हर बार याद रखना कि बाहर से अंदर आते हुए नारियल के पा-अंदाज़ पर जूते रगड़ो, उनके बस में नहीं था। सुब्ह से कई बार वो सितारा को अपने मैले जूतों और दरी के सिलसिले में यही दलील दे चुके थे। वैसे भी ज़रा देर पहले जब वो पनवाड़ी से पानों की ढोली लेकर आए तो सब के सामने बेहद एहतियात से अपने जूते पा-अंदाज़ पर रगड़े थे।

    ग़ालिबन सूरत-ए-हाल से समझौता करने की इसी ताज़ा स्पिरिट का नतीजा था कि उन्होंने चंद घंटों के लिए बाहर रहने पर ज़ियादा चूँ-चरा की और वो आठ बजे से ही खाना खा कर जेब में पैसे डाले ईरानी होटल की चाय के ख़्वाब देख रहे थे, इसलिए उन्होंने अपनी अम्माँ और सितारा के सवाल जवाब पर तवज्जोह देने के बजाए ये बेहतर समझा कि बालकनी में जा कर अपने कबूतरों की काबुक के पिट वग़ैरह देख लें। जब वो बिल्ली के ख़तरे की तरफ़ से मुतमइन हो कर कमरे में लौटे तो बड़ी मा’सूमियत के साथ ज़ुहरा से मुख़ातिब हुए, “बिल्ली का ख़याल रखना, कबूतरों को तंग करे।”

    वो दरवाज़े की तरफ़ जाते हुए बोले और ज़ुहरा जो मुजरिमों की तरह सर झुकाए एक तरफ़ खड़ी थी, चौंक पड़ी। उसने घबराकर जमील की तरफ़ देखा जो आज बात-बे-बात पर ज़ुहरा को छेड़ रहे थे मगर जमील ने हँसने के बजाए अपने कंधे से लगे हुए पाँच बरस के नन्हे को सँभाल कर मामूँ का रास्ता रोक लिया।

    “अरे अभी कहाँ चले आप, पहले नानी को समझाइए, कहती हैं लड़की को अकेले छोड़ दूँ?”, जमील इंसाफ़-तलब अंदाज़ से बोले,

    “और क्या?”, मामूँ कबूतर की तरह मुँह ही मुँह में गुटके।

    “क्या?”, सितारा उछली जैसे अँगारे पर पाँव पड़ गया हो।

    “सुब्ह से समझा रही हूँ सबको, सब पता है आप लोगों को, अब आप भी पटरी बदल गए।”, सितारा का जी चाहा कि ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। उसे अपनी बहन ज़ुहरा पर भी ग़ुस्सा आया कि रियाज़ को सीधी दा’वत देने की बजाए उसने ये क्यों कह दिया कि सब लोग सिनेमा जा रहे हैं।

    “तुमने क्यों कही ये बात कि सब लोग बाहर होंगे आज?”, सितारा ज़ुहरा पर बरस पड़ी।

    “तो ये बात अच्छी लगती थी कि वो सब के सामने आते”, उस ज़माने में जब वो मुझे पढ़ाने आते कितनी एहतियात की जाती थी, मैं पढ़ती तो तुम साथ बिठाई जाती थीं और अब… जबकि… बड़ा अच्छा लगता।“, ज़ुहरा मारे शर्मिंदगी के रुआँसी हो गई।

    “हाँ अब ज़ुहरा पढ़ाने के लिए शहर के इस सिरे पर जाती है तो अम्माँ यहाँ बैठी पान खाती रहती हैं… हुँह ख़्वाह-मख़ाह”, मामूँ फिर कबूतर की तरह गुटके।

    “मगर मियाँ रात में लड़के के साथ…”, नानी बुर्क़ा सर पर रखे-रखे दुहाई देने लगीं। उन्हें ये याद ही रहा कि उनका बेटा रातों वग़ैरह के झंझट से वाक़िफ़ ही था। मामूँ पचपन बरस के थे और क्या ख़ुद नानी को उनके सहरे के फूल खिलाने का ख़याल आया। मामूँ बे-तअ’ल्लुक़ से खड़े रहे।

    “अरे नानी पढ़े लिखे मर्द औ’रत में बड़ा फ़र्क़ होता है।”, जमील ने समझाया और ज़ुहरा कमरे से हट गई। सितारा डरी कि ज़ुहरा जो ऐसी मुश्किल से राह पर आई है फिर भाग खड़ी हो।

    “फिर जनाब ग़ौर फ़तमाइए कि अभी रियाज़ की तरफ़ से कोई शादी का पैग़ाम तो नहीं आया, अभी क्या पता, समझो स्कूल में इन्सपैक्टर गया मुआ’इने को… अब वो इतना अमीर आदमी है… वो तो मैमूना मर गईं इसलिए मेरे और सितारा के दिमाग़ में ये बात आई।”, जमील अपने कंधे पर अपने नन्हे को सँभाल-सँभाल कर क़ाइल कर रहे थे। सितारा परेशान हो कर ज़ुहरा के पास चली गई। वो ब-ख़ूबी सोच सकती थी कि आज़ादी-ए-राय के इस मरहले पर ज़ुहरा क्या महसूस कर रही होगी।

    “अरे सारा मुँह ख़राब कर लिया।”, सितारा ने अपनी बहन के गालों पर बहते हुए आँसू देखकर पाउडर का डिब्बा उठा लिया, “हुँह बकने दो, तुम तो जानती हो नानी को।”

    “तुम यहीं रुक जाओ सत्तू।”, ज़ुहरा ने कहा और अपने आँसू सितारा के आँचल से पोंछवाया।

    “अच्छा बस ठीक है।”, और सितारा को हैरत हुई कि झगड़ा मिटाने के लिए उसकी समझ में ये बात पहले ही क्यों आई।

    “आप लोग जाइए बाजी मुझे नहीं जाने देतीं।”, सितारा ने वहीं से आवाज़ लगाई। अब नानी के पास कोई उ’ज़्र था। सितारा ने बेहद मुंतक़िमाना ख़ुशी के साथ नानी के स्लीपरों की फिटर-फिटर सीढ़ीयों पर सुनी जो जमील के साथ आज सिनेमा में “नूर-ए-इस्लाम” देखने पर मजबूर थीं।

    “नौ बजने में पाँच मिनट हैं।”, सितारा ने बेहद लंबी साँस लेकर ऐ’लान किया और फिर जल्दी से ब्रश उठा कर दरी को झाड़ दिया। मेज़ पर पड़े हुए फूलदान में काग़ज़ी सफ़ेद गुलाबों को फिर तरतीब दिया। ज़ुहरा में भी जाने कहाँ से हरकत करने की क़ुव्वत गई। उसने लिखने वाली मेज़ पर अंग्रेज़ी अदब की किताबों को नुमायां कर के रक्खा और बालकनी के पर्दे का नया रिबन जो ज़रा देर पहले बाँधा था खोल दिया। नौ बज गए तो सितारा भाग कर पाउडर का डिब्बा और पफ़ उठा लाई और ज़ुहरा के चेहरे पर पाउडर की हल्की सी बादामी तह जमा’ दी। पफ़ ज़ुहरा के चेहरे पर रगड़ते हुए सितारा को पहली बार एहसास हुआ कि ज़ुहरा की जल्द पफ़ तले खिंच-खिंच जाती है। इसका मुदावा कुछ सूझा तो उसने ज़ुहरा के कानों के पीछे से एक एक लहराती हुई ज़ुल्फ़ निकाली और गालों के पास मुंतशिर करके छोड़ दी, फिर भी सितारा को कुछ उलझन सी महसूस हुई तो भाग कर अंदर गई और अपने कमरे से नीले शैड वाला लैम्प उठा लाई। दीवार की बत्ती बुझा कर लैम्प रौशन कर दिया। अब कमरा नीली रौशनी में बहुत भला लगने लगा। सितारा को तो दरी भी नई सी नज़र आई, सफ़ेद काग़ज़ी फूल हल्के नीले हो गए और ज़ुहरा का चेहरा तो बड़ा ही प्यारा लगने लगा।

    वो दोनों एक दूसरे से कुछ नहीं बोल रही थीं। सिर्फ़ का हुक में कबूतर ठूंगें मार रहे थे। सितारा का दिल घड़ी की टुक-टुक के साथ हरकत कर रहा था। नौ बज के पाँच मिनट हो गए तो सितारा ने पूछा, “उन्होंने फ़ोन पर और क्या-क्या कहा था?”

    “बस यही कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं।”, ज़ुहरा ने जवाब दिया।

    “इसका मतलब बाजी साफ़ है, देख लेना वो शर्तिया शादी का पैग़ाम देंगे”, सितारा ने इस तरह कहा जैसे वो ख़ुद को यक़ीन दिला रही हो। ज़ुहरा का संजीदा चेहरा कुछ नर्म सा पड़ गया, और वो पलकें झुका कर रह गई।

    ”काफ़ी का पानी तो उबलने वाला होगा। अब तुम जल्दी से यूँ करो कि मेवे की प्लेट और पैटीज़ लाकर यहाँ बीच की मेज़ पर रख दो, और देखो पैटीज़ खाने के लिए दो काँटे भी ले आओ।”

    ज़ुहरा सितारा की ता’मील-ए-हुक्म करने के ख़याल से उठी और फिर दरवाज़े में ठहर गई, “मैं काँटे तो बिल्कुल नहीं लाऊँगी, नाहक़ तुमने पड़ोसन से माँगे।”, ज़ुहरा आहिस्ता से बोली जैसे उसे सितारा के बुरा मान जाने का ख़ौफ़ हो।

    ”क्यों? इसमें भी कोई बारीकी निकाल ली?”, सितारा फिर झुंझलाई। ज़ुहरा रियाज़ के इस्तिक़बाल की तैयारी में कोई कोई ऐसी बात सुब्ह से किए जा रही थी। और इधर सितारा का ये आ’लम कि उसका बस चलता तो वो अपनी बहन के कानों में तारों के झुमके और माथे पर चाँद का टीका पहना कर उसे किसी महल में बिठा देती, और फिर रियाज़ को बुलवाती। आख़िर सितारा अंधी तो थी। ये दूसरी बात है कि वो अपनी बहन के दिल को ठेस नहीं लगाना चाहती थी।

    “रियाज़ को हमारा लखनऊ वाला घर तो याद होगा। उनका घर भी तो हमारे ही जैसा था, अब वो जो चाहें बन जाएँ, मेरे लिए तो उनकी वही यादें हैं। अगर वो मुझे इस माहौल में भी…”, ज़ुहरा कहते-कहते एक दम चुप हो गई।

    “इस माहौल में तुम्हें?”, सितारा चौंकी, “क्या कह रही थीं?”

    “कुछ नहीं पहिए-गाड़ी छोड़कर ढलान पर लुढ़कने लगे थे ज़रा, तुम तो जानती हो”, ज़ुहरा ने नर्मी से मुस्कुरा कर कहा… सितारा ने महसूस किया कि पहली बार आज पहिए और गाड़ी वाली बात को ज़ुहरा ने इतने मज़े से दुहराया… बहुत दिनों की बात थी कि सितारा ने अपनी बहन को ग़ुस्सा में एक ऐसी गाड़ी से तश्बीह दी थी जिसके पहिए उसे छोड़कर ढलानों से उतर गए हों, ज़िंदगी से बेगानगी और अपने ख़यालों में मस्त रहने पर सितारा उसके अलावा कह भी किया सकती, फिर सितारा ये भी तो देखती थी कि नानी कराची आने के बा’द से ज़ुहरा को बे-पहियों की गाड़ी से ज़ियादा कुछ समझती जिसमें वो अपनी हंडिया डलिया समेटे बैठी थीं। ज़ुहरा पैटीज़ और ख़ुश्क मेवे की प्लेटें लाने के बजाए मुस्कुराती हुई बालकनी के जंगले पर कुहनियाँ टिका कर दूर-दूर तक फैली हुई कॉलोनी में जगमगाती रौशनियों को देखने लगीं। पतली गली में से एक मोटर गुज़री। सितारा झिजक कर पीछे हटने लगी तो ज़ुहरा ने उसे पकड़ लिया।

    “कोई और होगा, रियाज़ सीधा इस घर पर पहुँचेगा।”, ज़ुहरा ने बेहद ए’तिमाद से कहा और सितारा फिर अपनी बहन के इस ए’तिमाद पर ठंडी साँस भर कर रह गई।

    “यहाँ गली में हमारी बालकनी को छूता हुआ कोई बड़ा सा पीपल होता तो कैसा रहता?”, ज़ुहरा ने बड़ी हसरत से पूछा।

    “यहाँ बीस साल बा’द इतने बड़े दरख़्त होंगे जितना बड़ा पीपल वहाँ हमारी गली में था… हाय कैसा घना साया था, हमारे आधे आँगन को ढके हुए था। गर्मी की रातों में ज़रा हवा का झोंका आता तो पत्तों की कैसी तालियाँ सी बजतीं और हमारा आँगन ठंडा रहता… और याद है बाजी, बचपन में दोपहरों को कैसा मज़ा आता जब पतझड़ में पत्ते गिरते और हम तुम उनके कुरकुरे बिछौने बना कर लोटें लगाते… नानी कितना डरातीं कि दोपहर को आँगन में मत जाओ, पीपल पर भूतों का बसेरा होता है… मगर तुमने कभी भूत देखा बाजी?”, सितारा को भी जाने आज क्यों पिछली बातें याद आने लगी थीं।

    “हाँ चाँदनी रातों में मैंने पीपल के पत्तों पर चराग़ देखे थे।”, ज़ुहरा अपनी ठोढ़ी हथेली पर रखे-रखे आहिस्ता से बोली।

    “सच?”, हाय पहले कभी नहीं बताया तुमने सितारा सचमुच डर सी गई।

    “बताती कैसे, उस ज़माने में तुम छोटी थीं”, ज़ुहरा ने जवाब दिया।

    “ख़ाक भी नहीं, तुमसे दो साल तो छोटी हमेशा से हूँ।”, सितारा झूट बोल पड़ी।

    “मैंने भी वो चराग़ कभी नहीं देखे थे… एक दिन… एक दिन रियाज़ ने कहा था।”, ज़ुहरा फिर उसी आहिस्तगी से बोली जैसे रेशम के धागे से गिरह खोल रही हो।

    “किस दिन?”, सितारा ने पूछा और कटहरे पर से अपने हाथ उठा लिए।

    “मायों वाली रात।”, ज़ुहरा ने दूर अँधरे में नज़रें गुम कर दीं।

    “मगर मायों वाली रात तो हम इतनी बहुत सी लड़कियाँ तुम्हें घेरे रहीं।”, सितारा अभी तक छोटी बहन ही थी, “रियाज़ तुम्हें कब मिले थे?”

    “वो आँगन में किसी से कह रहे थे कि देखो मा’लूम होता है पत्ते-पत्ते पर हवा के झोंकों के साथ चराग़ जलते बुझते हैं… तुम्हें याद नहीं इस रात पूरा चाँद था बस जबसे मैंने हमेशा चाँदनी रातों में पीपल पर चराग़ देखे।”, ज़ुहरा ने इस तरह कहा जैसे वो सितारा के नन्हे को कुछ समझा रही हो। और सितारा ने इत्मिनान की लंबी साँस ली।

    “हाय तौबा, बस ये शायराना बारीकी थी। मैं समझी भूतों वाला क़िस्सा होगा। ये रियाज़ तो सदा के बातूनी थे, अरे मैंने काफ़ी का पानी तो चूल्हे से उतारा नहीं…”, सितारा हड़बड़ा कर अंदर भागी।

    “तो बाजी रियाज़ को पसंद कर रही हैं।”, सितारा ने अंदाज़ा लगाया और अब वो दिल में दुआ’एं मांग रही थी कि रियाज़ ख़ुदा करे बाजी को पसंद कर लें। नई’म ने शादी के बा’द बाजी को कैसा नज़रों से गिराया, कैसा सब के सामने कहा कि ये भी कोई औ’रत हैं। हाय कैसी बेशर्मी की बात है। बाजी बेचारी नानी की पूछ-गछ पर सिवाए रोने और शर्माने के क्या कहतीं। सभी शरीफ़-ज़ादियाँ ऐसी होती हैं। अगर बाजी शादी की रात को नई’म भाई को देखकर शर्म से बेहोश हो गईं तो क्या हुआ? चह। कैसे दीवाने थे नई’म भाई भी। शादी से पहले कैसे मरते थे ज़ुहरा बाजी के नाम पर और बाजी भी तो उनके नाम पर सुर्ख़ हो जाती थीं मगर शादी के बा’द यूँ ज़िल्लतें कीं कि बाजी को हकीमों ने दक़ बता दी, अच्छी मुहब्बत थी कि दक़ का सुनते ही बाजी के ज़ेवरों का संदूक़चा लेकर जो रेहन रखे गए (कि बाजी को पहाड़ पर ले जाएँगे) तो फिर आज तक पता चला। शायद ख़ुद किसी पहाड़ की खोह में धूनी मार कर बैठ गए।

    आख़िर सवा लाख महर था बाजी का, तलाक़ के तीन बोल कहने की हिम्मत कहाँ थी उनमें अच्छा हुआ लापता हो गए, ऐसे मर्द भी किस काम के? बेचारी बाजी कितनी बदनसीब थीं। लोगों ने कहा तीन साल मर्द लापता रहे तो शरअ'न तलाक़ हो गई, कितने पैग़ाम आए उनके, मगर उन्होंने हाँ की, वो तो रियाज़ का एहसान था कि ख़ानदान की लड़कियों के साथ बाजी को भी ता’लीम की चाट लगा गए थे वर्ना अगर बाजी पढ़ने में लग जातीं तो ये इतने बहुत से दिन कैसे गुज़रते और कराची आकर अगर बाजी नौकरी कर लेतीं तो नानी, मामूँ और ख़ुद बाजी का क्या बनता। जमील की तनख़्वाह में मेरा ही गुज़ारा मुश्किल होता है, बेचारे मामूँ उ’म्र-भर अब्बा के आसरे रहे। अम्माँ जब तक ज़िंदा थीं दूसरी बात थी। वो तो दुनिया में दो ही चीज़ों की सबसे ज़ियादा हिफ़ाज़त करतीं। एक तो अपने जहेज़ की कमाई टूटी घड़ी की जिसने कभी वक़्त बताया। दूसरे अपने भाई की जिसने कभी एक पैसा कमाया।

    “इस पर से नानी का ये हाल कितनी आनाकानी कर रही थीं आज रियाज़ के आने पर।”, सितारा ने ट्रे में काफ़ी-दानी सजाते हुए ख़ुद को सुनाया और ट्रे उठाकर कमरे में गई।

    “बाजी तुमने देखा नानी की मर्ज़ी थी कि रियाज़ आए, तुम तो सब पर दम दो और ये इतना भी चाहें कि तुम बसो।”, सितारा ने लिखने वाली मेज़ पर काफ़ी की ट्रे एहतियात से रखते हुए ज़ुहरा से शिकायत की। ज़ुहरा आराम कुर्सी पर चुप-चाप बैठी हुई थी। उसने कोई जवाब दिया। सितारा ने देखा कि वो कुछ ऐसी कैफ़िय्यत में थी जैसे सोते में आँखें खुली रह गई हों। सितारा ने जो इतने एहतिमाम से इसकी ज़ुल्फ़ें गालों पर बिखराई थीं, वो फिर कानों के पीछे पहुँच गई थीं और काजल का दुम्बाला फैल गया था।

    “बाजी बाजी अल्लाह तुम्हारी क़िस्मत पलटेगा”, सितारा को एक दम एहसास हुआ कि साढे़ नौ बज चुके हैं। ज़ुहरा जैसे एक दम जाग पड़ी।

    “तुम क्या समझ रही हो मुझे, मैं कोई क़िस्मत का कटोरा लेकर कुछ मांगने चली हूँ रियाज़ से?”, ज़ुहरा ने बड़े अजनबी से ग़ुरूर के साथ सितारा की आँखों में आँखें डाल कर पूछा, और सितारा का जी चाहा कि रो पड़े। उसकी बहन हमेशा इससे अलग हो कर सोचती।

    “हाँ मैं दुआ’ कर रही हूँ कि रियाज़…”, सितारा भी जम गई।

    “हुँह! रियाज़ ने मायों वाली रात मुझसे एक वा’दा लिया था?”, ज़ुहरा फिर यूँ मुस्कुराई जैसे रेशम के धागे की गिरह खोल ली हो। सितारा को एकदम धक्का सा लगा।

    “तो… तो पत्तों पर चराग़ जलने की बात उन्होंने तुम ही से कही थी न… तुमने मुझसे ये बात क्यों छुपाई… मैं तुम्हारी दुश्मन हूँ।”, सितारा तक़रीबन चीख़ पड़ी… इतने अ’र्से तक यूँ अँधरे में रहने पर उसे सदमा हुआ। कराची आने से क़ब्ल तक जब नानी ज़ुहरा का घर दुबारा बसाने की बात करतीं और ज़ुहरा इंकार करती तो नानी चिल्ला कर कहा करतीं। इसके लिए तो कोई शहज़ादा गुलफ़ाम आएगा… मगर अब बरसों से ये फ़िक़रा नहीं दुहराया गया था मगर एक सितारा ही तो थी जो हमेशा हर कुँवारे और रंडवे मर्द को इस ख़याल से देखती कि ये बाजी के लिए कैसा रहेगा… फिर जब दो दिन क़ब्ल रियाज़ और जमील की मुलाक़ात अचानक कहीं रास्ते में हो गई तो ये सितारा ही थी जिसे रियाज़ और ज़ुहरा की जोड़ी बनाने का ख़याल सूझा और घर में सबको इसी नुक़्ता-ए-नज़र से सोचने पर मजबूर कर दिया, फिर उसी ने ज़ुहरा की रियाज़ से फ़ोन पर बात कराई और यूँ उसे घर बुलवाया… इस सब क़िस्सा में ज़ुहरा ने इस बात की सितारा को हवा तक लगने दी कि नई’म से शादी से पहले ही रियाज़ से वा’दे हो चुके थे।

    सितारा को ज़ुहरा बेहद ग़ैर लगी। वो इंतिहाई बे-दिली से कुर्सी पर बैठ गई जैसे अब उसे किसी बात से कोई वास्ता हो। ज़ुहरा जो अभी लम्हा भर पहले अलाव में गिरे हुए सूखे पत्ते की तरह चरमरा कर सर-बुलंद हो गई थी, अब फिर राख की तरह पुर-सुकून हो गई।

    “मैं तुम्हें क्या-क्या बताती मेरी सत्तू… तुम्हें याद है उसी दिन मुझे ज़र्द कपड़े पहनाए गए थे और तुम सबने मेरे हाथ पैरों पर मेहंदी लगाई थी, रात कितनी देर तक ढोलक बजी थी। तुम सब नई’म का नाम लेकर मुझे छेड़ रही थीं और मुझे लगता कि तुम सब रियाज़ का नाम ले रही हो। मैं इस रात जैसे रियाज़ की दुल्हन बन गई थी।”, ज़ुहरा जैसे फिर ख़्वाब में बोल रही थी।

    “अच्छा तुमने इसलिए रियाज़ के बच्चों को अपने मायों वाले कोने में उढ़ा लिपटा कर सुला लिया था ताकि मैमूना रात रुक जाए और इस तरह रियाज़ भी।”, सितारा को वो लकड़ी के मुनक़्क़श सतूनों और कटावदार मेहराबों वाला दालान-दर-दालान याद गया, जहाँ एक कोने में पर्दा डाल कर ज़ुहरा को मायों बिठाया गया था… लेकिन वो पर्दे और इसके बा’द बरामदे के दरों पर पड़े हुए मोटे-मोटे टाट के पर्दे भी इसकी बहन को अंदर रोक सके।

    “जब तुम सब सो गए मैं चुपके से बाहर आँगन में गई… मैं पीपल के अँधरे साये तले बैठी रही, दीवारों पर ऐसी बर्क़ चाँदनी थी सत्तू कि रग-रग में उतर जाए।”, ज़ुहरा कहती रही। (सितारा के जिस्म में थरथरी सी गई। ये वो बहन थी जिसे वो ऐसी गाड़ी कहा करती जिसके पहिए उसे छोड़कर ढलानों से उतर गए हों।)

    “मैं चुप-चाप बैठी रही और काँपती रही सत्तू।”, ज़ुहरा कहे गई।

    “हाँ उस रात सर्दी बहुत थी।”, सितारा ने जैसे कोई शय अपने पहलू से धकेलना चाही। आख़िर सितारा छोटी बहन भी तो थी।

    “मुझे सर्दी बिल्कुल लगी मैं तो तप रही थी मगर रियाज़ ने मुझसे कुछ मांगा। मेरे क़रीब बैठा मुझे देखता रहा। सत्तू उस वक़्त मुझे पता चला कि मैं बहुत हसीन हूँ, ऐसी ख़ूबसूरती जिसे कोई हाथ नहीं लगा सकता, मगर मेरा जी चाहा कि ये फ़ासला टूट जाए… मगर वो फ़ासला टूटा... फिर जब नई’म ने वो फ़ासला समेटना चाहा तो... तुम समझ गई न... नई’म थक कर भाग गया। हालाँकि उस रात रियाज़ ने एक ही बात कही थी। एक ही वा’दा लिया था।”, ज़ुहरा की आँखें आँसुओं से भर गईं।

    “रियाज़ ने मुझसे वा’दा लिया था कि मैं नई’म से मुहब्बत करूँगी”, ज़ुहरा ने अपना चेहरा हाथों से ढक लिया।

    “और तुमने वा’दा किया था?”, सितारा ने ब-मुश्किल हलक़ से आवाज़ निकाली।

    “मैंने उससे कहा था अच्छा, मगर मुझे तो यूँ लगा जैसे मैंने ये रियाज़ से ही मुहब्बत करने का वा’दा किया है।”, ज़ुहरा ने अपने सर को कुर्सी की पुश्त पर यूँ एहतियात से टिका लिया जैसे वो काँच का बना हुआ हो... सितारा ने उस लम्हे अपनी बहन को इतना ख़ूबसूरत लेकिन इतना बेबस देखा कि उसकी नज़रें झुक गईं।

    “तो फिर बाजी जब रियाज़ का क़िस्सा चल रहा था तो तुमने नई’म को क्यों... मेरा मतलब है... रियाज़ ने तुम्हें कोई साल भर पढ़ाया था?”, सितारा ने इतनी नर्म और मद्धम आवाज़ में पूछा जैसे उसे किसी की नींद टूट जाने का डर हो।

    “मुझे रियाज़ से कभी मुहब्बत नहीं थी सत्तू, मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ।”, ज़ुहरा ने बीमारों की तरह उलझ कर अपना सर कुर्सी की पुश्त पर इधर-उधर ढलका दिया और आँखें बंद कर लीं। ये तो मायों वाली रात से दो दिन पहले की बात है, तुम्हें याद नहीं कि तुम पढ़ाई के दौरान में हँसकर बोल पड़ी थीं कि अब तुम्हें नई’म भाई पढ़ाया करेंगे। मुझे ऐसे मज़ाक़ हमेशा बुरे लगते थे। यूँ लगता कि दो आदमी हाथ पकड़े जा रहे हों और कोई बीच में से कंधा मार कर गुज़र जाए... मैं इस मज़ाक़ पर रो पड़ी थी न?”, ज़ुहरा याद दिलाने लगी।

    “हाँ तुम्हें तो मेरी बातें हमेशा बुरी लगतीं।”, सितारा बुरा मान कर बड़बड़ाई। मगर ज़ुहरा तो उस वक़्त दौर बह रही थी, “तुम्हें मामूँ ने आवाज़ दी थी न... जब तुम चली गईं में घुटने पर माथा रखे रोती रही... तब... तब रियाज़ ने मेरा सर आहिस्तगी से उठाया और पूछा तुम क्यों रो रही हो? तब तक गाड़ी सीधी पटरी पर जा रही थी। जब मैंने आँखें उठाईं तो मुझे लगा... मुझे लगा मेरे और रियाज़ के बीच में जो नन्हा सा फ़ासला है, इसके इस पार मेरी रूह मेरा जिस्म एक दम छतरी की तरह बंद हो कर सिमट गया है। तुमने बहते पानी में कभी हाथ डाले हैं? तुम कुछ डूबने कुछ उभरने की कैफ़िय्यत को जानती हो...? इस वक़्त मुझे मा’लूम हुआ कि मैं तो इसी के लिए रो रही थी।”

    “फिर...?”, सितारा को महसूस हुआ कि उसके जिस्म के क़रीब जैसे कोई बिल्ली, कोई गुदगुदी सी शय लग कर बैठ गई है।

    “फिर तुम गई थीं न।”, ज़ुहरा ने जैसे शिकायत की।

    “अब तो वो गए, मैमूना मर गई।”, सितारा मैमूना का नाम लेते हुए तल्ख़ सी हो गई और इस तल्ख़ी को महसूस कर के वो बालकनी में चली गई। उसे एक अ’जीब सी कोफ़्त हो रही थी। दो दिन से वो ज़ुहरा और रियाज़ की जोड़ी मिलाने के लिए जो पत्ता मारी कर रही थी, ज़ुहरा ने इस सबको ला-या'नी बना डाला। जैसे कोई किसी अंधे के फैले हाथ पर रुपया रखे और अंधा कहे ये तो खोटा है।

    “अगर रियाज़ आए तो।”, सितारा के दिल में ये ख़याल अ’जीब अंदाज़ से उभरा और फिर जब उसने ज़ुहरा की दबी-दबी सिसकियाँ सुनीं तो कमरे में एक हमदर्द बहन की तरह लौट आई।

    “अरे तुमने तो सारा चेहरा ख़राब कर लिया।”, वो भाग कर पाउडर का डिब्बा उठा लाई। ज़ुहरा ने इसका हाथ झटक दिया।

    “वो मुझे बरसों पहले पसंद कर चुका... मुझे यक़ीन है।”, ज़ुहरा ने जैसे ख़ुद को यक़ीन दिलाना चाहा।

    “तो मैं कब कहती हूँ कि अब पसंद करवाओगी।”, सितारा ने ज़बरदस्ती उसका चेहरा उठा कर पाउडर की तह जमाना चाही मगर ज़ुहरा ने अपना मुँह हाथों में छिपा लिया और रोती रही। दस बज गए। ज़ुहरा और सितारा ने बे-यक-वक़्त पुराने क्लाक की टन-टन पर उधर देखा और ज़ुहरा ने आँसू पोंछ लिए।

    “मैं इससे कैसे मिल सकूँगी”, ज़ुहरा ने काँपते हुए हाथों से आँसू पोंछे और सितारा को एहसास हुआ कि अगर रियाज़ आया तो उसकी बहन पागल हो जाएगी।

    “मियाऊं।”, पड़ोस की बालकनी से बिल्ली धम से उनकी बालकनी में कूदी मगर दोनों बहनों में से किसी को मामूँ की हिदायत का ख़याल आया, फिर ये डयूटी तो मामूँ ज़ुहरा के सपुर्द कर गए थे। सितारा को हक़ था कि वो रियाज़ के बारे में सोचने लगे। रियाज़ जिसके लिए उसकी बहन रो रही थी, वो जो इस ज़माने में भी तीन बच्चों का बाप था और डाक्टर होने के बावजूद जिसके तीनों बच्चों के सुर्ख़ नथुने हमेशा बहते रहते, वो रियाज़ जिसकी बीवी मैमूना जाहिल थी मगर वो ख़ुद ता’लीम-ए-निस्वाँ का ज़बरदस्त हामी था और ख़ानदान की लड़कियों को हमेशा पढ़ने में मदद दिया करता था। वो जो उसकी ज़ुहरा बाजी को भी पढ़ाने आता। ख़ालिस लखनवी कुर्ते पाजामे में मलबूस हमेशा बड़ा सा सिगार पीता और लड़कियों से इतनी शफ़क़त से बोलता कि किसी की हिम्मत उसके सामने शर्माने लजाने की पड़ती... और ज़ुहरा जिस पर मर मिटी थी और जो ज़ुहरा को नई’म से मुहब्बत करने की हिदायत करके जुनूबी अफ़्रीक़ा चला गया था। और सितारा अब जिसकी मोटर रुकने की आवाज़ सुन रही थी और जिसके लिए ज़ुहरा अब अपने हाथों से जल्दी-जल्दी अपने चेहरे पर पाउडर लगा रही थी।

    ज़ीने पर भारी-भारी क़दमों की आवाज़ सुनती हुई सितारा जैसे ग़ुनूदगी के से आ’लम में दूसरे कमरे में चली गई... और फिर उस कमरे से पिछले कमरे में जहाँ वो जमील और अपने नन्हे के साथ रात गुज़ारा करती थी। वहाँ से निकल कर सामान की छोटी सी कोठरी में आई जैसे वो अपने इस अरमान को किसी और कमरे में छोड़कर धोके से भाग जाना चाहती थी कि वो भी रियाज़ के पास बैठ सकती। सितारा सामान वाले छोटे से कमरे में मामूँ मियाँ के फटे हुए बिस्तर पर बैठी रही। यहाँ उमस थी और कान के पास बार-बार मच्छर भिनभिना रहे थे। एक दम इस अँधरे में उसे ये सारी सूरत-ए-हाल मज़्हका-खेज़ मा’लूम हुई।

    तो उधर उसकी बहन ज़ुहरा और रियाज़ हैं। “नूर-ए-इस्लाम” देखते हुए नानी भी ये बात जानती हैं... मामूँ भी किसी ईरानी होटल में बैठे चाय की हर प्याली के बा’द मतला साफ़ होने के इंतिज़ार में होंगे और उन्हें यक़ीन होगा कि ज़ुहरा कबूतरों की काबुक के पास बैठी अपनी शादी की शराइत तय कर रही होगी। और जमील सोचते होंगे कि जाने बेचारी ज़ुहरा रियाज़ जैसे अमीर आदमी को लुभा भी सके या नहीं? सितारा अँधरे में तंज़ से हँसी... “ज़ुहरा उधर क्या कर रही होगी?”, उसने अपने होंट सुकेड़ कर सोचा और उसे याद आया कि ज़ुहरा बचपन में भी अपने हिस्से की मिठाई और कपड़ा छुपा कर रख दिया करती थी। जब सितारा अपने हिस्से की मिठाई हज़म कर जाती और कपड़ा पहन कर मैला भी कर देती, जब ज़ुहरा कहीं से अपनी चीज़ें निकाल लाती।

    “अरे!”, सितारा हक्का-बक्का रह जाती।

    “मैं रख छोड़ती हूँ”, ज़ुहरा जवाब दिया करती।

    सो आज ज़ुहरा ने अपनी पिटारी में से कुछ निकाल कर चकरा दिया। हत्ता कि मैमूना के मियाँ तक को अपनी पिटारी में बंद रक्खा और ज़माने भर से हम-दर्दियाँ वसूल करती रही। सितारा ने मामूँ का बिस्तर बक्स पर से गिरा लिया और इस पर सर टिका कर लेट गई कि अगर उसने बैठे-बैठे ज़ुहरा और रियाज़ के बारे में सोचा तो वो गिर पड़ेगी।

    “ओह, कितना वक़्त हो गया, जमील नन्हे को उठाए-उठाए, मेरी ही ख़ातिर तो नानी के पहलू में बैठे “नूर-ए-इस्लाम” देख रहे होंगे, सुब्ह कॉलेज कैसे जाएँगे वक़्त पर... और रियाज़ को भी तो इतनी दूर जाना है... और जमील।”, सितारा के ज़हन में एक भँवर सा पैदा हो गया। जो चीज़ भी उस में पड़ती चकराने लगती। वो दिन-भर में बहुत थक गई थी। अँधरे में सितारा ने अपना हाथ ठंडे फ़र्श पर फैला दिया और फिर उसने फ़र्श पर अपनी उँगलियों को अ’जीब अंदाज़ से मरोड़ा जैसे निर्त कर रही हो। उसे लगा कि उसकी उँगलियाँ बड़ी ख़ूबसूरत हैं, उसने आहिस्ता से बड़ी नज़ाकत से अपना हाथ उठा कर चूम लिया। मगर ये होंट उसके अपने थे, फिर वो हाथ सीने पर गिर गया, सीना उसका था मगर हाथ उसके रहे... वो कुँवारेपने के उस आसेब से उलझ गई... दर-अस्ल वो दिन-भर के कामों और बहसा-बेहसी से थक गई थी।

    वो धीरे-धीरे नींद के भँवर में डूब गई... फिर उसने ख़्वाब देखा कि वो अपने लखनऊ वाले पुराने घर में है और पीपल तले बैठी रो रही है। एकदम उसकी आँख खुल गई तो देखा ज़ुहरा दरवाज़े की चौखट से लगी सिसकियाँ भर रही है और कमरे में रौशनी है।

    “क्या हुआ बाजी?”, सितारा को अपने लहजे के इश्तियाक़ पर ख़ुद शर्म गई। उसे लगा कि वो भी अपनी बेवा ननद की तरह हो गई है जिन्होंने शादी की सुब्ह उससे कुरेद-कुरेद कर बातें पूछना चाही थीं।

    “कुछ नहीं। मैं अब शादी नहीं कर सकती, किसी से भी नहीं।”, ज़ुहरा सिसकते हुए ब-मुश्किल बोली और सितारा का दिल ग़ोता सा खा गया।

    “तो क्या रियाज़ ने... तुम...”, सितारा एकदम ज़िम्मेदार क़िस्म की बहन बन गई।

    “मुझे बताओ क्या हुआ में उसे गोली-मार दूँगी ख़ुदा की क़सम।”, सितारा का ख़ून खौल गया। मगर ज़ुहरा ने उसे कुछ बताया, बल्कि वो यूँ ही सिसकती हुई अपने पलंग पर जा कर लेट गई। मामूँ के दरवाज़ा खटखटाने पर सितारा नीली रौशनी और तम्बाकू की बू से बसे हुए कमरे में आई। सितारा ने सोचा कि अब उसे रियाज़ के बारे में सवालात के जवाब देना होंगे और उसके पास कोई जवाब था।

    “बिल्ली तो नहीं आई थी?”, मामूँ ने पहला सवाल किया। सितारा ने इस बात पर सर हिला दिया।

    “आँ... कबूतर तो नहीं ले गई?”, मामूँ ने आँखें फाड़ कर पूछा।

    “मा’लूम नहीं।”, सितारा ने बे-तअ’ल्लुक़ी से कहा। और मामूँ घबरा कर बालकनी में चले गए। सितारा ने नेक भाँजियों की तरह उनका लिपटा हुआ बिस्तर उठा कर बालकनी में पहुँचा दिया। सितारा की समझ में नहीं आया कि अब क्या करे। फिर वो ज़ुहरा के कमरे में गई। वो यूँ आँखें बंद किए पड़ी थी जैसे उसके सारे कबूतर बिल्ली खा गई हो।

    “मुझे नहीं बताओगी बाजी?”, सितारा उसके पाएँती बैठ गई।

    “मैं शादी नहीं कर सकती।”, ज़ुहरा जैसे कुराही और फिर करवट बदली। सितारा ने ज़ुहरा की नक़ाहत में एक अ’जीब सा हुस्न देखा, एक अ’जीब सी सनसनी महसूस की, फिर उसे अचानक ज़ुहरा से नफ़रत हो गई। शायद उसने फिर अपनी पिटारी में कुछ सैंत कर रख दिया।

    “जहन्नुम में जाओ।”, सितारा मुँह ही मुँह में बड़बड़ाई और झटके से उठकर नीली रौशनी में डूबे हुए कमरे में चली गई। कुर्सीयों पर से कुशन उठाकर दरी पर फेंके और औंधी पड़ गई। जब जमील और नानी आएँ तो वो सो रही थी... मगर सुब्ह को वो जागी तो नानी और जमील ने मारे सवालात के उसके नाक में दम कर दिया।

    “मुझे नहीं मा’लूम, बस वो आया और चला गया, बाजी कहती हैं कि वो शादी नहीं कर सकतीं।”, सितारा ने एक ही जवाब दिया।

    “वही तो मैं कहूँ शरीफ़-ज़ादियाँ कहीं एक मर्द की सूरत देखकर दूसरे का मुँह देखती हैं।”, नानी ने इन दो दिनों के अंदर पहली इत्मीनान की साँस ली। सितारा उन्हें यक़ीन दिलाए जाती थी कि वो दोनों ज़रूर एक दूसरे को पसंद करेंगे, वही मसल मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त। और सितारा का जी चाहा शरीफ़-ज़ादियों के तसव्वुर के सिलसिले में गालियाँ बकने लगे... गाली बक सकी, इसलिए बे-वज्ह ही वो नानी से लड़ पड़ी कि मेरे दुपट्टे में खोंचा लगा लाई हैं। हालाँकि दुपट्टा पहले से फटा हुआ था।

    “रियाज़ के पास दौलत हो गई है न, वो बाजी को कैसे पसंद कर सकता था, बाजी के सामने कहना बेचारी जमील ने फ़ैसला दिया और सितारा उससे भी बे-तहाशा लड़ी।

    “बड़े आए बेचारी कहने वाले।”, मगर वो किसी का मुँह कैसे बंद करती। वो ख़ुद कुछ नहीं जानती थी। ज़ुहरा सुब्ह-सुब्ह स्कूल जा चुकी थी। सितारा सबसे नाराज़, ज़िंदगी से बे-ज़ार और अपने नन्हे को लिए तमाम दिन पता नहीं कब-कब की सहेलियों के घरों में घूमती फिरी, उसका ग़ुस्सा कमाऊ-पूत जैसा था, जो रूठ कर हमेशा घर से भागता है। वो अपनी बहन से नाराज़ थी और इस तरह वो सभी को परेशान कर रही थी। रात आठ बजे वो घर लौटी, तो जमील उसे ढूँढने निकल चुका था। वो जानता था कि जब सितारा उससे लड़ती तो उसे सहेलियों की याद सताने लगती है।

    “खाना खा लो।”, नानी ने ख़ुशामद से नन्हे को उठा लिया। वो बेचारी समझ रही थीं कि सितारा दुपट्टा फट जाने की वज्ह से नाराज़ है।

    “सत्तू! ये क्या हरकत थी। जमील बेचारा शाम से परेशान है।”, ज़ुहरा अपनी मख़्सूस मद्धम चाल से उसके क़रीब आई मगर उसने ज़ुहरा का नोटिस भी लिया।

    “तुम मुझसे नाराज़ हो?”, ज़ुहरा ने बड़े दर्द के साथ सवाल किया।

    “मैं तुम्हारी कौन लगती हूँ? किस हक़ पर नाराज़ होंगी”, सितारा ने बे-ज़ारी के साथ जवाब दिया और बालकनी में निकल आई।

    ”खनता, मनता, कौड़ी पहिया, कौड़ी लेकर घसियारे को दे दी। उसने मुझको घास दी। घास मैंने गय्या को दी। गय्या ने दूध दिया। दूध की मैंने खीर पकाई। बलिया आई, खा गई।”, नानी लहक-लहक कर सितारा के नन्हे को अपने पैरों पर बिठाए झुला रही थीं। सितारा की आँखों में आँसू गए। उसको भी अपनी सारी मेहनत का यही अंजाम मा’लूम हुआ। बिल्ली आई और खीर खा गई।

    “तुम जमील का इंतिज़ार कर रही हो?”, ज़ुहरा ने उसके क़रीब आकर बालकनी के कटहरे पर कुहनियाँ जमा’ लीं। सितारा ने कोई जवाब दिया।

    “कल उस वक़्त मुझे भी इंतिज़ार था, मगर वो आया सत्तू। मुझ पर ग़ुस्सा करने की बजाए...”, सितारा को लगा कि वो हैरत के झटके से नीचे गिर पड़ेगी। वो एक धक्के से सीधी खड़ी हो गई। और उसने अपनी उँगलियाँ बालकनी के कटहरे में पैवस्त कर दीं।

    “हाय अल्लाह वो कौन था रात को?”, सितारा को अपनी बहन कोई अलिफ़-लैलवी किरदार मा’लूम हुई।

    “मैं उसे नहीं जानती।”, ज़ुहरा ने धीरे से कहा। सितारा दम-ब-ख़ुद रह गई।

    “उसने यूँ मज़े ले-ले कर पैटीज़ खाईं और सारी काफ़ी पी गया, जैसे ये बहुत अहम काम हो। फिर वो आजकल के नौजवानों के लिए हर पेशे में मुक़ाबले की दौड़ की वज्ह से परेशान होता रहा। उसे अपने बेटों की बड़ी फ़िक्र थी। चलने से पहले वो अपनी कुर्सी से उठकर मेरे क़रीब गया।”

    “और तुमने मुझे भी बुलाया।”, सितारा इस ख़याल से काँप गई।

    “मैं तो इस लम्हे के इंतिज़ार में रही जो पंद्रह साल पहले मेरी ज़िंदगी में बिल्ली की तरह दबे-पाँव आया था। मैंने सर झुका रक्खा था और मैं रो भी रही थी... उसने मेरा सर भी उठाया। बस मुझसे लिपट गया, बिल्कुल नई’म की तरह मेरी रूह में कोई कँवल सा सिमटा। उसने कहा मैं उसको क़ुबूल कर लूँ और मैंने उसे घर से निकाल दिया।”, ज़ुहरा ने गमले में सूखती हुई मौसमी बेल का एक पत्ता मुट्ठी में लेकर चुरमुर कर दिया और सितारा जो इतनी देर से अंगारों पर पाँव धरती उसके पीछे-पीछे चल रही थी साकित रह गई।

    “तम्बाकू की गीली बू मेरे होंटों पर अब तक सूख रही है... तौबा सत्तू! उसके चेहरे की खाल तक फड़क रही थी, वो मुझे बिल्कुल मसख़रा लगा। बेचारा मैमूना का मियाँ... हाँ वो मैमूना का मियाँ ही था।”, ज़ुहरा ने सितारा की आँखों में आँखें डाल कर कहा और फिर आँसुओं से भरी आँखों पर काँपते हुए हाथ रख लिए। सितारा की समझ में कुछ आया।

    नानी नन्हे को अब वो कहानी सुना रही थीं जो वो अपनी तीन पुश्तों को बारहा सुना चुकी थीं, “तो फिर भई थकी हारी शहज़ादी को भी नींद आने लगी। एक छप्पर खट जिस पर शहज़ादा सो रहा था, बस तो शहज़ादी ने क्या किया कि बीच में नंगी तलवार धर ली। उधर शहज़ादा इधर शहज़ादी...”, अचानक सितारा की समझ में सब कुछ गया। गली में जमील तेज़-तेज़ रहा था, तम्बाकू की गीली बू सितारा के हवास पर छा गई और वो ज़ुहरा के गले में बाँहें डाल कर उसके साथ सिसकियाँ लेने लगी... अल्लाह ये फ़ासले... ये फ़ासले!

    स्रोत:

    सब अफ़्साने मेरे (Pg. 202)

    • लेखक: हाजरा मसरूर
      • प्रकाशक: मक़बूल अकादमी, लाहाैर
      • प्रकाशन वर्ष: 1991

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