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ज़ालिम मोहब्बत

हिजाब इम्तियाज़ अली

ज़ालिम मोहब्बत

हिजाब इम्तियाज़ अली

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    स्टोरीलाइन

    यह एक औरत और दो मर्दों की कहानी है। पहला मर्द औरत से बेपनाह मोहब्बत करता है और दूसरे मर्द को यह ख़बर तक नहीं कि वह औरत उसे चाहती है। एक दिन वह दूसरे मर्द के पास जाती है और उसके सामने अपने दिल की बात को एक कहानी के प्लॉट के रूप में पेश करते हुए उस उलझन का हल उस मर्द से पूछती है।

    दूसरे दिन मेरी आँख खुली तो देखा कि हसीन सुबह अपनी सह्र अंगेज़ आँखों को खोल रही है। बाग़ की तरफ़ के दरीचे खुले हुए थे और आफ़ताब की अछूती किरनें गरजने वाले नीले समुंदर पर मुस्कुरा रही थीं। बग़ीचे में राग गाने वाले परिंद मसरूफ़ नग़मा थे मगर मेरा दिल उस दिल फ़रेब सुबह में भी परेशान था। मैंने सिरहाने की खिड़की का सुनहरा पर्दा हटाया और झाँक कर बाग़ में देखने लगी।

    ऐन दरीचे के नीचे एक बड़ासा सुर्ख़ गुलाब बहार की इत्र बेज़ हवाओं में वालिहाना झूम रहा था। जाने ज़िंदगी की कौन सी तफ़सीर बयान कर रहा है! किसे मालूम मोहब्बत के किस पेचीदा मसले की तशरीह कर रहा है! मैंने परेशान लहजे में अपने आप से कहा। इतने में पर्दा हटा। देखा तो ज़ोनाश (बूढ़ी हब्शिन ख़ादिमा) अपनी मोटी कमर समेत अंदर दाख़िल हो रही है। ख़ातून रूही! उसने क़दरे हैरान होकर कहा, आप अभी तक तैयार नहीं हुईं? बेगम ज़ुबैदा नाश्ता के लिए आपका इंतज़ार कर रही हैं।

    सुबह के वक़्त मैं कुछ ज़्यादा तुनुक मिज़ाज होती हूँ। ज़ोनाश से खुसूसन कुछ चिढ़ सी होती है। लिहाज़ा मैंने कोई जवाब दिया। झुक कर सोफ़े के पीछे से सितार उठा लिया और उसके तारों को दुरुस्त करने लगी। ज़ोनाश एक ख़ुश रंग ईरानी क़ालीन पर खड़ी मुझसे सवाल पर सवाल किए जा रही थी। इतने में दादी ज़ुबैदा की ख़ादिमा सनोबर अंदर आई। ख़ातून रूही! चाय तैयार है बेगम आप की मुंतज़िर हैं।

    मैं एक बेज़ार अदा से उठ खड़ी हुई। क़द-ए-आदम आईने के आगे खड़ी बालों पर एक पिन लगा रही थी कि एक ख़्याल ने मुझे चौंका दिया। ज़ोनाश! चाय की मेज़ पर दादी ज़ुबैदा तन्हा हैं या चश्मी साहब भी मौजूद हैं?

    मुझे क्या मालूम बीबी? ज़ोनाश के इन रूखे सूखे जवाबों से मुझे दिली नफ़रत थी। और मुनीर को रात बुख़ार तो नहीं हो गया? कैसे रहे? ये सवाल मैंने मसलहतन किया। नहीं वो अच्छे हैं।

    मैं तब्दील लिबास के बाद चुपचाप निचली मंज़िल में गई। देखा तो दादी ज़ुबैदा एक नफ़ीस रेशमी लिबास में बैठी नाश्ता के लिए मेरा इंतिज़ार कर रही थीं। एक हाथ फ़ाख़्तई रंग के दस्ताना में मलफ़ूफ़ था। दूसरा दस्ताना से ख़ाली था। उसकी उंगलियों में सिगरेट पकड़ रखा था जिसका मुसलसल धुआँ उठ-उठ कर दायरे की शक्ल में घूम रहा था। सामने हस्ब-ए-आदत अख़बार पड़ा था जिसे वो कभी-कभी पढ़ लेती थीं। मैंने जाकर उन्हें प्यार किया, आदाब, दादी जान प्यारी!

    आदाब, तुम बड़ी देर में आईं प्यारी।

    मैं सवेरे उठ गई थी। नमाज़ में कुछ देर लग गई। ये कह कर मैंने अपने मुक़ाबिल वाली ख़ाली कुर्सी पर निगाह डाली। फिर कुछ ताम्मुल के बाद पूछा, चश्मी साहब कहाँ हैं? क्या वो चाय पी चुके?

    वो आज सुबह से बाहर गए हुए हैं। दादी ज़ुबैदा ने बे परवाई से कहा।

    मुरब्बा लोगी?

    ले लूँगी। वो कहाँ गए हैं दादी जान? मैंने बेचैन होकर पूछा।

    ये लो गाजर का हलवा, और ये शहतूत का मुरब्बा। इस मौसम में सुबह के नाश्ते पर ताज़ा फल ज़रूर खाने चाहिएं। अनन्नास के क़त्ले ले लो। मैंने बा दिल-ए- नाख़्वास्ता एक टुकड़ा लिया और छुरी से काट कर खाने लगी। दो मिनट हिम्मत करके वही सवाल दोहरा दिया, तो चश्मी साहब कहाँ गए हैं दादी जान?

    जो अनन्नास तुम खा रही हो वो तुर्श तो नहीं? अगर तुर्श हो तो केला ले लो। चश्मी साहब कश्ती की सैर के लिए गए हैं। ग़रीब दिन-रात मुनीर के कमरे में रहता है। आज उसने छुट्टी मनाई। सच तो ये है कि मैंने उस लड़के को निहायत शरीफ़ पाया। ये अंजीर लो बेटी।

    मैं चुप थी और सोच रही थी, मुनीर की तीमारदारी ने आख़िर चश्मी को मुज़्महिल कर दिया। मैं जानती थी कि दूसरे की तीमारदारी एक दिन ख़ुद उन्हें बीमार कर डालेगी। मैंने दबी ज़बान से पूछा, तो क्या चश्मी साहब अलील हैं दादी जान?

    नहीं, वैसे तफ़रीहन बाहर गए हैं। लड़की! तुम्हारी आँखें गुलाबी हो रही हैं। तबियत कैसी है?

    जब से यहाँ आई हूँ तबियत कुछ सुस्त सी रहती है, दादी जान।

    दादी ज़ुबैदा ने फ़िक्र मंदी के अल्फ़ाज़ में कहा, समुंदर की हवा तुम्हारे लिए मुफ़ीद होती है। मुझे मालूम होता तो मैं चश्मी साहब से इल्तिजा करती कि तुम्हें किश्ती की सैर के लिए साथ ले जाएं। बड़ा शरीफ़ आदमी है।

    मालिक जाने मेरा दिल क्यों धड़कने लगा। कश्ती की सैर! लहरों की ख़ामोश मूसीक़ी! झुकी हुई ख़म-दार टहनियों के साए में चश्मी जैसे मल्लाह के साथ एक नामालूम आबी रास्ते पर चला जाना! ये सब कुछ किस क़दर रूमान-आफ़रीं था।

    शाम तक वो लौट आएंगे। मैं उनके साथ शाम को बाहर जा सकती हूँ दादी जान? मैंने भोली शक्ल बनाकर पूछा। हाँ क्यों नहीं, मगर मुनीर से पूछ लो। मुनीर से पूछ लूँ! मेरी ख़ुशियों के उफ़ुक़ पर इक सियाह बदली उभरने लगी।

    नाश्ते के बाद मैं मुनीर की मिज़ाज पुर्सी के लिए उनके कमरे की तरफ़ गई। दरवाज़े तक जाकर रुक गई। कहीं चश्मी ने इस बदनसीब आदमी को मेरा पयाम पहुँचा तो नहीं दिया। दिल धक से रह गया। डरते-डरते पर्दा हटाकर अंदर गई मगर आसार कुछ ऐसे मालूम हुए। क्योंकि मुझे देख कर मुनीर के चेहरे पर वही पुरानी शगुफ़्ता मुस्कुराहट नमूदार हुई। जाने क्यों उसे देख कर मेरा दिल दुखा। कुछ देर बाद मैंने दिल ही दिल में अपने आपको मलामत की कि मैं क्यों उससे मोहब्बत नहीं कर रही, क्या बावजूद कोशिश के मैं इससे मोहब्बत कर सकूँगी? अपने मन्सूब से! अपने ज़ुल्म पर ख़ुद अपनी आँखों में आँसू भर आए और मैंने चेहरा दरीचे की तरफ़ फेर लिया। फिर बड़ी मुलायमियत से सवाल किया, मुनीर! आज तुम बहुत शगुफ़्ता नज़र रहे हो। कहो रात कैसी कटी?

    शुक्रिया! बहुत अच्छी कटी। नीज़ महसूस कर रहा हूँ कि सेहत बड़ी सुरअत से मुझपर ऊद कर रही है।

    उसी वक़्त दादी जान अंदर आईं और कहने लगीं, ख़ुदा ने चाहा तो एक हफ़्ते में बिल्कुल तंदुरुस्त हो जाओगे। फिर इंशा-अल्लाह मैं तुम दोनों को अय्याम-ए-अरूसी बसर करने कोह फ़िरोज़ के पुर फ़िज़ा मर्ग़-ज़ारों में छोड़ दूँगी। मुनीर मुस्कुरा पड़ा। मैं दूर कहीं फ़िज़ा में तक रही और तशन्नुज की सी कैफ़ियत महसूस कर रही थी। कुछ देर बाद दादी ज़ुबैदा चहल क़दमी के लिए बाहर चली गईं और कमरे पर मौत की सी ख़ामोशी तारी हो गई। हम दोनों अपने-अपने ख़्यालात में ग़र्क़ थे।

    एक डूब-डूब कर उभर रहा था, दूसरा उभर-उभर कर डूब जाता था। मैंने डरते-डरते मुनीर को देखा। वो बग़ौर मुझे तक रहा था। उसके गुलाबी होंटों पर मुस्कुराहट थी और उसका नौजवान चेहरा वुफ़ूर-ए-मसर्रत से आफ़ताब की तरह दमक रहा था। वो मुझपर झुक कर कहने लगा, तुम्हें कोह-ए-फ़िरोज़ के मर्ग़-ज़ार पसंद हैं?

    बहुत मुनीर! धड़कते हुए दिल से मैंने कहा।

    उसने अपना एक हाथ मेरे कंधे पर रख दिया। निहायत धीमे लहजे में बोला,मेरी जान! ज़िंदगी की कली ऐसे ही मर्ग़ ज़ारों में खिल कर फूल बनती है। रूही उस दिन का ख़्याल करो... जिस दिन हम दोनों... फूलों से सजे हुए फलों से लदे हुए बग़ीचों में चम्बेली की मुअत्तर बेलों तले एक दूसरे की मोहब्बत का ऐतराफ़ करेंगे।

    मेरे दिल पर एक तीर सा लगा क्योंकि मैं अभी तक उस कश्ती का ख़्वाब देख रही थी जिसका मल्लाह चश्मी था। दो मिनट बाद मुझे अपनी ख़ामोशी का एहसास हुआ। बोली, वाक़ई मुनीर! बग़ीचों में चम्बेली की बेलों तले मोहब्बत का राग गाना बेहद पुर लुत्फ़ होगा।

    और फिर हम दोनों... मुनीर ने जुमला ख़त्म किया। मगर हम दोनों के लफ़्ज़ ने मेरे काहीदा जिस्म में एक इर्तिआश पैदा कर दिया। कौन दोनों...? मुनीर और मैं? या दो मुहब्बत करने वाले दिल?

    कुछ देर बाद में मुनीर के कमरे से बाहर निकल आई। बाग़ के ज़ीने पर खड़ी सोचती रही। आह! मेरी ज़िंदगी का प्लाट कितना अजीब है! अगर मैं मुनीर से नफ़रत कर सकती तो मैं इन उलझनों में मुब्तला होती। अगर मोहब्बत कर सकती तो उन तमाम मसाइब का ख़ातमा हो जाता! मगर आह! इस शख़्स से मैं मोहब्बत कर सकती थी नफ़रत! मेरे दिल में मुनीर के लिए हमदर्दी मौजूद थी। मैं अपने आप को उसकी गुनहगार महसूस कर रही थी। आह! गुनाह का एहसास! मोहब्बत की मजबूरी।

    मैं बाग़ में चली गई और फ़व्वारे के क़रीब एक कोच पर बैठ कर फूट-फूट कर रोने लगी। मैं बार-बार नहर की तरफ़ देख रही थी। चश्मी की कश्ती वापस रही होगी मगर आई। जब दोपहर की गर्म हवाएं चलने लगीं तो मैं अपने कमरे में गई। बहुत देर एक सोफ़े पर पड़े मौजूदा हालात पर ग़ौर करती रही। चश्मी दोपहर के खाने पर भी आए तो मुझे शुब्हा हुआ कि वो मसलहतन घर से बाहर रहना पसंद करते हैं।

    जब साए ढल गए और हवाओं में दोपहर के आफ़ताब की तमाज़त कम हो गई तो मैं बिला इरादा फिर बाग़ में घाट पर निकल आई और आने वाली कश्तियों को ग़ौर से देखने लगी। मैं इंतज़ार की दर्द-अंगेज़ ख़लिश महसूस कर रही थी। सूरज ज़ैतून की टहनियों के ऊपर था। कुछ देर बाद वो दरख़्तों की शाख़ों तले नज़र आने लगा। नहर का पानी ख़ालिस सोने की तरह सुनहरा हो गया और पूरा बग़ीचे धूप की लहरों में जगमगा उठा। दूर... सुनहरी-सुनहरी लहरों में एक नन्हीं सी नीले रंग की कश्ती नज़र आने लगी। मेरा दिल धड़का। अल्लाह जाने क्यों ये आज कल ग़ैर मामूली तौर पर धड़कने लगा था। कुछ देर बाद मै गुनगुनाने लगी,

    चश्म-ए-क़मर को भी मरे ख़्वाबों पे रश्क है

    पेश-ए-नज़र तिरा रुख़-ए-रौशन है आज कल

    जिस आस्ताँ को सजदा-ए-परवीं भी बार था

    वो आस्ताँ जबीं का नशेमन है आज कल

    बांस के सर बलंद दरख़्तों पर एक हुदहुद ज़ोर से गा रहा था कि इतने में वो नीली कश्ती घाट पर लगी। उधर मेरे देखते-देखते चश्मी उतर आए। उनकी नज़र मुझपर पड़ी,आप याँ क्या कर रही हैं ख़ातून रूही? उन्होंने बच्चों के सादा लहजे में पूछा।

    लेकिन मैं क्या जवाब देती? क्या ये कह देती कि आप के इंतज़ार ने क़रीब उल मर्ग कर रखा था। तौबा-तौबा। ये किस तरह कह सकती थी। कुछ बौखला सी गई बोली, मैं? यूँ ही यहाँ बैठी थी। अंदर बहुत गर्मी थी। आज का दिन बड़ा गर्म रहा। आप कहाँ गये थे? ये कहते हुए मैंने अपनी जापानी वज़अ की नारंजी छतरी खोल ली। मैं ज़रा दिल बहलाने निकल गया था।

    हाँ। मैंने कहा, घर में वहशत होती होगी। तीमारदारी कोई दिलचस्प काम नहीं।

    ये आप क्या फ़रमाती हैं ख़ातून रूही! चश्मी ने मुअस्सिर लहजे में कहा, मुनीर साहब की तीमारदारी मेरा एक मर्ग़ूब फ़र्ज़ है। आप नहीं जानतीं मुझे उनसे कितनी मोहब्बत है।

    मैं जानती हूँ। मैंने संजीदगी से कहा।

    आप नहीं जानतीं। चश्मी हँस कर बोले, इसका अंदाज़ या तो मुनीर लगा सकते हैं या फिर मेरा दिल। मैं अब भी संजीदा थी।

    उफ़्फ़ोह! इतनी गहरी मोहब्बत है? ये कहते हुए मैंने एक बेचैनी सी महसूस की और उठ खड़ी हुई। चश्मी ने मेरी वहशत को महसूस किया फिर कहने लगे, आप घबराई हुई मालूम होती हैं। यहाँ बहुत गर्मी है। शमशाद के दरख़्तों की तरफ़ चलिए। उस चबूतरे पर हमेशा ठंडी हवा आती है। उसने मेरा बाज़ू थाम लिया और शमशाद के दरख़्तों के पास संग मर मर के एक सफ़ेद चबूतरे पर ले गया।

    मैं घबराई हुई नहीं हूँ। सुबह से एक अफ़साना लिख रही थी। एक जगह पेचीदगियाँ पैदा हो गईं तो सोचने के लिए इधर निकल आई। क्या अपने अफ़साने का प्लाट आप को सुनाऊँ। आप कोई राय दे सकेंगे?

    ज़हे नसीब! चश्मी ने कहा, मगर मैं साइब उल राय नहीं। वैसे अफ़साने बड़े दिलचस्पी से पढ़ता हूँ, फ़रमाइए।

    तो सुनिए! मैंने कहा, मगर अफ़साना कुछ ज़्यादा रंगीन है, आप मुझपर उरयाँ-बयानी का इल्ज़ाम तो लगाएंगे।

    मेरी मजाल नहीं। मैं मोपासाँ के अफ़साने पढ़ चुका हूँ। चश्मी ने कहा।

    तौबा कीजिए। ये अफ़साना ऐसा नहीं। इसकी उर्यानी में भी ज़िंदगी का दर्द पोशीदा है।

    फ़रमाइए। मैंने एहतियातन एक दफ़ा और कहा, मुझपर शोख़ी का इल्ज़ाम किसी तरह भी नहीं लग सकता क्योंकि ये प्लाट मेरा अपना नहीं। मैंने कहीं से लिया है। इसलिए इसकी कोई ज़िम्मेदारी मुझपर नहीं बल्कि उसके मुसन्निफ़ पर आइद होती है।

    बिल्कुल। मैं कहने लगी, अफ़साना दो मर्दों और एक औरत से शुरू होता है। उफ़! चश्मी ने कहा, ये प्लाट बड़ा ख़तरनाक होता है। ज़माना-ए-क़दीम में...

    ठहरिए। देखिए चश्मी साहब! पहले आप प्लाट सुन लें फिर आप से आपकी राय पूछी जाएगी।

    बहुत अच्छा!

    तो एक औरत और दो मर्द। औरत उस मर्द से बे-परवाह है जो उससे मोहब्बत करता है... मर्द उस औरत को नहीं चाहता... जिससे ये औरत मोहब्बत करती है। तो ऐसे मौक़े पर औरत को क्या करना चाहिए? चश्मी कहीं दूर हरी-हरी दूब के उस पार सुनहरी लहरों को देख रहे थे। मैं ज़ूद-फ़हम नहीं हूँ। एक दफ़ा फिर आसान ज़बान में खोल कर फ़रमाइए।

    खोल कर! ये ज़ालिम इस किताब को खोल कर पढ़ना चाहता है! आह... मैं बोली, आप नहीं समझे। औरत उस मर्द को चाहती है जिसके मुतअल्लिक़ उसे ख़ुद ख़बर नहीं कि वो मर्द भी उससे मोहब्बत कर रहा है या नहीं और उस मर्द को नहीं चाहती जिसके मुतअल्लिक़ उसे इल्म है कि वो उससे मोहब्बत कर रहा है। मैं किसी क़दर काँप रही थी। अब मैं समझ गया। चश्मी ने दूर कहीं फ़िज़ा में तकते हुए कहा।

    तो फिर ऐसे मौक़े पर औरत को क्या करना चाहिए?

    मगर सवाल ये है। चश्मी कहने लगे, औरत जिस मर्द को चाहती उसके मुतअल्लिक़ उसके पास इस बात का सबूत क्या है कि वो मर्द भी उसपर जान नहीं दे रहा।

    क्या... क्या? बे-साख़्ता मैं बोल पड़ी। मेरे चेहरे पर सुर्ख़ी दौड़ गई,आप ने क्या कहा? वो मर्द? चश्मी के चेहरे पर बेचैनी और इज़्तिराब की अलामात नमूदार हुईं, कहने लगे, मैं... मैं ये अर्ज़ कर रहा था कि अपने महबूब से औरत को गुमान होने के असबाब क्या हैं?

    वाक़ई मेरे पास इसका कोई जवाब था। बे इख़्तियार मेरे मुँह से निकल गया, तो... तो क्या वो मर्द भी। इतना कह कर मैं यक लख़्त रुक गई, हाँ तो आप चुप क्यों हो गईं? पूरा प्लाट सुना डालिये।

    ख़त्म होगया। मैंने कहा, बस इतनी ही बात पूछनी थी। आज कई दिन से इस प्लाट को सोच रही थी कि ऐसे मौक़े पर औरत को क्या करना चाहिए? क्या वो मर्द भी... उससे मोहब्बत करता है...?

    मेरी आवाज़ लरज़ गई। मेरा चेहरा केले के नौख़ेज़ पत्ते की तरह ज़र्द पड़ गया। हाय कभी काहे को मैंने ऐसी मुसीबतें उठाई थीं? मेरे माबूद मुझपर रहम कर। चश्मी ने एक गहरी साँस ली। उनके चेहरे पर फ़िक्र मंदी के आसार थे। संजीदा लहजे में बोले, तो क्या औरत को उस दूसरे मर्द से जिसकी मोहब्बत का उसे यक़ीन नहीं, वाक़ई मोहब्बत है।

    हाय, हाँ। शदीद-शदीद है चश्मी साहब! मेरे मुँह से निकल गया। फिर मैं सहम गई। ये क्या होरहा है। दुआ के पैराए में मेरे होंटों से इक आह निकल गई, इश्क़! निसवानी ख़ुददारी को इस तरह पामाल करो। ये सच है कि तेरे आहनी हाथों ने शाहंशाहों के ताज चकनाचूर कर दिए मगर एक बेबस मज़लूम लड़की पर रहम कर। आह मोहब्बत की मजबूरियाँ!

    बड़ी देर तक हम ख़ामोश रहे। नारंजी रंग का बड़ा सा आफ़ताब समुंदर की लहरों में ग़र्क़ होने लगा। बाग़ पर एक अफ़सुर्दगी सी छा गई। मैंने डरते-डरते चश्मी की तरफ़ देखा। उसका चेहरा सफ़ेद होरहा था। उनकी गहरी नीली आँखें उदास नज़र रही थीं। लेकिन दफ़्अतन उन्होंने कहा, आप ने अफ़साना के तीसरे फ़र्द के मुतअल्लिक़ कुछ नहीं पूछा। उसका क्या होगा? मैं बौखला सी गई। ग़मनाक लहजे में बोली, ये एक ना-मुकम्मल प्लाट है चश्मी साहब। मैं उसे ख़त्म नहीं कर सकी। नहीं मालूम... इस प्लाट के इख़्तिताम पर कितनी ज़िंदगियों का इनहिसार है। मेरी आँखों में आँसू भर आए। झट मैंने चेहरा दूसरी तरफ़ फेर लिया।

    ऐसे प्लाट उमूमन बहुत मुश्किल होते हैं ख़ातून रूही! बहर हाल ऐसी अफ़सानवी बातों पर आप ज़ियादा ग़ौर फ़रमाया कीजिए।

    शे'र और अफ़साना तो मेरी जान है और इसपर ग़ौर करना मेरी ज़िंदगी। मैंने ब-मुश्किल कहा और उठ खड़ी हुई। चलिए दादी जान चाय पर इंतिज़ार कर रही होंगी।

    स्रोत:

    Gulistan Aur Bhi Hain (Pg. 272)

    • लेखक: हिजाब इम्तियाज़ अली
      • प्रकाशक: मुजीब अहमद ख़ाँ
      • प्रकाशन वर्ष: 2008

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