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एक वाक़िअ:

MORE BYरशीद अहमद सिद्दीक़ी

    मेरी ज़िंदगी में कोई ऐसा वाक़िअ: पेश नहीं आया जिस पर ये इसरार हो कि मैं उसे ज़रूर याद रखूं। मुझे अपने बारे में ये ख़ुशफ़हमी भी है कि किसी और की ज़िंदगी में कोई ऐसा वाक़िअ: पेश आया होगा जिसका ताल्लुक़ मुझसे रहा हो और वो उसे भूल गया हो। भुलाए जानेवाले वाक़िआत आम तौर पर या तो तोब-तुन-नुसूह क़िस्म के होते हैं या ताज़ीरात-ए-हिंद के। बाक़ौल शख़्से, “यानी गोया कि तरक़्क़ी-पसंद होते हुए मेरी ज़िंदगी के औराक़ में इस तरह के “साल का बेहतरीन अफ़साना” या “बेहतरीन नज़्म” नहीं मिलती। मैं तो इस दर्जा बदनसीब सरफिरा हूँ कि लिखते वक़्त ये भी भूल जाता हूँ कि अदब में सिर्फ़ “इश्तिराकियत” तरक़्क़ी पसंदी की अलामत है। इसका सबब क्या है, मुझे बिलकुल नहीं मालूम, मुझे इसकी फ़िक्र भी नहीं कि मालूम करूँ। अगर आप उसके दरपे हैं कि कोई कोई वजह दरयाफ़्त कर लें तो फिर सब्र कीजिए और उस वक़्त का इंतज़ार कीजिए, जब मैं अज़ीज़ों और दोस्तों से ज़्यादा ख़ुशहाल और नेक नाम होजाऊं या मुझ पर ग़बन या अग़वा का मुक़द्दमा दायर हो जाए। उस वक़्त आप मेरे अज़ीज़ों या दोस्तों ही से मेरे बारे में ऐसे वाक़िआत सुन लेंगे जो मुझ पर गुज़रे हों या नहीं, आप ख़ुद उनको कभी भुलाएँगे।”

    लेकिन अरबाब-ए-रेडियो ने मुझे इस पर मामूर किया है कि आपको कोई वाक़िअ: सुनाऊँ ज़रूर, और मैं सुनाऊँगा भी ज़रूर। आपने गांव की ये रिवायत या कहावत तो सुनी होगी कि, “नाई का नौशा जज्मानों को सलाम करता फिरे।” इस रिवायत पर जो उसूल बनाया गया है वो अलबत्ता ऐसा है जो कभी भुलाया जा सके यानी हक़ तमामतर जज्मानों का और ज़िम्मेदारी तमामतर नाई के नोशों की। एक दफ़ा फिर “यानी गोया कि लिखें हम, तरक़्क़ी पसंद आप, ये उसूल हमारी सोसाइटी और ज़िंदगी पर कितना लागू है। मैंने लागू का लफ़्ज़ उन दोस्तों के एहतिराम में इस्तेमाल किया है जो अदालत या कौंसिल में बहस मुबाहिसा में हिस्सा लेते हैं, उन माअनों में हरगिज़ इस्तेमाल नहीं किया जिन माअनों में दिल्ली की म्युनिस्पिल्टी ने हाल ही में लागू जानवरों के बारे में इश्तिहार दिया है कि जो शख़्स उनको मार डाले उसको इनाम मिलेगा। मैं इस ग़रज़ से दिल्ली आया भी नहीं हूँ। अलबत्ता मुझे इनाम लेने में कोई उज़्र होगा। ख़्वाह इनाम की रक़म आधी ही क्यों कर दी जाये। मेरा ये कारनामा क्या कम होगा कि मैं किसी लागू जानवर का शिकार हुआ! तो वाक़िअ: है,

    ज़्यादा दिनों की बात नहीं है, मैं हाज़िर, ग़ायब, मुतकल्लिम की हैसियत से आपसे गुफ़्तगु करने दिल्ली आरहा था। जिस डिब्बे में मुझे जगह मिली वो खिलाफ-ए-तवक़्क़ो उतना भरा हुआ था जितना कि रेलवे वाले चाहते थे। ये बात भी मैं भूल नहीं सकता लेकिन इस एतबार से डिब्बा भरपूर था कि उसमें हर जिन्स, हर उम्र और हर तरह के लोग मौजूद थे। एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो एक बूढ़ा किसान भी गिरता पड़ता दाख़िल हुआ। ज़िंदगी में इस तरह के बुड्ढे कम देखे गए हैं, बड़ी चौड़ी चकली हड्डी, बहुत लंबा क़द लेकिन इस तौर पर झुका हुआ जैसे बुढ़ापे में क़द सँभलता था, इसलिए झुक गया था। जिस्म पर कुछ ऐसा गोश्त था लेकिन उसकी शक्ल और नौईयत कुछ इस तरह की थी कि उसके देखने से उसके छू लेने का एहसास होता था जैसे गोश्त और चमड़े के बजाय मस्नूई और मुरक्कब रबर वग़ैरा क़िस्म की कोई चीज़ मंढ दी गई हो। सख़्त नाहमवार मौसम प्रूफ़ ही नहीं, रगड़ प्रूफ़ भी। हथेली और उससे मुत्तसिल उंगलियों की सतह ऐसी हो गई थी कि जैसे कछुवे की पीठ की हड्डी के छोटे बड़े टुकड़ों की पच्चीकारी कर दी गई हो। मेरे दिल में कुछ वहम सा पैदा हुआ जैसे ये आदमी था। खेत, खाद, हल, बैल, मर्ज़, क़हत, फ़ाक़ा, सर्दी, गर्मी, बारिश सब निबटने और अपनी जैसी कर गुज़रने की एक हिंदुस्तानी अलामत सामने गई हो।

    डिब्बे में कोई ऐसा था जिसने उसकी पज़ीराई इस तौर पर की हो जैसे कोई माज़ूर, मरियल, ख़ारिशी कुत्ता आगया हो। नौजवानों ने मार डालने की धमकी दी। औरतों ने बेटी-बेटे मर जाने के कोसने दिए। बूढ़ों ने ये देखकर कि नौ वारिद बुड्ढा उनसे पहले मर जायेगा अपनों को जवानों में शुमार कर लिया और माँ बहन की गाली देनी शुरू कर दी। बेदर्दी और अपनी अपनी बड़ाई बघारने और बखानने का ऐसा भूंचाल आया कि मैंने महसूस किया कि ताज्जुब नहीं कि डिब्बा बग़ैर इंजन का चलने लगेगा। नौ वारिद की नज़र एक दूसरे बुड्ढे पर पड़ी जो शायद इस क़िस्म के सुलूक से दो-चार हो कर एक गोशे में सहमा सिमटा अपने ही बिस्तर पर जो फ़र्श पड़ा हुआ था, दोनों यकजा हो गए आने वाला अपनी लठिया के सहारे फ़र्श पर उकड़ूं बैठ गया और सर को अपने दोनों घुटनों में इस तौर से डाल लिया कि दूर से कोई उचटती हुई नज़र डाले तो चौंक पड़े कि ये कैसा शख़्स था जिसके कंधों पर सर था। शोर और हंगामा कम हुआ था कि गाड़ी प्लेटफार्म से सरकने लगी। एक कलेक्टर साहिब नाज़िल हो गए। डिब्बे में कुछ ऐसे लोग थे जिनके पास टिकट थे। सिर्फ़ क़ीमती सिगरेट केस, फ़ाउन्टेन पेन, घड़ी और सोने के बटन थे। टिकट कलेक्टर को किसी ने सिगरेट पेश किया, किसी ने दो बड़े बड़े अनन्नास दिए, किसी ने अपनी साथी ख़ातून का यूं तआरुफ़ कराया कि वो बी.ए पास थीं और फ़िल्म में काम करती थीं। सबको नजात मिल गई, बुड्ढा पकड़ा गया और वो सब जो टिकट लेने के मुवाख़िज़ा से नजात पा चुके थे, टिकट कलेक्टर की हिमायत में बुड्ढे को बुरा-भला कहने लगे और वही क़िस्से फिर से शुरू हो गए। यानी फब्ती, फक्कड़, गाली गलौज और मालूम नहीं क्या क्या।

    बुड्ढा भौचक्का था और बराबर कहे जा रहा था कि उसके पास कुछ नहीं है। वो बड़ी मुसीबत और तकलीफ़ में था। किसी के पांव पकड़ लेता, किसी की दुहाई देता। उसकी बेवा लड़की का अकेला नौ उम्र ना समझ लड़का घर से ख़फ़ा हो कर दिल्ली भाग गया था। बग़ैर कुछ खाए पिए या लिए, जिसके फ़िराक़ में माँ पागल हो रही थी और घर के मवेशियों के गले में बाँहें डाल डाल कर रोती थी, जिस तरह बुड्ढा हम सबके पांव में सर डाल कर मिन्नतें करता और रोता था। गांव वाले कहते थे कि माँ पर आसेब है। बुड्ढा बे अख़्तियार हो हो कर कहता था, हजूर सच मानो मेरी बहू पागल नहीं है, उस पर आसेब नहीं है, वो तो मेरी ख़िदमत करती थी, ढोर-डंगर की देख-भाल करती है, खेती बाड़ी का बोझ उठाते हुए घर का सारा धंदा करती है। उस पर सोने के बटन ने फ़रमाया, अरे बुड्ढे तू क्या जाने, वो और क्या-क्या धंदा करती है। बुड्ढा बिलबिला कर उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर रोने लगा। बोला, “सरकार माई बाप हो, ये कहो, मेरी बहू हीरा है। दस साल से बेवा है, सारे गांव में मान दान है।”

    टिकट कलेक्टर ने एक मोटी सी गाली दी और बोला, “टिकट के दाम ला, बड़ा बहू वाला बना है।” बुड्ढा फिर गिड़गिड़ाने लगा। उस पर किसी साहब ने, जिनका लिबास मैला, फ़ाउन्टेन पेन अमरीकन और शक्ल बंजारों जैसी थी और पत्ते पर से उंगली से चाट चाट कर दही बड़े ख़त्म किए थे। सनी हुई उंगली से बालों को ख़िलाल करते हुए फ़रमाया, क्यों रे बुड्ढे मुँह पर आँख थी कि हमारे डिब्बे में घुस आया। शरीफ़ों में कभी तेरे पुरखा भी बैठे थे। बुड्ढा घिघिया कर बोला, “बाबू! असराफों ही को देखकर चला आया, असराफ दयालू होते हैं। तुम्हारे चरणों में सुख और छाया है, थर्डक्लास में गया था। एक ने ढकेल दिया, गिर पड़ा। बहू ने बच्चे के लिए एक नई टोपी और कुछ सूखी जलेबी दी थी जो अँगोछा में बंधी थी कि लौंडा भूका होगा, दे देना। टोपी पहन कर जलेबी खाएगा तो ख़ुशी के मारे चला आएगा। हड़बड़ में जाने किस ने अंगोछिया हथिया ली।”

    टिकट कलेक्टर ने सिगरेट का आख़िरी टुकड़ा खिड़की के बाहर फेंका और फ़ैसलाकुन अंदाज़ से खड़े हो कर फ़ैसला दिया। बुड्ढा तू यूं मानेगा, अच्छा खड़ा हो जा और जामा तलाशी दे वर्ना ले चलता हूँ डिप्टी साहब के हाँ, जो पास के डिब्बे में मौजूद हैं और ऐसों को जेलख़ाने भेज देते हैं। बुड्ढा जल्द तलाशी के लिए इस ख़ुशी और मुस्तइदी से तैयार हो गया जैसे बेज़री और ना कसी ने बड़े आड़े वक़्त में बड़े सच्चे दोस्त या बड़े कारी असलहा का काम किया था। अब दूसरे बुड्ढे से रहा गया। उसने कहा, “बाबू साहब बुड्ढे ने बुरा किया जो इस डिब्बे में चला आया और टिकट नहीं ख़रीदा लेकिन इसको सज़ा भी काफ़ी मिल चुकी है। अब मारधाड़ ख़त्म कर दीजिए, बुड्ढा बड़ा दुखी मालूम होता है।”

    टिकट कलेक्टर का नज़ला अब दूसरे बुड्ढे पर गिरा। फ़रमाया, “आप होते कौन हैं? हमको तो अपना फ़र्ज़ अदा करना है।” बुड्ढे ने जवाब दिया, “आप फ़र्ज़ अदा करते हैं, बड़ा अच्छा काम करते हैं लेकिन फ़र्ज़ अदा करना तो 24 घंटे का कारोबार होता है। क्या आप यक़ीन करते हैं कि चंद मिनट पहले भी इस डिब्बे में अपना फ़र्ज़ अदा करते रहे थे। बुड्ढे की जामा तलाशी क्यों लेते हैं। आपको जिस चीज़ की तलाश है वो उसके पास तो क्या उसकी नस्ल में भी कभी थी। उसके हाँ तो सिर्फ़ वो बहू मिलेगी जिसका एक धंदा अपने लड़के को खो देना और अपने सूखे मवेशियों के गले से लिपट कर तस्कीन पाने की कोशिश करना है। मुम्किन है वो धंदा भी हो जो हमारे उन साथी दोस्त को मालूम है जो एक लाचार बुड्ढे की ग़म-नसीब बहू का धंदा ख़ुद अपने बे टिकट सफ़र करने से ज़्यादा बेहतर तरीक़े पर समझते हैं। कितनी बेअक़ल बहू है कि बच्चे के ग़म में मवेशियों के गले से लिपट कर रोती है और हमारे दोस्त के गले से लिपट कर रक़्स करती है।”

    टिकट कलेक्टर ने कहा, “ये देहाती बड़े हर्फ़ों के बने होते हैं और दाम रखकर बे टिकट सफ़र करते हैं, पकड़े जाते हैं तो रो-पीट कर छुटकारा हासिल कर लेते हैं।” बुड्ढे ने जवाब दिया, “लेकिन आपको उसका भी तजुर्बा होगा कि बा’ज़ देहाती ऐसे नहीं होते।” फ़रमाया, “आप रहने दीजिए मैं तो इसके हलक़ से दाम निकाल लूँगा।”

    तूफ़ान थम सा गया। गाड़ी की रफ़्तार मामूल से ज़्यादा बढ़ती हुई मालूम हुई। टिकट कलेक्टर उठकर उस हलक़े में जा बैठे जहां जवान औरत, सोने के बटन और क़ीमती सिगरेट थे। एक सिगरेट और सियासी मसाइल पर सस्ते जज़्बात का इज़हार करने लगे। दूसरी तरफ़ निकम्मे बुड्ढे ने किसान को टिकट के दाम दिए। वो शुक्रिये में कुछ और रोने पीटने पर आमादा हुआ तो निकम्मे ने बड़े इसरार और किसी क़दर सख़्ती से रोक दिया। कलेक्टर साहब फिर से तशरीफ़ लाए और बे टिकट बुड्ढे से मुवाख़िज़ा शुरू कर दिया। बुड्ढे ने किराया उसके हाथ में रख दिया। टिकट कलेक्टर मुतहय्यर रह गया लेकिन फ़ौरन समझ गया कि वाक़िअ: क्या था। दूसरे बुड्ढे से बोला, “आपने रुपये क्यों दिए? आपका नुक़्सान क्यों? मैं ये भी नहीं चाहता कि बुड्ढे को ये मालूम हो कि बे टिकट सफ़र करना माफ़ किया जा सकता है। दो-चार रुपये में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।”

    टिकट कलेक्टर कुछ देर तक ख़्याल में खोया रहा। बे-ख़बरी ही में उसने अपना सिगरेट निकाला और सुलगा कर पीने लगा। अभी निस्फ़ भी ख़त्म नहीं हुआ था कि सिगरेट को फ़र्श पर डाल दिया और जूते से मसल दिया और देर तक मसलता रहा। उसका ख़्याल कहीं और था, दूर बहुत दूर। क़रीब की झाड़ियाँ, तार के खम्बे, दरख़्त, मवेशी, पानी के गड्ढे, आसमान की वुसअतें, उफ़ुक़ का नीम दायरा, तेज़ी से गुज़रती और चक्कर काटती मालूम होने लगीं। टिकट कलेक्टर उठ खड़ा हुआ जैसे वो या तो डिब्बे की ज़ंजीर खींच लेगा या ख़ुद खिड़की से बाहर जस्त कर जायेगा। उसने दोनों अनन्नास हाथ में उठाए और ले जाकर उसके मालिक के पास रख दिए और बोला, “इनको वापस लीजिए और टिकट के दाम लाइए।” टिकट कलेक्टर के इरादे में ऐसी क़तईयत और उसके तेवर का कुछ अंदाज़ा था कि मुसाफ़िर ने पर्स खोल कर टिकट के दाम गिन दिए। दूसरों ने भी बग़ैर किसी तमहीद या ताम्मुल के दाम दे दिए। टिकट कलेक्टर ने सबको रसीद दी। उनसे फ़ारिग़ हो कर वो जवान औरत से मुख़ातिब हुआ और बोला, “श्रीमती जी, मैं आपसे रुपये लूँगा। ये लीजिए रसीद हाज़िर है।” औरत तैयार हुई और रद्द-ओ-क़दह शुरू हो गई।

    गाड़ी दिल्ली के स्टेशन पर आकर रुकी। मैं भी उतर पड़ा, अब देखता हूँ कि एक तरफ़ बुड्ढा किसान दूसरे बुड्ढे के पीछे पीछे रोता दुआएं देता चला जा रहा है। दूसरी तरफ़ जवान औरत टिकट कलेक्टर के तआक़ुब में चली जा रही है और मैं आपकी ख़िदमत में बातें बनाने हाज़िर गया।

    स्रोत:

    इंतिख़ाब-ए-रशीद अहमद सिद्दीक़ी (Pg. 37)

      • प्रकाशक: मुशीर अहसन
      • प्रकाशन वर्ष: 1994

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