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ये रिश्ता-ओ-पैवंद

बानो कुदसिया

ये रिश्ता-ओ-पैवंद

बानो कुदसिया

MORE BYबानो कुदसिया

    स्टोरीलाइन

    "मुहब्बत की एक दिलचस्प कहानी। विद्यार्थी जीवन में सज्जाद को सरताज से मुहब्बत हो जाती है लेकिन कम-हिम्मती और ख़ौफ़ के कारण वह प्रत्यक्ष रूप से अपनी मोहब्बत का इज़हार नहीं कर पाता और सरताज को बहन बना लेता है। उसी बहन-भाई के रिश्ते ने वो पेचीदगी पैदा की कि सरताज की शादी सज्जाद के कज़न फ़ोवाद से हो गई, लेकिन दोनों की ज़बान पर एक हर्फ़ न आ सका। शादी के कुछ दिन बाद ही फ़ोवाद का देहांत हो जाता है, फिर भी सज्जाद बहन-भाई के रिश्ते को नहीं तोड़ता। काफी समय यूँ ही गुज़र जाता है और फिर एक दिन सज्जाद सरताज के घर स्थायी रूप से रहने के लिए आ जाता है। सरताज कहती भी है कि भाई जान लोग क्या कहेंगे तो सज्जाद जवाब देता है कि मैंने तुम्हें पहले दिन ही कह दिया था कि हम बात निभाने वाले हैं, जब एक-बार बहन कह दिया तो सारी उम्र तुम्हें बहन ही समझेंगे।"

    उर्दू की क्लास जारी थी। पहली क़तार में पाँच दम्यंती रूप लड़कियां और बाक़ी कुर्सियां पर छब्बीस जगत रंग लड़के बैठे थे। प्रोफ़ेसर समदानी ने दीवान-ए-ग़ालिब में बाएं हाथ की अंगुश्त-ए-शहादत निशानी के तौर पर फंसाई और गरजदार आवाज़ में बोला, “मिस सरताज, सुबुक सर के क्या मा’नी हैं?” जब से सरताज ने बी.एससी. में दाख़िला लिया था, प्रोफ़ेसर समदानी का हर सवाल सुदर्शन चक्कर की तरह घूम फिर कर सरताज तक ही लौटता था। यूं तो उन सवालात की वो आदी हो चुकी थी लेकिन मिज़ाजपुर्सी के इस अनोखे ढब पर आज वो पछाड़ी मारने पर आमादा हो गई।

    “सर मैंने उर्दू ऑपशनल ले रखा है।”

    “फिर भी कोशिश कीजिए।”

    लड़कों की टोली में नज़रों के परवाने और मुस्कुराहटों के एक्सप्रेस तार दिए जाने लगे। उधर सरताज पर आज बेख़ौफ़ी का दौरा था।

    “मैंने दसवीं तक कॉन्वेंट में तालीम पाई है सर... मुझे उर्दू नहीं आती।”

    “सुबकी के तो मा’नी आते ही होंगे?” ये सवाल पूछ कर प्रोफ़ेसर समदानी ख़ुद बहुत महज़ूज़ हुआ। लड़कों के छत्ते में दबे क़हक़हों की भनभनाहट उठी।

    सामने क़तार में बैठी कबूतरियां दुपट्टों में मुँह दिए क्रेज़ करने लगीं। सरताज की ज़मुर्रदीं आँखों पर नमी की हल्की सी तह चढ़ गई, उसने प्रोफ़ेसर समदानी की तरफ़ निगाह डाली और चुप हो गई। शमातत-ए-सरताज पर चंद लम्हा ख़ुश हो कर प्रोफ़ेसर आगे निकल गया और शुमार-ए-सुब्हा मरग़ूब-ए-मुश्किल पसंद की तशरीह करने में पहलवानों की सी मशक़्क़त दिखाने लगा। लेकिन सज्जाद की नज़रें उस बुत-ए-मुश्किल पसंद पर जमी हुई थीं जो नाख़ुनों से क्युटेक्स छीलने में मशग़ूल था।

    वो आज भी हस्ब-ए-मामूल सरताज के पीछे बैठा था। यूं जान-बूझ कर हर-रोज़ सरताज की पिछली सीट पर बैठने को गो किसी और ने मायूब समझा लेकिन वो ख़ुद मुजरिम फ़रारी की तरह हर लहज़ा अपने आपको ग़ैर महफ़ूज़ समझता रहता। शे’र के साथ जापानी कुश्ती के दाव दिखा कर प्रोफ़ेसर समदानी को पसीना सा गया लेकिन शे’र ऐसा सख़्त-जान था कि फिर ख़म ठोंके मुँह खोले तिश्ना-लब सामने खड़ा था।

    प्रोफ़ेसर समदानी ने एक-बार फिर सरताज को तख़्ता-ए-मश्क़ बना कर कहा, “देखिए मिस सरताज, आप उर्दू की तरफ़ ज़्यादा तवज्जो दिया करें। ये लाख आपकी ऑपशनल ज़बान सही लेकिन बिलआख़िर आपकी क़ौमी ज़बान भी है।”

    तरवीज-ए-उर्दू पर ये फ़ख़्रिया जुमला मक़ता का बंद साबित हुआ और उसी वक़्त घंटी बज गई। प्रोफ़ेसर समदानी ने मेज़ से किताबें उठाईं, रूमाल से हाथों को झाड़ा और क्लास से यूं निकला जैसे सिकंदर-ए-आज़म पाब-ए-ज़ंजीर पोरस से मिलने जा रहा हो।

    हाकिम-ए-ज़िला के जाते ही सारी क्लास हाज़िरात का जलसा बन गई। सिर्फ़ सज्जाद अपनी सीट पर ग़म-सुम बैठा था... उसकी अगली कुर्सी पर सर झुकाए सरताज कापी पर हम्टी डम्पटी की तस्वीर बनाने में मशग़ूल थी। सज्जाद पर सरताज की आमद का अजब असर हुआ। जिस कॉलेज में तीन साल वो नटों की तरह तार पर सीधा चलता आया था उसी कॉलेज में अब उसे हर जगह अपने वारंट गिरफ़्तारी फैले नज़र आते थे।

    उधर सरताज का वुजूद सारी क्लास में ऐसे था जैसे इशा की नमाज़ में वित्र। क्लास में मिली जुली भी और सबसे अलग-थलग भी... बाक़ी गधे रंगी लड़कियों में उसकी रंगत कच्चे नारीयल की तरह दूधिया नज़र आती। बड़ी बड़ी तीलियाँ मोंगिया आँखें जिन पर शों शाँ करती पर्दापोश पलकें। सद बर्ग जैसा खिला खिला चेहरा, शफ़्फ़ाफ़ अनार दानों से भरा हुआ छोटा सा दहन। वो तो सच्चे सच्चे सरानदीप की सरूप नखा नज़र आती थी।

    उसकी पिछली सीट पर तपस्या करते करते सज्जाद का दिल पोस्त के डोरे की तरह अन गिनत बीजों से अट गया। सज्जाद एक बड़े बाप का बेटा था लेकिन कुछ तो फ़ित्रतन शर्मीला दबकीला था। फिर बचपन से निगाहें नीची रखने और मेहरम और नामेहरम की तफ़रीक़ ऐसी घुट्टी में पड़ी थी कि किसी लड़की से बात करते रूह फ़ना होती थी।

    उधर सरताज महमूद ग़ज़नवी की तरह पै दर पै हमले करती चली जा रही थी। बी.एससी. में दाख़िला लेते ही कंपनी बहादुर की हुकूमत चला दी। सरताज ही सिक्का-ए-राइज-उल-वक़्त क़रार पाया। कुछ तो ख़ुदादाद हुस्न मरऊब करता, कुछ कॉन्वेंट के लहजे की अंग्रेज़ी मारा मार करती, कुछ शाइस्तगी और निस्वानीपन का पल्ला मुंह तोड़ देता। बेचारा सज्जाद महसूस करने लगा था, जैसे वो हिरन हो कर शेर के घाट पर पानी पीने उतरा हो।

    बाक़ी सारा वक़्त तो सरताज का अमल-दख़ल रहता था लेकिन प्रोफ़ेसर समदानी की क्लास में वो छछूंदर की तरह छुपती फिरती। उर्दू की क्लास में उसके कानों की लवें सुर्ख़ क़ुमक़ुमे की तरह जल उठतीं। सब्ज़ा रंग आँखों पर बादल छा जाते। दूधिया रंगत कभी सरसों की तरह फूल उठती कभी शंगरफ़ी हो जाती। समदानी साहब को भी जाने क्या कद थी कि हर मुश्किल लफ़्ज़ उसी से पूछते। हर शे’र का आग़ाज़ अंजाम उसी पर होता।

    खिड़कीदार पगड़ी जैसी बाँकी मिट्टी के इतर जैसे मशाम अंगेज़ पारे के कुश्ते जैसी नायाब लड़की जब ऐसी मातूब ठहरती तो सज्जाद का दिल ग़ुस्से से भर जाता। वो पिछली सीट पर बैठा बैठा प्रोफ़ेसर समदानी को मारने के कई मंसूबे बनाता लेकिन बेचारा पुश्तैनी अमीरों की तरह कम हिम्मत और कम कोशिश था। रात को सीने पर आयत-उल-कुर्सी दम करता तब कहीं नींद आती। सुबह उठते ही सूरह अन्नास का विर्द कर लेता तो दिन भर वस्वसों का शिकार रहता। सरताज से मरासिम बढ़ाने और प्रोफ़ेसर समदानी को मुगदर से मारने के प्लान तिलमिला तिलमिला कर रह जाते।

    जब सज्जाद के दिल में तमन्नाओं की निमकौलियाँ इतनी लग गईं कि दिल का डंठल बोझ से टूटने लगा तो वो दिन रात नमाज़ें पढ़ने लगा। वो उन तमन्नाओं को दिल से यूं नोचा करता जैसे बच्चे गुलाब की पत्तियाँ तोड़ा करते हैं। उसे उन तमन्नाओं के नजस होने का पूरा यक़ीन था। वो उन लोगों में से था जो हाथ मिलाने के बजाय हाथ कटवाने को अहसन समझते हैं।

    वो सरताज से भोली भाली मुक़त्तिर बेलौस लाताल्लुक़ मुहब्बत करना चाहता था लेकिन बुरे बुरे ख़्याल जाने क्यों आपी आप सर निकाल बैठते। ताजी की आँखें अनार दानों से भरा दहन दूधिया रंगत कौंदे की तरह उसकी तरफ़ बढ़ते। वो मक़नातीसी कशिश के तहत उनकी तरफ़ बढ़ता और कोढ़ का मर्ज़ जान कर पीछे हटता। इस कशमकश में उसका दिल बुझ जाता। मुँह का मज़ा राखी की तरह बे-कैफ़ हो जाता और जिस्म में दर्द होने लगता। पढ़ाई में दिल लगता सैर-सपाटे पर दिल माइल होता।

    वही दोस्त जो अभी पिछले साल तक उसकी ज़िंदगी को तिल शकरी बनाए हुए थे अब को दिन, बेहिस हंसोड़ और चुग़द से नज़र आते। दोस्तों की मंडलियां, काफ़ी हाउस के फेरे, कॉलेज की महफ़िलें ख़त्म हो गईं तो सरताज से मुताल्लिक़ सोच और भी नारसा हो गई।

    उदबिलाव की उस ढेरी का क़िस्सा चुकाते चुकाते अब वो बिल्कुल बूम ख़सलत हो गया था। तो घरवालों के साथ खाना खाता, अम्मी-अब्बा के साथ किसी तक़रीब में शमूलियत करता। अब तो कॉलेज से अंजुमन साज़ निगाहें उसके साथ लौटतीं। वो सर झटकता लाहौल पढ़ता अपने कमरे में चला जाता लेकिन तीलियाँ मोंगिया निगाहें आलती पालती मार उसके पलंग पर बैठतीं। वो लाख जी को समझाता कि सरताज इंद्रायन का फल है... फ़क़त देखने की चीज़, लेकिन नसीहतों का अंदोख़्ता ख़ाली हो जाता और दिल की पख़ ख़त्म होती।

    एक दिन इसी उलझन से छुटकारा हासिल करने के लिए उसने एक ख़ूबसूरत नीला पैड निकाला, उसको थोड़ी सी ख़ुशबू लगाई फिर उस काग़ज़ को फाड़ कर पुर्जे़ पुर्जे़ कर दिया। वो सरताज से इश्क़ का इज़हार थोड़ी कर रहा था। उसकी मुहब्बत तो बेलौस अछूती और जरासीमों से बिल्कुल पाक थी। ख़ुशबू लगाने वाली हिस को टापे तले बंद करके उसने फिर काग़ज़ क़लम निकाला। कई काग़ज़ फाड़ चुकने के बाद जो तहरीर क़लमज़द हुई वो कुछ ऐसी थी,

    “सरताज मेरा ख़त पाकर तुम्हें हैरत होगी। शायद तुम ख़फ़ा भी हो जाओ। लेकिन ख़ुदारा मुझसे नाराज़ होना। मैं कॉलेज के आम लड़कों की तरह तुमसे छिछोरी मुहब्बत नहीं करता। मेरी मुहब्बत कंचन चंगा की चोटियों से मुशाबेह है। अर्फ़ा, अछूती, पाक। जब से मैंने तुम्हें देखा है ख़ुदा जानता है बरसों की एक कमी पूरी हो गई। ख़ुदा ने मुझे कोई बहन नहीं दी।

    एक भाई है सो वो भी मिलिट्री मैन है... साल भर बाद जब आता है तो वो फ़ासले उबूर नहीं किए जा सकते जो उसकी अदम मौजूदगी पैदा करती है। सरताज क्या तुम मेरी बहन बनना गवारा करोगी? बोलो सरताज, क्या तुम मुझे अपना भाई बनाओगी? आह सरताज, कहो क्या मैं इतना ख़ुशनसीब हो सकता हूँ कि हम दोनों बहन भाई बन सकें। मुझे मायूस करना। तुम्हारा भाई सज्जाद।”

    ख़त लिख कर वो मुतमइन हो गया, जैसे सीने का एक्स-रे साफ़ निकल आए। अब गंदे ख़्यालात का धुआँ आप ही आप दूदकश से निकलने लगा और साफ़ बेदाग़ आग सीने में दहक उठी। ये ख़त उसने दूसरे दिन केमिस्ट्री के प्रैक्टिकल के बाद कापी में छुपा कर दिया। वो अकेली बरामदे में चली जा रही थी जब सज्जाद उसके बराबर पहुंच गया। वो नख़्ल-ए-ताबूत की तरह ख़ूबसूरत लेकिन बेजान हो रहा था। हथेलियों में पसीना और तलवों में जलन सी महसूस होने लगी थी।

    “मिस सरताज!”

    “क्या है?” मिस सरताज ने मुड़ कर देखा।

    अब तक शौक़ का अबलक़ सज्जाद के ज़ानुओं तले था, लेकिन “क्या है?” का ताज़ियाना लगते ही रख़्श-ए-तमन्ना बेक़ाबू हो गया। बहुत ही चाहा कि ज़क़ंद भरता बढ़ता चला जाये लेकिन पटख़नी खा कर गिर गया। बड़ी बेजान आवाज़ में बोला, “मिस अगर आप ख़फ़ा हों तो...”

    “बात क्या है?” आरी कटारी आवाज़ में सरताज ने पूछा।

    “मैं आप से... कुछ कहना चाहता हूँ।”

    “मैं सुन रही हूँ... फ़रमाईए?”

    “मैंने इस ख़त में अपना मफ़हूम बयान कर दिया है... तफ़सील के साथ।”

    सज्जाद ने अपनी प्रैक्टीकल की कापी आगे बढ़ा दी। शायद सरताज ने गाली देने के लिए मुँह खोला था और चांटा मारने के लिए हाथ उठाया था। लेकिन उसी वक़्त पीछे से लड़कों के क़हक़हे का एक रेला निकला और जाने क्या सोच कर ताजी ने कापी पकड़ ली। सज्जाद की टांगें ख़ुशी और ख़ौफ़ से संग-ए-लर्ज़ां की तरह काँपने लगीं।

    उसने तो सरताज की तरफ़ मुड़ कर देखा और किसी क्लास में जाने की तकलीफ़ की। सीधा घर वापस आया और रज़ाई लेकर लेट रहा। उस पर ख़फ़क़ान की सी कैफ़ियत तारी थी और एक एक की दस दस चीज़ें नज़र आती थीं। दूसरे रोज़ सरताज ने उसे पहली घंटी के बाद ही बरामदे में पकड़ लिया।

    “पहले ये बताईए आप मुझे क्यों बहन बनाना चाहते हैं?” फ़िज़ा में मजीरे बजने लगे।

    “क्योंकि मेरी कोई बहन नहीं है...” नज़रें नीची कर के सज्जाद बोला।

    “लेकिन क्लास में और लड़कियां भी तो हैं। आप उनमें से किसी को बहन क्यों नहीं बना लेते?”

    इस कला जंग का जवाब उसने पहले सोचा था, मिनमिना कर बोला, “जी इसलिए कि... कि उनको देखकर मेरे दिल में वो जज़बात नहीं उभरते जो...”

    “जो मुझे देखकर उभरते हैं...” वो जुमला ख़त्म करने में बड़ी तेज़ थी।

    “जी।”

    “सोच लीजिए बहन बनाना आसान है, ये रिश्ता निभाना मुश्किल है।”

    “आप मुझे हमेशा साबित-क़दम पाएँगी...” वो ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेर कर बोला।

    भाई बहन बनने की जुज़ियात जब ख़त्म हो गईं तो सरताज मुस्कराकर बोली, “अजीब बात है, ख़ुदा ने आपको बहन नहीं दी और मुझको भाई अता नहीं किया। हम दोनों की कमी पूरी हो गई। आज तक तो जिस किसी ने बात की उसने दिल में खोट रखकर ही कलाम किया।”

    बाद-ए-मुवाफ़िक़ पाकर सज्जाद का दिल बादबानों की तरह खिल उठा। घर पहुंच कर पहली बार उसने कमरे की खिड़की खोली। सीटी बजाते हुए वुज़ू किया, और शुक्राने के नफ़िल पढ़ने के बाद फ़िल्म देखने का इरादा किया।

    उस वक़्त वो सरताज को अपनी बहन के रूप में हर तरफ़ बिखरी हुई पा रहा था। बहन की बातें सोचते सोचते जाने कहाँ से गंदे ख़्यालात की हरमल दिल की मुक़त्तिर आग में गिरी। तड़ तड़ जलने का शोर उठा और चिमनी अंधे धुंए से भर गई।

    ये बुरे बुरे ख़्यालात सरताज के वुजूद पर छापा मारना चाहते थे। सज्जाद ने बहुत सर पटख़ा। तबीयत को नकेल पकड़ कर दुरुस्त करना चाहा लेकिन ये ख़्यालात पीछा छोड़ने वाले थे। यतीम ख़ाने से आए हुए वर्दी पोश मांगने वालों की तरह घर, दर के वारिस बन कर खड़े हो गए। उनसे बचता बचाता सज्जाद बाज़ार जा पहुंचा।

    जब वो रात गए घर लौटा तो उसके पास सरताज के लिए बाईस ज्वेल्स की छोटी सी नाज़ुक घड़ी थी। कॉलेज छूटने के बाद वो सरताज के पीछे पीछे हो लिया। बहन के तआक़ुब में उसके पैरों को लग़्ज़िश महसूस हो रही थी

    “मैं... मैं आपके लिए कुछ लाया हूँ...” इस बार सरताज ज़रा भी बिदकी। बल्कि बड़े एहतिराम से रास्ता छोड़कर खड़ी हो गई।

    सज्जाद ने जेब में से घड़ी की लंबोतरी डिबिया निकाली, ढकना खोला और तोहफ़ा सरताज तक बढ़ा दिया। नीली मख़मलीं सतह पर स्टेनलेस स्टील की नाज़ुक घड़ी टिकटिका रही थी और उस पर काग़ज़ की छोटी सी एक कतरन पड़ी थी।

    सरताज ने डिबिया पकड़ी तो उसका वुजूद मुकम्मल सिपास गुज़ारी का इश्तिहार बन गया। आँखों में हल्की हल्की नमी, ख़मीदा टांगें कन्हैया रूप आगे पीछे। उसने चिट को उठाया, उसपर रक़म था, “अपनी बहुत ही प्यारी बहन के लिए...”

    बड़ी रिक़्क़त के साथ सरताज घड़ी को उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए बोली, “ख़ुदा की क़सम ये बहुत ज़्यादा है सज्जाद भाई...” भाई लफ़्ज़ की अदायगी इस नाज़ुक दहन पर भारी, ना-मानूस और अजनबी सी लगी।

    “एक भाई अपनी बहन के लिए जो कुछ करना चाहता है, इसका अंदाज़ा आपको नहीं हो सकता।” सिपास नामा अब तमामतर आँखों में बसा।

    “बहुत बहुत शुक्रिया... लेकिन अम्मां ख़फ़ा होंगी।”

    जाने कैसे बुज़दिली की मीयाद-ए-मुक़र्ररा ख़त्म हो गई और सज्जाद दिलेरी से बोला, “मैं ख़ुद अम्मां से मिलकर माफ़ी मांग लूँगा।”

    “हाय सच, आप आएँगे हमारे घर?”

    “बहन बुलाए और भाई आए, ये कभी हुआ है...”

    बुरे बुरे ख़्याल उसके जी को सलसलाने लगे और वो बार-बार बहन-भाई के रिश्ते को उन ख़्यालात की रोशनी में परखने लगा। सरताज ने कापी खोली और पेंसिल से उस पर लाइनें खींचने लगी। साथ वाले सफ़े पर हम्प्टी डम्पटी की तस्वीर सज्जाद का मज़ाक़ उड़ा रही थी।

    “यहां से आप दाहिने हाथ मुड़ जाईए, सामने छोटा सा बाज़ार है। उसे गुज़र जाईए सारा। फिर कटपीस की दो-चार दुकानें आयेंगी, आख़िर में एक टाल भी आएगा बाएं हाथ, उस से आगे वर्कशॉप है मोटरों की। ऐन उसके सामने हमारा घर है, मकान नंबर 313... याद रहेगा आपको?” ये बाज़ार, कटपीस की दुकानें, टाल, वर्कशॉप, मकान नंबर 313 सब उसके दिल पर कुंदा हो गए। ये रास्ता उसे जाना-पहचाना नज़र आने लगा।

    “आप ज़रूर आईएगा।” सरताज ने इसरार किया। उसकी नज़रें हरियल तोतों पर जमी थीं। ऐसी सब्ज़ सब्ज़ आँखें उसने पहले कभी देखी थीं।

    “क्या हुआ भाई जान...?” सज्जाद की महवियत देखकर सरताज बोली।

    “बस ऐसे ही, अपनी ख़ुशनसीबी पर रश्क रहा है। ऐसी प्यारी बहन क़िस्मत अच्छी हो तो मिलती है।” सरताज खिलखिला दी। उड़ती फ़ाख़्ता का जोड़ा सज्जाद की नज़रों में घूमने लगा।

    इस वाक़ए के बाद सरताज के घर जाने की राह तो बन गई लेकिन सज्जाद हाथी का पाठा था, आंकुस मारे बग़ैर एक क़दम फ़ील ख़ाने से बाहर निकाल सकता था। रात रात-भर हाथों दिल बढ़ाता। सुबह उठता तो सारे इरादों की हवाईयां छोटी होतीं। सरताज पर मुँह बोले भाई बनाने का अलग असर हुआ।

    दरअसल वो अज़ली औरत की तरह बड़ी निडर और इरादे की पक्की थी। कहाँ तो गधे रंगी लड़कियों में बैठी हम्प्टी डम्पटी बनाती रहती और अब उसने पहली क़तार छोड़कर दूसरी क़तार में सज्जाद के पास बैठना शुरू कर दिया। बाक़ी लड़के इस नई तबदीली पर जिज़बिज़ तो बहुत हुए लेकिन हो हा करने के सिवाए कुछ हाथ आया क्योंकि जिस धौंस से सरताज ने सज्जाद को अपना बिलोंगड़ा बना लिया था, उसके सामने किसी की पेश जाती थी।

    सरताज की क़ुरबत ने सज्जाद पर अजीब असर कर रखा था। इवनिंग इन पैरिस, सामग्री और कारनेशन के फूलों की मिली जुली ख़ुशबू हर लम्हे पास वाली कुर्सी से पारसियों की आग बन कर दहकती रहती। ये मख़लूत ख़ुशबू बड़ी सान चढ़ती थी। बार-बार इस ख़ुशबू का साँप उसे अपने ज़ेहन से उतारना पड़ता, लाखों बार जी को समझाना पड़ता कि बहन का रिश्ता पाकीज़ा और पुर अज़मत है। ऐसे रिश्तों का ख़ुशबुओं से कोई ताल्लुक़ नहीं हुआ करता।

    बाक़ी सारे दुर्योधन तो द्रौपदी को खो कर ख़ामोश हो बैठे लेकिन इदरीस की मुश्किलात और पोज़ीशन मुख़्तलिफ़ थी। उसकी हैसियत मीर-ए-कारवां जैसी थी। सरताज को किसी दूसरे के हाथ का बाज़ बना देखा तो उसके अपने हाथों के तोते उड़ गए। पहले तो दो चार मर्तबा खे उड़ाई फिर तमस्सखुर से सज्जाद को गाँसना चाहा लेकिन लड़ाई की नौबत आई क्योंकि सज्जाद तो पहले ही चार क़दम हट जाने वाला शख़्स था।

    सालाना मुबाहिसे वाले दिन की बात है। सज्जाद सफ़ेद नेकर और आस्तीनों वाली बनियान पहने गैलरी में रहा था कि इदरीस खोंच लगा कर गुज़रा। सज्जाद एक दम रुक गया और गहरी नज़रों से इदरीस को देखकर बोला, “रास्ता तो देखकर चला कर” ये जुमला इल्तिज़ामन अंगेख़्त करने के लिए कहा गया था।

    ये और बात है कि इदरीस को ऐसे मौक़े की तलाश थी। एक जस्त में इदरीस ने सज्जाद को धोबी पटरे का शिकार किया और उसके सीने पर चढ़ बैठा।

    “बात क्या है?” सज्जाद के नर्ख़रे से मरी हुई आवाज़ आई।

    “सरताज का ख़्याल छोड़ दो...”

    “सरताज? कौन सी सरताज?” उस वक़्त वाक़ई उसके दिमाग़ से हर नौईयत की सरताज निकल चुकी थी।

    “बनो मत, बस ख़्याल छोड़ दो, वर्ना मैं जान से मार दूँगा।”

    “वो... वो तो मेरी बहन है...”

    सोहनी ने कच्चे घड़े पर हाथ मारा। ज़न्नाटेदार मुक्का जबड़े पर जमा और मुँह में लहू की नमकीनी उतर आई।

    “बहन-वहन का ढोंग नहीं चलेगा, बस कल से ख़्याल छोड़ दो उसका...”

    इदरीस की बदक़िस्मती से उसी वक़्त सरताज उधर निकली। पहले तो अदबदाकर सज्जाद के सीने से उठ खड़ा हुआ और उस पर तुर्रा ये कि भाग जाने के बजाय वहीं टुकुर टुकुर सरताज को देखने लगा। इदरीस के उठते ही सज्जाद नाक खुजलाता फ़्लैट बूट झाड़ता कुछ-कुछ सोया-जागता पैरों पर हो गया। लहू की पतली सी धार उसके होंटों पर रिसने लगी थी।

    सरताज ने लम्हा भर में सारे मुआमले का पड़ता लगाया और भरे हाथ का वो तमांचा इदरीस के मुँह पर रसीद किया कि सारी गैलरी इस भदाके से गूंज उठी। कुछ लड़कियां लड़के किताबें उठाए चले रहे थे। इस फ़िल्मी मंज़र को देखते ही वो ज़ाफ़रानज़ार बन गए।

    इदरीस इस उरूज-ए-माकूस से कुछ इस तरह ज़च हुआ कि गैलरी से भागा तो फिर कॉलेज से माइग्रेट कर के ही दम लिया। उस दिन के बाद से वो ऐसा वहमी हो गया था कि जिस लड़की का नाम से शुरू होता उससे किसी क़िस्म का इलाक़ा ही रखता।

    कुछ तो इदरीस दबा खा कर सज्जाद का हौसला बढ़ा गया, कुछ सरताज का रवैय्या खुर्दों का सा था। हर काम में वो सज्जाद से मश्वरा लेती, हर मुआमले में उसकी राय मालूम करती। इस रवैय्ये ने सज्जाद में एक दर्जा ख़ुद-एतिमादी पैदा कर दी थी। अगर इदरीस का वाक़िया पेश आता तो शायद सज्जाद चंद महीने और मकान नंबर 313 तक पहुंच सकता। लेकिन जब से इदरीस का साखा जाता रहा था, सरताज ने खुले-बंदों सज्जाद भाई कहना शुरू कर दिया था।

    सरताज का घर पुराने घरों की तरह बंद बंद था। घर लाने की तक़रीब कोई थी। वो घर से यहां आने का अज़्म भी करके आया था। लेकिन जाने वो कौन सी क़ुव्वत थी जो उस रोज़ उसे सरताज के साथ ले आई। लकड़ी के बड़े फाटक पर वो दोनों रुक गए। सरताज ने पांव से हील वाली जूती उतारी और उसकी एड़ी को बड़ी तरहदारी से फाटक पर बजाया।

    “सारा दिन हील वाली जूतीयों में इंसान थक जाता है, है भाई जान...” गो भाई जान को सारा दिन हील वाली जूतीयों में गुज़ारने का इत्तफ़ाक़ हुआ था, लेकिन उसने बड़ी फ़राख़दिली से ग़ैरमशरूत तौर पर बात मान ली।

    “बात क्या है भाई जान?” सज्जाद की नज़रें उस वक़्त सरताज के नंगे पैरों पर थीं। एक जूतीयां उतार देने से उसमें किस क़दर घरेलूपन, कैसी नसाइयत और किस क़दर सुपुर्दगी बढ़ गई थी। जी ही जी में उसने अपने आप पर फिर नफ़रीं भेजी।

    “हाय बताईए नाँ क्या बात है?”

    सज्जाद ने सरझटक कर गंदे ख़्यालात को ज़ेहन से निकाला और खलंडरेपन से सरताज के सर पर चपत मार कर कहा, “और जो तुझ पगली को सब कुछ बतादूं तो हमारे पास क्या बाक़ी रहेगा...” सरताज हौले हौले हँसने लगी।

    जिस वक़्त सज्जाद ने उंगलियां अपनी जेब में डालीं उनमें सरताज के सर का लम्स अंगारों की तरह दहक रहा था। वो नंगे पैर खड़ी लड़की के पांव पड़ने ही वाला था कि मकान का बड़ा दरवाज़ा खुल गया, “कौन है?” भूबल जैसे बालों वाली औरत बोली।

    “हम हैं अमिया, कब के दरवाज़े बजा रहे हैं आप खोलती ही नहीं हैं।”

    “अच्छा ताजी है। मैं समझी वो बिजली काटने वाले आए हैं फिर...” इस एक जुमले ने सज्जाद पर इस घर का सारा बैंक बैलेंस अयाँ कर दिया।

    वो दोनों आगे पीछे बड़ी ख़ामोशी से घर में दाख़िल हुए। घर से बाहर खिली दोपहर थी। बंद आँगन में घुसते ही शाम-ए-ग़रीबाँ छा गई। आँगन क्या था छती गली की तरह बंद बंद चारों तरफ़ दीवारों से घिरी थोड़ी सी ख़ाली जगह थी। एक जानिब हैंडपंप, पास ही ईंधन और ऊपलों का ढेर, एक पुराने कमोड का ढांचा और दो-चार ऐसे गमले पड़े थे जिनमें मुरझाए चम्बेली के पौदे थे।

    उन तमाम चीज़ों से हट कर कोने में एक लोहे का बोसीदा सा पलंग पड़ा था जिस पर कुछ बोरीयां, चंद पुराने खोखे और दो-चार खांचे पड़े थे। इस आँगन में रुक कर ताजी ने कनखियों से सज्जाद की तरफ़ देखा और फिर उसे अंदर ले गई।

    ये कमरा बैठक, खाना कमरा सिलाई घर और इस्त्री ख़ाना सब कुछ था। माज़ी की ईमारत और हाल की ग़ुर्बत बिछड़ी बहनों की तरह गले मिल रही थीं। छत पर पुराने ज़माने का इंग्लिश दो पंखिया सीलिंग फ़ैन था जिसकी हवा फ़र्श पर बिछे हुए बोसीदा क़ालीन पर पड़ती थी। सोफ़ों के स्प्रिंग अच्छे थे लेकिन पोशिश पिटे हुए फ़ैशन की याद दिलाती थी। दीवारों पर पुराने कैलेंडर चुग़ताई की तस्वीरें और गुजराती गुलदान लटक रहे थे। ताजी उसे अमिया के पास छोड़कर चली गई। ये हुस्न-ए-फ़रंग किसी ज़माने में ताजी से भी ज़्यादा क़हरमां होगा लेकिन अब इस मिस्री ममी से ख़ौफ़ आता था।

    “ताजी के वालिद पाँच साल हुए फ़ौत हो गए। तब हम लोग ईरान में थे।”

    “बड़ा अफ़सोस हुआ सुनकर।”

    मिस्री ममी बोली, “वहां की ज़िंदगी और थी। वहां के लोग कुछ और तरह के थे, वहां तकल्लुफ़ और दावत का रंग आम ज़िंदगी पर ग़ालिब था। ख़ैले मुतशकर्म बंदा परवरी अस्त... ममनून दारम... वहां ऐसी बातें थीं, अज़राह-ए-ताल्लुक नहीं, अज़ राह-ए-ज़ाहिरदारी नहीं बेटा, ये वहां का मिज़ाज है। उनके बाद हमारी अपने रिश्तेदारों से नहीं बनी।” मिस्री ममी पुरानी यादों में खो गई।

    “तुम्हारी बहुत बातें करती है ताजी। मैंने कहा, बेटे भाई को घर लाओ तो हम भी देखें।” सज्जाद के दिल में ख़रास सी चलने लगी। उसका जी चाहा कि ऊंचे ऊंचे कहे अमिया मेरे दिल में... मेरे दिल में निपट खोट है... लेकिन ख़ैर...

    “मेरी ताजी जब ईरान में थी तो फ़रफ़र फ़ारसी बोलती थी। अब रोज़ कहती है कि उर्दू पढ़ने में भी दिक्क़त पेश आरही है, दरअसल उसकी वजह यही है कि इसकी तालीम यहां की नहीं है, जो कुछ पढ़ा है सो कॉन्वेंट में... बुनियाद कमज़ोर रह गई है।”

    उस वक़्त ताजी आगई। उसने कॉलेज का चुस्त और ख़ूबसूरत लिबास उतार दिया था और अब मैल ख़ोरे से लिबास में फ़ाख़्ता सी बेरंग नज़र आरही थी लेकिन उसका वुजूद ही कुछ ऐसा था कि सज्जाद के ख़ियाबां में रंग का सैलाब जाता।

    “शिकंजियन पी लीजिए...” सज्जाद ने नमकीनी माइल कम मीठा नीबू पानी डगडगा कर पी लिया। इस घर में ग़ुर्बत सुर्ख़ ख़वानपोश से ढकी हुई थी।

    आधे घंटे में सज्जाद ने महसूस किया कि इस घर में वो आसूदगियां नहीं जो उसके दोमंज़िला चिप्स के फर्शों वाले घर में हैं। लेकिन जाने क्या बात थी कि इस घर में हैंडपंप से पानी निकाल कर अजीब राहत होती, बावर्चीख़ाने की चौकी पर बैठ कर तवे से उतरती रोटी खा कर हलक़ तक ख़ुशी से भर जाता। दौलत के बाद इस घर का अजब लुत्फ़ था, जैसे पुलाव-क़ोर्मे के बाद गुड़ की छोटी सी रोड़ी।

    ताजी के हुस्न की बनावट रद्दे पर रद्दा चढ़ाए ऊंची इमारत में बदल रही थी। इस ऐवान का जलवा वो ख़ुद अपनी नज़र बचा कर देखता। ताजी को देखकर जो तूफान-ए-नाशकीबा उसके जी में उठता, उस उठते तलातुम को वो कुछ ऐसी नाताक़ती बख़्शता, कुछ ऐसी कमज़ोरी अता करता कि सारी मुहब्बत एक बोल में भस्म हो जाती।

    एक दिन मिस्री ममी ने बेतकल्लुफ़ी से कहा, “तुम ताजी को उर्दू पढ़ा दिया करो। घड़ी दो-घड़ी, कम्बख़्त वो कोई प्रोफ़ेसर समदानी है, ख़्वाह-मख़ाह बेचारी को तंग करता है।”

    “ना अमिया ख़्वाह-मख़ाह भाई जान का वक़्त ज़ाए होगा।” ताजी बोली।

    “तू हम माँ-बेटे की बातों में बोला कर...हाँ।”

    “पढ़ा दूँगा जी... ज़रूर पढ़ा दूँगा।”

    वादा तो सज्जाद ने बड़े खुले दिल से कर लिया लेकिन दिल ये सोच सोच कर ही नीम ब्रश्त हुआ जाता था कि रोज़... हर-रोज़ कौन ताजी के क़ुर्ब का यूं मुतहम्मिल हो सकेगा? और बिलफ़र्ज़ मुतहम्मिल हो भी गया तो वो सब शे’र, वो सारी इश्क़िया शायरी किस आवाज़ में किस तौर पर समझानी मुम्किन होगी?

    पहले ही दिन बदशगुनी हुई। गर्मियों के दिन थे, हैंडपंप से हट कर लोहे के पलंग के पास ताजी ने मेज़ लगाया। उस पर लट्ठे का मेज़पोश डाला। टेबल फ़ैन चलाया और मेज़ के गिर्द दो कुर्सियाँ रखकर वो दोनों बैठ गए।

    पंखे की हवा तेज़ थी और वो सिर्फ़ फ़ास्ट पर ही काम करता था। सारी हवा ताजी को चूम चाट कर सज्जाद तक आती थी। ताजी का दुपट्टा कभी कापी पर गिरता, कभी मछेरे के जाल की तरह सज्जाद के मुँह पर गिरता। पहले तो ताजी ने उसे कानों के इर्दगिर्द अड़सा फिर उसे सर पर इकट्ठा किया। जब यूं भी क़ाबू में आया तो उसने उसे लोहे वाले पलंग पर फेंक दिया। सज्जाद की नज़रें एक-बार उठीं और फिर तत्तोथमो करके उसने उन्हें कापी पर चस्पाँ कर दिया।

    “कम्बख़्त को ज़रा तमीज़ नहीं, बार-बार भाई जान को तंग करता है।” वो दुपट्टे के बारे में बोली।

    “कौन कौन से शे’र आज समझ नहीं आए कॉलेज में?” उसने सवाल में से कपकपी को मिनहा करते हुए कहा।

    “ये शे’र पता नहीं चलता भाई जान...” ताजी अटक अटक कर शे’र पढ़ने लगी।

    “तकल्लुफ़-बरतरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन

    वो देखा जाये कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझसे”

    सज्जाद ने ताजी की तरफ़ देखा। दुपट्टा दूर हवा के हल्के हल्के झोंकों में झकोरे खा रहा था। ताजी के खुले गिरेबान पर पैहम हवा की क़मचियाँ पड़ रही थीं। कंधे, सीना, गर्दन हवा के दबाव से इतालवी बुतों की तरह सेहतमंद और जानदार लग रहे थे।

    सज्जाद ने एकदम नज़रें झुका लीं और बोला, “ताज बहन, शे’र की दरअसल एक फ़िज़ा होती है जिसे इंसान का एहसास टटोल लेता है। अभी आप में वो एहसास पैदा नहीं हुआ। इसलिए बेहतर होगा अगर शेरों की तशरीह करने से पहले चंद दिन रोज़ाना पाँच शे’र याद किया करें। कुछ दिनों में आपकी बैकग्रांऊड बन जाएगी, फिर आपको शे’र समझने में कुछ ऐसी दिक़्क़त महसूस होगी।”

    पहले दिन पढ़ाने की फ़िज़ा कुछ ऐसी नाज़ुक हो गई थी कि जल्द ही सज्जाद को घर लौट जाना पड़ा। दूसरे दिन पहले तो सज्जाद पढ़ाने के मरहले याद करके बिदकता रहा। जितनी ज़्यादा ठंडे आँगन की याद भड़कती उसी क़दर वो उस तल्ख़ा ब-ए-शीरीं से डरता था। लेकिन जब सब्र का यारा रहा तो उसने अपना मोटरसाईकल निकाला और मकान नंबर 313 की तरफ़ चल दिया। आँगन में पहले ही टेबल फ़ैन फ़ुल स्पीड पर चल रहा था। आज ताजी ने बाल धो रखे थे और हवा से कुछ हट कर यूं बैठी थी कि उसके बाल फ़िज़ा में तैर रहे थे। जलपरी की तरह हेमलेट की ओफ़लियां की मानिंद...

    “भाई जान मैंने छः शे’र याद किए हैं। आप सुनेंगे तो ख़ुश हो जाएंगे सच!” सज्जाद डरा-डरा कुर्सी के किनारे पर बैठ गया। ताजी फ़रफ़र शे’र सुनाने लगी। सज्जाद की स्याह ऐनक मेज़ के किनारे पड़ी थी। ताजी ने शे’र सुना कर उसे उठा लिया और सांस की नम देकर उसे पोंछने लगी।

    “इस शे’र के मा’नी मुझे समझ नहीं आए भाई जान।”

    “है क़हर गर अब भी बने बात कि उनको

    इनकार नहीं और मुझे इबराम बहुत है...”

    “इबराम के मा’नी जानती हो ताज बहन?” बहन का लफ़्ज़ बड़ी मुश्किल से निकला।

    “जी नहीं...” सब्ज़ा रंग आँखें भी साथ ही बोलीं।

    “किसी डिक्शनरी में मतलब देखे थे?”

    “फ़िरोज़-उल-लुग़ात में इसके मतलब नहीं हैं भाई जान।”

    “अच्छा...”

    ऐनक साफ़ कर के ताजी ने सज्जाद की कुहनी के पास रख दी।

    “इबराम के मा’नी हैं इसरार, ताकीद। मतलब समझ गईं अब?”

    “जी नहीं...”

    “शे’र दुबारा पढ़ो और इबराम के मा’नी ज़ेहन में रखो।” ताजी उसकी तरफ़ देखकर शे’र पढ़ने लगी। फिर जाने क्या हुआ कि झट उसकी निगाहें झुक गईं और चेहरे पर कौंदे की तरह सुर्ख़ी लपक गई। सज्जाद ने अपनी हिफ़ाज़त की ख़ातिर जल्दी से ऐनक को पकड़ लिया और प्रोफ़ेसर समदानी के लहजे में बोलने लगा, “चलिए ये शे’र तो साफ़ हो गया। अब मैं तुम्हें चंद शे’रों पर निशान लगा देता हूँ। ये हिफ़्ज़ कर लेना।” वो पेंसिल लेकर दीवान-ए-ग़ालिब में तसव्वुफ़ के शे’र ढूंढने लगा।

    “मुसद्दस हाली पढ़ा है?”

    “जी नहीं...”

    “कोई नॉवेल वग़ैरा?”

    “जी नहीं...”

    “कमाल है, कोई नॉवेल नहीं पढ़ा आपने?”

    “सच सच बतादूं भाई जान?” ताजी ने हरियल तोतों के पर फड़फड़ा कर पूछा।

    “हाँ हाँ, बता दो मुझसे क्या शर्म?”

    “कामा सूत्रा पढ़ी है जी...” सज्जाद के पैरों तले से ज़मीन निकल गई।

    “मैं अंग्रेज़ी की किताबों का ज़िक्र नहीं कर रहा, उर्दू की किताबों का पूछता हूँ।”

    “जी नहीं...” बुझा सा जवाब आया।

    “अच्छा...”

    “आप ने पढ़ी है कामा सूत्रा...?”

    अब उसने लहजे में दुरुश्ती भर कर जवाब दिया, “नहीं!”

    “और लेडी चटर्लीज़ लवर...” फ़िज़ा निहायत नामसाइद हो चली थी।

    “नहीं।”

    “और... ट्रोपिक आफ़ कैंसर?”

    “नहीं...”

    “देखिए भाई जान, हमारी नन्ज़ ऐसी किताबें पढ़ने नहीं देती थीं... हम... उन्हें छुपा कर पढ़ते थे।”

    “जिन किताबों को छुपा कर पढ़ने की नौबत आए उन्हें पढ़ना नहीं चाहिए।” ताजी के कान की लवें भक् भक् जलने लगीं।

    “देखिए कोई और होता तो... मैं ये बात कर सकती लेकिन इन किताबों में बुराई क्या है आख़िर...”

    पैंतरा बदल कर सज्जाद बोला, ''पढ़ कर बता दूंगा।”

    शे’रों की ख़ालिस रूमानी फ़िज़ा और जिन्स की पुरआशोब वादी में से जब वो नलवा बच निकला तो उसके दिल में बड़ी ख़ुद-एतिमादी पैदा हो गई। लेकिन इस ख़ुद-एतिमादी के बावुजूद जिस्म बुख़ार की सी कैफ़ियत में मुब्तला था। दिल को कोई झांवें से रगड़ रहा था। बार-बार जी में आई कि लौट जाये और ताजी से कहे, बहुत दिल बेक़ाबू को समझाता हूँ लेकिन ये दडंगे मारने से बाज़ नहीं आता।

    फिर सोचता ताजी ने तो पहले दिन ही कहा था कि बहन कहना आसान है, इस रिश्ते को निभाना मुश्किल है। मुम्किन है जिस पाड़ पर चढ़ कर वो ईमारत तामीर कर रहा था उस पाड़ के गिरते ही सारी ईमारत ढय् जाती? इसी उधेड़ बुन में अपने कमरे की जानिब जा रहा था कि एक वर्दी पोश ने चीते की सी जस्त भरी और उसे बूटे के चकल की तरह साबित-ओ-सालिम उठा लिया।

    “अरे फ़वाद भाई तुम कब आए?”

    “अभी आया हूँ, कोई घंटा भर हुआ। तुम कहाँ ग़ायब रहते हो। अम्मी बहुत शिकायत कर रही थीं, तुम्हारी अदम मौजूदगी की।” मेजर ने भरपूर धप्पा उसके कंधे पर मार कर कहा।

    “यहीं तो रहता हूँ, सारा सारा दिन...”

    मेजर फ़वाद मेज़ पर ख़ालिस फ़ौजियों के अंदाज़ में बैठ गया, “अम्मां मशकूक हो रही हैं।”

    “ख़्वाह-मख़ाह।”

    कहती हैं रोज़ अपनी किसी क्लास फ़ेलो को पढ़ाने जाते हो।” आँख-मार कर फ़वाद ने सवाल किया। सज्जाद को वहम-ओ-गुमान तक था कि अम्मी उसके बैरूनी मशाग़ल से इस हद तक वाक़िफ़ हैं।

    “तुम लोगों के मज़े हैं। पढ़ाने को भी गर्ल्स ही मिलती हैं और हम लोगों को कोरे अनपढ़ रंगरूट पढ़ाने पढ़ते हैं अंडे-डंडे की मदद से...”

    “अंडे-डंडे की मदद से...?”

    “भई, वो लोग तो वर्डज़ समझते हैं अल्फ़ा बीट। उन्हें तो बताना पड़ता है डंडा मा’नी सीधा अलिफ़ और गोलाई मा’नी अण्डा... अच्छा ये बताओ A मैं कितने डंडे हैं?”

    “तीन...” सज्जाद ने जवाब दिया।

    “राइट, और बी में कितने डंडे?”

    “एक...”

    मेजर फ़वाद ने मुस्कुरा कर कहा, “यस, एक डंडा और दो अंडे... हमने तो सारा इल्म बता दिया। अब तुम हमें अपनी स्टूडेंट से कब मिलाओगे?”

    “वो... वो मेरी बहन है।”

    सज्जाद राजा गोपी चंद की तरह राज-पाठ छोड़ अपनी सौ रानियों से ताल्लुक़ तोड़ रानी मैनावती को अपनी बहन कह रहा था।

    “बहन?” प्रैक्टीकल फ़ौजी ने पूछा, “बहन बनाने की क्या ज़रूरत पेश गई। ऐसी ग़लती इमरजेंसी में भी नहीं करनी चाहिए।” सज्जाद का ख़ून खौलने लगा। उसे यूं लगा जैसे फ़वाद उसके राबते को शुबहे की नज़रों से देखता है। कोख की सौगन्द से परे बहन-भाई का रिश्ता जैसे मुम्किन ही था।

    “तुम लोगों की नाज़ुक हिस परेड की नज़र हो जाती है, तुम लोग मशीनी ज़िंदगी बसर करते हो। दरिंदगी को मेराज-ए-ज़िंदगी और घटिया जज़बात को हासिल-ए-हयात समझते हो। तुम क्या जानो कि मुँह बोले बहन-भाई कैसे होते हैं?”

    “अरे रे रे... आई ऐम सॉरी, मैं क्या जानता था कि इस मुआमले में तुम इस क़दर TOUGH हो।” वो मुँह लटका कर बैठ गया... गोया हाफ मास्ट झंडा देख लिया हो। एकदम सज्जाद को अपनी बेवक़ूफ़ी पर ग़ुस्सा आगया। बेचारा बड़ा भाई हो कर कैसे दबता था?

    “कितनी छुट्टी है तुम्हारी ?”

    “कुल तीन दिन... आज का दिन मिलाकर...”

    “कहीं सैर वग़ैरा को ले चलूं?”

    “चलो तुम्हें ताजी से मिला लाएंगे, तुम ख़ुद देखोगे कि पाकीज़ा लड़कियां कैसी होती हैं।” ये जुमला उसने मुदावे के तौर पर कहा था लेकिन फ़वाद के दिल में ताजी को देखने की बड़ी शदीद तमन्ना जाग उठी। उस तमन्ना में से चक़माक़ की सी चिनगारियां जल बुझ उठीं और वो ये तजज़िया कर पाया कि वो ताजी को क्यों देखना चाहता है?

    दोनों भाई जब बंद बंद आँगन में दाख़िल हुए तो ताजी चौंकिल जानवर की तरह भड़क उठी। उसकी गोद में मुसद्दस हाली था और वो ज़ोर-शोर से शे’र रटने में मशग़ूल थी।

    “मैं आज अपने भाई जान को भी साथ लाया हूँ, मुझसे छः साल बड़े हैं, लेकिन हम में बहुत बेतकल्लुफ़ी है, मेजर फ़वाद... सरताज साहिबा।” फ़वाद ने एड़ियाँ जोड़ टकाटक मिलिट्री सैलूट जड़ दिया।

    ताजी ज़ेरे लब मुस्कुराई। मेज़ पर मुसद्दस हाली रखा और आहिस्ता से बोली, “आप बैठिए, मैं अमिया को बुलाती हूँ।” अमिया के साथ एक-बार फिर हल्की चाश्त वाली नमकीनी माइल शिकंजियन गई।

    “आप मिलिट्री में हैं...?”

    “जी...”

    “कैप्टन?”

    “जी... मेजर हूँ, मेजर फ़वाद।”

    मिस्री ममी के चेहरे पर बहुत दिनों बाद रंग उभरा।

    “जब ताजी के अब्बा ज़िंदा थे तो हम लोग ईरान में रहते थे। वहां के लोगों में बड़ी मुहब्बत बड़ी यगानगत का जज़बा है। इन्किसारी तो ऐसी कि घर आए मेहमान का दस दस मर्तबा शुक्रिया अदा करते थे ख़ैले मुतशकर्म... ममनून उम... ईं ख़ाना शुमा अस्त। इधर आकर... तो हम अजनबी से महसूस करते हैं, किसी से मेल-मुलाक़ात ही नहीं। सज्जाद मियां ये तुमने अच्छा किया अपने भाई जान को साथ ले आए।”

    अमिया बड़े दिनों बाद बे-तकान बोले चली जा रही थी। फ़वाद के हाथों में नीबू पानी था और वो नज़रें झुकाए बैठा था। जब भी उसकी नज़रें उठतीं ताजी तक ज़रूर पहुंचतीं। एक एक नज़र सज्जाद के दिल में भाले की तरह चुभ रही थी। रफ़्ता-रफ़्ता फ़वाद उनकी बातों में शामिल हो गया।

    मैस की ज़िंदगी, जवानों के लतीफ़े, परेड की बातें, छावनी के शब-ओ-रोज़ इस घर में उतर आए। माँ-बेटी बात बात पर हंस रही थीं और सज्जाद मुँह पर क़ुफ्ल लगाए दिल को सारस की तरह ग़म के परों में छुपाए चुप बैठा था। वापसी पर अभी वो टैक्सी तक पहुंचे थे कि फ़वाद चहक उठा, “जनाब हम तो क़ाइल हो गए आपकी पसंद के।” सज्जाद इस अक़ूबत के लिए तैयार था। सर से पैर तक लरज़ गया।

    “मैं घर पहुंचते ही कहूँगा, अम्मी हमारे लिए तो सज्जाद ने मिस्र का चांद तलाश कर लिया है, हज़रत यूसुफ़ को मिस्र का चांद कहते थे नाँ... मुझे अच्छी तरह से याद नहीं।” सज्जाद के दिल में हज़रत ज़ुलेख़ा ने बाहें उठा कर शेवन करना शुरू कर दिया।

    “क्या सोच रहे हैं जनाब?” फ़वाद ने उसकी कमर पर धप्पा मार कर कहा।

    “नहीं, नहीं भई, मेरी तो वो बहन है।”

    इस जुमले ने सज्जाद की ख़ुशियों को चीनी से ढांक दिया। अम्मी ने सरताज के मुताल्लिक़ बहुत मीन मेख़ निकाली लेकिन फ़वाद फ़ौजी आदमी था। अम्मी के हर हमले के लिए उसने बस एक ही ख़ंदक़ खोद रखी थी। फ़ौरन जवाब देता, “देखिए अम्मी, अब मैं आपसे कह रहा हूँ और आप इनकार कर रही हैं। फिर आपकी जानिब से इसरार होगा और मैं कोरा जवाब दूँगा।”

    अम्मी उस फ़ौजी हट को देखकर सूँ सूँ करने लगीं। सज्जाद को कहने-सुनने का क्या मौक़ा मिलता। वो तो पहले ही हाथ कटवा चुका था, ताजी को बहन कह चुका था। अब पत रखनी लाज़िम थी। बज़ाहिर इसमें किसी क़िस्म का नुक़्स भी निकाल सकता था।

    जब अम्मी बिलआख़िर सरताज के घर रवाना हुईं तो बेचारे पर ऐसी ओस पड़ी कि मुँह सर लपेट कर औंधा लेटा रहा। कभी जी को समझाता कि बहन कह कर समझना इंतिहा की ज़लालत है। कभी सोचता और जो कहीं फ़वाद से उसका रिश्ता तै हो ही गया तो सारी ज़िंदगी मलियामेट हो जावेगी। जब जी से झगड़ते दिल को समझाते बहुत शाम पड़ गई तो वो अपने वुजूद से सनीचर उतारने सरताज के घर पहुंचा।

    आज वहां टेबल फ़ैन था, पढ़ने-पढ़ाने की मेज़, बंद बंद आँगन में आज हर तरफ़ अजनबी रंग था। वो चुप-चाप लोहे के पलंग पर बैठ गया। सारा घर ख़ामोश था। बचपन में उसे उसकी अन्ना जो जो से डराया करती थी। सो जाओ जल्दी वर्ना जो जो जाएगा। दूध पी लो नहीं तो जो जो उठा कर ले जाएगा। चलो नहाओ, अच्छा नहीं नहाते सही आपी जो जो समझ लेगा तुमसे...

    आज उसे इन कमरों में किसी जो जो के टहलने की दबी दबी चाप सुनाई दे रही थी। कई बार उसने उठने की नीयत की। कई बार उठ उठकर बैठा। ताजी को आवाज़ देने की हिम्मत बाक़ी थी, उससे मिले बग़ैर चले जाने का हौसला बाक़ी रहा था। कई बार सूरा अन्नास पढ़ी। कई मर्तबा आँखें बंद करके जी को समझाया लेकिन जी पर एक तुग़्यानी कैफ़ियत तारी थी। बिलआख़िर उसने उठकर हैंडपंप चलाया और मुँह पर छींटे मारने में मशग़ूल हो गया।

    पीछे से किसी की आवाज़ आई, “लाइए, मैं नलका चला दूं?”

    उसने पीछे मुड़ कर देखा, “तुम हो ताजी?”

    “जी...”

    आँखों के तोते रोए हुए थे। सारे चेहरे पर आँसूओं की छाप थी। इस सयाक़-ओ-सबॉक् की रोशनी में उसने आहिस्ता से कहा, “ताज!” इस एक लफ़्ज़ में महीनों का बोहरान मुक़य्यद था।

    “जी... भाई जान।”

    “आज पढ़ोगी नहीं?”

    “अब क्या पढ़ना है जी...” वो लब काट कर बोली।

    “क्यों?”

    ताजी के हरियल फिर आँसूओं से भीग गए और उसने मुँह परे कर के कहा, “आपको मालूम नहीं है क्या?”

    उन आँसूओं ने उसमें किसी जोधा की आत्मा फूंक दी, “आपकी अम्मी आई थीं।”

    “जी...”

    अब सज्जाद ने पहली मर्तबा डरते डरते ताजी के बाएं हाथ की तीन उंगलियां पकड़लीं, “फिर?”

    “अमिया मान गई हैं।”

    “तुम्हारा क्या ख़्याल है?”

    क़बूलीयत का लम्हा आया और सर नेहोड़ाए हुए गुज़र गया। उसी वक़्त मिस्री ममी बालों को तौलिये से पोंछते खड़ाऊँ टिकटिकाती अंदर से बरामद हो गईं। सज्जाद के हाथ सीताजी की उंगलियां छूट गईं। हौसले का ग्लूकोज़ उसकी शिरयानों में पहुंचना बंद हो गया।

    “मैं तुम्हारा किस मुँह से शुक्रिया अदा करूँ सज्जाद... ऐसे लोग सिर्फ़ ईरान में देखे हैं... बेगानों को अपनों से सवा चाहने वाले... तुमने तो वो कुछ कर दिखाया जो सगा भाई भी कर पाता... तुमने क़ौल को फे़अल कर दिखाया, ज़बान की लाज रख ली...”

    जो रब्त-ए-मज़मून, जो अर्ज़ दाश्त, जो इल्तिजा अभी चंद लम्हे पहले उसके दिल में तशकील पाई थी ग़श खा कर जा पड़ी।

    ’’मैंने तुम्हारी अम्मी से कहा कि भई धन भाग तुम्हारे हैं कि ऐसी सालिह औलाद को जन्म दिया। हमारे लिए तो सज्जाद फ़रिश्ता-ए-रहमत साबित हुआ। हम तो यहां अजनबी थे। जब ताजी के वालिद ज़िंदा थे तो ईरान में थे हम लोग... यहां आकर किसी से मेल-मुलाक़ात क़ायम हो सकी। सज्जाद ने तो कोख जने से भी ज़्यादा हक़ अदा किया...”

    वो ख़ामोशी से बैठा ईरान के लोगों की बातें सुनता रहा। इस वक़फ़े में ख़ुदा जाने कितनी गुम-सुम तमन्नाओं का सुथराव हो गया।

    “बस एक फ़िक्र है मुझे...” जाड़े के बादलों में सूरज ने पहली बार शक्ल दिखाई।

    “जी... वो फ़िक्र क्या है?”

    इसी एक फ़िक्र पर इसकी सारी उम्मीदों की असास थी। ये फ़िक्र छोटी छोटी किश्तीयों का पुल था जो आनन-फ़ानन चढ़े पानियों पर तामीर हो गया, “कहिए कहिए मैं सुन रहा हूँ।”

    “आपकी अम्मी कहती हैं कि फ़वाद को कुल तीन दिन की छुट्टी है, इस अर्से में निकाह हो जाना चाहिए कम अज़ कम... भला इतनी जल्दी इंतिज़ाम क्योंकर होगा...?”

    सज्जाद को महसूस हुआ जैसे किसी ने लंबा सा डंडा उसकी हथेली पर अमूदी रखकर उसे सीधा रखने की क़ैद भी लगा दी हो। इस झक सँभालने में उसका बाज़ू शल हो गया।

    “फिर आपने क्या सोचा है, अमिया...?”

    “तुम्हारी क्या राय है... तुम्हारी बहन है जो मश्वरा दोगे में अमल करूँगी।”

    सज्जाद ने सर झुका लिया। इतने थोड़े से वक़फ़े में इतने सारे अललहसाब धचके खा कर वो सन हो गया था। इस क़िस्म की रू-बकारी के लिए वो हरगिज़ तैयार था।

    “फिर क्या सोचा है तुमने? तुम्हारी अम्मी कहती हैं निकाह ज़रूरी है, रुख़्सती बहार में हो जाएगी। क्यों तुम क्या कहते हो?”

    तीन दिन में निकाह... और बहार में रुख़्सती... आड़ू और अलूचे के शगूफ़ों के साथ...जब खट्टे के दरख़्तों में फूल लगते हैं... नारंजी और स्वीट पनीर के फूल खिलते हैं। ख़ुद रो घास के तख़्तों पर बैठी हुई नई-नवेली दुल्हन हरियल तोतों को सवा इंच लंबी झिलमिलियों में छुपाए अनार दानों को सुर्ख़ ख़्वानपोश में बंद किए... झपाक से सारा नफ़ा ताजी का हो गया और वो मुँह तकता रह गया।

    सज्जाद के लिए अब कोई चारा था। उसने हालात के सामने हथियार डाल दिए। निकाह के सारे इंतिज़ामात ख़ुद किए, वकील गवाह की जगह दस्तख़त किए और अपने हाथों ताजी को फ़वाद की तहवील में दे दिया।

    इतने थोड़े वक़फ़े में इतने सारे हादिसात ने रेल-पेल कर उसे नीम जान कर दिया था। ताजी के निकाह से दूसरे दिन फ़वाद पिंडी चला गया लेकिन सज्जाद में हिम्मत पैदा हुई कि वो मकान नंबर 313 तक जा सकता। कभी जी में आता कि तूँबी लेकर गलियों में गाता फिरे, कभी दिल में समाती कि यसरिब का टिकट ख़रीदे और गुंबद-ए-ख़ज़रा के मकीन से जा कर कहे, कमली वाले दिल के चोर को कुछ तो समझा दो, जीने तो दे। दम-भर कर सांस तो लेने दे और जो कहीं इस निकाह की मंसूख़ी हो जाये तो उम्र-भर यहीं इसी रौज़े की जाली पर बैठा रहूं।

    जाने ये सज्जाद की तमन्ना की ग़ैबी कारकर्दगी थी या फ़वाद का बे एहतियाती से मोटरसाईकल चलाना, शिकस्त-ओ-रेख़्त का बाइस बना। बहर कैफ़ निकाह से पूरे दो माह बाद अचानक फ़वाद का मोटरसाईकल भट्टे की ईंटों से लदे हुए ट्रक से टकरा गया। सज्जाद के ज़ाइचे में हालात के उलट-फेर की ये नौईयत थी। बरसों उसे यही महसूस होता रहा गोया चीलें ठोंगे मार मार कर उसका भेजा खा रही हों।

    ताजी के बालों में सफ़ेदी चुकी थी, लेकिन आँगन वही था। उसी तरह कोने में लोहे का पलंग पड़ा था। पुराने खांचे खोखे कमोड का ढांचा वहीं था। कुछ तबदीली आगई थी तो ताजी में... उसके लब सोए हुए तवाम बच्चों की तरह आपस में सिले रहते। हरियल तोते अब फ़ाख़्ता रंग और बेजान हो चुके थे। बातों में वो दिलरुबाई बाक़ी थी आवाज़ में मजीरे बजने की कैफ़ियत। बरसों की ख़ामोशी ने अंदर ही अंदर उसे खंडल डाला था।

    ख़ुनुक सी शाम थी। मुंडेर पर शाम पड़े घर जाने वाली चिड़ियां चहचहा रही थीं। आँगन में रात का सा समां था। सज्जाद अंदर दाख़िल हुआ तो उसके हाथों में बहुत सारी कापियां थीं और बी.एससी. उर्दू के पर्चे थे। ये सारे पर्चे उसे रातों रात देखने थे। वो लंबी सी सांस लेकर पलंग पर बैठ गया।

    आज उस की कमर में फिर बहुत दर्द था और वो एम.ए की क्लास को पढ़ाने की बजाय सारी दोपहर स्टाफ़ रुम में बैठा चाय के साथ एस्प्रो पीता रहा था। जाने इतने सारे साल क्योंकर गुज़र गए बग़ैर किसी तसफ़िए के... बग़ैर किसी समझौते के... वो हमेशा की तरह शाम को ताजी के घर जाता और घड़ी दो-घड़ी बैठ कर घर लौट जाता। वक़्त से बहुत पहले उसके सारे बाल सफ़ेद हो चुके थे और नौजवानी ख़त्म होने से बहुत पहले अम्मी ने उसे शादी पर आमादा करना छोड़ दिया था।

    आज उसकी कमर में सख़्त दर्द था और उसे सारे पर्चे देखने थे। उसने पलंग की आहनी पुश्त से सर टिका कर आँखें बंद करलीं। उसे इल्म था कि सारी उम्र इस तरह रुल जाएगी।

    “चाय लादूं भाई जान...” रंखी सी आवाज़ आई।

    “नहीं...”

    सज्जाद ने नज़र उठा कर ताजी की तरफ़ देखा। कैसी कौड़ियाली जवानी थी। उस जवानी का रम ख़ूर्दा अब साँप की लकीर को ग़ौर से देखने लगा।

    “आपकी तबीयत ठीक है आज?”

    “हाँ।”

    मिस्री ममी सेवइयों का गर्म-गर्म भाप छोड़ता कटोरा लेकर आई। उसका रूपा सर कंधे पर पारे की तरह मुसलसल हिल रहा था।

    “सेवइयाँ खा लो बेटा।”

    “भूक नहीं है अमिया।”

    वो दोनों ख़ामोशी से एक दूसरे को तकते रहे, “सज्जाद...”

    “जी।”

    “तुम सा बेलौस मुहब्बत करने वाला मैंने कोई नहीं देखा।” बरसों बाद सज्जाद की नज़र तेज़ी से चलने लगी।

    “तुम्हारा दुख मुझसे देखा नहीं जाता, कोई मरे हुए भाई के साथ यूं मिट्टी हुआ है?” मोटे मोटे आँसू उसकी ऐनकों पर गिरे।

    “ताजी का अगर कोई असली भाई भी होता, तो यूं सारी उम्र गँवाता जिस तरह तुमने गंवा दी।” ताजी आहिस्ता-आहिस्ता वापस जाने लगी।

    “तुम शादी कर लो बेटा...” अमिया ने भुर भुरे से लहजे में कहा।

    उसकी नज़रें ताजी तक हो कर लौट आईं, “शादी...? अब बहुत देर हो गई है अमिया।”

    ताजी ने सेकेंड के हज़ारवें हिस्से में पलट कर देखा और चलने लगी, “और ज़रा सोचो अमिया वो कौन सी औरत है जो मेरे और ताजी के रिश्ते को समझ पाएगी... जो ताजी को मेरी बहन, मेरी भाबी समझेगी। लोग तो असली रिश्तों को कुछ नहीं समझते। बताईए मुँह बोले रिश्तों को कोई क्या जानेगा।”

    आँगन में रात छागई। वो लोहे के पलंग पर अब भी ख़ामोश बैठा था। अमिया कभी की सो चुकी थीं... आँगन के ऊपर छोटे से स्याह आसमान में मद्धम मद्धम सितारे दहक रहे थे। वो एकदम अपने आपसे अपनी ज़िंदगी से थक चुका था और रात ख़त्म होने में आई थी। फिर दरवाज़ा खोल कर ताजी निकल आई। आज वो ऐसी मिस्री ममी लग रही थी जिसका रूप किसी ज़माने में बहुत क़हरमान होगा।

    “घर नहीं जाऐंगे सज्जाद भाई?”

    “घर... कौन से घर...?”

    “अपने घर।” ताजी ने बहुत आहिस्ता कहा।

    “नहीं!” सज्जाद ने नज़रें उठा कर जवाब दिया। वो दोनों कई क़र्न ख़ामोश रहे। फिर सज्जाद ने रुकी रुकी आवाज़ में कहा, “अमिया के साथ वाले कमरे में मेरा बिस्तर लगा दो, में अब घर नहीं जाऊँगा।” ये फ़ैसला कई बरसों से चमगादड़ की तरह उसके ज़ेहन में घूम रहा था।

    “लेकिन... लेकिन... सज्जाद भाई लोग क्या कहेंगे?”

    “क्या तुम्हें कुछ शुबहा है?”

    “नहीं भाई जान... लेकिन...”

    “मैंने तुम्हें पहले दिन कह दिया था कि... हम बात निभाने वाले हैं। जब एक-बार बहन कह दिया तो सारी उम्र समझेंगे।”

    वो कापियों का गट्ठा उठा कर अमिया के साथ वाले कमरे में दाख़िल हो गया। क़बूलीयत का आख़िरी मौक़ा आया और गर्दन झुकाए चुप-चाप ताजी के पास से हो कर गुज़र गया। ताजी ने लोहे के पलंग पर अपना आप छोड़ दिया। जाने इतनी सारी सिसकियाँ कब से उसके सीने में मुक़य्यद थीं।

    स्रोत:

    कुछ और नहीं (Pg. 53)

    • लेखक: बानो कुदसिया

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