तन्हाई पर शेर
क्लासिकी उर्दू शाइरी
में तन्हाई का संदर्भ प्रेम का पारंपरिक सौंदर्य है । क्लासिकी शाइरी का महबूब जब मिलन से इनकार करता है तो उस का आशिक़ विरह के दुख से गुज़रता है । अब केवल महबूब की याद उस के जीवन को सहारा देती है । तन्हाई और एकाकीपन के अर्थों का विस्तार उर्दू की आधुनिक शाइरी में होता है और अब इश्क़-ओ-मोहब्बत से आगे का सफ़र तय होता है । आधुनिक शाइरी में तन्हाई कभी मशीनी ज़िंदगी का रूपक बनती है तो कभी इंसान के अपने अस्तित्व और ख़ाली-पन को विषय बनाती है । यहाँ प्रस्तुत संकलन से आप को उर्दू शाइरी के ट्रेंड को समझने में मदद मिलेगी ।
यादों का इक हुजूम था तन्हा नहीं थी मेरी ज़ात
ख़ुद-कलामी में हुई तमाम शब उन्हीं से बात
भीड़ तन्हाइयों का मेला है
आदमी आदमी अकेला है
तन्हाई की दुल्हन अपनी माँग सजाए बैठी है
वीरानी आबाद हुई है उजड़े हुए दरख़्तों में
शहर में किस से सुख़न रखिए किधर को चलिए
इतनी तन्हाई तो घर में भी है घर को चलिए
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
व्याख्या
उर्दू शायरी में यूँ तो तन्हाई कोई नया मौज़ू नहीं है लेकिन हर शायर की तन्हाई अलग रंग की होती है, बुनियादी जज़्बात दर अस्ल एक से होते हैं मगर एक ही ख़मीर अलग अलग साँचे में ढल कर जुदा जुदा रूप में ज़ाहिर होता है।
ग़ालिब का ये शेर देखिए, ये शेर तन्हाई के कर्ब को एक अलग ही शिद्दत देता है।
तन्हा होने पर इंसान का वक़्त काटना मुश्किल हो जाता है, ये ज़ाहिर सी बात है।
लेकिन तन्हाई में जब किसी की जुदाई शामिल हो, तब वो तन्हाई इंसान को कितनी गिराँ गुज़रती है ये देखिए,
काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई न पूछ
तन्हाई में वक़्त गुज़ारने की मुश्किलें न पूछ, मुश्किलों को झेलना काव-काव से ज़ाहिर किया है।
काव-काव यानी खोदना, काविश लफ़्ज़ इसी से जुड़ा है।
इस शेर में काव-काव की आवाज़ भी ख़ूब काम कर रही है, बेख़ुद मोहानी के नज़दीक ग़ालिब ने इसे ऐसे इस्तिमाल किया है कि यह इस्म-ए-सौत बन गया है और इसे ग़ालिब की ही ईजाद कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी में इसी को आनामाटापिया कहते हैं हालाँकि न ये पूरी तरह इस्म-ए-सौत है न ही आनामाटापिया।
इस से हमें एक इशारा भी मिलता है, तन्हाई की ज़िंदगी काटना इतना मुश्किल है जैसे लगातार पत्थर खोदना।
खोदने या पत्थर तोड़ने से बहुत मुमकिन है कि हमारा ज़हन उस किरदार की तरफ़ जाए जिस का नाम भी इसी वजह से "कोहकन" है।
पहले मिसरे से हमें कोहकन की तरफ़ हल्का सा इशारा मिलता है, अगला मिसरा देखिए,
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
अब अगर आप कोहकन (फ़रहाद) के क़िस्से से वाक़िफ़ हैं तो शेर में जो तल्मीह है वो समझ चुके होंगे।
वाक़िफ़ नहीं हैं तो मुख़्तसर क़िस्सा ये है कि फ़रहाद के शीरीं से मिलने की शर्त रखी गयी थी।
शर्त थी कि फ़रहाद अगर पहाड़ खोद-तोड़ कर जू-ए-शीर यानी दूध की नदी इस पार ले आएगा तो शीरीं उस की होगी।
फ़रहाद पहाड़ खोद कर जू-ए-शीर तो ले आया लेकिन उससे कहा गया कि शीरीं मर चुकी है, ये ख़बर सुनते ही फ़रहाद भी अपने सर पर तेशा मार कर मर गया।
फ़रहाद को इसी वाक़ेऐ के बाद कोहकन कहा जाने लगा।
ग़ालिब ने ख़ुद को फ़रहाद की जगह रखा है। शाम से सुब्ह तक के वक़्त को पहाड़ माना है, अब इस शाम से अगली सुब्ह तक पहुँचना मानो फ़रहाद का पहाड़ तोड़ना ही है।
जोश मलीहाबादी कहते हैं कि इस में एक नुक्ता यह भी है कि फ़रहाद पहाड़ तोड़ने के बाद मर गया था, तो एक इशारा ये भी है कि शाम से सुब्ह करने में अब जान ही जाएगी।
सब समझ कर शे'र को फिर से पढ़िए और देखिए कि लुत्फ़ दो-बाला हुआ कि नहीं?
काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई न पूछ
सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
प्रियंवदा इल्हान
ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तन्हाई
कि मुझ से आज कोई बद-गुमाँ नहीं होता
किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती
है यही एक ख़राबी मिरी तन्हाई की
मैं किस से करता यहाँ गुफ़्तुगू कोई भी न था
नहीं था मेरे मुक़ाबिल जो तू कोई भी न था
सारी दुनिया हमें पहचानती है
कोई हम सा भी न तन्हा होगा
कितने चेहरे कितनी शक्लें फिर भी तन्हाई वही
कौन ले आया मुझे इन आईनों के दरमियाँ
कोई क्या जाने कि है रोज़-ए-क़यामत क्या चीज़
दूसरा नाम है मेरी शब-ए-तन्हाई का
कमरे में मज़े की रौशनी हो
अच्छी सी कोई किताब देखूँ
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
कैसी तन्हाई टपकती है दर ओ दीवार से
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है
पंछी सारे पेड़ से उड़ जाएँगे
सहन में इक ख़ामुशी रह जाएगी
इस बुलंदी पे बहुत तन्हा हूँ
काश मैं सब के बराबर होता
अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है
किस क़दर बद-नामियाँ हैं मेरे साथ
क्या बताऊँ किस क़दर तन्हा हूँ मैं
सर-बुलंदी मिरी तंहाई तक आ पहुँची है
मैं वहाँ हूँ कि जहाँ कोई नहीं मेरे सिवा
उदासियाँ हैं जो दिन में तो शब में तन्हाई
बसा के देख लिया शहर-ए-आरज़ू मैं ने
यादों के शबिस्तान में बैठा हुआ साइल
तन्हा जो नज़र आता है तन्हा नहीं होता
मैं तो तन्हा था मगर तुझ को भी तन्हा देखा
अपनी तस्वीर के पीछे तिरा चेहरा देखा
मुझे तन्हाई की आदत है मेरी बात छोड़ें
ये लीजे आप का घर आ गया है हात छोड़ें
अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ
भीड़ के ख़ौफ़ से फिर घर की तरफ़ लौट आया
घर से जब शहर में तन्हाई के डर से निकला
पुकारा जब मुझे तन्हाई ने तो याद आया
कि अपने साथ बहुत मुख़्तसर रहा हूँ मैं
मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर हर तरफ़ हैं
मगर हर शख़्स तन्हा जा रहा है
यादों की महफ़िल में खो कर
दिल अपना तन्हा तन्हा है
ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
ये कैसे लोग हैं जिन को घरों से डर नहीं लगता
ज़रा देर बैठे थे तन्हाई में
तिरी याद आँखें दुखाने लगी
दरिया की वुसअतों से उसे नापते नहीं
तन्हाई कितनी गहरी है इक जाम भर के देख
जम्अ करती है मुझे रात बहुत मुश्किल से
सुब्ह को घर से निकलते ही बिखरने के लिए
यूँ रात गए किस को सदा देते हैं अक्सर
वो कौन हमारा था जो वापस नहीं आया
हवा की डोर में टूटे हुए तारे पिरोती है
ये तन्हाई अजब लड़की है सन्नाटे में रोती है
मैं सोते सोते कई बार चौंक चौंक पड़ा
तमाम रात तिरे पहलुओं से आँच आई
मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ
मेरा कर्ब मिरी तन्हाई की ज़ीनत
मैं चेहरों के जंगल का सन्नाटा हूँ
सिमटती फैलती तन्हाई सोते जागते दर्द
वो अपने और मिरे दरमियान छोड़ गया
तू मेरे साथ नहीं है तो सोचता हूँ मैं
कि अब तो तुझ से बिछड़ने का कोई डर भी नहीं
शहर की भीड़ में शामिल है अकेला-पन भी
आज हर ज़ेहन है तन्हाई का मारा देखो
हम अंजुमन में सब की तरफ़ देखते रहे
अपनी तरह से कोई अकेला नहीं मिला
ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर गए होते
व्याख्या
यह शे’र उर्दू के मशहूर अशआर में से एक है। इसमें जो स्थिति पाई जाती है उसे अत्यंत एकांत अवस्था की कल्पना की जा सकती है। इसके विधानों में शिद्दत भी है और एहसास भी। “सर्द रात”, “आवारगी” और “नींद का बोझ” ये ऐसी तीन अवस्थाएं हैं जिनसे तन्हाई की तस्वीर बनती है और जब ये कहा कि “हम अपने शहर में होते तो घर गए होते” तो जैसे तन्हाई के साथ साथ बेघर होने की त्रासदी को भी चित्रित किया गया है। शे’र का मुख्य विषय तन्हाई और बेघर होना और अजनबीयत है। शायर किसी और शहर में है और सर्द रात में आँखों पर नींद का बोझ लिये आवारा घूम रहा है। स्पष्ट है कि वो शहर में अजनबी है इसलिए किसी के घर नहीं जा सकता वरना सर्द रात, आवारगी और नींद का बोझ वो मजबूरियाँ हैं जो किसी ठिकाने की मांग करती हैं। मगर शायर की त्रासदी यह है कि वो तन्हाई के शहर में किसी को जानता नहीं इसीलिए कहता है कि अगर मैं अपने शहर में होता तो अपने घर चला गया होता।
शफ़क़ सुपुरी
इक आग ग़म-ए-तन्हाई की जो सारे बदन में फैल गई
जब जिस्म ही सारा जलता हो फिर दामन-ए-दिल को बचाएँ क्या
तिरी यादों से महका है मेरी तन्हाई का आलम
क़यामत तक इन्हीं तन्हाइयाँ में डूबना चाहूँ
ज़मीं आबाद होती जा रही है
कहाँ जाएगी तन्हाई हमारी