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वोह

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    स्टोरीलाइन

    यह एक जिस्म बेचने वाली औरत की कहानी है, वक़्त के साथ जिसकी सारी चमक-दमक ख़त्म हो गई है। वह कोढ़ की मरीज़ है जिसकी वजह से लोग अब उससे कतराते और नफ़रत करते हैं। कोई भी उससे बात तक करना पसंद नहीं करता।

    मेरी उस से शिफ़ाख़ाने में मुलाक़ात हुई, वो भी दवा लेने गई थी और मैं भी। उसको देखकर सब औरतें बचने लगीं। डाक्टर ने भी अपनी कराहत का इज़हार आँखें बंद कर के किया। घिन तो मुझको भी आई लेकिन मैंने किसी किसी तरह से उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुरा दिया, वो भी मुस्कुराई। कम अज़ कम कोशिश तो की। उसकी नाक सिरे से ग़ायब थी और दो बड़े बड़े लाल लाल से छेद उसकी नाक की जगह पर थे। एक आँख भी थी और दूसरी से भी बग़ैर गर्दन के सहारे देख सकती थी।

    और फिर थोड़ी देर बाद दवाख़ाने की खिड़की पर मेरी उससे मुड़भेड़ हुई। उसने गुनगुना कर मुझसे पूछा, “आप कहाँ से तशरीफ़ लाती हैं?” मैंने अपना पता बता दिया। वो दवा लेकर चली गई और मुझको कम्पोंडर ने बग़ैर मेरे पूछे बताना शुरू कर दिया, “ये बदमाश औरत है, रंडी है रंडी। सड़ सड़ कर मर रही है। अब आई है इलाज कराने, डाक्टर का तो दिमाग़ ख़राब है कि नुस्ख़ा लिख देती है। निकाल बाहर करें ससुरी को।”

    मैं एक लड़कियों के स्कूल में उस्तानी थी। नई नई कॉलेज से निकली थी, दुनिया मेरे क़दमों से लगी थी, मुस्तक़बिल मेरे सामने मिस्ल-ए-चमन के था और जिसका हर पौदा गुलाब और चम्बेली से कम था। मुझको सारी दुनिया एक चाँदनी रात और उसमें दरिया का बहाव जो कहीं नर्म ख़िराम और कहीं आबशार मालूम होता था। मैं ख़ुश थी, तकलीफ़, ग़म मैं जानती ही थी क्या होते हैं। पढ़ाना भी वक़्त काटने का बहाना था। सारी ख़ुदी उस ज़माने में एक इंतज़ार थी।

    चिलमन उठी और वो कॉलेज के दफ़्तर में दाख़िल हो रही थी। मैं हैरत से खड़ी हो गई और बग़ैर सोचे समझे आदत के मुताबिक़ बोल उठी, “तशरीफ़ रखिए।” पहले तो झिजकी और फिर बैठ गई। उसके हाथ में एक मोतिया का फूल था। उसने मेज़ पर मेरे सामने रख दिया। मुझको उस फूल को उठाते हुए घिन ज़रूर आई लेकिन अपने ऊपर जबर कर के उसको अपने बालों में लगा लिया। वो मुस्कुराई और उठकर चली गई।

    अब ये रोज़ का मामूल था। वो रोज़ छुट्टी के वक़्त चिलमन उठा कर अंदर आती। मैं कहती तशरीफ़ रखिए। वो बैठ जाती, कोई कोई फूल मेरे सामने रख देती। मेरी हम उम्र उस्तानियां उसके लिए छेड़तीं। जिस कुर्सी पर वो बैठती थी उस पर कोई बैठता था। उसकी सूरत ही ऐसी घिनावनी थी। मैं ख़ुद उस कुर्सी को कभी छूती थी। बुढ़िया नसीबन भी रोज़ उसके जाने के बाद बड़बड़ाया करती थी। ये नई उस्तानी अच्छी आई हैं। इस गंदी सन्दी को मुँह लगा लिया है, हम उसकी कुर्सी क्यों झाड़ें।

    प्रिंसिपल भी नाक भौं चढ़ातीं और कहतीं, “तुम उसको यहाँ स्कूल में क्यों बुलाती हो? यहाँ लड़कियों के माँ बाप ज़रूर एतराज़ करेंगे कि ऐसी फ़ाहिशा औरत जाती है।” दूसरा दिन होता और फिर वो आजाती और मैं फिर कहती, “तशरीफ़ रखिए।” अब वो ज़रा देर तक बैठती और मेरी तरफ़ देखती रहती, हमारी कभी बातें नहीं हुईं। क्या ये समझती है कि मुझको उसकी हक़ीक़त का इल्म नहीं? वो सिर्फ़ देखती रहती, उसी अपनी एक टेढ़ी सी आँख से और बग़ैर नाक वाले घिनौने चेहरे से। कभी कभी मुझको शुबहा होता कि उसकी आँख अश्क आलूद है। वो क्या सोचती रहती है? मेरा दिल चाहता है कि पूछ लूं लेकिन कहाँ से शुरू करती?

    अक्सर तो ये हुआ कि जहाँ वो आई और उस्तानियां उठकर चल देतीं और अंग्रेज़ी में मुझको दिक़ करती रहती थीं, “सफ़िया की वो आई हैं, भई चलो लाइब्रेरी में बैठेंगे। कमबख़्त की शक्ल तो देखो।”

    कोई कहती, “भई सफ़िया इस मनहूस को देखकर तो मुझसे रोटी भी नहीं खाई जाती, क़ै आती है।”

    “लेकिन चुनी भी तो ज़ालिम ने ख़ूब है, तुम सब में नंबर एक।”

    “इस कमबख़्त से तो पर्दा करना चाहिए।” ये दीनियात की मोटी बुढ़िया उस्तानी जल कर फ़रमातीं।

    मैं अपना काम करती रहती और वो देखती रहती। मुझको बेचैनी होती। क्या देखती है? क्या सोचती है? क्या ये भी कभी मेरी तरह थी। मेरे रोएं खड़े होजाते।

    ये क्यों आती है? क्या ये नहीं जानती कि लोग उससे नफ़रत करते हैं और घिन खाते हैं। उसकी नाक भी बराबर उन लाल छेदों से टपकती रहती है। और मैं रोज़ सोचती उसको मना कर देना चाहिए। प्रिंसिपल साहिब ठीक तो कहती हैं, लड़कियां अलग बड़बड़ाती हैं। उस्तानियां क़ै करती फिरती हैं। लेकिन जब वो दूसरे दिन आती तो मैं कुर्सी पेश करके फिर कहती, “तशरीफ़ रखिए।”

    क्या उसके पास आईना नहीं है। क्या उसको मालूम नहीं कि ये अपने गुनाहों का ख़मियाज़ा भुगत रही है। कोई उसको बता क्यों नहीं देता। उसका कोई है भी या नहीं। ये कहाँ रहती है, कहाँ से आजाती है। क्या ये समझती है कि मैं उसको सिर्फ एक बीमारी समझती हूँ। मेरा स्कूल में एक अजीब मज़ाक़ बनता है। मज़ाक़ ही नहीं एक तौहीन सी होती है। लेकिन जब वो कोई फूल मेरे सामने रख देती, मैं सर में लगा लेती और वो अपनी भयानक मुस्कुराहट से मुस्कुरा देती।

    ये मुझको क्यों देखा करती है? ये कौन है? ये कौन थी? कहाँ पैदा हुई और कैसे इस हाल को पहुँची? मेरे पास आकर उसको क्या महसूस होता है, एक तकलीफ़ या सुकून?

    एक रोज़ जब वो बाहर निकली तो उसने झांक कर नाक छिटकी और गंदगी दीवार से लगा दी, जो नसीबन छोटी बच्चियों की तख़्तीयों पर मुल्तानी मिट्टी मल रही थी और अर्से से ख़ार खाए बैठी थी। एक दम जवानों की फुर्ती से उठी, आकर सीधी एक तख़्ती उसकी कमर पर जमाई और वो घबरा गई। बुआ नसीबन वो सब तहज़ीब जो उन्होंने स्कूल की बीस साल की नौकरी में सीखी थी और जो हमेशा लड़कियों को तमीज़दार बनने की नसीहत किया करती थीं, आज सब भूल गईं, और वही गली वाली नसीबन बन गईं। “हरामज़ादी, रंडी, आई है बड़ी कुर्सीयों पर बैठने, दिन लग गए, कल चौक में बैठती थी। आज जो कट कट कर गोश्त गिर रहा है तो चली बेगम बनने।”

    एक लात, दूसरी लात, तीसरा मुक्का...

    मैं भाग कर बाहर निकली और नसीबन को पकड़ा, “हाएं हाएं क्या करती हो?” लड़कियों का एक ठट लग गया। उस्तानियां भी भागी चली आरही थीं। नसीबन तो आपे में ही थी।

    “तुमने ही तो सर चढ़ाया है कि मोरी की ईंट चौबारे चढ़ी, सारी दीवार गंदी कर दी। बीस साल से नौकर हैं, हमने नहीं देखा कि रंडियां स्कूल में आएं। मैं हरगिज़ अब यहाँ नहीं रहूंगी। बुला लो और कोई औरत जो...” एक बार बिफर कर उसकी तरफ़ बढ़ीं। लोगों ने बुढ़िया को सँभाल लिया।

    मैंने झुक कर उसको उठाया। वो फूट फूटकर रो रही थी। मैं पकड़ कर उसको फाटक की तरफ़ ले गई। उस की कनपटी से ख़ून बह रहा था। ग़ालिबान वो भी उसे मालूम हुआ था।

    रोते में मुँह छुपाकर ग़नगग़नाई, “अब तो आपको मालूम हो गया।” और चली गई।

    स्रोत:

    Wo, Aur Doosre Afsane, Drame (Pg. 68)

    • लेखक: रशीद जहाँ
      • प्रकाशक: रोशीद जहाँ यादगार कमीटी, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1977

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