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रोज़ा रखा

तखल्लुस भोपाली

रोज़ा रखा

तखल्लुस भोपाली

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    आज 28वाँ रोज़ा था। ग़फ़ूर मियाँ के कंधे पर एक खुर्दुरा तौलिया, क़मीज़ और पाएजामा पड़ा था। कुछ उदास-उदास घर से बाहर पट्टियों पर बैठे थे कि बफ़ाती उधर से गुज़रा।

    ‘‘अस्सलाअ... ग़फ़ूर दादा!”

    ग़फ़ूर मियाँ ने चौंक कर बफ़ाती को देखा और अ'लैक कह कर दूसरी तरफ़ मुँह फेर लिया।

    ‘‘क्यों दादा, आज क्या बात है? कैसा मुँह लटकाए बैठे हो, किसी ने उँगली बताई हो तो उँगली काट दूँ, आँख मारी हो तो काना कर दूँ और...”

    ‘‘अबे चुप रह, बे-फ़ुज़ूल को टर-टर कर रहा है। कोई मर रहा है या जी रहा है बस मज़ाक़ उड़ाने से काम।

    जब देखो जब पंजार-गर्दी किया करता है।”

    ‘‘अच्छा लो, मज़ाक़ बिल्कुल बंद। ये बताओ, ये रंग क्यों उड़ रहा है?”, बफ़ाती कह कर ग़फ़ूर मियाँ के पास बैठ गया।

    ग़फ़ूर मियाँ ने ठंडी साँस लेकर कहा, ‘‘यार कल आख़िरी रोज़ा होगा, आज नहा धो कर फ़ारिग़ हो जाऊँ। बस इस फ़िक्र में था कि मस्जिद से ये नमाज़ी निकलें तो फिर मैं जाऊँ। ना-मा'लूम कितनी लंबी नमाज़ पढ़ रहे हैं?”

    ‘‘और ये जो सामने नल लगा है मुंसिपल्टी का ये किस लिए है? चलो मैं नहला दूँ।”, बफ़ाती ने मुस्कुरा कर कहा।

    ‘‘ख़ालिस बद-क़ौमे हो ख़ाँ बफ़ाती! बिच्छू जैसी आदत है तुम्हारी भी कि मौक़ा मिला और डंक मारा। क्यों रे पिंजारे”, ग़फ़ूर मियाँ ने आँखें निकाल कर कहा, ‘‘तू नहलाएगा हमें? ये मुंसिपल्टी के पलीत पानी से नहाऊँगा। सुब्ह से शाम तक जिस तालाब में घोड़े भैंस ख़च्चर नहाया करते हैं और बड़े अस्पताल के तमाम मरीज़ों का पखाना-पेशाब इसी तालाब में जाता है।”

    ‘‘तो दादा मस्जिद में नल किसी दूसरे तालाब से आते हैं?”

    ‘‘नहीं तो फिर! वो अपने शिमला पर हौज़ बना है। अल्लाह नवाब साहिब को जन्नत नसीब करे, इन मस्जिदों के लिए ही उन्होंने हौज़ बनवाया था पाक-ओ-साफ़ पानी का!”

    बफ़ाती ने ग़फ़ूर मियाँ की ठुड्डी से हाथ लगा कर कहा, ‘‘दादा तुम्हें तो जनम-कनम में एक रोज़ा रखना है, उसके लिए इतना आगा-पीछा देख रहे हो। जहाँ हज़ार गुनाह करते हो वहाँ ख़राब पानी से नहा कर एक और कर लो।”

    ‘‘क्यों ख़ाँ, तुम चुप नहीं रहोगे”, पिंजारे ग़फ़ूर मियाँ ने बफ़ाती का हाथ दूर करते हुए कहा, ‘‘देखो बफ़ाती हर मर्तबा का मज़ाक़ अच्छा नहीं हुआ करता, तू हमारे सामने का लौंडा है। तू क्या जाने रोज़े की सफ़ाई और पाकी क्या होती है? अबे ख़च्चर की औलाद मेरा एक रोज़ा तो क़सम है पैदा करने वाले की तुझ जैसे सौ पिंजारों के रोज़ों के बराबर होता है, सिर्फ़ एक रोज़ा”, ग़फ़ूर मियाँ ने कलिमा की उँगली बताकर कहा, ‘‘साल भर के गुनाह मुआ'फ़ करा लेता हूँ बेटा, हर साल!”

    ‘‘वाह वाह दादा, बड़े पहुँचे हुए हो आप तो। अच्छा तो फिर मेरे गुनाह भी जब जहन्नुम में जाओ तो मुआ'फ़ करा देना!”

    ग़फ़ूर मियाँ ने चौंक कर पूछा, ‘‘अबे काफ़िर जहन्नुम तो तुम जैसों के लिए बनी है यार ख़ाँ तो (सीना निकाल कर) जन्नत में होंगे”

    फिर एक दम मुँह फेर कर ग़फ़ूर मियाँ ने कहा, ‘‘अच्छा बफ़ाती जाओ अपना काम करो। नहीं तो ख़ाँ हम बहुत हरामी तबीअ'त के हैं कुछ ऑल-फ़ौल कह दिया तो थूतड़ा फूल जाएगा तुम्हारा।”

    ‘‘अच्छा दादा, लो मज़ाक़ बिल्कुल बंद। ये बताओ वाक़ई' कल रखोगे रोज़ा। नहीं तो ऐसा नहीं कि मेरी इफ़्तारी बेकार जाए। मैं रोज़ा खुलवाऊँगा आकर अपने हाथों से।”

    ग़फ़ूर मियाँ ने ख़ुश हो कर एक हाथ बफ़ाती पर रख कर कहा, ‘‘यार बफ़ाती मुझे मशवरा दे कि रोज़ा रख लूँ। कहीं गड़बड़ तो नहीं हो जाऊँगा। मेरे तो बफ़ाती ये देख (हाथ दिखाकर) अभी से रौंगटे खड़े हो रहे हैं। अल्लाह अपनी हिफ़ाज़त में रखे ख़ाँ। रोज़ा रखना बड़े कलेजे का काम है और देख ये (ग़फ़ूर मियाँ ने बफ़ाती का हाथ जबरन खींच कर और अपने दिल पर रखते हुए कहा), कैसा हाथ-हाथ भर उछल रहा है देखा।”

    ‘‘अरे वाह दादा, तुम तो पठान हो। हमें तो देखो आठ-आठ रोज़ तक लगत हैं।”

    ‘‘अबे क्यों डींगें मारता है बे पिंजारे, पठानी क्या रोज़े में ही रह गई है। भूक-प्यास में क्या कोई पठानी दिखाएगा साला!”

    ‘‘दादा, ज़रा कड़ा दिल करके रख लो। कल तो है ही आख़िरी, फिर साल भर का आराम, हो गए ख़त्म!”

    ‘‘हाँ, हाँ ख़ाँ, ये तूने ठीक कहा... अच्छा बफ़ाती ये बता कि मौसम तो ऐसा सख़्त नहीं है, रोज़े की टक्कर ले लूँगा?”, और फिर बफ़ाती के कान में कहा, ‘‘तो फिर रख लूँ। तेरा मशवरा है ना, करूँ बिसमिल्लाह, क्यों?”

    ‘‘क्या दादा बात करते हो बच्चों की। साल में एक तो रखते हो।”

    ‘‘अबे चुप तो रह, क्यों गला फाड़ता है। मैंने तो तुझसे ख़ाली मशवरा लिया था। एक रोज़े की कमज़ोरी तो दूसरे साल तक रहती है। ख़ैर, बफ़ाती। और देख कल तू दो-एक चक्कर याद से लगा जाना ख़ाँ, ज़रा मेरी हिम्मत बँधी रहेगी। तुम्हारी दोस्ती फिर किस काम आएगी ख़ाँ।”

    ‘‘हाँ, हाँ ज़रूर आऊँगा। इफ़्तार भी तुम्हारे साथ करूँगा।”

    ‘‘इफ़्तार नहीं, वो मेरी बीवी ने शबराती किराएदार से कह दिया है तो तू बस यूँही ख़ैरियत के लिए जाना ख़ाली। अब वो ख़ाँ शबराती भी अपना बे-उ'ज़्र किराएदार है। सुब्ह से शाम तक सैकड़ों काम-काज करता है, किराया भी पूरा देता है। अब देख कल मैंने उसे रोक लिया है, काम पर नहीं जाएगा।”

    ‘‘क्यों शबराती को क्यों रोक लिया। ग़रीब आदमी है उसकी मज़दूरी का हर्ज होगा।”

    ‘‘अबे ज़रा दम दिलासा देगा। सर पे पानी डलवाऊँगा दिन-भर, तुझे क्या मा'लूम पिछले साल मैं रख चुका हूँ रोज़ा। बस जान नहीं गई थी बाक़ी सब कुछ हो गया था। टाँगें खींचने लगती हैं। ऐसा मा'लूम होता है बफ़ाती कि मौत हाथ जोड़े खड़ी है, इसलिए।”

    बफ़ाती पट्टियों पर से नीचे उतरा और ज़रा दूर हट कर बोला, ‘‘अच्छा दादा, अल्लाह तुम्हें दुश्मन की गोलियों से बचाए। साथ ख़ैरियत के वापिस लाए।”

    ‘‘क्या मतलब? कैसा दुश्मन, कैसी ख़ैरियत बे पिंजारे की औलाद!”

    ‘‘अरे यही दादा, मा'लूम होता है जैसे कहीं काम पे जा रहे हो”, बफ़ाती कह कर रवाना हो गया और ग़फ़ूर मियाँ गालियां देते हुए मस्जिद की तरफ़ चल दिए, ‘‘कि ख़ाँ बफ़ाती! अशराफ़ होने के लिए वलदियत भी अशराफ़ होना चाहिए।”

    दो घंटे तक ग़फ़ूर मियाँ ने ख़ुद को ख़ूब मल-मलकर नहलाया। कपड़े पहने और जा-ए-नमाज़ पर बैठ कर दोनों हाथों को सर से ऊँचा किया और अपने सर को दोनों हाथों के बीच में लटका कर बड़े यतीमाना अंदाज़ में दुआ माँगी।

    बार-ए-इलाहा, तू नेकी बदी का जानने वाला है। तू जिस काम को चाहे मुश्किल कर दे और जिसको चाहे आसान बना दे। बंदे की क्या क़ुदरत है जो चूँ कर ले। तू रोज़े में भूक प्यास को दूर करता है। तू मुश्किल-कुशा है, रब्ब-उल-आलमीन। तुझे ख़ूब मा'लूम है कि तेरा ग़फ़ूर मियाँ कल रोज़ा रखेगा। उस पर क्या गुज़रेगी ये तू और मैं दोनों देखेंगे।

    मा'बूद मुझे रोज़ा रखने की हिम्मत दे, भूक, प्यास और बीड़ी, चाय, पान की तलब को दूर रखना। तोप चलते वक़्त तक सब्र-ए-अय्यूब देना मेरे मा'बूद, दिन में ख़ूब नींद अ'ता फ़रमाना। मेरे ग़फ़ूरुर-रहीम तुझ पर ख़ूब रौशन है कि जिस तरह मुझ पर ये रोज़ा गुज़रेगा, अल्लाह किसी दुश्मन को भी ऐसी तकलीफ़... फिर एक दम ग़फ़ूर मियाँ ने दोनों हाथों को हिला-हिला कर कहा, नहीं नहीं मा'बूद... ग़लत कह गया। मेरा मतलब है दुश्मन को भी रोज़े की तकलीफ़ में ख़ुश रखना।

    मुआ'फ़ करना, मालिक ज़मीन-ओ-आसमाँ हज़ारों रोज़ादार तुझसे अपने महीने भर के रोज़ों को क़बूल करने की दुआ करते हैं मगर मैं तो मेरे मा'बूद... (कलिमा की उँगली बता कर) एक रोज़े के लिए कहता हूँ, दस बीस का नहीं। बस इस को क़बूल फ़रमाना, आमीन, सुम्मा आमीन, सुम्मा आमीन।

    ग़फ़ूर मियाँ इस ख़ुत्बात-ए-दुआ'इया के बाद मस्जिद से निकले, घर आए। शबराती से कहा, ‘‘देखो ख़ाँ शबराती, मियाँ कल काम पे ना जाना ख़ाँ। तुमसे बड़ी ढारस बँधी रहेगी, डूबते को तिनके का सहारा।”

    ‘‘हाँ, हाँ दादा। कल यहीं रहूँगा तुम्हारे पास, तुम रोज़ा तो रखो।”

    ‘‘हुँह। अब क्या कसर रह गई। ये देखो ग़ुस्ल-मसल से फ़ारिग़ हो कर टन-चन हो गया। अल्लाह तुझे भी तौफ़ीक़ दे। शबराती मियाँ हो अशराफ़ आख़िर दिखते किसी अशराफ़ वलदियत के हो।”

    इतने में तोप चली। ग़फ़ूर मियाँ ने हँसते हुए कहा, ‘‘लो शबराती मियाँ कल ख़ाँ इसी वक़्त अपना रोज़ा भी खुलेगा, इंशाअल्लाह। अरे ख़ाँ एक रोज़े का रखने में क्या रखना। यूँ चुटकी बजाते दिन जाता है।

    क्यों ना?”

    ‘‘हाँ दादा, कुछ नहीं मा'लूम पड़ता। आजकल रोज़े बहुत हैं।”

    ‘‘अल्लाह मुझे तीस रोज़े रखने की हिम्मत दे, बस यूँही ढारस दिलाते रहो शबराती मियाँ। फिर क्या है। बेड़ा पार है।”

    रात गए तक ग़फ़ूर मियाँ शबराती की कोठरी में बैठे रोज़े की अच्छाइयों और नेकियों पर बातें कर के हौसला बढ़ाते रहे और इसी दरमियान शबराती को ये भी फ़हमाइश करते रहे कि ख़ाँ ख़याल रखना सहरी की तोप चल जाए और शबराती जो उकड़ूँ बैठे हुए ऊँघ रहे थे बराबर जमाइयाँ ले-ले कर ग़फ़ूर मियाँ को घर में सो जाने की तलक़ीन करते रहे, ‘‘कि दादा इत्मीनान से सो जाओ, बिल्कुल टाइम पर उठा दूँगा।”

    ‘‘हाँ, है तो मगर ऐसा धकधका लगा है कि अगर सहरी को आँख खुली तो फिर ख़ाँ शहादत का दर्जा मिलेगा। बचना मुश्किल है।”

    ग़रज़ कि दो बजे रात को ग़फ़ूर मियाँ घर में गए और बीवी को आवाज़ देकर उठाया।

    ‘‘ओ मरियम, मरियम, ज़रा उठ तो। कुछ सहरी का भी ख़याल है या नहीं!”

    ‘‘आग लगे तुम्हारी जल्दी में। आधी रात को किधर सहरी कर रहे हो, अभी फ़क़ीर तक तो बोले नहीं।”

    ‘‘अरे तो कब तक सहरी का इंतिज़ार करूँगा, दो तो बज गए। तुम तो बेगम जो कुछ हो ला दो। खा कर सो जाऊँ, होती रहेगी सहरी जब उसे होना होगा।”

    मरियम ने दलिया और दूध ला कर सामने रखा। ग़फ़ूर मियाँ ने खा कर डकार ली। हिफ़्ज़-मा-तक़द्दुम के लिए दो तीन गिलास पानी के ऊपर से चढ़ाए और बीड़ी पर बीड़ी पीना शुरू' कर दिया। एक घंटा हुआ होगा कि फ़क़ीर ने आवाज़ दी, उट्ठो रोज़ादारो, सहरी का वक़्त हुआ। ग़फ़ूर मियाँ तेज़ी से बाहर गए और फ़क़ीर से कहा, ‘‘क्यों ख़ाँ हो गया सहरी का टाइम?”

    ‘‘हाँ, दादा हो गया।”

    ‘‘अच्छा मियाँ साहिब, कल दिन-भर अपना रोज़ा रहेगा। याद से इफ़्तार के वक़्त जाना, तुम्हें भी कुछ मिल जाएगा।”

    ‘‘अल्लाह आपको ख़ुश रखे जाऊँगा ज़रूर।”

    ‘‘मगर मियाँ साहिब ज़रा दिल से दुआ माँगना ख़ाँ कि हमें रोज़े की तकलीफ़ हो। आसानी से दिन गुज़र जाए।”

    ‘‘अल्लाह आसान करेगा मियाँ, फ़क़ीर कह कर रवाना हो गया।”

    ग़फ़ूर मियाँ घर में आए। ‘‘लो मरियम मैंने अब सबसे दुआ' वग़ैरह का कह सुन दिया। अब जो अल्लाह बनाए सो हो, अस्सलामु-अ'लैकुम।”

    मरियम ने जवाब दिया, ‘‘अल्लाह ऐसा रोज़ा रखवाए ख़ुद भी दीवाने हो रहे हैं और दूसरे झाड़ू फिरों को भी पागल बनाए रहते हैं।”

    ‘‘बस-बस, टर-टर बंद कर मरियम। मैंने रोज़े की निय्यत कर ली है अब रोज़ादार को बुरा-भला कह कर क्यों अ'ज़ाब-ए-गुनाह अपने सर ले रही है बे-फ़ुज़ूल को।”

    ग़फ़ूर मियाँ फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो जाने के डर से सुब्ह तक करवटें बदलते रहे। मस्जिद गए, सुब्ह की नमाज़ पढ़ी। नमाज़ियों ने ग़फ़ूर मियाँ को देखा। ज़ेर-ए-लब मुस्कुराए कि आज ग़फ़ूर मियाँ का साल रोज़ा है। ग़फ़ूर मियाँ नमाज़ियों के चले जाने के बाद देर तक गिड़गिड़ा कर ‘‘रोज़ा आसान दुआएँ” पढ़ते रहे।

    काफ़ी दिन चढ़े घर आए।

    ‘‘ऐसा रोज़ा रखने से क्या फ़ाएदा कि सुब्ह की नमाज़ ही ग़ाएब कर दी। ये फ़ाक़ा है फ़ाक़ा मरियम।”

    ‘‘तुम तो अपने मतलब की बात कहो।”, मरियम ने करवट लेते हुए कहा।

    ‘‘लाओ रुपये निकालो, सौदा सलफ़ ले आऊँ। धूप तेज़ होती जा रही है।”

    ‘‘वो रखे हैं झूले में, जितने चाहो ले जाओ। एक रोज़ा क्या रख लिया है कि दुनिया को नसीहतें हो रही हैं।”

    ‘‘बस, मुख़्तसर, मरियम रोज़ा हमारा भी है।”

    ग़फ़ूर मियाँ पलंग की मैली चादर और एक थैला लेकर बाज़ार रवाना हो गए। साये में ज़ियादा चले। नीज़ सुस्त-ख़िरामी का बड़ा ख़याल रखा। जहाँ तक हो सका बहुत आहिस्ता चयूंटी की चाल चल कर हर दस पंद्रह मिनट किसी बंद दूकान के पट्टियों पर क़याम करते सर पर जो भीगा हुआ तौलिया पड़ा था, हर मिनट उसकी नमी को हाथ से टटोल कर मा'लूम करते और साथ ही साथ जान पहचान वालों को मुख़ातिब भी करते जाते थे।

    ‘‘अबे कल्लू, ज़रा अपने बाबा से कह देना मेरा रोज़ा है। मस्जिद में नहीं तो घर पे ही दुआ माँग लेना भाई।”

    ‘‘ओ मजीदा क्यों रे बेग़ैरत? रोज़ा रखो नमाज़ पढ़ो। ये ऐ'लानिया सिगरेट पीते फिर रहे हो। हुआ बेटा! वो सरकार अम्माँ का ज़माना, नहीं तो काला मुँह कर के गधे पर टहलाए जाते।”

    ‘‘वाह ख़ाँ रबड़, ख़ूब ये गोश्त हमारे ही सर मार रहे हो! (मोटी गाली बक कर) ये छीचड़े, हड्डे हमारी क़िस्मत में ही हैं। मियाँ हमीदा, हमसे ख़ाँ क़साईपन मत करो भैया। हमने ज़िंदगी-भर गुलाबी गोश्त खाया है। तुमने तो बेटा ऐसे आलीशान बकरे देखे भी होंगे बैल, सांभर के बराबर।”

    ‘‘ए भाई क्या बैंच रहा है इस ख़ोंचे में?”

    ‘‘फल हैं दादा।”

    ‘‘अच्छा देख इधर आ, ज़रा क़रीब (फिर एक दम ख़फ़ा हो कर) अबे डरता क्यों है? क्या शेर हूँ जो तुझे खा जाऊँगा, सुन मेरी बात।”

    ‘‘हाँ लो दादा, क्या है गया क़रीब।”

    ‘‘देख तीन चार बजे के क़रीब वो शिफ़ा-ख़ाने के पास याद से जाना। सीधे हाथ वाली गली के बिल्कुल नुक्कड़ पर जो अंग्रेज़ी कबीलज़ वाला दो-चार सौ बीस ठेकेदार का मकान है। बस उसी से मिला हुआ अपना देसी कबीलुओं का झोंपड़ा है इकहरा। बाहरी बैठक के साथ ये बैठक अब अपुन ने शबराती दादा को किराए पर उठा दी है।”

    ‘‘चुगी दाढ़ी है शबराती की, खिचड़ी बाल होंगे और हाँ एक सुर्ख़-रंग की क़मीस पहने होगा। मेरा यार साल-भर से एक ही क़मीस को रगेद रहा है और हाँ! क्या नाम है तुम्हारा मियाँ ख़ोंचे वाले?”

    ‘‘हीरालाल है दादा”

    ‘‘नाम तो ख़ाँ उम्दा है। तुम्हें तो कहीं का वज़ीर होना था, ये क्या बेंचते फिर रहे हो?”

    ‘‘दादा जल्दी कहो, आपको कितने फल दे दूँ?”

    ‘‘हाँ, हाँ। तू भी काम वाला आदमी है, ख़ैर बस उसी घर पर आकर ग़फ़ूर मियाँ ग़फ़ूर मियाँ आवाज़ दे देना या उसी शबराती से कह देना, बस मैं दो-चार आने के फल तो ख़रीद ही लूँगा।”

    ‘‘वाह दादा घंटा भर ख़राब किया, दो-चार आने के लिए चार मील दूर आऊँगा”, ख़ोंचे वाले ने भन्ना कर कहा और चल दिया।

    दिमाग़ तो देखो साले के, आसमान पर हैं रोज़ादारों से ही बात नहीं करते। वाह बेटा! रमज़ान होते तो ये सब दूकानदार घोड़े से लगे होते। ये मियाँ भाइयों का ही दम है जो रमज़ान ई'द में घर के गेड़े कबीलो तक बेंच के खा जाते हैं।

    ‘‘और क्यों रे बफ़ाती! तुम तो ख़ूब आए हमारी ख़ैरियत पूछने!”

    ‘‘दादा, अभी ताव का वक़्त थोड़ी आया है।”

    ‘‘हाँ ख़ाँ, (ठंडी साँस लेकर) दोस्ती निभाना बड़ा मुश्किल है। तुम जैसे बदक़ौमों से क्या उम्मीद रखी जाए। वो ख़ाँ बफ़ाती तुमसे इसलिए दुआ' वग़ैरह का कह दिया था कि तुम मुजर्रिद आदमी हो अल्लाह मुजर्रिद आदमी की जल्दी दुआ' क़बूल फ़रमाता है। बस ये वज्ह थी वर्ना यहाँ तुम जैसे हलकट आदमी को अपुन अपनी गिरह में नहीं आने देते।”

    बफ़ाती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा, ‘‘दादा! मुझे बकरी का गोश्त लेना है, नहीं तो उठ जाएगा सब!”

    ‘‘वाह ख़ाँ पिंजारे मियाँ, ये तुम बकरी का गोश्त कब से खाने लगे? अबे बोदा खा, बोदा!”

    ‘‘अच्छा दादा, बोदा ही देखूँगा, तुम जैसा कोई मिल जाए तो।”, बफ़ाती कह कर तेज़ी से चल दिया। ग़फ़ूर मियाँ गालियाँ देते हुए फिर ख़रीदारी में लग गए।

    ग़रज़ कि तीन चार घंटे की शॉपिंग के बाद ग़फ़ूर मियाँ घर लौटे और ड्योढ़ी में से चिल्लाना शुरू' किया,

    ‘‘ओ मरियम, अल्लाह की बंदी। जल्दी तो आजा। ले सँभाल ये अपना सामान। ख़ुदा दे तो क़ाएदे की औ'रत दे नहीं तो मर्द का पैदा होना ही फ़ुज़ूल है।”

    ‘‘ए बस चुप रहो, अल्लाह मरियम को ज़मीन का पैवंद करे। कहाँ झाड़ू फिरी पैदा हुई। रोज़ा क्या रख लिया है कि दुनिया जहाँ को सर पे उठा लिया। तुमपे तो (ग़फ़ूर मियाँ की तरफ़ हाथ दराज़ करते हुए) रोज़े का भूत सवार है।”

    ‘‘बस-बस बेगम, नहीं तो किसी कुँए में जा गिरूँगा आज। कपड़े फाड़ने को दिल चाहता है। तुझसे इतना नहीं बना कि कल मना' कर देती। मगर मरियम, वो तो घर के गेड़े से ही आँख फोड़ती है!”

    ‘‘तौबा है अल्लाह, मैं मना' करके क्या अपने ऊपर गुनाह मोल लेती।”

    ‘‘हाँ हाँ, तुम तो जैसे उठते बैठते सब काम सवाब के ही करती हो! अच्छा ख़ैर।”

    ग़फ़ूर मियाँ ने पलंग पर बैठ कर कहा, ‘‘ये उठा लो सब सामान और ये क़ीमा और बदामी गोश्त। ये देखो क्या गोश्त लाया हूँ मरियम। क़साई भी दिल पकड़ कर रह गया अपना। ख़ैर ये अलग-अलग पकाना, ज़रा ढंग से। मसाला बारीक हो, दर्दराना रहे और क़ीमे में खड़ी हरी मिर्चें और मटर के दाने डालना और बदामी गोश्त को ज़रा लट-पटा रखना। ऐसा नहीं पूरी हंडिया में तालाब भर दो। नहीं तो क़सम है पैदा करने वाले की, घर से बाहर फेंक दूँगा देगची। और ये टमाटर, अहाहा। क्या रंग है (सूंघ कर) देख मरियम, ये था जवानी में अपना रंग, ख़ून टपकता था गालों से।”

    ‘‘हाँ ख़ैर, तुम तो बहुत हसीन थे। ये बताओ कि टमाटर कैसे पकेंगे।”

    ‘‘पहले चटनी बनाना फिर आलू प्याज़ के पत्ते डाल कर एक तरकारी और बनाना और हाँ दाल-माश की अभी भिगा दो और प्याज़ का उम्दा बघार देना।”, ग़फ़ूर मियाँ ने एक दम मरियम को घूर कर कहा, ‘‘ज़रा मुँह से तो बोलो क्या समझीं।”

    ‘‘सब समझ गई, सुन लिया। शाम तक अल्लाह चाहे तो मेरा जनाज़ा निकाल कर रहोगे। ख़ूब समझ रही हूँ।”

    ‘‘ज़बान तो देखो कैसी क़ैंची की तरह चल रही है। मरियम शुक्र कर कि यार ख़ाँ ने शादी कर ली नहीं तो मा'लूम कहाँ ठिकाना लगता।”

    ‘‘ए चलो, दो साल नाग रगड़ी थी देहली पर आकर, तब मेरे बाप ने हामी भरी थी। तुम जैसे कितने हार-पसता के बैठ गए थे।”

    ‘‘अच्छा बस, नहीं तो खट से तलाक़ दे दूँगा। आटे-दाल का भाव मा'लूम हो जाएगा।”

    ‘‘लाओ रख दो, ढाई हज़ार महर के। मैं चली अपने घर।”

    ‘‘हूँ, महर दूँगा तुझे। जैसे महर देने के लिए ही तो तुझसे शादी की थी मैंने।”

    ‘‘ए शबराती दादा, अरे शबराती दादा।”, मरियम ने ड्योढ़ी में जाकर कहा।

    ‘‘हाँ बाई, क्या बात है?”, शबराती ने कहा।

    ‘‘ये इन्हें ख़ुदा के वास्ते अपने पास बुला लो, नहीं तो मैं कपड़ों में आग लगा कर मरती हूँ। अल्लाह ऐसा दुश्मनों का भी रोज़ा रखवाए।”

    ग़फ़ूर मियाँ ने ज़रा ठंडा हो कर कहा, ‘‘अरे मरियम, तुम समझ तो लो कि क्या-क्या पकेगा।”

    ‘‘सब कुछ समझ गई, छः सात रंग की हंडियाँ पक्का दूँगी। मगर बाहर जाकर बैठो।”

    ‘‘मगर भजिए, पापड़, चने की दाल, नमक मिर्च वाली चटपटी होना चाहिए।”

    ‘‘हाँ-हाँ, सब हो जाएगा। तुम तो ख़ुदा के वास्ते बाहर जाओ।”

    ‘‘ला'नत हो तुझ पर औ'रत।”, कहते हुए ग़फ़ूर मियाँ शबराती की कोठरी में चले गए।

    अभी पलंग पर जाकर लेटे ही थे कि शबराती ने कहा, ‘‘दादा, ज़ुहर की नमाज़ का वक़्त है मस्जिद जाओ।”

    ‘‘ठहर तो यार, अब घर में से इस चुड़ैल से पीछा छुड़ाया तो तू भूत की तरह चिमट गया। मैं तो दूसरी मस्जिद में जाऊँगा ज़रा ठहर के।”

    ‘‘क्यों दादा, सामने वाली में क्यों नहीं?”

    ‘‘अरे ख़ाँ शबराती, ये इमाम साहिब बहुत लंबी नमाज़ खींचते हैं ख़ाँ। अल्लाह रसूल का हुक्म है कि नमाज़ छोटी पढ़ना चाहिए।”

    ‘‘वाह दादा, नमाज़ में रोज़ा बहलता है। नमाज़ से बड़ी बरकत होती है।”

    ‘‘अरे हाँ यार, मुझ मनहूस की नमाज़ की आदत भी हो। नमाज़ पढ़ने खड़ा हुआ तो भूक प्यास की तरफ़ ज़ियादा ध्यान रहता है शबराती। अल्लाह के यहाँ देखो नमाज़ रोज़े करने से क्या हाल होता है। अल्लाह मुआ'फ़ करे।”

    थोड़ी देर बाद उठकर ग़फ़ूर मियाँ मस्जिद गए। नमाज़ पढ़ कर घर अंदर जाकर पलंग पर दराज़ हुए और करवट लेकर सेहन के साये पर नज़रें गड़ा दीं। मुश्किल से दस पंद्रह मिनट हुए होंगे कि ग़फ़ूर मियाँ ने कहा, ‘‘अल्लाह ही जाने ये धूप सरक भी रही है या नहीं। घंटा भर हो गया एक ही जगह क़ाएम हो गई है जैसे।”

    ग़फ़ूर मियाँ ने एक लांबा लोहे का कीला धूप और साये के संगम पर ज़मीन में ठोंका और फिर वापिस पलंग पर... अभी मुश्किल से बीस मिनट हुए होंगे कि ग़फ़ूर मियाँ इंतिहाई ग़ुस्से में बड़बड़ाते हुए बाहर गए और शबराती से कहा, ‘‘ज़रा उठना ख़ाँ, चलना मेरे साथ घर में ज़रा।”

    ग़फ़ूर मियाँ ने शबराती का हाथ पकड़ और खींचते हुए मकान के अंदर लाए।

    ‘‘देखो ख़ाँ शबराती, दो घंटे हो गए ये कीला ठोंका था मैंने समझे... और धूप को... (गाली बक कर) मौत गई जैसे, देखा शबराती क़सम है पैदा करने वाले की आज रोज़े में दुनिया की हर चीज़ हमसे दुश्मनी कर रही है ख़ाँ”, फिर एक दम ग़फ़ूर मियाँ ने सूरज की तरफ़ देखा।

    कमर पर दोनों हाथ रखे और दाँत पीसते हुए कहा, ‘‘क्यों ख़ाँ सूरज मियाँ? आज तो बेटा तुम एक इंच भी नहीं सरक रहे हो क्यों? सुबह 6 बजे से सर पर आकर टँगे हो तो उतरने का नाम नहीं लेते। फिर एक हाथ हवा में लहरा कर ग़फ़ूर मियाँ ने कहा, तुम्हारा काम तो ख़ाँ ये है कि रोज़ मशरिक़ से निकलो और जैसे-तैसे मग़रिब में दफ़्न हो जाओ। आज ख़ाँ, ये कैसे अपनी चाल भूल गए, क्यों ख़ाँ? आज गरहन में फँस गए क्या?

    ऐसा मा'लूम होता है कि जैसे किसी ने तुम्हारे मेख़ ठोंक दी हो। एक क़दम नहीं बढ़ते आगे।”

    ‘‘अच्छा दादा साये में चलो, ताव लग जाएगा रोज़े का।”, शबराती ने कमर में हाथ डाल कर कहा।

    ‘‘अरे शबराती ठहर जाओ और क्या ताव लगेगा। ताव तो ख़ूब लग गया। ज़रा इससे तो दो-दो बातें कर लेने दे। आज ये अल्लाह के प्यारे बंदों को सता रहा है (फिर सूरज देखकर) क़सम है ख़ाँ तुझे पैदा करने वाले की जो एक इंच भी खिसक जाए अपनी जगह से। शाम तक यहीं टँगे रहना बेटा यज़ीद की औलाद!

    अरे तुझे भी अल्लाह ने पैदा किया है और हमें भी। ये नहीं बनता कि जल्दी-जल्दी चल कर अपने एक भाई की रोज़े में कुछ मदद कर दे।”

    शबराती ग़फ़ूर मियाँ को जबरन ढकेल कर दालान में ले गया।

    ‘‘दादा, तुम तो अब पलंग पर लेट कर सो जाओ थोड़ी देर।”

    ‘‘क्या सो जाऊँ यार शबराती। ये भूक प्यास, बीड़ी की तलब... (गाली बक कर) कहीं सोने देगी मुझे।

    बहर-हाल ग़फ़ूर मियाँ दो एक घंटे लोटते-पोटते रहे और पैरों पर पानी डाला किए फिर एक दम शबराती को आवाज़ दी।

    ‘‘देखना शबराती यहाँ कोई दमदमा पर तोप के पास आया या नहीं?”

    ‘‘दादा, अभी दो घंटे हैं। अभी से किधर आएगा तोप के पास।”

    ‘‘अरे ख़ाँ शबराती मियाँ, तोप की भी कुछ सफ़ाई-मफ़ाई करेगा या नहीं, या यूँही गोला घुसेड़ देगा, कल तो इस वक़्त चल भी गई थी ख़ाँ। आज का दिन देखो। साल भर के बराबर हो गया क़सन परवरदिगार की।”

    पापड़, भजिए, चटपटे मसालिहादार। बाहर किसी ख़्वांचे वाले ने हाँक लगाई।

    ‘‘अबे चुप रह। हाँ शबराती बैठे देख रहे हो तुम। बाहर भगा साले को दूर कहीं। बे-फ़ुज़ूल को रोज़ा मकरूह कर रहा है।”

    ‘‘दादा, अस्र का वक़्त गया, नमाज़।”, शबराती ने आवाज़ दी।

    ‘‘हाँ ख़ाँ, तुम बाहर से ख़ूब मेरी उखाड़-पछाड़ किए जाओ समझे। ये ढारस बँधा रहे हो हमारी?’’

    ग़रज़ क़िस्सा कोताह कि ग़फ़ूर मियाँ तोप से बीस मिनट पहले घर में आए।

    मरियम ने कहा, ”इफ़्तार के साथ खाना खाओगे या नमाज़ पढ़ कर?”

    ‘‘ख़ुदा तुझे ग़ारत करे औ'रत, अब ख़ुदा-ख़ुदा कर के अल्लाह ये टैम लाया तो तू अब भांजी मार रही है।” फिर एक दम चीख़ कर कहा, ‘‘अरे मरियम ख़ुदा रहम नहीं खाता तो क्या तू भी रहम नहीं खाती। अरी कम-बख़्त औ'रत नमाज़ तो क़ज़ा भी पढ़ लूँगा मगर ये साँस उखड़ गई तो क़ज़ा भी नहीं पढ़ सकता। ग़फ़ूर मियाँ ने इतना कहा था कि तोप दाग़ने की आई।”

    अलहम्दुलिल्लाह। शुक्र है तेरा मा'बूद। अब भी नाहक़ चलीं, सहरी को ही चलतीं।

    ग़फ़ूर मियाँ ने पौन घंटा मुख़्तलिफ़ पैंतरे बदल-बदल कर खाया और दो बीड़ियाँ एक साथ पी कर मरियम से कहा, ‘‘मरियम, अल्लाह गुनाह मुआ'फ़ करे। अस्ल में मुसलमान तो वही है जो हमेशा पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़े और पूरे रोज़े रखे।”

    ‘‘हूँ! शुक्र है अब रोज़े के बाद हुए मुसलमान”, और ग़फ़ूर मियाँ झेंपते हुए मुस्कुराने लगे।

    स्रोत:

    Ghafoor Miyan (Pg. 31)

    • लेखक: तखल्लुस भोपाली
      • प्रकाशक: पंज भवन पब्लिकेशंस, भोपाल
      • प्रकाशन वर्ष: 1964

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