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क्लब

MORE BYशफ़ीक़ुर्रहमान

    यह उन दिनों का ज़िक्र है जब मैं हर शाम क्लब जाया करता था। शाम को बिलियर्ड रुम का इफ़्तिताह हो रहा है। चंद शौक़ीन अंग्रेज़ मेंबरों ने ख़ासतौर पर चंदा इकट्ठा किया... एक निहायत क़ीमती बिलियर्ड की मेज़ मँगाई गई। क्लब के सबसे मुअज़्ज़िज़ और पुराने मेंबर रस्म-ए-इफ़्तिताह अदा कर रहे हैं।

    पहले एक मुख़्तसर सी तक़रीर हुई। फिर मेज़ की सब्ज़ मख़मल पर छोटी सी गेंद रख दी गई और उन बुजु़र्गवार के हाथ में क्यू दिया गया कि गेंद से छु दें, लेकिन उन्होंने अपने तुर्रे को चंद मर्तबा लहराया। मूंछों पर हाथ फेरा। चंद क़दम पीछे हटे और फिर दफ़्अतन किसी बैल के जोश-ओ-ख़रोश के साथ हमला आवर हुए। सबने देखा कि मेज़ का क़ीमती कपड़ा निस्फ़ से ज़्यादा फ़ट चुका है और क्यू अंदर धँस गया है। कुछ देर ख़ामोशी रही फिर एक बच्चा बोला, “अब्बा जान आप ख़ामोश क्यों हैं? आप (OPENING CEREMONY) के ख़्वाहिशमंद थे। उन्होंने उस डंडे की नोक से मेज़ OPEN कर तो दिया है और क्या चाहिए?”

    एक जगह ग़दर मचा हुआ है। बच्चे चीख़ रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। बिल्कुल ही नज़दीक चंद मुअम्मर हज़रात इस संजीदगी से अख़बार पढ़ रहे हैं जैसे कुछ भी नहीं हो रहा। एक खेल खेला जा रहा है। एक बच्चा ग्रामोफोन पर रिकार्ड रखता है, लेकिन रिकार्ड बजाया नहीं जाता सिर्फ़ घुमाया जा रहा है। एक और बच्चा बाजे के गिर्द भाग भाग कर घूमते हुए रिकार्ड के अलफ़ाज़ पढ़ने की कोशिश कर रहा है। सब बच्चे तालियाँ बजा रहे हैं। एक बच्चा अपने कोट के कालर में गोभी का छोटा सा फूल लगा कर आया है। चंद बच्चों ने क्लब के सारे कैलेंडर उलट-पलट कर देना, ग़लत तारीखें लगा देना और कलाकों की सूइयां ऊपर नीचे कर देना अपना फ़र्ज़ तसव्वुर कर रखा है। एक बच्चा एक तन्हा कमरे में बैठा बड़ी संजीदगी से गा रहा है,

    शबाब आया किसी बुत पर फ़िदा होने का वक़्त आया

    एक बच्चा बाहर गेट के पास ख़्वांचे वाले से मह्व-ए-गुफ़्तुगू है,

    “तुम्हारे पास शकर क़न्दियाँ हैं?”

    “नहीं, शकर क़न्दियाँ तो नहीं हैं।”

    “खीरे हैं?”

    “नहीं, मगर संगतरे हैं।”

    “और ककड़ियाँ?”

    “ककड़ियाँ नहीं, मगर केले हैं।”

    “और गंडेरियां?”

    “नहीं, लेकिन सेब हैं।”

    “तो कह क्यों नहीं देते कि तुम्हारे पास फ्रूट बिल्कुल नहीं हैं।”

    चंद बच्चे बैठे बड़ों का मज़ाक़ उड़ा रहे हैं। एक बच्चा कह रहा है कि इन लोगों की ये हालत है कि अगर उन्हें कोई लतीफ़ा सुनाओ तो सुन चुकने के बाद पूछते हैं कि फिर क्या हुआ? दूसरा बच्चा कह रहा है कि चंद साल पहले उसके अब्बा उसे एक आना देकर फ़रमाया करते थे कि जाओ बेटा ऐश करो।

    “अब बताइए एक आने में क्या हो सकता है?”

    एक बच्चे को दुकानदार ने एक रुपया रेज़गारी देते वक़्त जल्दी में सत्रह आने दे दिए हैं। मगर बच्चे को यक़ीन है कि इस सौदे में भी उसने कुछ बचा लिया होगा, आख़िर को दुकानदार था। एक कमरे में कुछ हज़रात और उनके लख़्त-ए-जिगर और नूर चश्म बैठे हैं। एक साहब अपनी खींची हुई तस्वीरें दिखा रहे हैं। उनके बच्चे ने उछल कर एक तस्वीर छीन ली और नारा लगाया, “अब्बाजान ये आदमी मामूं जान से कितना मिलता है।”

    “बिल्कुल नहीं मिलता।”

    “कितना तो मिलता है... फ़क़त उसके कान ज़रा लंबे हैं और नाक ज़रा छोटी है, बस।”

    “बेटे, नहीं मिलता।”

    “नहीं अब्बाजान... आप ग़ौर से देखिए। बस उसके होंट ज़रा मोटे हैं। आँखें ज़रा भैंगी हैं और माथा ज़रा छोटा है... बाक़ी तो हूबहू मामूं जान से मिलता है। और ये आदमी कुर्सी पर क्यों नहीं बैठा, पैदल क्यों खड़ा है?”

    उनकी एक तस्वीर हिल गई है, मगर वो साहब फ़रमा रहे हैं कि उनका कैमरा हरगिज़ नहीं हिला।

    “आपका कैमरा नहीं हिला तो बैकग्रांऊड हिल गया होगा या ये इमारत हिल गई होगी।” एक बच्चा कहता है।

    “इमारत किस तरह हल सकती है?” एक और बच्चा पूछता है।

    “ज़लज़ले से सब कुछ हिल सकता है।” एक बरखु़र्दार बयान देते हैं।

    “अब्बा जान।” एक तरफ़ से आवाज़ आती है।

    “हाँ बेटा।” उसके वालिद बड़ी मुहब्बत से कहते हैं।

    “आपके माथे पर ये जो झुर्रियाँ हैं उन पर इस्त्री नहीं हो सकती क्या?”

    एक और साहब मग़रिबी मुसन्निफ़ों का ज़िक्र फ़रमा रहे हैं। ओहेनरी का ज़िक्र हो रहा है। एक बरखु़र्दार पूछते हैं, “अब्बा जान ये ओहेनरी कुछ यूं मालूम नहीं होता जैसे अबे ओहेनरी?”

    किसी ने एक बड़ा सा सिगरेट लाइटर निकाला। उस पर एक साहबज़ादे चिल्लाए, “अब्बा जान, इतना बड़ा सिगरेट लाइटर आपने कभी देखा? ज़रूर ये हुक़्क़े के लिए होगा।”

    “और ये दोनों शादा शुदी मालूम होते हैं। शायद बयाँ मीवे हैं?” एक बच्चे ने तस्वीर हाथ में लेकर कहा।

    “हाँ, ये ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करने जा रहे थे कि मैंने तस्वीर उतार ली।” वालिद-ए-माजिद बोले।

    “अब्बा जान, लोग ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करते वक़्त अपने घर से चीज़ें ले जा कर बाज़ार में फ़रोख़्त भी करते होंगे?” उसने पूछा।

    इतने में एक बैरे ने आकर एक साहब से दरयाफ़्त किया, “आप खाना यहीं खाएंगे?”

    “हाँ, मगर अंग्रेज़ी खाना नहीं खाऊंगा।”

    “उर्दू खाना खाऊंगा।” एक बच्चे ने लुक़मा दिया।

    “कैसे बेहूदा बैरे हैं।”

    “अब्बाजान, हूदा आदमी भी तो होते होंगे जो निहायत अच्छे होंगे।”

    एक गोशे में चंद बच्चे किताबें खोले बैठे हैं। तारीख़ का मुताला हो रहा है।

    “पानीपत की लड़ाई में मरहटों का क्या निकल गया?” एक ने पूछा।

    “भुरकस।”

    “और अलाउद्दीन खिलजी के ज़माने में क्या चीज़ आम थी?”

    “तवाइफ़-उल-मलूकी।”

    “अकबर ने रिश्वत का क्या कर दिया?”

    “क़िला क़ुमा।”

    “बड़े ज़हीन लड़के हैं।” एक बुज़ुर्ग फ़रमाते हैं, “क्यों मियां साहबज़ादे, इम्तहान में कितने नंबर लोगे?”

    “जी मैं यूनीवर्सिटी में सेकेंड आऊँगा।”

    “सेकेंड क्यों? फ़र्स्ट क्यों नहीं?”

    “जी फ़र्स्ट एक और लड़का आएगा जो मेरा हमजमाअत है।”

    एक बुज़ुर्ग रात भर इबादत करते हैं। उनके साहबज़ादे जो हिसाब पढ़ रहे हैं कहते हैं, “अब्बा जान आप अल्लाह मियां, अल्लाह मियां इतनी मर्तबा क्यों दोहराते हैं? यूं क्यों नहीं करते कि दोनों हाथ उठा कर कह दिया करें, “अल्लाह मियां ज़रब एक लाख।” उन्होंने स्लेट पर लिख कर भी दिखाया (अल्लाह मियां x100000) बस उसके बाद आराम से सो जाया करें।”

    और बुज़ुर्ग हैं कि अपने नूर चश्मों, राहत जानों की बातें सुन सुनकर फ़ख़्र से फूले नहीं समाते।

    “अब्बा जान, बादलों की बिजली और पंखे की बिजली में क्या फ़र्क़ है?”

    “मैंने साइंस नहीं पढ़ी थी।”

    “अब्बा जान, ख़त-ए-इस्तिवा तो काफ़ी बड़ी सारी चीज़ होगी। दूर से नज़र आती होगी?”

    “पता नहीं।”

    “अब्बा जान, इस्किमो तो ख़ूब आइसक्रीम बना बना कर खाते होंगे?”

    “पता नहीं, मुझे जुग़राफ़िया पढ़े देर हो गई है।”

    “अब्बा जान, तोप किस तरह चलाते हैं?”

    “पता नहीं।”

    “अब्बा जान, अगर।”

    “हाँ हाँ, बेटा।”

    “अच्छा, जाने दीजिए।”

    “जाने क्यों दीजिए? (चिल्ला कर)तुम सवाल पूछने से क्यों हिचकिचाते हो? अगर सवाल नहीं पूछोगे तो सीखोगे ख़ाक। तुम्हारे इल्म में क्योंकर इज़ाफ़ा होगा।”

    चंद बच्चे सूइयों और मेख़ों से मुसल्लह हो कर चुपके चुपके मोटरों की तरफ़ जा रहे हैं। मैं बेतहाशा भागता हूँ। अपनी साइकिल बचाने जिसमें सुबह सुबह पंक्चर लगवाया था।

    आज रात ख़ास तक़रीब है। एक बहुत बड़े आमिल अपने कमालात का मुज़ाहरा करने वाले हैं।

    “मैं अपने दिल की हरकत बंद करदूंगा। ये अतीया मुझे तिब्बत की पहाड़ियों में एक सन्यासी से मिला था। ऐसे दरवेश से जिनकी उम्र छः सौ बरस थी, जिनकी मैंने बीस साल ख़िदमत की थी।” वो हाल कमरे के वस्त में खड़े हो कर छत पर नज़रें गाड़ देते हैं। और बुत बन जाते हैं। कमरे में मुकम्मल ख़ामोशी है। वो ज़ेर-ए-लब बड़बड़ाने लगते हैं। फिर उनके दीदे मटकने लगते हैं। अलफ़ाज़ ऊंचे हो जाते हैं। वो एक बिल्कुल अजीब-ओ-ग़रीब इबारत पढ़ रहे हैं। देखते देखते वो सकते में आजाते हैं और धड़ाम से ग़श खा कर गिर पड़ते हैं। फिर उठकर एक सोफ़े पर बैठ जाते हैं और दोनों हाथ फैला कर मरी हुई आवाज़ में कहते हैं, “ख़वातीन-ओ-हज़रात, मेरे क़ल्ब की हरकत थम गई है। आप मेरी नब्ज़ें देख सकते हैं।” सब ने उनकी नब्ज़ें टटोलीं, बिल्कुल साकिन थीं।

    क्लब के सेक्रेटरी जो एडिशनल जज थे, हेड बैरे पर ख़फ़ा हो रहे थे कि टेनिस के मैदान की घास क्यों नहीं काटी गई।

    “रोलर क्यों नहीं फेरा गया? इतने आदमी क्यों रखे हुए हैं? दो बैल क्यों रखे हैं? रोलर के लिए एक बैल काफ़ी है। दूसरा क्या करता है?”

    “दूसरा एडिशनल बैल है।” जवाब मिला।

    बैरा तनख़्वाह में इज़ाफ़ा चाहता है। “इस वक़्त जब कि दुनिया के हर गोशे में बेदारी फैल रही है और मज़दूर तबक़े को सब आँखों पर बिठा रहे हैं, इतनी थोड़ी तनख़्वाह बिल्कुल मज़हकाख़ेज़ मालूम होती है। मेरी तनख़्वाह ज़्यादा होनी चाहिए, वर्ना...”

    “अच्छा देखेंगे, चेयरमैन साहब से कहेंगे।”

    “आप हमेशा यही कहते हैं। मैं कहता हूँ मेरी तनख़्वाह बढ़नी चाहिए। वर्ना...”

    “कुछ देर इंतज़ार करो।”

    “हरगिज़ नहीं। मेरी तनख़्वाह बढ़नी चाहिए, वर्ना...”

    “वर्ना, वर्ना क्या करोगे?”

    “वर्ना... (सर खुजाते हुए) वर्ना परशियन गल्फ़ या मिडल ईस्ट की तरफ़ निकल जाऊँगा।”

    वो देर तक बड़बड़ाता रहा। मुझे देखकर उसने अपना दुखड़ा रोना शुरू कर दिया कि चेयरमैन ऐसे हैं, सेक्रेटरी ऐसे हैं, मेंबर ऐसे हैं। इस क़िस्म के मेहमानों को साथ लाते हैं। “अब आज जो ये जादूगर साहब तशरीफ़ लाए हैं। ये अपनी तरफ़ से बड़ा कमाल दिखा रहे हैं। मैंने ख़ुद देखा है कि उनकी बग़लों में दो टेनिस की गेंदें दबी हुई हैं। जब कंधे दबाते हैं तो बाज़ुओं में ख़ून जाना बंद हो जाता है और नब्ज़ें बंद हो जाती हैं। इस तरह कौन नहीं कर सकता।”

    साथ के कमरे में चीज़ें पकाई जा रही हैं और बैरे मेंबरों पर तब्सिरा कर रहे हैं। मैं भी मेंबर हूँ, लिहाज़ा मैं ये सब सुनना नहीं चाहता।

    “ज़रा मेरी बरसाती तो उठा लाना।” मैं अपनी घड़ी देखते हुए कहता हूँ।

    “किस रंग की है?”

    “सब्ज़-रंग की।”

    “सब्ज़-रंग की? (कुछ देर सोच कर) ओह आपका मतलब है ग्रीन बरसाती, अच्छा लाता हूँ।”

    चांदनी छिटकी हुई है। मैं क्लब के बाग़ में टहल रहा हूँ। एक ख़ुशनुमा कुंज से कुछ आवाज़ें आरही हैं। मैं दबे-पाँव जाकर देखता हूँ। बेंच पर एक लड़की बैठी है। सामने एक घुटना घास पर टेके एक लड़का है। उसका एक हाथ अपने दिल पर है और दूसरा हवा में लहरा रहा है। निहायत रूमान अंगेज़ फ़िज़ा है।

    “मैं शादी का वादा तो नहीं करती। सिर्फ़ इतना कह सकती हूँ कि आप सेमी फाइनल्ज़ में आगए हैं।”

    “अपने पुराने रफ़ीक़ से ऐसी बेरुख़ी?”

    “पुराने रफ़ीक़, ख़ूब... पुराने रफ़ीक़ क्या, आप मेरे नए रफ़ीक़ भी नहीं हैं।”

    “लेकिन तुम्हें मुझसे मुहब्बत तो है।”

    “ये आपको किस ने बताया? मुहब्बत तो एक तरफ़ रही मुझे आपसे बाक़ायदा नफ़रत भी नहीं है।”

    “मैं तुम्हें किस तरह यक़ीन दिलाऊँ कि जब मैं तुम्हारे अनार के दानों जैसे दाँत, चेरी जैसे होंट, सेब जैसे गाल...”

    “यह किसी लड़की का ज़िक्र हो रहा है या फ्रूट सलाद का।”

    “क्या बताऊं? बस समझ लो कि मुझे इज़हार-ए-मोहब्बत के लिए अलफ़ाज़ नहीं मिलते।”

    “तो क्या मैं डिक्शनरी हूँ?”

    “आज मैं तुम्हारा फ़ैसला सुनकर ही जाऊँगा।”

    “मुझे डर है कि मेरा फ़ैसला आपके निज़ाम-ए-आसाबी के लिए मुज़िर साबित होगा। लो सुन लू... हमारी राहें बिल्कुल अलग अलग हैं।”

    “बेशक हमारी राहें अलग अलग हैं... तुम अपनी राह पर जाओ और मैं... मैं तुम्हारी राह पर जाऊं। तुम नहीं समझतीं कि तुम मेरी बेकार ज़िंदगी में कितनी ख़ुशगवार तब्दीलीयां ले आई हो। पहले मेरी ज़िंदगी के उफ़ुक़ पर स्याह बादल छाए रहते थे। बिजलियां कड़कती थीं, आंधियां चलती थीं, तूफ़ान आते थे। तुम्हारे आने पर घटाऐं छंट गईं, फ़िज़ा निखर गई, सूरज निकल आया, हवा के लतीफ़ ख़ुनुक झोंके चलने लगे।”

    “यह इज़हार-ए-मोहब्बत है या मौसम की रिपोर्ट? आख़िर में आपको किस तरह यक़ीन दिलाऊँ कि मैं आपसे शादी नहीं कर सकती।”

    “अच्छा, क्या तुम चंद वजूहात बता सकती हो कि तुम मुझसे शादी क्यों नहीं कर सकतीं?”

    “पहली वजह ये कि आप मुझे पसंद नहीं हैं। दूसरी वजह ये कि आप मुझे पसंद नहीं... तीसरी वजह ये कि आप मुझे पसंद नहीं।”

    “और जो ये मैं इतने अर्से से तुम्हारी नाज़ बर्दारियाँ करता रहा हूँ। पूरे चार साल से तुम्हारे पीछे पीछे फिरता रहा हूँ। ये...”

    “इसके लिए आप क्या चाहते हैं? पेंशन?”

    “क्या तुम्हें सचमुच मेरा ख़्याल नहीं। क्या तुम्हें मैं कभी याद नहीं आता?”

    “सिर्फ़ एक दिन याद आए थे।”

    “किस दिन?”

    “उस दिन मैं चिड़ियाघर गई हुई थी।”

    जब वो वापस जा रहे थे तो लड़की कह रही थी, “आप तो सचमुच नाराज़ हो गए, मैं तो मज़ाक़ कर रही थी।” और लड़का कह रहा था, “तुम जैसी लड़की से शादी करने से बेहतर है कि इंसान किसी मगरमच्छ से शादी कर ले।”

    नौजवानों के झुरमुट में उन्ही हज़रत के मुताल्लिक़ गुफ़्तगू हो रही है।

    “वो इस क़दर ठस तबीयत है कि जब सिर्फ़ मेरे मुताल्लिक़ बातें कर रहा हो तब भी मुझे उकता देता है।”

    “और ख़ुदपसंद इतना है कि जब उसका ऐक्स रे लिया गया तो उसने जल्दी से बाल दुरुस्त किए और मुस्कुराने लगा। बाद में इसरार किया कि एक्स-रे को री टच भी किया जाए। लो वो रहा है।”

    “आओ भई, तुम्हारी ही बातें हो रही थीं। हम सब तुम्हारी तारीफ़ें कर रहे थे। लाओ तुम्हारी हथेली देखें। अरे, ये लकीरें तो कहती हैं कि तुम मुहब्बत में कामयाब रहोगे।”

    “कौन सी मुहब्बत में? कोई एक मुहब्बत हो तो मालूम भी हो।”

    “मुबारकबाद क़बूल हो।”

    “किस बात की?”

    “तुम्हारी शादी हो रही है।”

    “नहीं, मेरी शादी तो नहीं हो रही।”

    “तो फिर तो और भी मुबारकबाद।”

    “दरअसल मेरी माली हालत इजाज़त नहीं देती कि मैं शादी के मुताल्लिक़ सोचूं भी। जब मुस्तक़िल आमदनी की सूरत पैदा होगी, तब सोचेंगे।”

    “तुम ज़रूरत से ज़्यादा मुहतात हो। मेरे ख़्याल में तुम पेंशन मिलने के बाद शादी करना।”

    “दर असल शादी एक लफ़्ज़ नहीं पूरा फ़िक़रा है।”

    “जानते हो मुहब्बत करने वालों का क्या हश्र होता है?”

    “क्या होता है?”

    “उनकी शादी हो जाती है।”

    “शादी के लिए तो बहुत सी चीज़ों की ज़रूरत है।”

    “शादी के लिए सिर्फ़ दो की ज़रूरत है... एक नौ उम्र लड़की और एक बेसब्र माँ।”

    “लेकिन कोर्टशिप किस क़दर पुरलुत्फ़ वक़फ़ा होता है?”

    “कोर्टशिप वो वक़फ़ा है जब लड़का लड़की का तआक़ुब करता है, हत्ता कि वो उसे पकड़ लेती है।”

    “तुम उस लड़की का ज़िक्र क्यों नहीं करते जिससे अभी अभी मिलकर आए हो, क्या बना?”

    “बनना क्या था?”

    “शायद ये पहली निगाह की मुहब्बत है।”

    “हाँ थी तो पहली निगाह की मुहब्बत... लेकिन बाद में मैंने दूसरी और तीसरी निगाह भी डाल ली थी।”

    “वैसे वो लड़की है ख़ूब।”

    “हाँ, हू-ब-हू अपने वालिद का फोटोग्राफ है और अपनी वालिदा का फ़ोनोग्राफ़।”

    “कई साल से अपनी उम्र अठारह बरस बता रही है।”

    “जानते हो औरत की उम्र के छः हिस्से होते हैं। बच्ची, लड़की, नौ उम्र ख़ातून, फिर नौ उम्र ख़ातून... फिर नौ उम्र ख़ातून... फिर नौ उम्र ख़ातून।”

    लड़कियों के झुरमुट में उस लड़की की तारीफ़ें हो रही थीं कि छिछोरी है, बददिमाग़ है, चुग़लियाँ करती रहती है

    “लेकिन हर पार्टी में उसे बुलाया जाता है और हर जगह उसकी तारीफ़ें होती हैं।”

    “वो इसलिए कि उसकी आवाज़ इतनी तेज़ है कि जब वो बोल रही हो तो किसी और की बात सुनाई नहीं देती। यहाँ तक कि उसके सामने रेडियो की आवाज़ भी दब जाती है। वो आगई।”

    “आओ बहन, सुना है तुम्हारी मंगनी होने वाली है।”

    “जी नहीं मेरी मंगनी नहीं हो रही, लेकिन इस अफ़्वाह का शुक्रिया।”

    “लाओ तुम्हारी हथेली देखें। तुम्हारी क़िस्मत में दस मर्तबा फ्लर्ट करना लिखा है (बाछें खिल गईं) चार मर्तबा तुम्हें मुहब्बत होगी (मुस्कुराहट कम हो गई।) और सिर्फ़ एक शादी होगी।” (चेहरा उतर गया)।

    “ओह।”

    “क्यों?”

    “नहीं कुछ नहीं।”

    “क्या तुम कभी अपने ख़्वाबों के शहज़ादे से भी मिलीं। दुनिया के उस मुनफ़रिद शख़्स से, जिससे मिलकर तुम्हें ये महसूस हुआ हो कि तुम और वो महज़ एक दूसरे के लिए पैदा हुए हैं।”

    “हाँ, कई मर्तबा।”

    क्लब में तक़रीरें होंगी। मैं कुछ देर से पहुँचा हूँ। बड़ी रौनक़ है, तालियाँ बज रही हैं। एक साहब ने अभी अभी तक़रीर ख़त्म की है। बहुत सी ख़वातीन आगईं और हमें अगली कुर्सियां ख़ाली करनी पड़ीं। मुझे आख़िरी क़तार में जगह मिली। लोग मुतवातिर बातें कर रहे थे और स्टेज वहाँ से काफ़ी दूर भी थी इसलिए तक़रीर साफ़ सुनाई देती थी। एक ख़ातून तक़रीर फ़रमा रही थीं। तक़रीर कुछ यूं सुनाई दे रही थी,

    “आज का दिन कितना मुबारक है कि मियाऊं... सब ख़वातीन मियाऊं मियाऊं... अज़ीमुश्शान इज्तिमा... ऐसे मौके़ बार-बार नहीं आते। निहायत मुसर्रत का मुक़ाम है। वो दिन गए कि ख़वातीन मियाऊं... मर्द मियाऊं... और दोनों मियाऊं मियाऊं मियाऊं... मैं आपका वक़्त ज़ाए नहीं करना चाहती... साफ़ साफ़ सुनाए देती हूँ। औरत का दर्जा मियाऊं... और अगर ख़ुदा-न-ख़्वास्ता मियाऊं मियाऊं... तो फिर सिर्फ़ मियाऊं... बल्कि मियाऊं मियाऊं मियाऊं। (तालियाँ) वो दिन दूर नहीं है... निस्वानी वक़ार... निस्वानी दुनिया... निस्वानी मियाऊं...और अगर ख़ुदा ने चाहा तो बहुत जल्द मियाऊं मियाऊं। (तालियाँ) मगर मुझे डर है कि मर्दों की बेजा ज़िद, हट धर्मी, अक्खड़पन और मियाऊं मियाऊं। मगर हमें कोई परवाह नहीं। (तालियाँ) माशा अल्लाह मियाऊं मियाऊं... इंशाअल्लाह मियाऊं मियाऊं... सुब्हान-अल्लाह मियाऊं, जज़ाक अल्लाह मियाऊं... अब पानी सर से गुज़र चुका है। मैं इल्तिजा करती हूँ कि सबकी सब मियाऊं मियाऊं मुत्तहिद हो कर... हम-ख़याल हो कर। मियाऊं मियाऊं, हम साबित कर देंगी। प्यारी बहनो... मियाऊं मियाऊं।” (तालियाँ)

    हाज़िरीन ज़ोर ज़ोर से बातें कर रहे हैं। बैरे आरहे हैं, बैरे जा रहे हैं। बच्चे शोर मचा रहे हैं। अब एक हज़रत तक़रीर फ़रमा रहे हैं। बड़ी ख़ूँख़ार मूँछों और भारी पाटदार आवाज़ के मालिक। वो कुछ यूं तक़रीर कर रहे हैं,

    “मुझे बड़ा अफ़सोस है कि भौं-भौं... ज़िद से काम नहीं चलेगा। बाहमी मुफ़ाहमत बाहमी तबादला-ए-भौं-भौं। एक दूसरे की भौं-भौं। और फिर आपस में मिलकर भौं-भौं भों। (तालियाँ) हम सब शराइत मानने को तैयार हैं। हमें मौक़ा मिलना चाहिए। मर्द इतने हट धरम हरगिज़ नहीं हैं। मेरी मानिए तो भौं-भौं। (तालियाँ) देखिए कितने साल गुज़र चुके हैं। मैं हरगिज़ बर्दाश्त नहीं कर सकता कि औरत भौं-भौं... और मर्द भौं-भौं भों... हरजाई पन... तितलियाँ... फ़ैशन... और भौं-भौं। (तालियाँ) ये लाईंहल भौं-भौं। औरतें अब तक अपनी हिफ़ाज़त। मर्दों की तरफ़ देखना पड़ता है। हम मुंतज़िर हैं कि औरतें कब भौं-भौं। (तालियाँ) जब वो वक़्त आया तो सबसे पहले मैं भौं-भौं। (तालियाँ) इसके बाद सारे मर्द भौं-भौं। (तालियाँ) ये मुसावात का मसला बहुत पुराना है। कोई आज की बात नहीं। हालाँकि भों, लेकिन भों, लिहाज़ा भों। ख़ैर भों, तो फिर भौं-भौं भों। (तालियाँ)

    एक कमरे में दो पुख़्ता उम्र के मुअज़्ज़िज़ हज़रात बैठे हैं।

    “जलाली साहब के मुताल्लिक़ आपकी क्या राय है? मेरे ख़्याल में तो वो बेहद वसीअ-उल- क़ल्ब और वसीअ-उल-दिमाग़ और वसीअ-उल-ख़्याल इंसान हैं।”

    “दुरुस्त है। बेहद नेक और बामुरव्वत शख़्स हैं। ऐसे रास्त-गो और नेक ख़सलत इंसान बहुत कम मिलते हैं।”

    “और फिर उनके चेहरे की नूरानी मुस्कुराहट कैसी है, जैसे वली अल्लाह हों।”

    “उस रोज़ आपके हाँ इत्तफ़ाक़ से मुलाक़ात हो गई। शायद वो आपके अज़ीज़ दोस्तों में से हैं।”

    “जी नहीं, हम दोस्त तो नहीं हैं, बस वाक़िफ़ हैं।”

    “मैं उनको आपका अज़ीज़ समझता रहा हूँ, उस दिन इकट्ठे देखा था।”

    “नहीं, वो मेरे अज़ीज़ नहीं हैं। इस रोज़ इत्तफ़ाक़ से मिल गए थे। बल्कि मैं तो ये समझता रहा कि वो आपके वाक़िफ़ हैं।”

    “जी नहीं, ख़ैर तो वो आपके अज़ीज़ नहीं हैं।”

    “उनके मुताल्लिक़ कुछ अफ़्वाहें सुनने में आती रहती हैं, ख़ुदा जाने झूट हैं या सच।”

    “मैंने भी बहुत सी बातें सुनी हैं।”

    “इतने सारे आदमी झूट तो क्या बोलते होंगे, कुछ सदाक़त तो होगी उन अफ़्वाहों में।”

    “मेरे ख़्याल में तो ये अफ़्वाहें दुरुस्त हैं।”

    “अगर सच पूछिए तो वो निहायत ही नामाक़ूल शख़्स है।”

    “बिल्कुल बजा फ़रमाते हैं आप,और साथ ही अव्वल दर्जे का रिश्वतखोर और चुगु़लखोर है।”

    “मेरे ख़्याल में इस क़दर बेहूदा और शरारती इंसान क्लब भर में नहीं होगा।”

    “वाक़ई बेहद मर्दूद और ख़बीस शख़्स है।”

    चंद हज़रात बैठे दूसरे ममालिक की बातें कर रहे हैं। ये काफ़ी सयाहत कर चुके हैं। मैं अजनबी ममालिक के मुताल्लिक़ बहुत सी बातें जानना चाहता हूँ।

    “मशरिक़-ए-वुसता की नुमायां ख़सुसियात क्या हैं?”

    “वहाँ फल बहुत सस्ते हैं। ख़ुसूसन खजूरें तो बहुत अर्ज़ां और मज़ेदार हैं।”

    “सुना है वो बेहद पुरअसरार और रूमान अंगेज़ जगह है। पुराने शहरों में अब भी अलिफ़ लैला का सा माहौल है।”

    “वहाँ सरदे बहुत अच्छे होते और अंगूर तो निहायत ही उम्दा होते हैं। सस्ते और लज़ीज़। दो आने देकर पूरा टोकरा ले लो।”

    “और मिस्र कैसा मुल्क है? फ़िरऔनों के मक़बरे, एहराम, अबु-अल-होल, उनके मुताल्लिक़ बताइए।”

    “इन तारीख़ी मुक़ामात पर ख़्वांचे वाले बहुत फिरते हैं और मुसाफ़िरों को ख़ूब लूटते हैं। हर चीज़ की चौगुनी क़ीमत वसूल करते हैं। उधर ऊंट वाले हर मुसाफ़िर से यही कहते हैं कि क़ाहिरा चलिए। यहाँ से दस मील है, लेकिन आपसे ख़ास रिआयत है। आपके लिए सिर्फ़ पाँच मील।”

    “और शाम फ़लस्तीन? सुना है कि वहाँ जा कर इंजील के सारे वाक़ियात आँखों के सामने फिरने लगते हैं।”

    “वहाँ काश्तकारी बिल्कुल नए तरीक़ों से की जाती है। चारों तरफ़ मशीनें ही मशीनें नज़र आती हैं। मशीनों को भी मशीनें चलाती हैं।”

    “तुर्की में आपने क्या देखा?”

    “वहाँ खाने पीने का इंतज़ाम बहुत अच्छा है। दुनिया के बेहतरीन होटल टर्की में हैं।”

    “और ईरान तो बहुत ही ख़ुशनुमा जगह होगी। सादी और हाफ़िज़ का वतन, मूसीक़ी... फूल... रंगीनियाँ।”

    “वहाँ बादाम और किशमिश निहायत आला दर्जे के मिलते हैं और इस क़दर अरज़ां कि यक़ीन नहीं आता।”

    “और मराक़श।”

    “अगर किसी को कबाब खाने हों तो सीधा मराक़श चलाए जाए। शामी कबाब, चपली कबाब, सीख़-कबाब।”

    कुछ देर के बाद कमरे में हम सिर्फ़ तीन रह जाते हैं। सय्याह जिसका नाम शायद कलीम है, मैं, और एक और हज़रत जो सय्याह साहब पर नाक भौं चढ़ाते रहे हैं। आख़िर वो भी उठकर चले जाते हैं। कुछ देर के बाद पर्दे के पीछे से उन्ही हज़रत की आवाज़ आती है, “वो ख़बीस सय्याह चला गया या नहीं?” मैं घबरा जाता हूँ और जल्दी से जवाब देता हूँ, “जी हाँ, वो ख़बीस सय्याह तो कब का चला गया। इस वक़्त तो यहाँ कलीम साहब बैठे हैं।”

    दूसरे कमरे में साइंस के प्रोफ़ेसर एक बुज़ुर्ग से कह रहे थे, “गाय का दूध एक दम सूख गया है, शायद किसी की नज़र लग गई और मेरा लड़का इम्तहान में लगातार फ़ेल हो रहा है। उन दोनों के लिए तावीज़ दरकार हैं, आप पीर साहब क़िबला से तावीज़ बनवा देंगे ना?”

    “ज़रूर।”

    “तो फिर भूलिए मत। दोनों तावीज़ जल्द भिजवाइए। गाय का तावीज़ और मेरे लड़के का तावीज़।”

    “बहुत अच्छा।”

    एक साहब जो सुन रहे हैं और ग़ालिबन नशे में हैं, नज़दीक आकर ताकीद करते हैं, “और देखिए इस बात का ख़्याल ज़रूर रखिए कि तावीज़ बदल जाएं। कहीं गाय इम्तहान में पास हो जाए और ख़ुदा-न-ख़्वास्ता लड़का...”

    दो मुअम्मर हज़रात बैठे पी रहे हैं।

    “वो सुस्त-उल-वजूद शख़्स दोपहर से बेकार बैठा है। वो जो इस खिड़की में से नज़र रहा है। शायद उसे दुनिया में कोई काम नहीं।”

    “आपको क्या पता, ये दोपहर से बेकार बैठा है?”

    “इसलिए कि मैं ख़ुद दोपहर से उसे देख रहा हूँ।”

    “ये आपका जाम-ए-सेहत है CHEERS।”

    “चियर्स।”

    “मैंने लोगों के जाम-ए-सेहत इस क़दर पिए हैं कि अपनी सेहत ख़राब कर ली है।”

    “ताज्जुब है कि लोग दूसरों की सेहत को महज़ पीते क्यों हैं, खाते क्यों नहीं? मसलन अब मैं एक केक लेकर कहूं, ये रही तुम्हारी सेहत। ये रहा तुम्हारा केक-ए-सेहत, और खाना शुरू कर दूँ।”

    “ये रेडियो पर क्या ऊटपटांग मूसीक़ी हो रही है।”

    “ग़ालिबन पक्का गाना है। आपको फुनूने लतीफ़ा से दिलचस्पी नहीं क्या?”

    “जी है तो सही। मैं हमेशा फुनूने लतीफ़ा की इज़्ज़त करता हूँ, लेकिन फुनूने लतीफ़ा को भी तो कुछ मेरा ख़्याल होना चाहिए। मुझे रक़्स पसंद है। घोड़ा गली, और झीका गली। दोनों क़िस्म के रक़्स पसंद हैं।”

    “ग़ालिबन आपकी मुराद कत्था कली रक़्स से है। ख़ैर उसे छोड़िए, अब मुसव्विरी के मुताल्लिक़...”

    “मुसव्विरी के मुताल्लिक़ ये है कि मुझे उन चीज़ों से बड़ी चिड़ है जिनसे मैं नावाक़िफ़ हूँ।”

    “मुसव्विरी के बारे में मैं भी इतना कम जानता हूँ कि उस पर बहस करते हुए मुझे ग़ुस्सा तक नहीं आता।”

    इतने में बैरा आता है, “डाक्टर साहब आपको सलाम बोलते हैं।”

    “उनसे कहना वअलैकुम अस्सलाम।”

    “मिल आइए उनसे। बड़े क़ाबिल डाक्टर हैं। उनकी काफ़ी प्रैक्टिस है। सालहा साल से प्रैक्टिस कर रहे हैं।”

    “माफ़ कीजिए मैं उनका क़ाइल नहीं जो अब तक प्रैक्टिस ही कर रहे हैं। मैं तो एक्सपर्ट लोगों में एतिक़ाद रखता हूँ।”

    “ये लीजिए। सिगरेट।”

    “शुक्रिया, कौन सा है?”

    “रूसी सिगरेट है। मेरा लड़का फ़्रांस से भेजा करता है। घटिया सिगरेट मैं बिल्कुल नहीं पी सकता। मेरे ख़्याल में सिगरेट के ब्रांड का असर पीने वाले पर ज़रूर पड़ता है। मेरा भतीजा क़ैंची मार्का सिगरेट पिया करता है और हर वक़्त उस की ज़बान कुतर कुतर चलती है। मैं ख़ुद चंद साल पहले कैमल सिगरेट पिया करता था। एक रोज़ मैंने महसूस किया कि सचमुच मेरा क़द बढ़ता जा रहा है। मैंने फ़ौरन वो सिगरेट छोड़ दिया।”

    “आप दुरुस्त फ़रमाते हैं। मेरे एक दोस्त बिल्कुल दुबले पतले थे। जब से उन्होंने हाथी मार्का सिगरेट पीने शुरू किए, वो इस क़दर मोटे हो गए हैं कि पहचाने नहीं जाते।”

    “वैसे ये रूसी सिगरेट पीते पीते बा’ज़-औक़ात महसूस होता है कि मैं कम्युनिस्ट बनता जा रहा हूँ। लेकिन ये निरा वहम ही होगा।”

    “ग़ालिबन हम फ़ुनून-ए-लतीफ़ा का ज़िक्र कर रहे थे। क्या आपको शायरी से भी दिलचस्पी है?”

    “मैं तो शायरी पर मफ़्तून हूँ। मुझे फ़ारसी शायरी बहुत पसंद है। वो क्या शे’र है,

    मेज़पोश लब-ए-बाम नज़र मी आयेद

    ज़ोरे ज़ारे ज़र मी आयेद।”

    “क्या कहने हैं फ़ारसी शे’रों के। लेकिन अपने शे’र भी कुछ कम नहीं। ग़ालिब का वो शे’र तो आपने सुना होगा,

    कुछ तो खाइए कि लोग कहते हैं

    आज ग़ालिब ग़ज़ल सदा हुआ।”

    “ख़ूब है, और वो किस का शे’र है,

    पेट में दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए

    बैठे-बैठे हमें क्या जाने क्या याद आया।”

    “शायद ये उसी शायर का है जिसका ये है,

    नाहक़ हम लंगूरों पर है तोहमत ख़ुदमुख़्तारी की

    और पता नहीं क्या हुआ कि चाहा जब बदनाम किया।”

    “कल मैंने रेडियो पर एक निहायत दर्दनाक ग़ज़ल सुनी... बिल्लियो मत रो यहाँ आँसू बहाना है मना।”

    “ग़ालिबन फ़िल्मी चीज़ होगी, देखिए इसमें लताफ़त ग़ायब है। आँसू बहाना है मना... यूं मालूम होता है जैसे यहाँ सिगरेट पीना मना है।”

    “आप दुरुस्त फ़रमाते हैं।”

    उसी कमरे में ज़रा दूर दो और हज़रात बैठे हैं। शराब तो एक तरफ़ ये सिगरेट बल्कि लेमोनेड तक नहीं पीते।

    “मैं बरसों से अपने आपको धोका देता रहा हूँ।”

    “कभी आपने अपने आपको धोका देते हुए पकड़ा नहीं?”

    “हरगिज़ नहीं, मैं बहुत चालाक हूँ।”

    “मैं मुद्दतों से सैलून जाना चाहता हूँ। ये मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी आरज़ू है।”

    “तो आपको मना कौन करता है?”

    “आप नहीं समझते, मेरे हालात कुछ तसल्ली बख़श हैं। वैसे हैं बिल्कुल मामूली से, और उनके दुरुस्त होने में कोई ज़्यादा देर भी नहीं लगेगी... फ़क़त मुझे छः लड़कों और पाँच लड़कियों की शादियां करनी हैं, मकान बनवाना है, पुराना क़र्ज़ उतारना है, ज़मीनें ख़रीदनी हैं, छोटी सी जायदाद बनानी है... बस।”

    “मगर सैलून जाने से उनका ताल्लुक़? मेरे ख़्याल में आप अभी वहाँ जा सकते हैं।”

    “जी नहीं, मैं फ़िलहाल वहाँ हरगिज़ नहीं जा सकता। अभी कुछ अरसा लगेगा।”

    “आप अभी जा सकते हैं, इसी वक़्त। मैं ख़ुद आपको अपने साथ सैलून ले चलूँगा। या हम हज्जाम को यहीं क्यों बुलालें।”

    “ओफ़्फो, आपको ग़लतफ़हमी हुई। मैं इस सैलून का ज़िक्र नहीं कर रहा। मैं लंका का ज़िक्र कर रहा हूँ।”

    “ओह, लंका का ज़िक्र। आपने मेरे मुँह की बात छीन ली, मेरी भी यही आरज़ू है। लंका जाना मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी तमन्ना है। मैंने बाक़ी सब तैयारियां कर रखी हैं फ़क़त एक मामूली सी कसर बाक़ी है।”

    “क्या?”

    “फ़क़त रूपों का इंतज़ार है। वैसे मेरा दिल गवाही देता है कि इस साल के इख़्तिताम तक मुझे कहीं से पच्चास साठ हज़ार रुपये ज़रूर मिल जाएंगे।”

    “आपने किसी कारोबार में रुपया लगाया है या हिस्से ख़रीदे हैं?”

    “नहीं तो।”

    “या किसी ने आपसे क़र्ज़ ले रखा है?”

    “नहीं।”

    “तो फिर?”

    “बस वैसे ही मुझे एक अजीब सा एहसास रहता है कि किसी दिन जाते-जाते मुझे रास्ते में पच्चास साठ हज़ार रुपये मिल जाएंगे या किसी रोज़ सुबह उठूँगा तो तकिए के नीचे रुपये रखे होंगे। या कोई चुपके से मेरे कोट की अंदरूनी जेब में रुपये रख जाएगा और जब ये रुपये मिल गए तो मैं सीधा लंका का रुख़ करूँगा... और बक़ीया उम्र वहीं गुज़ारूंगा।”

    “मेरा भी यही प्रोग्राम है। वहाँ तो हम मिला करेंगे। आप वहाँ क्लब कितने बजे आया करेंगे?”

    “यही कोई दोपहर के लगभग... और पाँच बजे वापस चला जाया करूँगा, और आप?”

    “मैं शाम को आया करूँगा, कोई छः बजे के क़रीब।”

    “तब तो मुलाक़ात होनी मुश्किल है। आप ज़रा पहले नहीं सकते?”

    “जी मुश्किल है। अगर आप कुछ देर और ठहर जाया करें। पाँच की बजाए सात बजे चले जाया करें।”

    “क्लब में शाम को शोर-ओ-गुल शुरू हो जाया करेगा। मुझे अफ़सोस है कि मैं इतनी देर तक ना ठहर सकूँगा।”

    “तब तो मैं बहुत उदास रहा करूँगा। काश कि आप कुछ देर और ठहर सकते।”

    “तो आप ही ज़रा जल्दी जाया करें।”

    “शायद में इतनी जल्दी नहीं आसकूंगा। देखिए आप इतनी सी बात नहीं मानते। अच्छा चलिए साढे़ पाँच बजे सही।”

    “अच्छा, देखूँगा, मगर वादा नहीं करता। बेहतर तो यही होता कि आप पाँच बजे जाते।”

    “चलिए, पाँच बज कर पैंतीस मिनट सही, बस?”

    “अच्छा, मगर देखिए ना...”

    एक मुअम्मर हज़रत सह पहर से जो पीना शुरू करते हैं तो आधी रात तक पीते रहते हैं। उनके मुताल्लिक़ तरह तरह की रवायात मशहूर हैं। रवायात मुख़्तलिफ़ हैं, लेकिन सब का लुब्ब-ए-लुबाब ये है कि उनकी ज़िंदगी में ट्रेजडी को बहुत दख़ल है और वो सदा के ग़मगीं हैं। आज तक किसी ने उन्हें मुस्कुराते नहीं देखा। तक़दीर ने उनके साथ बुरा सुलूक किया है। ज़िंदगी ने उनके साथ ग़द्दारी की है। और ये कि आज तक उन्होंने अपनी ज़िंदगी की अलमिया दास्तान किसी को भी नहीं सुनाई। एक शाम को जाने क्यों मुझ पर मेहरबान हो जाते हैं। शायद इसलिए कि मैंने उनका जलता हुआ सिगार क़ालीन से उठा कर उन्हें दे दिया या इसलिए कि वो शराब की बोतल अंगेठी पर भूल आए और मैंने उठा कर पकड़ा दी। हम दोनों एक तन्हा गोशे में बैठे हैं। वो बेतहाशा पी रहे हैं। मैं उनसे उनकी ज़िंदगी के मुताल्लिक़ सवाल पूछता हूँ।

    “पहले वादा करो कि ये दास्तान-ए-तल्ख़ सुनकर तुम हमदर्दी का इज़हार नहीं करोगे। जब कोई मुझसे इज़हार-ए-हमदर्दी करता है तो मेरे लिए ज़िंदगी का एक एक लम्हा कठिन हो जाता है। लो सुनो। आज से दस साल पहले मैं बेहद मसरूर इंसान था। आह कैसे दिन थे वो भी। दुनिया मुझ पर रश्क करती थी। सब यही कहते थे कि इस शख़्स की मुस्कुराहट में सूरज की किरनों की सी चमक और ताज़गी है। उन दिनों मेरे पास एक हिरन था। क्या बताऊं कैसा हसीन और प्यारा हिरन था। हम दोनों में इतना प्यार था कि मैं उसे देखकर जीता था और वो मुझे देखकर। उन दिनों मैं अफ़्रीक़ा में था और बेहद ख़ुश था। फिर वो मनहूस रात आई जब मैंने अपना सब कुछ खो दिया। मैंने नया मुलाज़िम रखा था। रात को जाते वक़्त वो कम्बख़्त हिरन को बाँधता गया। पहले उसे कभी नहीं बाँधा गया था। रात को ख़ुदा जाने भेड़िए आए या क्या बला आई। अगर हिरन आज़ाद होता तो वो किसी को अपने पास भी आने देता। अली-उल-सुबह मैंने उठकर देखा तो हिरन अल्लाह को प्यारा हो चुका था। मेरी आँखों के सामने दुनिया अंधेर हो गई। मुद्दतों मैं बेचैन-ओ-बेक़रार फिरता रहा।” उन्होंने गिलास भरा और पीने लगे।

    “लेकिन इंसानी दिल ऐसी चीज़ है जो बहलाए से बा’ज़-औक़ात बहल जाती है। हिरन की जगह एक और हस्ती ने ले ली। यह एक तोता था जिसे मैं स्पेन से गुज़रते वक़्त लाया था। ये तोता बस नाम को तोता था, वैसे इंसानों से बेहतर था। घंटों बातचीत किया करते। उस तोते को अदब से लगाओ था। मैं उसे नज़्में सुनाता जिन्हें वो बार-बार दोहराता। क़िस्सा मुख़्तसर उस तोते ने मेरी ज़िंदगी को दुबारा जीने के क़ाबिल बना दिया। लेकिन क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। एक दिन तोते के पिंजरे के साथ मेरी गर्म यूनीफार्म टंगी हुई थी। तोते ने उसका कुछ हिस्सा कुतर डाला और मुझ बदनसीब को इतनी सी बात पर इतना ग़ुस्सा आया कि उसे बुरा-भला कहा, डाँटा, एक तिनके से कुछ पीटा भी। मेरे देखते देखते उसने अपना सर सलाख़ों से बाहर निकाला। चोंच से पिंजरे के दरवाज़े की कील निकाली और फुर्र से उड़कर एक दरख़्त पर जा बैठा।

    “मैंने उसकी बड़ी मन्नतें कीं। पुरानी रिफ़ाक़त का वास्ता दिलाया। माफ़ी मांगी, क़समें खाईं, वादे किए, लेकिन मेरे इस वहशियाना सुलूक से उसका नन्हा सा दिल टूट चुका था। वो उड़ गया और फिर कभी आया। उसके बाद मेरा क्या हाल हुआ, मैं दिन रात नशे में रहने लगा। मैंने शराब के अलावा और मनश्शियात भी शुरू कर दीं। झूट बोलना शुरू कर दिया। ज़रा ज़रा सी बात पर मुझे ग़ुस्सा आने लगा। मेरी सेहत बिल्कुल गिर गई, तरक़्क़ी रुक गई। मेरा वहाँ से तबादला हो गया।” उन्होंने ख़ाली गिलास फिर भरा।

    “मैं समझता था कि मेरे लिए दुनिया ख़त्म हो चुकी है, लेकिन ज़िंदगी में फिर बहार आई, मैं फिर मुस्कुराने लगा। इस ख़ुशगवार तब्दीली की वजह वो प्यारी दिल आवेज़ बत्तखें थीं जिन्हें मैं चीन से लाया था। मैं बयान नहीं कर सकता कि वो बत्तखें मुझे किस क़दर अज़ीज़ थीं। जब वो अपनी चोंच मोड़ कर कनखियों से मुझे देखतीं तो मेरा रोंवां रोंवां मसर्रत से रक़्स करने लगता। सेरों ख़ून बढ़ जाता। शाम को हम तीनों सैर करने जाते। मैं फिर तंदुरुस्त -ओ-तवाना हो गया और बड़ी सरगर्मी से अपना काम करने लगा। लेकिन क़िस्मत को मेरी ये मसर्रत एक आँख भाई। ज़िंदगी की ठोकरों ने मेरा पीछा छोड़ा। बना बनाया खेल बिगड़ गया, बसा बसाया घर उजड़ गया। इस मर्तबा उसकी ज़िम्मेदार मेरी बीवी थी जो उसी सुब्ह वतन से आई थी। उसे शिकार का शौक़ था, शाम को बंदूक़ लेकर निकली और उसे शिकार मिला तो क्या, वही प्यारी बत्तखें जो झील पर तफ़रीह के लिए गई हुई थीं। मैंने अपनी बीवी का ये गुनाह कभी माफ़ नहीं किया। मैं उसे कभी माफ़ नहीं करूँगा। ऐसी प्यारी बत्तखें। ऐसे प्यारे रफ़ीक़ ज़िंदगी में सिर्फ़ एक मर्तबा आया करते हैं। उसके बाद मैंने जुआ खेलना शुरू कर दिया। दोस्तों को धोका देने लगा। अपना ग़म ग़लत करने के लिए मैंने क्या कुछ नहीं किया।” उनकी आँखों में आँसू आगए। उन्होंने दूसरी बोतल खोली।

    “ज़िंदगी की तल्ख़-कामियों की दास्तान शायद अभी अधूरी थी। अभी तक़दीर को और कचोके लगाने थे। डूबते को तिनके का सहारा फिर मिला। ज़िंदगी सोते सोते जाग उठी और दुनिया मुस्कुराने लगी। मेरी ज़िंदगी में एक कुत्ता आया। बेहद हसीन-ओ-जमील कुत्ता। नेक, वफ़ादार, समझने वाला। उसने मेरे सुबह-ओ-शाम बदल दिए। मैं पुराने ग़म एक हद तक भूल गया। लेकिन ये सब कुछ आरिज़ी था। मेरा यहाँ तबादला हुआ और मुझे हवाई जहाज़ से आना पड़ा। कुत्ता स्कॉटलैंड में रह गया। जब मेरा कुम्बा लंदन से आया तो उन कमबख़्तों में किसी को इतनी तौफ़ीक़ हुई कि मेरे अज़ीज़ अज़ जान प्यारे कुत्ते को साथ ले आता। मैंने तार दिए, रक़म भेजी। आख़िर कुत्ता समुंदर के रास्ते स्कॉटलैंड से रवाना हुआ। जहाज़ वालों की ग़लती से कुत्ते को कलकत्ते की जगह बंबई उतार लिया गया। मैं ख़ुद कुत्ते को लेने कलकत्ते गया और मायूस लौटा।

    “फिर पता चला कि वो बंबई में है। मैंने उसी रोज़ अपने बड़े लड़के को बंबई भेजा। वो ना-हंजार, बेईमान लड़का फ़र्स्ट में गया, फ़र्स्ट में आया, इतनी रक़म ज़ाए की, लेकिन कुत्ते का इतना सा भी ख़्याल रखा। उसके आराम की पर्वा की, उसकी ख़ुराक पर एहतियात बरती। नतीजा ये निकला कि कुत्ते की तबीयत जो सफ़र की सऊबतों की वजह से पहले ही नासाज़ थी बिल्कुल अलील हो गई और यहाँ पहुँचते पहुँचते उसने दम तोड़ दिया। अब क्या बताऊं, मैं ज़िंदगी किस तरह गुज़ार रहा हूँ। बस दिन पूरे कर रहा हूँ। यूं तो मेरे बच्चे हैं, बीवी है, दोस्त हैं। मेरे पास सब कुछ है, लेकिन मुझे किसी चीज़ से भी दिलचस्पी नहीं। मेरे लिए दिन भी उतना ही तारीक है जितनी कि रात। मुझ सा बदनसीब तो ज़माने में होगा।” उनकी आँखों से आँसू रवां हैं।

    ये उन दिनों का भी ज़िक्र है जब मैं क्लब जाने से पहले घंटों सोचा करता था कि जाऊं या जाऊं। क्या सोशल बनना वाक़ई ज़रूरी है। क्या मैं अपना फ़ालतू वक़्त किसी और तरह नहीं गुज़ार सकता?

    स्रोत:

    (Pg. 171)

    • लेखक: शफ़ीक़ुर्रहमान
      • प्रकाशक: असदुल्लाह ग़ालिब

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