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मकान की तलाश में

शफ़ीक़ुर्रहमान

मकान की तलाश में

शफ़ीक़ुर्रहमान

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    मकान की तलाश, एक अच्छे और दिल-पसन्द मकान की तलाश, दुनिया के मुश्किल-तरीन उमूर में से है। तलाश करने वाले का क्या-क्या जी नहीं चाहता। मकान हसीन हो, जाज़िब-ए-नज़र हो, आस-पास का माहौल रूह-परवर और ख़ुश-गवार हो, सिनेमा बिल्कुल नज़दीक हो, बाज़ार भी दूर हो। ग़रज़ बीच में मकान हो तो चारों तरफ़ शहर की तमाम दिलचस्पियाँ हल्क़ा बनाए हुए हों। मकान तलाश करने वाले को आप सड़क पर जाते देखिए। उसका हुलिया, उसकी चाल, उसके चेहरे का इज़हार, उसकी हरकात, सबसे ‘अयाँ होगा कि ये बेचारा मकान की तलाश में है। मकान तलाश करने वाले का हाल कुछ-कुछ ‘आशिक़ से मिलता है। आज से सौ, दो-सौ साल पहले के ‘आशिक़ों से नहीं बल्कि आज-कल के ‘आशिक़ों से। या’नी कोई चीज़ मे’यार पर पूरी नहीं उतरती। बा’ज़ औक़ात अच्छा ख़ासा मकान मिल जाता है। फिर भी दिल में बार-बार ख़याल आता है कि ज़रा और हाथ पाँव मारो, शायद इससे बेहतर चीज़ मिल जाए।

    कोई पूछे कि भला मकान की तलाश करने में देर ही क्या लगती है। अख़बार से पता पढ़ा, छुट्टी के दिन साइकिल संभाली और चल दिए। जहाँ ‘मकान किराए के लिए ख़ाली है’ लिखा देखा, ठहर गए। मकान को इधर-उधर से देखकर पाँच छः मिनट में पसन्द कर डाला। किराया तय किया और शाम तक बसे। मगर नहीं ऐसा नहीं होता। ये मुश्किलात उन पर ब-ख़ूबी ‘अयाँ होंगी जिन्हें कभी इस क़िस्म का तल्ख़ तज्‍रबा हुआ हो। सबसे ज़ियादा क़ाबिल-ए-रहम वो लोग हैं जिनकी क़ीमती ‘उ’म्‍र का ज़ियादा हिस्सा मकान की तलाश में गुज़रता है और उनसे दूसरे दर्जे पर हैं तलबा हज़रात, जिन्हें अव्वल तो अपनी पसन्द का मकान मिलता नहीं और अगर कहीं मिल भी जाए तो फ़ौरन सवाल होता है, “ब्याहे हो या नहीं?”

    इस क़िस्म के बे-समझ लोग इतना भी नहीं समझते कि एक वक़्त में दो काम किस तरह हो सकते हैं और जो किसी चालाक से तालिब-’इल्म ने कह भी दिया कि हाँ, हम ब्याहे हैं, कर लो हमारा क्या करोगे? तो फ़रमाइश होती है कि पहले बीवी हाज़िर करो। जहाँ एक ब्याहा तालिब-’इल्म शरीफ़ुत्तबा’, परहेज़गार, मुत्तक़ी, ख़ुदा से डरने वाला और शराफ़त का पुतला गर्दाना जाता है, वहाँ एक बद-क़िस्मत कुँवारे को आवारागर्द, बद-तमीज़, मशकूक चाल-चलन वाला, और ख़तरनाक समझा जाता है, हालाँकि अक्सर मु’आमला बिल्कुल उल्टा होता है। हमारे इम्तिहान नज़दीक थे और हॉस्टल की फ़ज़ा कुछ-कुछ ख़राब होने लगी थी। मुसीबत ये थी कि इम्तिहान सिर्फ़ हमारी जमा’अत के थे। बाक़ी हज़रात के या तो हो चुके थे या एक दो माह के बा’द थे।

    पढ़ने की बहुतेरी कोशिश की गई। कमरे को बाहर से ताला लगवा दिया जाता। चाबी नौकर के हवाले कर दी जाती और उसे ख़ूब ताकीद की जाती कि ख़बरदार जो तूने शाम से पहले कमरा खोला। मगर ज़रा सी देर में कॉमन रुम से पिंग-पांग की टप-टप सुनाई देती। कभी ब्रिज और शतरंज वालों का शोर, दो-दो मिनट के बा’द फ़लक-शिगाफ़ क़हक़हे, साथ ही रेडियो से ठुमरियाँ और क़व्वालियाँ, पड़ोस के लड़कों की नग़्मा-सराइयाँ, कोई सितार बजा रहा है कोई वायलिन। पढ़ा लिखा सब बराबर हो जाता। शाम होती तो फ़ुटबाल की धमाधम और टेनिस लॉन से गेंद के बल्ले पर पड़ने की प्यारी आवाज़। लोग तालाब से भीगे-भीगे वापस रहे हैं। बहुत से हज़रात बन-सँवर कर सैर करने जा रहे हैं। ग़रज़ ये कि जी बड़े ज़ोरों से ललचाता। दिमाग़ बग़ावत कर देता। कोई आध घंटे के बा’द यक-लख़्त जो होश आता तो अपने आपको या तो किसी सिनेमा हाल में पाते या किसी सड़क पर चहल-क़दमी कर रहे होते जो हॉस्टल से कम-अज़-कम दो-तीन मील दूर होती। रात-भर अपने आपको ला’नत-मलामत करते और क़समें खाते कि अगर कल पूरे बीस घंटे लगातार पढ़ा तो नाम बदल लेंगे। आख़िर पास भी तो होना है और क़ुव्वत-ए-इरादी भी तो कोई चीज़ है। मगर दूसरा रोज़ भी इसी तरह गुज़र जाता। रोज़ क्या हफ़्ते यूँही गुज़र रहे थे। और दिन-भर को कोई पचासों लड़के मिलने आते।

    “हेलो।”, और “आख़ाह आइए” के बा’द तक़रीर सुननी पड़ती।

    “अरे भई ये वक़्त भी कहीं पढ़ने का है। तौबा-तौबा, तुम लोग भी ज़िन्दगी से बे-ज़ार हो चुके हो। ऐसा भी क्या कि आदमी बिल्कुल धूनी रमा कर बैठ जाए। ईमान से अगर मैं इस तरह दो रोज़ भी पढ़ लूँ तो एक महीने के लिए लेट जाऊँ। कौन सी मुसीबत आई हुई है, इम्तिहान ही तो है। जब दिल चाहा पास कर लेंगे। ये क्या कि अपना सत्यानास ही कर डाला। अरे मियाँ,

    बाबर ब-‘ऐश कोश कि ‘आलम दुबारा नीस्त।”

    दु’आ माँग रहे हैं कि ये किसी तरह यहाँ से टले। लेक्चर फिर शुरू’ होता है, “कल हमारा क्रिकेट मैच था। तुम थे मज़ा नहीं आया। वैसे हम लोग जीत तो फिर भी गए। वो जो है अपना छोटा सा लड़का... क्या नाम है उसका? भई भूल गए तुम भी। वो कल ग़ज़ब का खेला। उनका एक बौलर था। ख़ुदा झूट बुलवाए कोई सात फ़ुट का होगा। पूरा गेंडे का गेंडा था। जब गेंद फेंकता था तो ज़मीन हिलती थी और स्टार्ट भी लेता होगा फ़र्लांग भर का। उसके सामने अपना कोई लड़का भी नहीं जमा। मगर वही छोटा सा लड़का, मैं उसका नाम फिर भूल गया। वो कुछ कलाबाज़ी सी खा कर यूँ बल्ला घुमाता था कि पूरा चौका पड़ता था। वो शानदार हिटें लगाई हैं कि बस मिनटों में साठ स्कोर कर गया। मेरा ख़याल है कि तुम भी अच्छा खेलते। एक बात मानो, तुम इतना आहिस्ता मत खेला करो। देखने वालों को ज़र्रा भर मज़ा नहीं आता। और हाँ भई एक बात दरियाफ़्त करनी थी तुमसे। इम्तिहान के बा’द तुम्हारा प्रोग्राम क्या है? मैं पहाड़ों की निस्बत मैदानों को ज़ियादा पसन्द करता हूँ। पहाड़ों पर होता ही क्या है। बस पहाड़ ही पहाड़ होते हैं, कोई नई चीज़ तफ़रीह। रात को पहाड़ों पर उल्लू बोलते हैं... लाहौल-वला-क़ुव्वत।”

    जी में आता है कि कह दें, “ओ ना-वक़ार इन्सान मैदानों को छोड़कर ख़्वाह अंडमान चला जा ना। मगर फ़िलहाल तू यहाँ से दफ़्’अ हो जा।” अगर पंद्रह बीस मिनट तक ये साहब टलें तो फिर निगाहें किताबों, कैलेंडरों और दरवाज़े की तरफ़ दौड़ने लगती हैं और अगर वो इस पर भी समझें तो फिर दबी ज़बान में इम्तिहान का ज़िक्‍र करना पड़ता है क्योंकि अनीस ही ने तो फ़रमाया है,

    ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब चाहिए हर दम

    अनीस ठेस लग जाए आबगीनों को

    वो अचानक चौंक पड़ते हैं, “अरे भई तौबा तौबा, मैं भी कितना बद-हवास हूँ। ये भूल ही गया कि तुम्हारा इम्तिहान है। मु’आफ़ करना मुझे सच-मुच ख़याल नहीं रहा। अच्छा इम्तिहान के बा’द सही।” एक तो ख़लासी हुई। ज़रा सी देर में एक-दूसरे साहब जाते हैं और दुनिया की फ़िल्म इंडस्ट्री के माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल पर एक बसीत लेक्चर देते हैं और मिस इंदूबाला से मु’आमला रायल्ड कालमेन और हैडी लेमार पर ख़त्म होता है। फिल्मों के बारे में तन्क़ीद होती है और जादू का डंडा, फ़ौलादी मुक्का, ज़ालिम घसियारा से क्वीन क्रिस्चिना, और बेन हुर तक... सब पर रौशनी डाली जाती है। फिर अमरीकी और इंग्लिश फिल्मों का मुक़ाबला होता है। आख़िर में स्वदेशी फिल्मों पर फ़ातिहा पढ़ी जाती है। तीसरे साहब आते हैं जो ‘इश्क़ के बारे में अपनी ताज़ा-तरीन तहक़ीक़ात, मशहूर ‘उश्शाक़ की सवानिह-ए-‘उ’म्‍रियाँ, ‘इश्क़ करने के तरीक़े, फ़वाइद और नुक़्सानात... सब कुछ ही तो बता देते हैं। फिर एक और हज़रत आते हैं जो दुनिया भर के पॉलिटिक्स पर एक जनरल सा रिव्यू कर के महज़ दो घंटों में दुनिया के बड़े मशाहीर की सियासी ग़लतियाँ और उनके उ’यूब, सब कुछ समझा देते हैं।

    एक साहब महज़ कबड्डी ही के बारे में तक़रीर किए जाएँगे। कोई उनसे पूछे कि कबड्डी भी कोई खेल है? मगर कबड्डी की तारीख़, बड़े-बड़े खिलाड़ी, कबड्डी में दिलचस्पी लेने वाले बड़े-बड़े आदमी, राजे और महाराजे, ग़रज़ सब कुछ बता कर छोड़ेंगे। कोई साहब आएँगे तो मुक्केबाज़ी पर धुआँधार तक़रीर करेंगे। हालाँकि उनका हुलिया ऐसा होगा कि मुक्का तो क्या अगर एक हल्का सा चांटा भी मार दिया जाए तो नॉक-आउट हो जाएँ। उधर ख़्वाह-मख़ाह हाँ में हाँ मिलानी पड़ेगी। मुस्कुरा कर अपनी नाक़िस राय का इज़हार करना पड़ेगा। सिगरेटों के डिब्बे ख़ाली हो जाएँगे। नौकर चाय लाता लाता थक जाएगा। मगर दबी ज़बान से ज़िक्र तक करो, वर्ना कहीं ऐसा हो कि आबगीनों को ठेस लग जाए। कोई आता है तो यूँही टाइम-पीस को चाबी देने लगता है। कोई साहब मुल्तान की हल्की-फुल्की सुराही को इस तरह पकड़ेंगे कि ज़रा सी देर में एक हाथ में सुराही की गर्दन होगी और दूसरे हाथ में बक़िया सुराही... एक क़हक़हे पर मु’आमला ख़त्म।

    कोई किताबें उलट डालेगा कि कहीं कोई नॉवेल या ग़ज़लों की किताब तो नहीं रखी। कोई एल्बम ही देखने लगेगा। ज़रा नज़र चूकी और एक-आध तस्वीर ग़ाइब। कोई साहब टेनिस का बल्ला उधार ले जाएँगे और तो और बा’ज़ औक़ात क़मीज़, टाइयाँ तक महीना-महीना लोगों के यहाँ मेहमान रहती हैं। फिर कहा जाता है कि हॉस्टल की ज़िन्दगी बेहतरीन ज़िन्दगी है। बड़े ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के बा’द फ़ैसला हुआ कि मैं और बाक़र साहब दोनों एक मकान किराए पर लें। एक चमकीली सुब्ह को हम दोनों ने चाय पीते हुए प्रोग्राम बनाया। कैलेंडर में देखा तो दिन सनीचर का था। चूँकि सनीचर मनहूस समझा जाता है, इसलिए प्रोग्राम ये बना कि इतवार को ‘अलल-सुब्ह इस मुहिम पर रवाना होंगे।

    ये बताने की ज़रूरत नहीं कि हमने अख़बारों की मदद से और इधर-उधर पूछ कर ख़ाली मकानों की फ़हरिस्त पहले ही बना ली थी। सबसे पहले हम एक डेरी फ़ार्म पहुँचे। वहाँ एक मकान ख़ाली था। दरवाज़े पर मुंशी बैठा ऊँघ रहा था। हमें देखकर हड़बड़ा कर उठा। उससे मकान के बारे में दरियाफ़्त किया। उसने जो डेरी के फ़वाइद पर लेक्चर देना शुरू’ किया तो चुप होने का नाम ही लेता था। दूध, मक्खन, बालाई और पनीर। एक-एक चीज़ गिनवा दी। शहर में नक़ली चीज़ें मिलती हैं। उनसे फ़ुलाँ-फ़ुलाँ बीमारियाँ फैलती हैं वग़ैरह-वग़ैरह। हम तंग आकर बोले, “पहले मकान दिखा दो। फिर बातें करेंगे।” ख़ैर अंदर गए। देखा कि एक बड़ा कमरा है जिसमें अगर फुटबाल नहीं तो कम-अज़-कम टेनिस तो ज़रूर खेल सकते हैं। उसके साथ दो ज़रा-ज़रा से कमरे, जैसे खिलाड़ियों के लिए बनवाए गए हों कि वो सुस्ता लें या कपड़े बदल लें। वो बोला, “ऊपर चलिए।” हमने सोचा कि शायद ऊपर कुछ मतलब के कमरे होंगे। देखा तो वही लंबा चौड़ा सा कमरा और दो नन्हे-मुन्ने कमरे। हम ना-उम्मीद हो गए।

    “नहीं साहब, अभी एक मंज़िल और भी है।” उम्मीद फिर बंध गई। ऊपर जाकर देखते हैं कि ब-’ऐनिही वही नक़्शा। उल्टे पाँव लौटे। बिस्मिल्लाह ही ग़लत निकली। दूसरा मकान कोई आध-मील के फ़ासले पर था। देखा कि दरवाज़े पर एक ख़तरनाक क़िस्म के मौलवी साहब हुक़्क़ा पी रहे हैं। हमें ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब की निगाह से देखा।

    “मकान चाहिए आपको?”, वो कड़के।

    “जी हाँ।”

    उन्होंने तीन चार लम्बे लम्बे कश लगाए और दाढ़ी से खेलते हुए बोले, “तो गोया सच-मुच आपको मकान दरकार है।”, जैसे हम उनसे मज़ाक़ कर रहे थे।

    “तो आपको ज़रा तकलीफ़ होगी। उस मकान की चाबी होगी मुंशी क़लंदर बख़्श के पास जो रहते हैं चंगड़ मुहल्ले में, मगर ठहरिए ख़ूब याद आया। अब उन्होंने कबाड़ी बाज़ार में सुकूनत शुरू’ कर दी है। बड़े भले मानुस हैं। क्या कहूँ, ये ‘उ’म्‍र हो गई मगर ऐसा जवान देखने में नहीं आया (दोनों बाज़ू फैलाकर) ये सीना था और (दोनों कुहनियाँ निकाल कर) ये चेहरा था, बिल्कुल शेर जैसा। ख़ुदा की शान, अब वही क़लंदर बख़्श हैं कि मुँह पर मक्खियाँ भिनकती हैं। फिर भी क्या मजाल जो आन-बान में फ़र्क़ जाए।”

    बाक़र साहब बेचैन हो रहे थे, “साहब अगर बुरा मानें तो ज़रा चाबियाँ...”

    “हाँ तो चाबियों का ज़िक्र हो रहा था। चाबियाँ तो उनके भतीजे ईजाद ‘अली के पास होंगी क्योंकि उन बेचारों का अपना तो कोई लड़का था नहीं। बस अपने मर्हूम भाई की निशानी को देखकर दिल ठंडा कर लिया करते थे, मगर मुझे ख़तरा है कि कहीं चाबी उनका भांजा क़ुदरतुल्लाह ले गया हो क्योंकि परसों अफ़्वाह उड़ी थी कि वो डेरा ग़ाज़ी ख़ाँ से वापस रहा है। वो क़िला’ गुज्जर सिंह के पच्छिम वाले हिस्से में रहता है। एक बड़ी सी नाली है उसके पार बिजली का खंभा है। मैं अच्छी तरह नहीं कह सकता कि वो वहाँ रहता है या नहीं। बहर-हाल मकान उसका वही है।”

    “मगर हम उतनी दूर नहीं जा सकते।”

    “आप चाबी का करेंगे क्या? लाइए मैं आपको नक़्शा समझाए देता हूँ।”, ये कह कर लगे एक तिनके से ज़मीन पर नक़्शा समझाने।

    “ये ग़ुस्ल-ख़ाना है और ये है बावर्ची-ख़ाना। अरे मैं उल्टा कह गया। ग़ुस्ल-ख़ाने ये हैं और वो है ज़ीना। यहाँ एक कमरा है, तौबा-तौबा मैं भी क्या हूँ। यहाँ तो एक छोटी सी कोठरी है और ज़ीना है वहाँ।” (मकान की हद से बाहर बताते हुए कहा।)

    “गोया ज़ीना मकान के बाहर पड़ोस में कहीं वाक़े’ हुआ है?”, बाक़र साहब ने पूछा।

    “जी नहीं, मेरा मतलब है कि ज़ीना अंदर की तरफ़ है।”

    हम दोनों उठकर चल दिए।

    “अजी ठहरिए... ज़रा सुनिए तो सही, इस मर्तबा ठीक बताऊँगा। अब समझ में गया नक़्शा।” वो बुलाते ही रहे।

    अब मकान नम्बर 3 की तलाश शुरू’ हुई। ख़ुश-क़िस्मती से यह मकान कॉलेज के बिल्कुल नज़दीक था। वैसे मकान था भी अच्छा-ख़ासा। हमें दूर ही से पसन्द गया। मा’लूम हुआ कि मकान के दो हिस्से हैं। एक में मालिक-मकान रहते हैं और दूसरा ख़ाली है। वो साहब अ‘जीब अफ़ीमची से थे। बाक़र साहब ने आहिस्ते से बताया, “भई मुझे ये शख़्स बिल्कुल पसन्द नहीं। इसकी हरकात अ‘जीब सी हैं।”

    हमने कहा, “अस्सलामु ‘अलैकुम।” बोले, “वा’अलैकुमुस्सलाम रहमतुल्लाह बरकातहु।” (एक-एक लफ़्ज़ में नून-ग़ुन्ना बसा हुआ था। बा’द में जो गुफ़्तगू हुई उसमें भी नून-ग़ुन्ना ब-दस्तूर रहा।)

    “कैसे तशरीफ़-आवरी हुई?”

    “आपका मकान।”, बाक़र साहब बोले।

    “अजी बस क्या नाम है, ख़ुदा तुम्हारा भला करे। समझो कि बड़े ख़ुश-नसीब हो, जभी तो खट से ऐसा मकान मिल गया, वर्ना क्या नाम... जनाब बड़े-बड़े आदमी महीनों हैरान-ओ-परेशान गली कूचों में भटकते फिरते हैं और जनाब मकान नहीं मिलता। फिर ये मुहल्ला, बस ख़ुदा तुम्हें ख़ुश रखे, सब मुहल्लों का सरताज है... दीवान साहब का कटरा। अब इस कटरे पर क्या नाम कि एक लतीफ़ा याद गया। एक थे, मैंने कहा मौलवी साहब। वो आए दिल्ली में कपड़ा ख़रीदने। अब तुम्हें ख़ुदा ख़ुश रखे, होगा कोई शादी-वादी का मु’आमला। अब क़िस्सा इस तरह चलता है कि उन्होंने कपड़ा ख़रीदा। क्या नाम नील के कटरे से और वापस चले गए। अब साहब कोई दस साल के बा’द मैंने कहा उन्हें फिर ज़रूरत हुई कपड़े की। वो फिर दिल्ली आए और एक ताँगे वाले से क्या नाम बोले, हमें नील के भैंसे ले चल।

    अब साहब ख़ुदा तुम्हारा भला करे। यूँ तो दिल्ली में हज़ारों बाज़ार और लाखों गलियाँ हैं और यूँ भी क्या नाम ताँगे वाले होते हैं बड़े ज़ालिम... पर साहब ताँगे वाले की समझ में कुछ आया। बोला, बड़े मियाँ ये ‘उ’म्‍र हो गई और हँसी मज़ाक़ की ‘आदत गई। अब तक भला नील का भैंसा भी दिल्ली में किसी ने सुना है? अब क्या नाम, बड़े मियाँ भी चटाख़ से बोले, अबे मैंने कहा कल के लौंडे, चलाता है हमें, अभी दस साल गुज़रे हमने नील के कटरे से कपड़ा ख़रीदा था और अब ख़ुदा तुम्हारा भला करे, दस साल में वो कम-बख़्त कटरा भैंसा भी बन गया होगा। अब साहब जो मज़ाक़...”

    “जनाब इस मकान का किराया?”

    “अरे साहब क्या नाम, इतनी जल्दी काहे की है जो मर्ज़ी आए दे देना, ख़ुदा तुम्हें ख़ुश रखे। आपके आने से ज़रा रौनक़ हो जाएगी ज़री, मैंने कहा महफ़िलें गर्म हुआ करेंगी। यहाँ सारंगी और तबलों पर महीनों गर्द जमी रहती है। आप दोनों क्या नाम माशाअल्लाह रंगीले दिखाई देते हैं। बस जनाब मज़ा जाएगा और ख़ुदा तुम्हारा भला करे, जब तक कोई सुनने वाला हो क्या नाम गाने बजाने का मज़ा ही क्या।”

    अब जो हम वहाँ से भागे हैं तो कोई आध-मील आकर दम लिया। गाने बजाने की महफ़िलें... रौंगटे खड़े हो गए। जिस चीज़ से डर कर हॉस्टल से भागे थे वही सामने मौजूद हुई। वापस हॉस्टल आए। बाक़र साहब ने अलमारी से एक इश्तिहार निकाला, लिखा था... एक मकान बिजली और पानी से आरास्ता-ओ-पैरास्ता, बावर्ची-ख़ाने और ग़ुस्ल-ख़ाने मुज़य्यन, साफ़-सुथरा और पाकीज़ा। ‘अक़ब ख़ानदानी दवा-ख़ाना, नज़्द हवेली सेठ राम नरायन मरहूम-ओ-मग़फ़ूर बाशिन्दा दिल्ली, दरुन कबाड़ी बाज़ार।”

    “फिर वही कबाड़ी बाज़ार?”

    मकान देखा। कुछ ऐसा था जैसे अमरीका में होते हैं। यानी बे-तहाशा ऊँचा। नीचे पौने दो कमरे, यानी एक औसत कमरा दूसरा उससे निस्फ़ और तीसरा उससे निस्फ़। फिर सीढ़ियाँ शुरू’ हुईं। जैसे क़ुतुब साहब की लाठ पर चढ़ रहे हों। चढ़ते गए। ऊपर जाकर ढाई कमरे मिले। मगर दर-अस्ल हिसाब के मुताबिक़ वहाँ सिर्फ़ सवा कमरा ही था। या’नी निचले कमरों से वो निस्फ़ थे। हमारे रहनुमा बोले, “यह ग़ुस्ल-ख़ाना है।”

    “और नीचे?”, मैंने पूछा, “वो क्या था?”

    “जनाब वो बावर्ची-ख़ाना था।”

    “और साथ ये दो छोटे-छोटे कमरे?”

    “एक सामान रखने का गोदाम और दूसरा सोने का कमरा।”

    “अजब तमाशा है।”, बाक़र साहब ने झल्लाकर कहा।

    “अजी अभी ऊपर भी कुछ है।”

    “नहीं साहब, बस।”

    “अजी आपको हमारी क़सम, ज़रा मुलाहिज़ा तो फ़रमाइए”, वो साहब बोले। फिर वही बेशुमार सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ीं। दिल बे-तहाशा धड़क रहा था। साँस फूला हुआ था। ऊपर जाकर देखते हैं कि एक छोटी सी कोठरी है। एक मुर्ग़ियों का डरबा है। एक तरफ़ कबूतरों की छतरी है और एक कोने में पुराना ढोल पड़ा है। हमें हँसी गई। भला कोई उससे पूछता कि छत पर कबूतर तो बेशक रखे जा सकते हैं मगर मुर्ग़ियाँ कौन रखता होगा। फिर वो ढोल? सारे मकान का नक़्शा ही फ़ुज़ूल सा था। जैसे किसी अफ़ीमची ने मकान बनाया हो। जब ज़रा पीनक दूर हुई एक-आध कमरा बनवा दिया। कोई कहीं से कोई कहीं।

    “अब उतरना भी पड़ेगा।”, हमने दिल में सोचा। नीचे उतरकर फ़हरिस्त निकाली। नया मकान देखा। कुशादा मैदान में एक ख़ूबसूरत सा मकान चमक रहा था। मैंने बाक़र से हाथ मिलाया। आख़िर हमने मन्ज़िल मार ली थी। अब जो दरवाज़े पर देखते हैं तो लिखा था, “हसरत-कद:।” तबी’अत पर ओस सी पड़ गई।

    “इसका मतलब?”, बाक़र साहब ने हैरान हो कर पूछा।

    “किसी शा’इर का मकान मा’लूम होता है।”, मैंने कहा, शा’इर साहब बुलाए गए। मा’लूम हुआ वो निचले हिस्से में रहते हैं। ऊपर का हिस्सा ख़ाली था। शा’इर साहब भी बस ऐसे कि डिबिया में बंद कर के रखने के क़ाबिल। दुबले-पतले, शुतुर-मुर्ग़ जैसे, नाक पर ‘ऐनक चस्पाँ, हुलिया ऐसा कि अगर सड़क पर जाते हों तो बच्चा तक बता दे कि वो जा रहा है शा’इर। चल किस तरफ़ रहे हैं। मुँह कहीं है और क़दम कहीं पड़ते हैं।

    बातें शुरू’ हुईं... इन्तिहाई लतीफ़ बातें। बात-बात में शा’इरी। “जब रात को सारी काइनात पर एक अ‘जीब सा नूर तारी होता है, जब बे-क़रार दिल बे-तरह तड़प रहा होता है, जब फ़िज़ा भीगी-भीगी सी होती है, जब आसमान में तारे एक दूसरे से आँख-मिचोली खेलते हैं तो जो लुत्फ़ ऊपर के मकान में आता है वो नीचे के मकान में कहाँ। आह, अगर मेरा बस चले तो दुनिया के तमाम मकान ऊपर के मकान बना दूँ।” (यह फ़िक़रा हमारी समझ में आया।) हम अ‘जीब कश्मकश में फँस गए। एक तरफ़ तो ऐसा ख़ूबसूरत मकान और दूसरी तरफ़ ये शा’इर... वो यक-लख़्त चमक कर बोले, “साहब, आप मुझे रूमान-पसन्द लगते हैं।”

    “क्या मैं?”, मैंने त’अज्जुब से पूछा, “या ये?”

    “जी हाँ, आप आपका हुलिया, आपके कपड़े, आपकी हजामत और आपके कपड़ों की ख़ुशबू, सब के सब गवाही दे रहे हैं।”

    मैं अपने इस नए ख़िताब पर हैरान था। शा’इर साहब फ़रमाने लगे, “जनाब बंदा फ़ितरतन रूमान-परस्त है बल्कि हुस्न-परस्त। चुनाँचे मेरी शादी... आह मेरी शादी। ये एक लम्बी दास्तान है जो कभी आपको फ़ुर्सत में सुनाऊँगा। एक ख़ूँ-चकाँ दास्तान-ए-हुस्न-ओ-’इश्क़ है। मुझे अपनी बीवी से वालिहाना मुहब्बत है।” इत्तिफ़ाक़ से मेरी निगाह सामने खिड़की पर पड़ गई। शा’इर साहब की बीवी झाँक रही थीं।

    “सुब्ह के धुंदलके में जब मा’सूम चिड़िया गीत गा रही होगी तो हम सड़कों पर सैर किया करेंगे। दोपहर के वक़्त मैं आपको अपने कलाम से महज़ूज़ किया करूँगा और शाम को जब सूरज अपनी ज़र्द-ज़र्द किरनों से ज़मीन को अलविदा’ कह रहा होगा, हम बाग़ में सैर करने चला करेंगे और मैं कलाम सुनाया करूँगा।” बड़ी मुसीबतों से हमने उस शा’इर से पीछा छुड़ाया।

    हम एक गली में से गुज़र रहे थे कि एक रंगीन मकान पर नज़रें जम गईं जिस पर लिखा था “किराए के लिए ख़ाली है।” मकान था भी सड़क पर और बड़ा ख़ूबसूरत दिखाई दे रहा था। वहाँ से मा’लूम हुआ कि चाबियाँ अनारकली में किसी वकील साहब के पास मिलेंगी। पूछते-पूछते वहाँ पहुँचे। अंदर से वकील साहब निकले। हमने अपना मतलब ज़ाहिर किया।

    “आप मीटर का किराया फ़ौरन अदा कर देंगे।”

    “जी हाँ।”, हम बोले।

    “और कुल किराए का आधा यानी निस्फ़ किराया पेशगी जमा’ करा देंगे।”

    “बहुत अच्छा।”

    “आप हल्फ़िया बयान करते हैं कि पड़ोस में किसी को तकलीफ़ नहीं पहुँचाएँगे।”

    “नहीं पहुँचाएँगे।”

    “आप मकान के अंदर लगे हुए क़वानीन पर ‘अमल करेंगे।”

    हमने सर हिला दिए।

    “आप ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर जान कर कहते हैं कि मकान से किसी क़िस्म का ना-जायज़ फ़ाइदा तो नहीं उठाएँगे?”

    ना-जायज़ फ़ाइदा ग़ालिबन उनका मक़्सद ताँक-झाँक से था।

    “नहीं उठाएँगे साहब।”

    “और आप मकान छोड़ने से कम-अज़-कम एक माह पहले हाज़िर हो कर इत्तिला’ देंगे?”

    “हम सब कुछ करने को तय्यार हैं।”

    “अब सीधे कश्मीरी बाज़ार जाइए। वहाँ रामनाथ हलवाई की दुकान पूछ लीजिए। बिल्कुल उसके सामने राम चरण ‘ऐनक वाले की दुकान है। चाबी वहीं मिलेगी हम दोनों वहाँ पहुँचे। दुकान पर लाला साहब नहीं थे। उनके लड़के के साथ उनके घर जाना पड़ा जो डिब्बी बाज़ार में था। हमें देखकर लाला जी ने एहतिजाज किया, “साहब मैं मकान पर किसी क़िस्म की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त पसन्द नहीं करता। मा’लूम कितनी दफ़ा’ लोगों से कहा है कि कम-अज़-कम मुझे घर तो चैन से बैठने दिया करें। ‘ऐनकें और दुकानों से भी मिल सकती हैं।” हमने उन्हें बताया कि वकील साहब के मकान की चाबी चाहिए।

    “अख़ाह, वकील साहब का मकान, ख़ूब लतीफ़ा है साहब। यह वकील साहब का मकान कब से हो गया। कल तो बिस्तर बग़ल में दाब कर यहाँ आया था और आज मालिक बन कर गया। जनाब मकान मेरा है।”

    “बहुत अच्छा आपका सही, मगर चाबी कहाँ है?”

    “मुझे अच्छी तरह मा’लूम नहीं, अलबत्ता आप चौबर जी जाइए। वहाँ नम्बर पंद्रह में चिरंजी लाल ठेकेदार से चाबी मिल सकती है।” कोई मग़रिब के वक़्त चौबर जी पहुँचे। वहाँ चिरंजी लाल से मिले। उन्हें मक़्सद बताया। “कैसी चाबी? किसकी चाबी? साहबान आपको बड़ी ग़लत-फ़हमी हुई। मुझे किसी चाबी का पता नहीं। बेहतर यही होगा कि आप वापस अनारकली जाइए। चाबी वकील साहब के पास ही होगी।” फिर वापस वकील साहब के पास पहुँचे। उन्हें सारी दास्तान सुनाई। वो हँसकर बोले, “चाबी दर-अस्ल लाला रामचरण के पास ही है। वो आपसे वैसे ही मज़ाक़ करते होंगे।”

    ये मज़ाक़ की भी एक हद ही रही।

    “तो फिर आप अपना कोई आदमी हमारे साथ भेज दीजिए।”, बाक़र साहब ने तजवीज़ पेश की। वकील साहब ने दो आदमी हमारे साथ कर दिए। अब चार आदमियों का मुख़्तसर सा क़ाफ़िला साइकिलों पर रवाना हुआ। हम में से एक के पास भी रौशनी थी। तय हुआ कि आगे पीछे हो कर चलें और अगर कहीं पुलिस वाला हो तो इशारा कर दिया जाए। ग़रज़ ये कि ‘अजब बेढंगे-पन से हम रवाना हुए, कभी कोई कहीं निकल गया है। कभी कोई किसी को ढूँढ रहा है। बीसियों मर्तबा खोए गए और पाए गए। उन दोनों की हरकात से पता चलता था कि ये लोग चुलबुले से हैं। नतीजा ये निकला कि दोनों ऐसे खोए गए कि घंटे भर की तलाश के बा’द भी मिल सके। लाला जी के हाँ पहुँचे, वो वहाँ नहीं थे। फिर वापस अनारकली आए। वहाँ भी कोई था। ख़याल आया कि शायद चौबर जी चले गए हों। वहाँ भी चक्कर लगा आए, एक मर्तबा फिर लाला जी और वकील साहब के घरों का तवाफ़ किया। रात के ग्यारह बज गए। चाबी मिली वो दोनों। आख़िर तंग आकर वापस गए।

    रात को मश्वरा किया गया कि ऐंग्लो इंडियन और साहब लोगों की कॉलोनी में मकान तलाश किया जाए। शायद ये बताने की ज़रूरत नहीं कि रात-भर हम कितने दिल-शिकस्ता रहे। दूसरे रोज़ साहब लोगों के मुहल्ले की राह ली। वहाँ पहुँच कर देखा तो फ़ज़ा ही बदली हुई थी। बच्चे से बूढ़े तक जिसे देखो बिल्कुल सियाह था, जैसे किसी ने ज़बरदस्ती धुआँ लगा दिया हो।

    “नी कुड़े विक्टोरिया तुम का ब्रेकफास्ट हो गया कि नहीं?”, बराबर के मकान से आवाज़ आई।

    “हो गया भैन मारग्रेट, लस्सी और साग लंच के वास्ते काॅफ़ी रखा है। अगर ब्रेकफास्ट लई वांटेड हो तो प्रेज़ेंट करूँ।”, जवाब मिला, “थैंक यू विक्टोरिया।”

    बहस शुरू’ हुई। मैं काले आदमियों की तरफ़दारी कर रहा था और बाक़र साहब उनके दुश्मन थे। आख़िर इस नतीजे पर पहुँचे कि सिर्फ़ एक मकान देखेंगे। अगर पसन्द गया तो ख़ैर वर्ना फ़ौरन वापस। हम डरते-डरते सामने के मकान में दाख़िल हुए। वहाँ बरामदे में एक काला कलूटा बच्चा एक पतली सी छड़ी से एक मोटे सुतून को ठक-ठक कर रहा था। इतने में एक भारी सी मेम साहबा निकलीं और अंग्रेज़ी में चिल्ला कर बोलीं, “विलियम, कितनी दफ़्’अ तुमसे कहा कि इस सुतून को इस बुरी तरह ठोका करो। किसी दिन ये सारे का सारा मकान सर पर पड़ेगा।”

    हमने मकान के बारे में पूछा। उन्होंने इशारे से बताया कि वो है। हमने शुक्रिया अदा किया। वो मुस्कुराईं और उनके दाँत इस तरह चमके जैसे अँधेरी घटा में बिजली चमकती है। अब जो मकान जा कर देखते हैं तो खड़े के खड़े रह गए। एक बिल्कुल बेहूदा मकान जिसमें ग़ालिबन दरवाज़ों और दीवारों के सिवा कुछ भी था। होगा क़ब्ल-अज़-मसीह से भी पहले का। दीवारों पर तूफ़ान-ए-नूह के निशानात थे। मकान से 1857 ई. की भी याद ताज़ा होती थी। अंदर जाकर देखते हैं तो सब कुछ टूटा फूटा हुआ। बाक़र साहब बोले, “ग़लती हुई होगी।” जेब से अख़बार निकाल कर पढ़ा, वही मकान था। वापस होने लगे। बाक़र साहब ने कहा, “चलो अंग्रेज़ों की तरफ़ भी एक मर्तबा क़िस्मत-आज़माई करते हैं।”

    वहाँ पहुँचे। एक अंग्रेज़ सीटी बजाता जा रहा था। उससे पूछा। उसने ज़बान को अच्छी तरह तोड़-मरोड़ कर जवाब दिया कि हाँ वो सामने है। मकान देखा। नीचे होटल था और पड़ोस में सिनेमा। होटल के सामने बेशुमार ताँगे खड़े थे। बहुत से लोग जमा’ थे। चपरासी बोला, “जनाब ऐसे मकान कहाँ मिलते हैं। ज़रा खिड़की में बैठे और सामने रौनक़ ही रौनक़ है। तबी’अत घबराई तो फ़ौरन कोट सँभाला और खट से सिनेमा में पहुँच गए। कभी जी चाहा तो जल्दी से नीचे होटल में बैठे। नाच-वाच में कोई हर्ज नहीं। कोई चीज़ मंगवाना हो तो बस (चुटकी बजाकर) मिनटों में जाती है।”

    “और किराया?”

    “दो सौ रुपये।”

    हम वापस चलने लगे कि इतने में एक साहब जो सूट पहने हुए थे अंदर तशरीफ़ लाए और बोले, “जनाब, आप तालिब-’इल्म मालूम होते हैं। आपके लिए रि’आयत की जा सकती है।”

    “कितनी?”

    “हम ढाई रुपये कम कर सकते हैं।”

    “शुक्रिया।”, हम फिर वापस हॉस्टल रहे थे। सोचने लगे कि बस एक मर्तबा: आख़िरी हमला किया जाए। क्योंकि दो रोज़ ज़ाए’ हो गए थे और इम्तिहान में कुल बीस रोज़ रह गए थे।

    बाक़ी सब जगह देख चुके थे। अब सिर्फ़ शहर का गुंजान हिस्सा बाक़ी रह गया था। फिर चल खड़े हुए। लोगों से पूछते जा रहे थे कि किसी ने सामने इशारा कर के कहा, “ऊपर की मंज़िल ख़ाली है।” हमने दरवाज़ा खटखटाया। खिड़की में से एक बच्चा झाँकने लगा। वो चला गया। फिर एक लड़का आया। उसके बा’द एक लड़की आई। वो भी चली गई। ज़रा सी देर में एक ‘औरत आई और उसके बा’द एक बुढ़िया। फिर कोई आया। हमने फिर दरवाज़ा खटखटाया।

    “पिताजी घर में नहीं।”, आवाज़ आई।

    “हमें पिताजी से कोई वास्ता नहीं। तुम में से कोई बाहर निकलो।”

    “आपको कहीं दौलत राम ठेकेदार ने तो नहीं भेजा?”, अंदर से आवाज़ आई।

    बाक़र साहब जल्दी से बोले, “हाँ भेजा है।”

    खट से खिड़की बंद हो गई। क़िस्सा ख़त्म। बेशुमार आवाज़ें देने पर भी कोई बोला। आगे चले। छोटी-छोटी तारीक गलियाँ और दोनों तरफ़ ‘अज़ीमुश्शान मकान एक जगह पता चला कि नज़दीक ही एक हवेली ख़ाली पड़ी है। वहाँ जा कर देखते हैं कि बंदर का तमाशा हो रहा था। दरवाज़ों, छतों, मुंडेरों, खिड़कियों में जहाँ देखो ‘औरतें, मर्द, बचे खड़े थे। ब-मुश्किल उस हुजूम में से गुज़रे। मकान देखा तो अच्छा था। किराया पूछा।

    “अड़तालीस रुपये पाँच आने चार पाई।”, मा’लूम हुआ कि मालिक मकान बनिए थे।

    “आप उन्हें कब साथ लाएँगे?” लाला जी ने पूछा।

    “हम शाम तक सामान वग़ैरह ले आएँगे।” बाक़र साहब बोले।

    “जी नहीं, आपकी वो कब आएँगी?”

    “हमारी वो... क्या मतलब है आपका?”

    “आप ब्याहे हैं ना? दोनों साहबान?”

    “जी नहीं।”

    “तो फिर आप तशरीफ़ ले जाइए। ये शरीफ़ों का मुहल्ला है। यहाँ सब कुन्बा-दार आदमी रहते हैं। उम्मीद है आप समझ गए होंगे।”

    सोचा कि अब किसी ने पूछा तो कह देंगे कि हाँ ब्याहे हैं। बाक़र साहब ने क़सम खाई कि अगर इस दफ़ा’ भी मकान मिला तो वापस हॉस्टल चले जाएँगे। कोई एक घंटे बा’द एक ख़ाली मकान का पता चला। मकान तो अच्छा निकला मगर उसका हदूद-ए-’अर्बा अ‘जीब था। पड़ोस में एक बेहूदा सा सिनेमा था। पीछे गधे बँधे हुए थे।

    “ये शोर तो मचाएँगे?”, हमने पूछा। एक लाला जी बोले, “अव्वल तो ये गधे हैं ही शरीफ़। मेरा मतलब है सीधे सादे हैं। सिर्फ़ सुब्ह और शाम को शोर मचाते हैं। ज़रा रौनक़ हो जाती है। फिर आप एक हफ़्ते तक ‘आदी हो जाएँगे। वो देखिए पंडाल सामने है। हर तीसरे रोज़ वहाँ जल्सा होता है। वो रही पनवाड़ी की दुकान। साथ ही नाई भी है। यहाँ नीचे दही-बड़े वाला बैठता है।”, लाला साहब ने बे-शुमार ख़ूबियाँ गिनवा दीं।

    किराया साठ रुपये था। मैं सोच रहा था कि कैसा शरीफ़ है ये शख़्स, उसने शादी के बारे में पूछा तक नहीं। बाक़र साहब को जोश आया तो बोल उठे, “और जनाब हम ब्याहे भी हैं।”

    “उफ़्फ़ोह, ये तो मैं भूल ही गया था। मगर आप दोनों की श्रीमतियाँ हैं कहाँ?”

    “जी मैके गई हुई है। चन्द माह तक जाएगी।”, मैंने बताया।

    “ख़ूब और आपकी?”

    “स्वर्गबाश हो गईं पिछले महीने, जभी तो बेघर हुआ फिर रहा हूँ।”, बाक़र साहब रन्जीदा हो कर बोले। मुझे हँसी ज़ब्त करना मुश्किल हो गई। उधर लाला जी के आँखों में आँसू गए।

    “अजी परमात्मा किसी को बीवी की मौत का ग़म दिखाए। बस कमर ही टूट जाती है इन्सान की। मैं तो ख़ुद ये दुख झेले हुए हूँ। कोई बच्चा तो नहीं छोड़ा बेचारी ने?”

    “एक बच्ची थी। दो-तीन महीने के बा’द परलोक सिधार गई।”

    “आह, आप दुखिया हैं... आप कौन से कॉलेज में पढ़ते हैं?”

    हमने कॉलेज का नाम बता दिया। कॉलेज का नाम बताना था कि क्या तो लाला जी रोने की कोशिश कर रहे थे और क्या एक दम चौंक पड़े, “साहबान, मु’आफ़ कीजिए मुझे बड़ा अफ़्सोस है कि मैं आपको मकान नहीं दे सकता।”

    “आख़िर क्यों?”, हम हैरान रह गए।

    “आपके कॉलेज का एक लड़का यहाँ रहा करता था। वो सामने के मकान से एक उस्तानी को भगा कर ले गया। चार साल से उन दोनों में से किसी का पता नहीं चला। हम नहीं चाहते कि मुहल्ले में कहीं दुबारा इस क़िस्म की वारदात हो।”, हमने उस ना-मा’क़ूल लड़के को कोस डाला।

    शाम का वक़्त था। परिन्दे अपने अपने आशियानों को वापस जा रहे थे। हम दोनों ज़मीन पर नज़रें गाड़े होस्टल की तरफ़ वापस रहे थे। बाक़र साहब शायद ग़ौर कर रहे होंगे कि किसके जूतों पर ज़ियादा गर्द जमी है। दिल में जो कुछ था सो था ही, ब-ज़ाहिर हम दोनों मुस्कुरा रहे थे।

    “सरासर बेहूदगी है ये मकान वग़ैरह ढूँढना।”, बाक़र साहब बोले।

    “बिल्कुल।”, मैंने कहा।

    हम दोनों हँस पड़े। वैसे भी सुनते हैं कि अगर सुब्ह का भूला शाम को वापस जाए तो उसे भूला नहीं समझना चाहिए।

    स्रोत:

    Lahrein (Pg. 207)

    • लेखक: शफ़ीक़ुर्रहमान
      • प्रकाशक: असदुल्लाह ग़ालिब
      • प्रकाशन वर्ष: 1980

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