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ये मेरी मादर-ए-वतन है!

प्रेमचंद

ये मेरी मादर-ए-वतन है!

प्रेमचंद

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    आज पूरे साठ साल के बाद मुझे अपने वतन, प्यारे वतन का दीदार फिर नसीब हुआ। जिस वक़्त मैं अपने प्यारे देस से रुख़्सत हुआ और मुझे क़िस्मत मग़रिब की जानिब ले चली, उस वक़्त मैं कड़ियल जवान था। मेरी रगों में ताज़ा ख़ून दौड़ता था और ये दिल उमंगों और बड़े बड़े इरादों से भरा हुआ था। मुझे भारत वर्ष से किसी ज़ालिम के जोर-ओ-जब्र या इन्साफ़ के ज़बरदस्त हाथों ने नहीं जुदा किया था, नहीं, ज़ालिम का ज़ुल्म और क़ानून की सख़्तियां मुझसे जो चाहें करा सकती हैं... मगर मुझसे मेरा वतन नहीं छुड़ा सकतीं। ये मेरे बुलंद इरादे और बड़े बड़े मंसूबे थे जिन्होंने मुझे देस से जिला-वतन किया। मैंने अमरीका में ख़ूब तिजारत की, ख़ूब दौलत कमाई और ख़ूब ऐश किए। खूबी-ए-क़िस्मत से बीवी भी ऐसी पाई जो हुस्न में अपनी आप ही नज़ीर थी। जिसकी ख़ूबसूरती का शहरा सारे अमरीका में फैला हुआ था और जिसके दिल में किसी ऐसे ख़्याल की गुंजाइश भी थी जिसका मुझसे ताल्लुक़ हो। मैं उस पर दिल-ओ-जान से फ़िदा था। वो मेरे लिए सब कुछ थी।

    मेरे पाँच बेटे हुए, ख़ुश-रू, क़वी हैकल और सआदतमंद, जिन्होंने तिजारत को और भी चमकाया... और जिनके भोले नन्हे बच्चे मेरी गोद में बैठे हुए थे जब मैंने प्यारे वतन का दीदार करने के लिए क़दम उठाया। मैंने बेशुमार दौलत, वफ़ादार बीवी, सपूत बेटे और प्यारे प्यारे जिगर के टुकड़े ऐसी बे-बहा नेअमतें तर्क कर दीं इसलिए कि अपनी प्यारी भारत माता का आख़िरी दीदार करलूँ। मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ। दस बरस और ज़िंदा रहूँ तो पूरे सौ बरस का होजाऊँ और अब मेरे दिल में कोई आरज़ू बाक़ी है तो वो यही है कि अपने वतन की ख़ाक का बनूँ।

    ये आरज़ू कुछ आज ही मेरे दिल में पैदा नहीं हुई है, बल्कि उस वक़्त भी जब मेरी प्यारी बीवी अपनी शीरीं बातों और नाज़ुक अदाओं से मेरा दिल ख़ुश किया करती थी, जब मेरे नौजवान बेटे सवेरे को आकर अपने बूढ़े बाप को अदब से सलाम किया करते थे, उस वक़्त भी मेरे दिल में एक कांटा सा खटकता था और वो कांटा ये था कि मैं यहाँ जिला-वतन हूँ। ये देस मेरा नहीं है, मैं इस देस का नहीं हूँ। दौलत मेरी थी, बीवी मेरी थी, लड़के मेरे थे और जायदादें मेरी थीं, मगर जाने क्यों रह-रह कर वतन के टूटे हुए झोंपड़े और चार छः बीघा मौरूसी ज़मीन और बचपन के साथियों की याद सता जाया करती थी और अक्सर मसर्रतों की गहमा गहमी और शादमानियों के हुजूम में भी ये ख़याल दिल में चुटकी लिया करता कि मैं काश अपने देस में होता।

    जिस वक़्त बंबई में जहाज़ से उतरा तो मैंने पहले काले काले कोट पतलून पहने और टूटी फूटी अंग्रेज़ी बोलते मल्लाह देखे। फिर अंग्रेज़ी दुकानें, ट्राम और मोटर गाड़ियां नज़र आईं। फिर रीढ़ वाले पहीयों और चुरुट वाले आदमियों से मुड़भेड़ हुई। फिर रेल का स्टेशन देखा और रेल पर सवार हो कर अपने गाँव चला। प्यारे गाँव देखूँ जो हरी-भरी पहाड़ियों के बीच में वाक़े था तो मेरी आँखों में आँसू भर आए। मैं ख़ूब रोया क्योंकि यह मेरा देस था। यह वो देस था जिसके दीदार की आरज़ू हमेशा मेरे दिल में लहराया करती थी। यह कोई और देस था... यह अमरीका था या इंग्लिस्तान था, मगर मेरा प्यारा भारत नहीं था।

    रेलगाड़ी जंगलों, पहाड़ों, नदियों और मैदानों को तै कर के मेरे प्यारे गाँव के क़रीब पहुंची जो किसी ज़माने में फूल-पत्तों की इफ़रात और नदी-नालों की कसरत से जन्नत का मुक़ाबला करता था।

    मैं गाड़ी से उतरा तो मेरा दिल बाँसों उछल रहा था। अब अपना प्यारा घर देखूँगा, अपने बचपन के प्यारे साथियों से मिलूँगा। मुझे उस वक़्त ये बिल्कुल याद रहा कि मैं नव्वे साल का बूढ़ा हूँ। जूँ-जूँ मैं गाँव के क़रीब आता था, मेरे क़दम जल्द जल्द उठते थे और दिल पर एक नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त ख़ुशी का असर हो रहा था। हर चीज़ को आँखें फाड़ फाड़ कर देखता, आहा, ये वो नाला है जिसमें हम रोज़ घोड़े नहलाते और ख़ुद ग़ोते लगाते थे, मगर अब इसके दोनों तरफ़ काँटेदार तार लगे हुए थे। सामने एक बंगला था, जिसमें दो तीन अंग्रेज़ बंदूक़ें लिए हुए इधर उधर ताक रहे थे। नाले में नहाने की सख़्त मुमानअत थी। गाँव में गया और निगाहें बचपन के साथियों को ढ़ूढ़ने लगीं मगर अफ़सोस वो सब के सब लुकमा-ए-अजल हो गए थे और मेरा घर... मेरा टूटा फूटा झोंपड़ा जिसकी गोद में, मैं बरसों खेला था, जहाँ बचपन और बेफ़िक्रियों के मज़े लूटे थे, जिसका नक़्शा अभी तक मेरी निगाहों में फिर रहा है। वही मेरा प्यारा घर अब मिट्टी का ढेर हो गया था। यह मुक़ाम ग़ैरआबाद था। सदहा आदमी चलते फिरते नज़र आते जो अदालत और कलक्टरी और थाना पुलिस की बातें कर रहे थे। उनके चेहरों से तफ़क्कुर और उदासी नुमायाँ थी और वो सब दुनियावी फ़िक्रों से दबे मालूम होते थे। मेरे साथियों की तरह चाक़-ओ-चौबंद ताक़तवर और लाल चेहरे वाले नौजवान कहीं दिखाई पड़ते थे। वो अखाड़ा जिसकी बुनियाद मेरे हाथों ने डाली थी, वहाँ अब एक टूटा फूटा स्कूल था और उसमें चंद मरीज़ सूरत, कमज़ोर और फ़ाक़ाज़दा लड़के बैठे ऊँघ रहे थे... नहीं, ये मेरा देस नहीं है, ये देस देखने के लिए मैं इतनी दूर से नहीं आया। ये कोई और देस है... मेरा प्यारा भारतवर्ष नहीं!

    बरगद के पेड़ की तरफ़ दौड़ा जिसके ख़ुशगवार साये में हमने बचपन की बहारें उड़ाई थीं, जो हमारे छुटपने का गहवारा और जवानी का आरामगाह था... आह! इस प्यारे बरगद को देखते ही दिल पर एक रिक़्क़त तारी हो गई थी और ऐसी हसरतनाक, दिल सोज़ और दर्दनाक यादगारें ताज़ा हो गईं कि घंटों ज़मीन पर बैठा आँसू बहाता रहा। यही प्यारा बरगद है जिसकी फुनगियों पर हम चढ़ जाते थे जिसकी जटाएं हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारी दुनिया की मिठाइयों से ज़्यादा लज़ीज़ और मीठे मालूम होते थे। वो मेरे गले में बाँहें डाल कर खेलने वाले हमजोली जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, वो कहाँ गए? आह, मैं ग़ुर्बतज़दा मुसाफ़िर क्या अब अकेला हूँ? क्या मेरा कोई साथी नहीं है? इस बरगद के क़रीब अब थाना था और दरख़्त के नीचे एक कुर्सी पर कोई लाल पगड़ी बाँधे बैठा हुआ था। इसके आस-पास दस बीस और लाल पगड़ी वाले हाथ बाँधे खड़े थे और एक नीम बरहना क़हतज़दा शख़्स जिस पर अभी अभी चाबुकों की बौछाड़ हुई थी, पड़ा सिसक रहा था। मुझे ख़्याल आया, यह मेरा देस नहीं है, यह कोई और देस है। यह यूरोप है, अमरीका है मगर मेरी प्यारी मादर-ए-वतन नहीं है, हरगिज़ नहीं।

    इधर से मायूस हो कर मैं उस चौपाल की तरफ़ चला, जहाँ शाम के वक़्त पिता जी गाँव के और बुज़ुर्गों के साथ हुक़्क़ा पीते और हँसी क़हक़हे उड़ाते थे। हम भी उस टाट के फ़र्श पर क़लाबाज़ियाँ खाया करते... कभी कभी वहाँ पंचायत भी बैठती थी, जिसके सरपंच हमेशा पिता जी ही होते थे। उसी चौपाल के पास एक गऊशाला थी जहाँ गाँव भर की गायें रखी जाती थीं और हम यहीं बछड़ों के साथ कुलेलें किया करते थे। अफ़सोस, अब उस चौपाल का पता नहीं था। वहाँ अब गाँव के लिए टीका लगाने का स्टेशन और एक डाकख़ाना था।

    इस वक़्त इसी चौपाल से लगा हुआ एक कोल्हू अड़ा था जहाँ जाड़ों के दिनों में ऊख पेरी जाती थी और गुड़ की ख़ुशबू से दिमाग़ भर जाता था। हम और हमारे हमजोली घंटों गँडेरियों के इंतज़ार में बैठे रहते थे और गंडेरियां काटने वाले मज़दूर की चाबुकदस्ती पर हैरत करते थे जहाँ हज़ारों बार मैंने कच्चा और पक्का दूध मिला कर पिया था। यहाँ आस-पास के घरों से औरतें और बच्चे अपने अपने घड़े लेकर आते और उन्हें रस से भरवा कर ले जाते। अफ़सोस! वो कोल्हू अभी ज्यूँ के त्यूँ खड़े थे, मगर देखा कि कोल्हू वाड़े की जगह अब एक सन लपेटने वाली कल है और उसके मुक़ाबिल एक तंबोली और सिगरेट वाले की दुकान है और उन दिलख़राश नज़ारों से दिल शिकस्ता हो कर मैंने एक आदमी से जो सूरत से शरीफ़ नज़र आता था, कहा, “महाशय, मैं परदेसी मुसाफ़िर हूँ, रात भर पड़ रहने के लिए मुझे जगह दे दो।”

    उस आदमी ने मुझे सर से पैर तक ग़ौर से देखा और कहने लगा, “आगे जाओ, यहाँ जगह नहीं है।”

    मैं आगे गया और यहाँ से फिर हुक्म मिला, “आगे जाओ।”

    पाँचवीं बार एक साहब से पनाह मांगने पर उन्होंने एक मुट्ठी भर चने मेरे हाथ पर रख दिए। चने हाथ से छूट पड़े और आँखों से आँसू बहने लगे और मुँह से अचानक निकल पड़ा, “हाय ये मेरा प्यारा देस नहीं है... यह कोई और देस है। यह हमारा मेहमान नवाज़ मुसाफ़िर नवाज़ प्यारा वतन नहीं। हरगिज़ नहीं।”

    मैंने सिगरेट की एक डिबिया ली और एक सुनसान जगह पर बैठ कर पुराने वक़्तों को याद करने लगा। अचानक मुझे उस धर्मशाला का ख़्याल आया जो मेरे परदेस जाते वक़्त बन रहा था। मैं उधर की तरफ़ लपका कि रात किसी तरह वहीं काटूँ, मगर अफ़सोस सदअफ़सोस धर्मशाला की इमारत जूं की तूं थी लेकिन उसमें ग़रीब मुसाफ़िरों के लिए जगह थी। शराब, बदकारी और जुए ने उसे अपना मस्कन बना रखा था। यह देखकर दिल से एक सर्द आह निकल पड़ी... मैं ज़ोर से चीख़ उठा। नहीं नहीं, और हज़ार बार नहीं है, यह मेरा प्यारा भारत नहीं है, यह कोई और देस है, यह तो यूरोप है, अमरीका है मगर भारत हरगिज़ नहीं है।

    अँधेरी रात थी। गीदड़ और कुत्ते अपने नग़मे अलाप रहे थे। अपने दुखे दिल के साथ उसी नाले के किनारे जाकर बैठ गया और सोचने लगा कि अब क्या करूँ? क्या फिर अपने प्यारे बच्चों के पास लौट जाऊँ और अपनी नामुराद मिट्टी अमरीका की ख़ाक में मिलाऊँ। अब तक मेरा वतन था, मैं ग़रीब-उल-वतन ज़रूर था मगर प्यारे वतन की याद दिल में बनी हुई थी। अब मैं बेवतन हूँ। मेरा कोई वतन नहीं है। इस फ़िक्र में बहुत देर तक घुटनों पर सर रखे ख़ामोश बैठा रहा। रात आँखों में कट गई। घड़ियाल ने तीन बजाए और किसी के गाने की आवाज़ कान में आई। दिल ने गुदगुदाया। यह तो वतन का नग़मा है। यह देस का राग है। मैं झट खड़ा हो गया। क्या देखता हूँ कि पंद्रह बीस बूढ़ी औरतें सफ़ेद धोतियां पहने, हाथों में लोटे लिये अश्नान को जा रही हैं और गाती जाती हैं, “हमारे प्रभु, अवगुण चित्त धरो।”

    गीत को सुनकर मस्हूर हो रहा था कि इतने में मुझे बहुत से आदमियों की बोल-चाल सुनाई पड़ी और कुछ लोग हाथों में पीतल के कमंडल लिये “शिव, हरे, हरे, गंगे, गंगे, नारायण, नारायण”, कहते हुए दिखाई दिए। मेरे दिल ने फिर गुदगुदाया। यह तो देस, प्यारे देस की बातें हैं। फ़र्त-ए-मसर्रत से दिल बाग़ बाग़ हो गया। मैं उन आदमियों के साथ हो लिया। और एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः मील पहाड़ी रास्ता तै करने के बाद हम उस नदी के किनारे पहुंचे जिसका नाम मुक़द्दस है, जिसकी लहरों में ग़ोता लगाना और जिसकी गोद में मरना हर हिंदू बरकत जानता है।

    गंगा मेरे प्यारे गाँव से छः सात मील पर बहती थी और किसी ज़माने में, मैं सुबह को घोड़े पर सवार हो कर गंगा माता के दर्शन को आता था। उनके दर्शन की तमन्ना मेरे दिल में हमेशा रही थी। यहाँ मैंने हज़ारों आदमियों को इस सर्द ठिठुरते हुए पानी में ग़ोता लगाते देखा, कुछ लोग रेत पर बैठे हुए गायत्री मंत्र जप रहे थे, कुछ लोग हवन करने में मसरूफ़ थे, कुछ लोग माथे पर टीके लगा रहे थे। मेरे दिल ने फिर गुदगुदाया और मैं ज़ोर से कह उठा, “हाँ, हाँ, यही मेरा देस है, यही मेरा प्यारा वतन है, यही मेरा भारत है और इसी के दीदार की, इसी के धूल का ज़र्रा बनने की हसरत मेरे दिल में थी।

    मैं इंतिहाई सुरूर के आलम में था। मैंने अपना पुराना कोट और पतलून उतार फेंका और जाकर गंगा माता की गोद में जा गिरा, जैसे कोई बेसमझ भोला भाला बच्चा दिन भर ग़ैर हमदर्द लोगों में रहने के बाद शाम को अपनी प्यारी माँ की गोद में दौड़ कर चला आए और उसकी छाती से चिमट जाये। हाँ अब अपने देस में हूँ। यह मेरा प्यारा वतन है। ये लोग मेरे भाई हैं, गंगा मेरी माता है।

    मैंने ठीक गंगा के किनारे एक छोटी सी कुटी बनवा ली है और अब मुझे सिवाए राम नाम जपने के और कोई काम नहीं। मैं रोज़ शाम सवेरे गंगा अश्नान करता हूँ और ये मेरी ख़ाहिश है कि इसी जगह मेरा दम निकले, और मेरी हड्डियाँ गंगा माता की लहरों की भेंट हों, मेरी बीवी, मेरे लड़के मुझे बार-बार बुलाते हैं, मगर अब मैं गंगा का किनारा, और ये प्यारा देस छोड़कर वहाँ नहीं जा सकता। मैं अपनी मिट्टी गंगा जी को सौंपूँगा। अब दुनिया की कोई ख़ाहिश कोई आरज़ू मुझे यहाँ से नहीं हटा सकती... क्योंकि ये मेरा प्यारा देस, मेरा प्यारा वतन है और मेरी ख़ाहिश है कि मैं अपने वतन में मरूँ।

    स्रोत:

    Prem Chand Ke Mukhtasar Afsane (Pg. 189)

    • लेखक: प्रेमचंद
      • प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1985

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