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मोहब्बत

MORE BYउपेन्द्र नाथ अश्क

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जो बंगाल में आज़ादी के लिए बनाए गए एक खु़फ़िया संगठन में शामिल हो जाता है। संगठन को जब पैसे की ज़रूरत होती है तो वह अपने दोस्त के साथ मिलकर एक बैंक को लूट लेता है। जब पुलिस उन्हें घेर लेती है तो वह दोस्त उसे छोड़कर भाग जाता है और वह पकड़ा जाता है। इससे उसे पता चलता है कि उसके दोस्त ने उसे धोखा दिया है। जब उसका अपने उस दोस्त से सामना होता है तो उसे पता चलता है कि वह लड़का नहीं, लड़की है, जो उससे मोहब्बत करती है।

     

    फ़लसफ़ी ने अपने नौजवान दोस्त से कहा... बिला सोचे-समझे तारीकी में मत कूदो। नौजवान हँसा... बोला... मोहब्बत वो तारीकी है जिसमें कूदते वक़्त समझ और सोच की क़ुव्वतें सल्ब हो जाती हैं और फ़ह्म-ओ-फ़िरासत जवाब दे जाते हैं।

    कांजली

    भाई आनंद!

    तुम मज़े में हो, ये जान कर ख़ुशी हुई। लेकिन अगर तुम्हें मायूसी न हो तो अर्ज़ करुँ कि इधर भी कुछ बुरी बसर नहीं हो रही। अगर शिमला पर अंद्र देवता की नज़र-ए-इल्तिफ़ात है तो दो-आबा को भी इसने फ़रामोश नहीं किया और अगर यक़ीन करो तो कहूँ कि आजकल तो दो-आबा भी सच-मुच शिमला और कश्मीर बन रहा है। हर दूसरे तीसरे बारिश हो जाती है। कैफ़-आवर हवा, दोनों हाथों से साग़र लंढ़ाती है। देखने में नशा, छूने में नशा, सूँघने में नशा। आँख, नाक, कान, रग-रग में नशे की लहर दौड़ जाती है। साइकल उठाते हैं और दस कोस की मंज़िल मार कर यहाँ कांजली के किनारे आ जाते हैं। तैरने के लिबास ज़ेब-तन करके उस गहरे नीले पानी में कूद पड़ते हैं। ऊपर बूँदा-बाँदी होती है और नीचे, बहुत नीचे, बाँध का पानी, हल्की-हल्की आवाज़ में गिरता है। हवा पत्तों में सरसर करती है और कुछ अजीब नग़्मों से फ़िज़ा मामूर हो जाती है।

    आज भी ऐसा ख़्याल था कि बारिश होगी। रात ही से आसमान पर बादलों ने अपनी सल्तनत क़ायम कर ली थी, और ठंडी-ठंडी हवाओं के उस आराम देने वाले राज में कांजली न पहुँचना, मेरे ख़्याल में हिमाक़त थी, इसलिए मैं उठा। काम-वाम मैंने सब कल के लिए उठा दिया। जाकर बृजू और रमेश को तैयार किया और फिर जाते-जाते ज़बरदस्ती इन्द्रनाथ को भी साथ ले लिया। उसके यहाँ उसके वतन के एक दो बंगाली दोस्त आए हुए थे। लेकिन मेरे इसरार पर वो चल पड़ा। दर-अस्ल आनंद, इन्द्रनाथ न हो तो सैर का या पिकनिक का लुत्फ़ ही नहीं आता।

    उस इन्द्रनाथ से कुछ बचते रहना। तुमने ये क्या लिख दिया आनंद। जब तुम्हारी इस बात को याद करता हूँ तो बे-इख़्तियार हँसी आ जाती है। तुमने इन्द्रनाथ को देखा नहीं। वर्ना कभी ऐसा न लिखते, बंगालियों में जो एक तरह का सूबाई जज़्बा होता है। वो इसमें नाम को नहीं। खुली तबियत का, आज़ाद-ख़्याल, हँसमुख नौजवान है, मेरी ही उम्र का होगा, पतला सा जिस्म, लम्बे-लम्बे बाल और तीखे-तीखे नक़्श। पहली नज़र में देखने वाले को शक गुज़रता है, जैसे ये कोई सिनेमा का ऐक्टर होगा। या ब-ज़ा’म-ए-ख़ुद ऐक्टर बने फिरने वाले नौजवानों में से होगा, लेकिन पास बैठने पर मालूम होता है कि वो किस इल्म का मालिक है। आनंद, उसकी मालूमात की दुनिया निहायत वसीअ है। शायद ही कोई ऐसा मौज़ू होगा जिस पर वो सैर हासिल-ए-बहस न कर सकता हो। फिर इन तमाम बातों के बावजूद तकब्बुर का उसमें नाम तक नहीं, जैसे सादा-लोही और हलीमी की एक चादर में वो लिपटा रहता है और फिर वतन-परस्ती का जज़्बा उसमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। मैं तो सच-मुच उसका गर्वीदा हुआ जा रहा हूँ।

    शिमले तो में क्या आऊँगा। बरसात के दिनों में शिमले को कांजली से निस्बत? घने-घने आम और जामुन के दरख़्त, नन्ही-नन्ही बूँदें, गहरा नीला पानी, और फिर कोयल की लंबी कूक, मैं तो तुमसे कहूँगा कि अगर आ सको तो चंद दिनों के लिए तुम ही उधर आ जाओ।
    रघू

    (2)
    गाड़ी का एक कमरा

    आनंद!

    ख़त में एक दो दिन देर हो जाने की कोई ख़ास वजह नहीं, दफ़्अतन ही मेरी सलाह कलकत्ता जाने की हो गई है। बात ये है कि किसी ज़रूरी काम से अचानक इन्द्रनाथ कलकत्ते जा रहा है। मुझे यहाँ काम तो आज कल है नहीं। कॉलेज बंद है और थीसिस की तरफ़ तबियत बिल्कुल नहीं लगती इसलिए सोचा कलकत्ते ही चला जाए, दर-अस्ल इन्द्रनाथ की ग़ैर मौजूदगी में ये दिन किस तरह कट सकेंगे। ये मैं नहीं सोच सका। उसकी हस्ती कुछ ग़ैर-मामूली तौर पर मेरी हस्ती पर छाती गई है। मेरे ख़्यालात, मेरी आदतें, मेरे काम, अब मेरे नहीं रहे। वो वैसे ही बनते गए हैं, जैसे इंद्रनाथ चाहता रहा है। दूसरे के ख़्यालात, और आदतों को बदल देने का कुछ ऐसा ही गुण उसे याद है और अब समझ लो, मैं कलकत्ते जा रहा हूँ।

    एक बात कहूँ, तुम्हारी बहुत पहले की लिखी हुई बात याद आ जाती है, इस इन्द्रनाथ से ज़रा बचते रहना। और मैं सोचता हूँ। क्या मुझे बचना चाहिए? कभी-कभी मालूम होता है कि इसका मुझ पर यूँ छा जाना अच्छा नहीं। जैसे वो मुझे किसी गहरे ग़ार में लिए जाता है, लेकिन दूसरे लम्हे ये सब वहम मालूम होता है। मेरे ख़्यालात आगे से सुलझे हुए हैं, मेरी आदतें पहले से सुधरी हुई हैं, और मेरी ज़िंदगी का अब कोई नसब-उल-ऐन मालूम होता है। लेकिन... पर छोड़ो। फ़िलहाल तो कलकत्ते जा रहा हूँ। बाक़ी कलकत्ते जाकर।

    रघू

    (3)
    कलकत्ता

    आनंद!

    रात कितनी ही बैत चुकी है। लेकिन मुझे बिल्कुल नींद नहीं। दिल में एक हैजान सा बरपा है। एक आग सी लगी हुई है और जी चाहता है इस आग की लिपटों को सब तरफ़ फैला दूँ ताकि ज़ुल्म और जौर की क़ुव्वतें पलक झपकते जल-भुन कर राख हो जाएं। तुम शायद हैरान होगे कि मैं आज ये सब क्या बक रहा हूँ? लेकिन आनंद तुम क्या जानो कि मेरे ख़्यालात में इंक़लाब बरपा हो चुका है। मेरा ख़्याल था कि मैं कलकत्ते से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ। कलकत्ता मेरे लिए नया नहीं। बीसियों दफ़ा अंग्रेज़ी सल्तनत के इस दूसरे बड़े शहर में आया हूँ। लेकिन इन्द्रनाथ ने इस कलकत्ते में जो चीज़ें दिखाईं उन का ख़्वाब में भी ख़्याल न था।

    आज मैंने वो ख़ुफ़िया तह-ख़ाने देखे हैं जहाँ प्लासी की लड़ाई में हार कर नवाब सिराज-उद-दौला कुछ दिनों के लिए आ छिपे थे। तारीख़ में उनका ज़िक्र नहीं, लेकिन देखने पर यही मालूम होता जैसे नवाब अभी-अभी यहाँ से गए हैं। कलकत्ता के नवाह के टूटे-फूटे मकान में इन्द्रनाथ के एक दोस्त रहते हैं। वो क्यों वहाँ रहते हैं। ये मैं नहीं जानता, शायद ग़रीब हैं, और कलकत्ता के किराया का बार नहीं उठा सकते। हम उनसे मुलाक़ात करने गए, तभी बातों-बातों में इन्द्रनाथ ने उन तह-ख़ानों का ज़िक्र किया और जब मैंने इसरार किया तो वो मुझे वहाँ ले गया।

    एक टूटा-फूटा सा दालान था। उसमें से होते हुए एक-दो ग़ुलाम गर्दिशों को तै करके हम एक तारीक कमरे में पहुँचे। इन्द्रनाथ के दोस्त का नाम 'मुकरजी' है। उन्होंने एक दरवाज़ा खोला और हम सीढ़ियाँ उतर कर तह-ख़ाने में जा पहुँचे। उस जगह घुप अंधेरा था। हाथ को हाथ सुझाई न देता था। मेरा दिल धक-धक करने लगा। मुझे इन्द्रनाथ पर इतना ही एतिमाद था जितना अपनी हस्ती पर। लेकिन न जाने क्यों, दिल जैसे धँसा जा रहा था। तारीकी में मुकरजी ने एक खटका सा दबाया। सामने की दीवार में एक दरवाज़ा खुल गया और एक लंबी गैलरी नज़र आई। जिसके दूसरे सिरे से रौशनी की शुआएं उसके निस्फ़ हिस्से को रौशन कर रही थीं। गैलरी से गुज़र कर हम तह-ख़ाने में पहुँचे। ये तह-ख़ाना काफ़ी रौशन था और हवा भी यहाँ जाने कहाँ से आ रही थी। मैंने पूछा तो इन्द्रनाथ ने कहा, इसका भी इंतिज़ाम है।

    फ़र्श पर देसी क़िस्म के ग़ालीचे बिछे हुए थे और पुराना फ़र्नीचर रखा था, जो बहुत कुछ ख़स्ता और बोसीदा हो गया था। दीवारों पर पुराने क़िस्म के नक़्श-ओ-निगार थे। जब मैंने पूछा तो इन्द्रनाथ ने बताया कि ये शाही तह-ख़ाने हैं। ये उनमें से पहला है, अभी दूसरे में जाएंगे। नवाब सिराज-उद-दौला ने अपनी परेशान ज़िंदगी के कुछ अय्याम यहीं बसर किए थे। कमरे में चारों तरफ़ उसी ज़माने की तस्वीरें लगी हुई थीं, जब क्लाइव की हिक्मत- ए-अमली और चालाकी और मीर जाफ़र और अमाचंद की ग़द्दारी ने हिन्दुस्तान के पाँव में पहली बेड़ी डाल दी थी। एक तस्वीर में अमाचंद क्लाइव से साज़-बाज़ कर रहा था। दूसरी में फ़रेब मुजस्सम क्लाइव अमीर-उल-बह्र वाटसन से जाली मुआहिदा पर दस्तख़त कराने के लिए इसरार कर रहा था, जिसमें अमाचंद को तीन लाख रूपया देने की कोई शर्त न थी।

    फिर कुछ और तसावीर प्लासी के मैदान-ए-जंग, नवाब की शिकस्त और मीर जाफ़र की गद्दी-नशीनी की लगी हुई थीं। लेकिन उनमें एक तस्वीर ऐसी थी जिसने मेरी तवज्जो ख़ास तौर पर अपनी तरफ़ मबज़ूल कर ली। ये थी एक पागल की तस्वीर। दीवाना सर और पाँव से बिल्कुल बरहना था। सर के बाल बिखरे हुए थे। दाढ़ी बढ़ कर ख़ौफ़नाक हो रही थी और उस पर गर्द पड़ी हुई थी। जिस्म पर जगह-जगह से ख़ून निकल रहा था, जो उसने दीवानगी के आलम में खरोंच-खरोंच कर निकाल लिया था। तस्वीर के नीचे लिखा हुआ था, क़ौम-फ़रोश अमाचंद।

    दूसरा तह-ख़ाना भी उसी तरह का था। उसमें भी कुछ तसावीर थीं, लेकिन पहले से ज़ियादा दर्दनाक... पहली तस्वीर एक शख़्स की थी, जो सर्दी में सिकुड़ गया था। उसके बच्चे रो रहे थे। उसकी बीवी आँसू बहा रही थी और मौसम सुरमा की हवा के तुंद झोंकों ने उसे रोज़-रोज़ के अज़ाब से नजात दिला दी थी। तस्वीर का उनवान था, हमारा मज़दूर। दूसरी तस्वीर एक शख़्स की थी, जो सूख कर काँटा हो गया था। उसे कई तरह की बलाएं चिमटी हुई थीं, जो उसका ख़ून चूस रही थीं। ये था, हमारा किसान। तीसरी तस्वीर एक सूट-बूट में मलबूस नौजवान की थी जो एक साहब के दर पर जबीं साई कर रहा था। नीचे लिखा था, हमारे बाबू।

    तह-ख़ाने तो देख आया आनंद, लेकिन उस वक़्त से ही दिल-ओ-दिमाग़ में एक हलचल मची हुई है, जिस मुल्क की हालत इतनी दिगर-गूँ हो, उसके बाशिंदे सुख की नींद कैसे सो सकते हैं? वो तमाम मनाज़िर आनंद, मेरी निगाहों के सामने घूम-घूम जाते हैं और इन सबसे बढ़ कर उस दीवाने की तस्वीर!

    रघू

    (4)
    हवालात

    आनंद

    क्या सोचा था और क्या हो गया। सब इरादों और आरज़ूओं पर ओस पड़ गई और तुम्हारा दोस्त इन संगदिल सिपाहियों के दरमियान फँसा। तुम्हें क्या लिखूँ कि इस लम्बे अर्से में किन-किन मुसीबतों से गुज़रा हूँ। तुम बजा तौर पर नालाँ हो कि मैंने तुम्हारे एक भी ख़त का जवाब नहीं दिया। लेकिन दोस्त जब आदमी के होश-ओ-हवास उसके अपने होश-ओ-हवास न हों, जब न वो अपने दिमाग़ से सोचता हो, न काम करता हो। तब उससे शिकायत ही क्या। आज हवालात की तारीक कोठरी में तुम्हारी एक बात मुझे रह-रह कर याद आती है, बस इन्द्रनाथ से ज़रा बचते रहना। उस वक़्त मैं उस पर हँस दिया था लेकिन आज सोचता हूँ तो ख़्याल आता है कि अगर मैं तुम्हारी इस बात पर कान देता तो इस मुसीबत में न फँसता।

    मुझे गिरफ़्तारी का या महबूसी कारंज नहीं। एक इंक़लाब पसंद गिरोह के किसी मेम्बर को (क्योंकि मैं इंक़िलाब-पसंद गिरोह में शामिल हो गया था) जेल तो क्या फाँसी तक के लिए तैयार रहना चाहिए। रंज है तो इस बात का कि शायद मेरे साथ धोका किया गया है। इन्द्रनाथ इंक़िलाब-पसंदों की अंजुमन का सरग़ना था। ये अंजुमन सारे बंगाल में फैली हुई थी। पंजाब में भी शायद वो अंजुमन ही के किसी काम के लिए पहुँचा था। मेरी बद-बख़्ती कि मैं इसकी ख़ूबियों का मद्दाह हो गया और उसके साथ चला आया। उसके साथ रह कर अंजुमन में शामिल न होना नामुम्किन सी बात थी। मैंने तुम्हें तह-ख़ानों के मुताल्लिक़ एक ख़त लिखा था। इससे शायद तुम्हें एहसास हो गया होगा कि किस तरह आदमी के ख़्यालात बदल जाते हैं और उसे मालूम भी नहीं होता। हमारी अंजुमन सारे बंगाल में फैली हुई थी और मशहूर-मशहूर शहरों और क़स्बों में उसके मरकज़ थे। जंगलों और पहाड़ों में उसके ख़ुफ़िया मक़ाम थे। लेकिन उसकी ख़बर इंद्रनाथ और चंद दूसरे सर-कर्दा मेम्बरों के सिवा किसी को भी न थी। अक्सर को तो ये भी इल्म न था कि अंजुमन में कौन-कौन मेम्बर हैं।

    उसे कामयाबी से चलाने के लिए हमें रूपय की ज़रूरत पड़ी। चुनाँचे सलाह हुई कि अंजुमन के पहाड़ी मक़ाम के नज़दीक क़स्बे के सरकारी बैंक में डाका डाला जाए। तज्वीज़ के मुताबिक़ हम छः अश्ख़ास मुक़र्ररा वक़्त पर बैंक के नज़दीक पहुँच गए। शाम का वक़्त था। बैंक के क्लर्क आहिस्ता-आहिस्ता चले गए थे। ख़ज़ाँची हिसाब की पड़ताल कर रहा था। उस वक़्त हमने मौक़ा को ग़नीमत जान कर सिपाही पर हमला करके उसे बेहोश कर दिया। फिर ख़ज़ाँची को पिस्तौल दिखाकर नोटों के बंडल और रूपों की थैली उठा लाए। इन्द्रनाथ के सुपुर्द मोटर लाने का काम था। ऐन वक़्त पर कार पहुँच गई। रूपया रखा और हवा हो गए।

    पन्द्रह बीस मीनट तक अंधा-धुंद मोटर चला की। लेकिन हमें मालूम हो गया कि हमारा तआक़ुब हो रहा है। दोनों मोटरें पूरी रफ़्तार से चल रही थीं। मोटर की आवाज़ के साथ हमारे दिल धड़क रहे थे। इन्द्रनाथ मोटर को ख़ुफ़िया मक़ाम की तरफ़ ले चला। तक़रीबन दो घंटा तक मोटर चलती रही। अब हम चढ़ाई पर थे। सड़क कई जगह से मुड़ती थी। मालूम होता था कि अभी गिरे और गहरी खड में गुम हो गए। लेकिन इन्द्रनाथ को मोटर चलाने में कमाल हासिल था। हम मोटर मैं बैठे जा रहे थे। लेकिन ऐसा मालूम होता था जैसे झूला झूल रहे हैं। अभी जो सड़क ऊपर सर पर नज़र आती, दूसरे लम्हे नीचे खड में दिखाई देती। पहाड़ी दरख़्त बिजली की सी सुरअत से गुज़रे जा रहे थे। उस वक़्त ऐसा मालूम होता था जैसे इन्द्रनाथ कोई देवता हो या ग़ैर-मामूली इंसान। उसे मोटर चलाने में इतना ही कमाल हासिल था जितना सियासियात और मआशियात में।

    लेकिन दूसरी कार ने हमारा तआक़ुब न छोड़ा। इन्द्रनाथ की तरफ़ देखा तो जैसे पत्थर के बुत की तरह बैठा कार चलाए जा रहा था। सामने घाटी थी। इन्द्रनाथ ने मोटर को बुलंदी पर चलाना शुरू किया। लेकिन अभी हमने चौथाई हिस्सा भी तय न किया था कि टायर एक आवाज़ के साथ फट गया और मोटर की रफ़्तार रुक गई। इन्द्रनाथ ने छलाँग लगा दी। मुकरजी ने नोटों के बंडल और थैलियाँ उसकी तरफ़ फैलाएं। लेकिन इससे पहले का हममें से कोई उतरने की कोशिश करता, मोटर पीछे को चलना शुरू हो गई। ढलवान काफ़ी थी। एक धमाका हुआ और मोटर रुक गई। तआक़ुब करने वालों की मोटर के साथ हमारी मोटर टकरा गई थी। लेकिन उल्टी नहीं, क्योंकि पुलिस वालों ने मोटर चढ़ाई के शुरू ही में रोक दी थी।

    हमारे हवास उड़ गए थे। हम ने भागने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। हमने भी पिस्तौल निकाले। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चलने लगीं। पुलिस के दो सिपाही ज़ख़्मी हुए। हमारा एक रफ़ीक़ मारा गया। मेरी टाँग में गोली लगी। पुलिस ने सबको गिरफ़्तार कर लिया। हाँ मुकरजी भाग गए। हमारी मोटर की तलाशी ली गई लेकिन कुछ बरामद न हुआ और आज मुझे मालूम हुआ है कि इन्द्रनाथ और मुकरजी ने ये सब साज़िश इंक़िलाब-पसंद नौजवानों को फँसाने के लिए की थी।

    जेल के इंस्पेक्टर दुर्गा दास बेनर्जी मेरे बड़े दोस्त हैं। कलकत्ता में कई बार में उनके यहाँ ठहरा हूँ। मुझ पर बड़े मेहरबान हैं। उनकी वसातत से ही मुझे ये सब पता चला है। बंगाल में इंक़िलाब-पसंदों की बढ़ती हुई सर-गर्मियों को रोकने के लिए ही सरकार ने इन्द्रनाथ और मुकरजी को मुक़र्रर किया था। अब सोचता हूँ आनंद, तो सब कुछ ठीक ही मालूम होता है। कभी ख़्याल करता हूँ कि दुर्गा दास कहीं ग़लत न कहते हों। बहरहाल जिस्मानी तकलीफ़ के अलावा में किस ज़हनी तकलीफ़ में मुब्तिला हों। तुम इसका अंदाज़ कर सकते हो। सोचता हूँ, मैंने इन्द्रनाथ का क्या बिगाड़ा था कि इस परदेस में मुझे ला फँसाया लेकिन किसी ने कहा है ना कि सादा-लौही के ख़ून पर ही रियाकारी पलती है।
    रघू

    पी. एस
    ख़त दुर्गा दास ही की वजह से तुम्हें पहुँच रहा है नहीं तो शायद तुम जानते भी नहीं और मैं शायद काले पानी पहुँच जाता।

    (5)
    सेंट्रल जेल

    आनंद

    मैं सुल्तानी गवाह बन गया। अगरचे मुझे कुछ बहुत कहना नहीं पड़ा। फिर भी मेरे बयान की वजह से दोनो जवानों को काले पानी की सज़ा हो गई। तुम शायद मुझे बुज़दिल और डरपोक ख़्याल करो, लेकिन सच जानना आनंद में किसी डर या ख़ौफ़ की वजह से सुल्तानी गवाह नहीं बना। बल्कि मेरे इस फ़ैसले की तह में इंतिक़ाम का वो जज़्बा काम करता है, जो दिन रात मेरे तन बदन को जलाया करता है। मैं अभी तक ज़ेर-ए-हिरासत हूँ। लेकिन कुछ दिन तक आज़ाद हो जाऊँगा और मैं क़सम खाकर कहता हूँ आनंद। मैं इन्द्रनाथ का पता लगाऊँगा और इससे पूरा-पूरा बदला लूँगा।

    अपनी सादा-लौही पर मुझे हँसी आती है। इन्द्रनाथ को मैं फ़रिश्ता समझता था। लेकिन मुझे मालूम हो गया, वो शैतान था। मुक़दमा की समाअत ख़त्म हो गई। लेकिन अभी तक न इन्द्रनाथ का पता है और न मुकरजी का। पता लगता भी कैसे? वो दोनों तो कहीं दूसरी साज़िश खड़ी कर रहे होंगे। मुझे दुर्गा दास ने सब कुछ बता दिया है। पुलिस ने उन्हें मफ़रूर क़रार दे दिया है और पब्लिक की आँखों में धूल झोंकने के लिए उनको गिरफ़्तार कराने में इमदाद करने वाले को इनाम देने का ऐलान कर दिया है। लेकिन मुझे सब हक़ीक़त का इल्म है और इसीलिए मैं सुल्तानी गवाह बना। गिरफ़्तार शुदा रफ़ीक़ तो सज़ा पाते ही, लेकिन इन्द्रनाथ से बदला लेने के लिए कौन रहता?

    रघू

    (6)
    एक दूर-उफ़्तादा गाँव

    आनंद!

    एक मुद्दत के बाद तुम्हें ख़त लिख रहा हूँ। सोचता था अब कुछ न लिखूँगा और इस तन्हा मुक़ाम में, दाग़-ए-नाकामी सीने पर लिए चुप-चाप इस दुनिया से गुज़र जाऊँगा। लेकिन शायद जब तक तुम्हें लिख न लूँगा मुझे मौत न आएगी। आनंद मुझे धोका हुआ। सचमुच बहुत बड़ा धोका हुआ। बहुत देर हुई तह-ख़ाने में क़ौम-फ़रोश अमाचंद की तस्वीर देखी थी। रह-रह कर वो आज-कल मेरे सामने फिर जाया करती है और मैं महसूस किया करता हूँ कि मैं पागल हो जाऊँगा लेकिन शायद उस वक़्त तक मैं ज़िंदा न रहूँगा।

    जेल से आज़ाद होने के बाद आनंद, मैं इन्द्रनाथ की तलाश में मुंहमिक हो गया। दुर्गा दास से मैंने पूछा। लेकिन उसने कहा उसकी रिहाइश का इल्म बड़े अफ़सरों के सिवा किसी को नहीं। दर-अस्ल वो सरकार का राज़ है, किसी को बताया नहीं जा सकता। लेकिन मैंने तय कर लिया था कि मैं उसे ढूँढ कर दम लूँगा। मैंने शाही तह-ख़ानों की तलाशी करवा दी थी और वो खंडर बिल्कुल वीरान पड़े थे। एक दिन जैसे किसी ग़ैबी तरग़ीब से मैं उधर जा निकला। वहीं वीरान और डरावने तह-ख़ानों में से मुझे उन तमाम ख़ुफ़िया जगहों का पता चल गया, जहाँ अंजुमन के मरकज़ थे। मुझे पूरा यक़ीन था कि इन्द्रनाथ किसी दूसरे गिरोह को मुरत्तब करने में मुंहमिक होगा और इससे पहले कि वो अपने इरादे में कामयाब हो, मैं उसे उसके कैफ़र-ए-किरदार को पहुँचा देना चाहता था।

    कई जगहों की तलाश के बाद मैं एक दिन उसी मक़ाम पर पहुँचा, जहाँ हमारी कार रुक गई थी। वहाँ बग़ैर रुके मैं चोटी पर पहुँच गया। पहुँच तो गया लेकिन कुछ लम्हों के लिए मैं हैरान सा खड़ा रह गया, क्योंकि सामने फिर घाटी थी। उस वक़्त मुझे एक बार फिर यक़ीन हो गया कि इन्द्रनाथ ने जान-बूझ कर कार रोक दी थी क्योंकि आगे तो ख़ौफ़नाक घाटी थी। यक़ीनन वो कार को इसमें न गिराता। चुप-चाप वहाँ खड़ा मैं तमाम वाक़ियात पर ग़ौर करता रहा और इंतिक़ाम का जोश जैसे मेरे सीने में दुगने जोश से उठ कर ख़ुद मुझको ही जलाने लगा। तभी सामने की चढ़ाई पर में ने किसी इंसानी शक्ल को चढ़ते देखा। शाम के धुंदलके में मुझे वो इन्द्रनाथ ही मालूम हुआ। तब बिजली की सी तेज़ी के साथ मैं नीचे उतरा। उस वक़्त कहीं ज़रा भी पाँव फिसल जाता तो हड्डी-हड्डी चूर हो जाती। लेकिन मुझे किसी बात का ख़्याल न था, बस भागा चला जाता था।

    इन्द्रनाथ दूसरी तरफ़ चोटी के क़रीब पहुँच गया। मैं भी ऊपर चढ़ने लगा। जल्द ही मेरी टाँगें फूलने लगीं। आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। लेकिन मैं चढ़ता चला गया। इससे पहले कि मैं इन्द्रनाथ पर वार करता पिस्तौल की सर्द नाली मेरी कनपटी के क़रीब थी और मेरी क्लाई उसके पंजे में और मैं हैरान और भौंचक्का खड़ा था। क्योंकि ये इन्द्रनाथ न था। बल्कि एक ख़ूबसूरत हसीना थी जिसने मर्दों का लिबास पहन रखा था और उसके बाल अगरचे बहुत लम्बे न थे लेकिन बे-परवाई से उसके कंधों पर लहरा रहे थे। शायद ये इन्द्रनाथ की बहन थी। कुछ लम्हा में मबहूत सा उसके चेहरे की तरफ़ देखता रहा फिर मैंने हकलाते हुए कहा, लेकिन... मैं... तो इंद्र...

    उसने बात काट कर कहा, भूल गए रघू! मुझे इतनी जल्दी भूल गए। अभी तो मुझे अंजुमन के उसूल के मुताबिक़ तुम्हें इस पिस्तौल का निशाना बनाना है। और वो दीवानों की तरह हँसी। सर्द सी एक लहर मेरे जिस्म में दौड़ गई। लेकिन मैंने अपना तमाम हौसला इकट्ठा करके कहा, इन्द्रनाथ...

    मेरा नाम इंद्रा है उसने कहा। मैंने कहा, इंद्रा! मैं ख़ुद इसी इरादे से आया था। तुमने पुलिस की जासूस बन कर इतने बे-गुनाहों पर जो ज़ुल्म किया है उसका बदला लेने ही में आया था।

    पुलिस की जासूस। वो हँसी, रघू अपने गुनाह को छिपाने के लिए झूट क्यों बोलते हो।

    लेकिन तुम्हें पुलिस ने गिरफ़्तार क्यों नहीं किया।

    वो कर ही नहीं सकी। वो तो इन्द्रनाथ की तलाश में है। लेकिन मैं तो इंद्रा हूँ। हाँ मेरी गिरफ़्तारी के लिए इनाम अभी तक मुश्तहर है।

    मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया और उस दीवाने अमाचंद की तस्वीर एक बार मेरी आँखों में घूम गई। इंद्रा ने फिर हँस कर कहा, रघू तुम बुज़दिल नहीं। मैं ही बुज़दिल हूँ। अंजुमन के उसूलों के मुताबिक़ मुझे तुम्हें फ़ौरन मौत के घाट उतार देना चाहिए था। लेकिन मैं ऐसा न कर सकी। मैं नहीं जानती रघू लेकिन अब भी में ऐसा नहीं कर सकती। अंजुमन के उसूल के ख़िलाफ़ मैं भी चली हूँ और इसकी सज़ा मौत है। तुम मुझे क़त्ल करने आए थे। लो, क़त्ल करो। और उसने पिस्तौल मेरे सामने फेंक दिया। मैं ख़ामोश, साकिन, मबहूत खड़ा रहा।

    उसने पिस्तौल उठा लिया, तुम मुझ पर फ़ायर नहीं कर सकते रघू। लेकिन अंजुमन के उसूल मुझे मारने या मर जाने पर मजबूर करते हैं। तुम्हीं मैं न मार सकूँगी। ख़ुद मरूँगी और इससे पहले कि मैं उसे रोकता, उसकी नाश ख़ून में लत-पत धरती में पड़ी तड़प रही थी और पिस्तौल उसके हाथ से दूर जा पड़ी थी।

    आह आनंद! वो मुझसे मोहब्बत करती थी।

    रघू

     

    स्रोत:

    Dachi (Pg. 187)

    • लेखक: उपेन्द्र नाथ अश्क
      • प्रकाशक: उर्दू बुक स्टॉल, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1939

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