Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

ग़ालिब के दो सवाल

कन्हैया लाल कपूर

ग़ालिब के दो सवाल

कन्हैया लाल कपूर

MORE BYकन्हैया लाल कपूर

     

    आख़िर इस दर्द की दवा क्या है ‎

    एक दिन मिर्ज़ा ग़ालिब ने मोमिन ख़ां मोमिन से पूछा, “हकीम साहिब, आख़िर इस दर्द की दवा क्या ‎‎है?”

    मोमिन ने जवाब में कहा, “मिर्ज़ा साहिब, अगर दर्द से आपका मतलब दाढ़ का दर्द है, तो उसकी ‎कोई ‎दवा नहीं, बेहतर होगा आप दाढ़ निकलवा दीजिए क्योंकि विलियम शेक्सपियर ने कहा है, वो ‎फ़लसफ़ी ‎अभी पैदा नहीं हुआ जो दाढ़ का दर्द बर्दाश्त कर सके।” ‎

    मिर्ज़ा ग़ालिब ने हकीम साहिब की सादा-लौही से लुत्फ़ अंदोज़ होते हुए फ़रमाया, “मेरी मुराद दाढ़ के ‎‎दर्द से नहीं, आपकी दुआ से अभी मेरी तमाम दाढ़ें काफ़ी मज़बूत हैं।” ‎

    ‎”तो फिर शायद आपका इशारा दर्द-ए-सर की तरफ़ है, देखिए मिर्ज़ा साहिब, हुकमा ने दर्द-ए-सर की ‎‎दर्जनों क़िस्में गिनवाई हैं। मसलन आधे सर का दर्द, सर के पिछले हिस्से का दर्द, सर के अगले ‎‎हिस्से का दर्द, सर के दरमियानी हिस्से का दर्द, उनमें हर दर्द के लिए एक ख़ास बीमारी ज़िम्मेदार ‎‎होती है, मसलन अगर आपके सर के दरमियानी हिस्से में दर्द होता है तो मुम्किन है आपके दिमाग़ ‎‎में रसौली हो। अगर कनपटियों पर होता है तो हो सकता है आपकी बीनाई कमज़ोर हो गई हो। दर ‎‎असल दर्द-ए-सर को मरज़ नहीं मरज़ की अलामत समझा जाता है।”‎

    ‎”बहरहाल, चाहे ये मरज़ है या मरज़ की अलामत, मुझे दर्द की शिकायत नहीं है।” ‎

    ‎”फिर आप ज़रूर दर्द-ए-जिगर में मुब्तला हो गए हैं, आपने अपने कुछ अशआर में इसकी तरफ़ ‎इशारा ‎भी किया है।” ‎
    मसलन, ‎

    ये ख़लिश कहाँ होती जो जिगर के पार होता ‎

    या ‎

    हैराँ हूं रोऊँ दिल को या पीटूं जिगर को मैं ‎

    मिर्ज़ा साहिब, हुकमा ने इस मरज़ के लिए “पपीता” को अकसीर क़रार दिया है। किसी तुकबंद ने क्या ‎‎ख़ूब कहा है, ‎

    जिगर के फे़ल से इंसां है जीता ‎
    अगर ज़ोफ़-ए-जिगर है, खा पपीता ‎

    ‎”आपका ये क़ियास भी ग़लत है। मेरा आज तक इस मरज़ से वास्ता नहीं पड़ा।” ‎

    ‎“तो फिर आप उस शायराना मरज़ के शिकार हो गए हैं जिसे दर्द-ए-दिल कहा जाता है और जिसमें ‎‎होने के बाद मीर को कहना पड़ा था, ‎

    उल्टी हो गईं सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया ‎
    देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया ‎

    मालूम होता है उस डोमनी ने जिस पर मरने का आपने अपने एक ख़त में ज़िक्र किया है आपको ‎‎कहीं का नहीं रखा।” ‎

    ‎“वाह हकीम साहिब, आप भी दूसरों की तरह मेरी बातों में आ गए। अजी क़िबला, कैसी डोमनी और ‎‎कहाँ की डोमनी, वो तो मैंने यूंही मज़ाक़ किया था। क्या आप वाक़ई मुझे इतना सादा-लौह समझते हैं ‎‎कि मुग़लज़ादा हो कर मैं एक डोमनी की मुहब्बत का दम भरूँगा। दिल्ली में मुग़लज़ादियों की कमी ‎‎नहीं। एक से एक हसीन-ओ-जमील है। उन्हें छोड़कर डोमनी की तरफ़ रुजूअ करना बिल्कुल ऐसा है ‎‎जैसा कि आपने अपने शे’र में बयान किया है, ‎

    अल्लाह-रे गुमरही बुत-ओ-बुतख़ाना छोड़कर ‎
    मोमिन चला है काबा को इक पारसा के साथ

    ‎“ख़ुदा-न-ख़्वास्ता कहीं आपको जोड़ों का दर्द तो नहीं। दाइमी ज़ुकाम की तरह ये मर्ज़ भी इतना ढीट ‎‎है कि मरीज़ की सारी उम्र जान नहीं छोड़ता, बल्कि कुछ मरीज़ तो मरने के बाद भी क़ब्र में इसकी ‎‎शिकायत करते सुने गए हैं। उमूमन ये मरज़ जिसमें तेज़ाबी माद्दा के ज़्यादा होजाने से होता है।” ‎

    ‎“तेज़ाबी माद्दा को ख़त्म करने के लिए ही तो मैं हर-रोज़ तेज़ाब यानी शराब पीता हूँ। होम्योपैथी का ‎‎उसूल है कि ज़हर का इलाज ज़हर से किया जाना चाहिए। ख़ुदा जाने ये सच है या झूट, लेकिन ये ‎‎हक़ीक़त है कि शराब ने मुझे अब तक जोड़ों के दर्द से महफ़ूज़ रखा है।” ‎

    ‎“फिर आप यक़ीनन दर्द-ए-गुर्दा में मुब्तला हैं। ये दर्द इतना ज़ालिम होता है कि मरीज़ तड़प तड़ कर ‎‎बेहाल हो जाता है।” ‎

    ‎“मेरे गुर्दे अभी तक सलामत हैं, शायद इसलिए कि मैं बड़े दिल-गुर्दे का इंसान हूँ।”

    ‎‎“अगर ये बात है तो फिर आपको महज़ वहम हो गया है कि आपको दर्द की शिकायत है और वहम ‎‎की दवा न लुक़्मान हकीम के पास थी न हकीम मोमिन ख़ां मोमिन के पास है।”

    ‎“क़िबला, मैं उस दर्द का ज़िक्र कर रहा हूँ जिसे उर्फ़-ए-आम में “ज़िंदगी” कहते हैं।” 

    ‎“अच्छा, ज़िंदगी, उसका इलाज तो बड़ा आसान है, अभी अर्ज़ किए देता हूँ।” ‎

    ‎“इरशाद।” 

    ‎“किसी शख़्स को बिच्छू ने काट खाया। दर्द से बिलबिलाते हुए उसने एक बुज़ुर्ग से पूछा, इस दर्द का ‎‎भी कोई इलाज है, बुज़ुर्ग ने फ़रमाया, 'हाँ है और ये कि तीन दिन चीख़ते और चिल्लाते रहो। चौथे ‎‎दिन दर्द ख़ुद बख़ुद काफ़ूर हो जाएगा।” ‎

    ‎“सुब्हान-अल्लाह, हकीम साहिब आपने तो गोया मेरे शे’र की तफ़सीर कर दी।” ‎

    ‎“कौन से शे’र की क़िबला?” ‎

    ‎“इस शे’र की क़िबला, ‎

    ग़म-ए-हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग इलाज ‎
    शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक ‎

    नींद क्यों रात-भर... ‎
    ‎‎एक मर्तबा मिर्ज़ा ग़ालिब ने शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ से कहा, “शेख़ साहब, नींद क्यों रात-भर नहीं आती?” ‎

    क़ ने मुस्कुरा कर फ़रमाया, “ज़ाहिर है जिस कमरे में आप सोते हैं, वहां इतने मच्छर हैं कि वो ‎‎रात-भर आपको काटते रहते हैं। इस हालत में नींद आए भी तो कैसे? ‎

    मालूम होता है या तो आपके पास मसहरी नहीं और अगर है तो इतनी बोसीदा कि उसमें मच्छर ‎‎अंदर घुस आते हैं। मेरी मानिए तो आज एक नई मसहरी ख़रीद लीजिए।” ‎

    ग़ालिब ने ज़ौक़ की ज़हानत में हस्ब-ए-मा’मूल एतिमाद न रखते हुए जवाब दिया, “देखिए साहिब, ‎‎आख़िर हम मुग़लज़ादे हैं, अब इतने गए गुज़रे भी नहीं कि हमारे पास एक साबित-ओ-सालिम मसहरी ‎‎भी न हो और जहां तक कमरे में मच्छरों के होने का सवाल है, हम दावे से कह सकते हैं, जब से ‎‎डीडीटी छिड़कवाया है एक मच्छर भी नज़र नहीं आता। बल्कि अब तो मच्छरों की गुनगुनाहट सुनने ‎‎के लिए हमसाए के हाँ जाना पड़ता है।” ‎

    ‎“तो फिर आपके पलंग में खटमल होंगे।” ‎

    ‎“खटमलों के मारने के लिए हम पलंग पर गर्म पानी उंडेलते हैं, बिस्तर पर खटमल पाउडर छिड़कते ‎‎हैं। अगर फिर भी कोई खटमल बच जाये तो वो हमें इसलिए नहीं काटता है कि हमारे जिस्म में अब ‎‎लहू कितना रह गया है। ख़ुदा जाने फिर नींद क्यों नहीं आती।” ‎

    ‎“मालूम होता है आपके दिमाग़ में कोई उलझन है।” 

    ‎“बज़ाहिर कोई उलझन नज़र नहीं आती। आप ही कहिए भला मुझे कौन सी उलझन हो सकती है?” ‎

    “गुस्ताख़ी माफ़, सुना है आप एक डोमनी पर मरते हैं, और आपको हमारी भाबी इसलिए पसंद नहीं ‎‎क्योंकि उसे आपके तौर-तरीक़े नापसंद हैं। मुम्किन है आपके तहतुश-शुऊर में ये मसला चुटकियां लेता ‎‎रहता हो। आया उमराव बेगम को तलाक़ दी जाये या डोमनी से क़त-ए-ताल्लुक़ कर लिया जाये।” ‎

    ‎“वल्लाह, शेख़ साहब आपको बड़ी दूर की सूझी, डोमनी से हमें एक शायराना क़िस्म का लगाओ ज़रूर ‎‎है लेकिन जहां तक हुस्न का ताल्लुक़ है वो उमराव बेगम की गर्द को नहीं पहुँचती।”

    ‎“तो फिर ये बात हो सकती है आप महकमा इन्कम टैक्स से अपनी असली आमदनी छुपा रहे हैं और ‎‎आपको ये फ़िक्र खाए जाता है। किसी दिन आपके घर छापा पड़ गया तो उन अशर्फ़ियों का क्या ‎‎होगा जो आपने ज़मीन में दफ़न कर रखी हैं और जिनका पता एक ख़ास क़िस्म के आला से लगाया ‎‎जा सकता है।”

    ‎“अजी शेख़ साहब, कैसी अशर्फ़ियां, यहां ज़हर खाने को पैसा नहीं, शराब तो क़र्ज़ की पीते हैं और ‎इसी ‎ख़ुद-फ़रेबी में मुब्तला रहते हैं कि हमारी फ़ाक़ाकशी रंग लाएगी। अगर हमारे घर छापा पड़ा तो ‎शराब ‎की ख़ाली बोतलों और आम की गुठलियों के अलावा कोई चीज़ नहीं मिलेगी।”

    अच्छा, वो जो आप कभी कभी अपने घर को एक अच्छे ख़ासे क़िमारख़ाने में तब्दील कर देते हैं, ‎‎उसके मुताल्लिक़ क्या ख़याल है?” ‎‎ 

    ‎“वाह शेख़ साहब, आप अजीब बातें करते हैं, थोड़ा बहुत जुआ तो हर मुहज़्ज़ब शख़्स खेलता ही है ‎और ‎फिर हर क्लब में बड़े बड़े लोग हर शाम को ‘ब्रिज’ वग़ैरा खेलते हैं। जुआ आख़िर जुआ है चाहे ‎वो घर ‎पर खेला जाये या क्लब में।” ‎

    ‎“अगर ये बात नहीं तो फिर आपको किसी से हसद है। आप सारी रात हसद की आग में जलते रहते ‎‎हैं और मीर के इस शे’र को गुनगुनाते हैं, ‎

    अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब ‎
    मुझ दिल-ज़दा को नींद न आई तमाम शब ‎

    ‎“बख़ुदा शेख़ साहब, हम किसी शायर को अपना मद्द-ए-मुक़ाबिल ही नहीं समझते कि उससे हसद ‎‎करें। माफ़ कीजिए, आप हालाँकि उस्ताद-ए-शाह हैं लेकिन हमने आपके मुताल्लिक़ भी कहा था। ज़ौक़ ‎‎की शायरी बाँग-ए-दहल है और हमारी नग़मा-ए-चंग।” ‎

    ‎“मिर्ज़ा साहिब, ये तो सरीहन ज़्यादती है। मैंने ऐसे शे’र भी कहे हैं जिनपर आपको भी सर धुनना पड़ा ‎‎है।” ‎

    ‎“लेकिन ऐसे अशआर की तादाद आटे में नमक के बराबर है।” ‎

    ‎“ये है आपकी सुख़न-फ़हमी का आलम और कहा था आपने,

    हमसुख़न फ़हम हैं ग़ालिब तरफ़दार नहीं ‎

    ‎“अगर हम सुख़न फ़हम न होते तो आपके कलाम पर सही तब्सिरा न कर सकते। ख़ैर छोड़िए, बात ‎‎तो नींद न आने की हो रही थी।” ‎

    ‎“किसी डाक्टर से अपना ब्लड प्रेशर चेक कराइए, हो सकता है वो बढ़ गया हो।” ‎

    ‎“क़िबला, जब बदन में ब्लड ही नहीं रहा तो प्रेशर के होने या बढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता।” ‎

    ‎“फिर हर रात सोने से पहले किसी ऐसी गोली का सहारा लीजिए जिसके खाने से नींद आ जाये। ‎‎आजकल बाज़ार में ऐसी गोलियां आम बिक रही हैं।” ‎

    ‎“उन्हें भी इस्तेमाल कर चुके हैं। नींद तो उन्हें खा कर क्या आती अलबत्ता बेचैनी और भी बढ़ गई। ‎‎इस लिए उन्हें तर्क करने में ही आफ़ियत समझी।” ‎

    “किसी माहिर-ए-नफ़सियात से मश्वरा कीजिए शायद वो कुछ...” ‎

    ‎“वो भी कर चुके हैं।” ‎

    ‎“तो क्या तशख़ीस की उसने?” ‎

    ‎“कहने लगा, आपके तहतुश-शुऊर में किसी डर ने मुस्तक़िल तौर पर डेरा डाल रखा है। उससे नजात ‎‎हासिल कीजिए, आपको नींद आने लगेगी।” ‎

    ‎“ये तो बड़ा आसान है, आप उस डर से नजात हासिल क्यों नहीं कर लेते?” ‎

    ‎“लेकिन हमें पता भी तो चले वो कौन सा डर है?” ‎

    ‎“उसी से पूछ लिया होता।” ‎

    ‎“पूछा था, उसने जवाब दिया, उस डर का पता मरीज़ के सिवा कोई नहीं लगा सकता।” ‎

    ‎“किसी लायक़ एलोपैथिक डाक्टर से मिलिए, शायद वो...” ‎

    ‎“उससे भी मिल चुके हैं। ख़ून, पेशाब, थूक, फेफड़े, दिल और आँखें टेस्ट करने के बाद कहने लगा, ‎उनमें ‎तो कोई नुक़्स नहीं मालूम होता है। आपको नींद से एलर्जी हो गई है।” ‎

    ‎“इलाज क्या बताया?” ‎

    ‎“कोई इलाज नहीं बताया। दलील ये दी कि एलर्जी एक ला-इलाज मर्ज़ है।”

    ‎“आप अगर इजाज़त दें तो ख़ाकसार जो कि न हकीम है न डाक्टर बल्कि महज़ एक शायर, आपके ‎‎मर्ज़ का इलाज कर सकता है।” ‎

    ‎“ज़रूर कीजिए।” ‎

    ‎”देखिए, अगर आपको नींद रात-भर नहीं आती तो आप रात के बजाय दिन में सोया कीजिए। यानी ‎‎रात को दिन और दिन को रात समझा कीजिए।” ‎

    ‎“सुब्हान-अल्लाह क्या नुक्ता पैदा किया है। ताज्जुब है हमें ये आज तक क्यों नहीं सूझा।” ‎

    “सूझता कैसे, आप तो इस वहम में मुब्तला हैं, ‎

    आज मुझ सा नहीं ज़माने में ‎
    शायर नफ़र गोए ख़ुश गुफ़्तार ‎

    ‎“शेख़ साहब, आपने ख़ूब याद दिलाया। बख़ुदा हमारा ये दावा तअल्ली नहीं हक़ीक़त पर मबनी है।” ‎

    ‎“चलिए यूँही सही। जब तक आप उस्ताद-ए-शाह नहीं हैं मुझे आपसे कोई ख़तरा नहीं।” ‎

    ‎“ये एज़ाज़ आपको ही मुबारक हो। हमें तो पीने को “ओल्ड टॉम” और खाने को “आम” मिलते रहें। ‎‎हम ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँगे।” ‎

    दर असल शराब पी पी कर आपने अपना आसाबी निज़ाम इतना कमज़ोर कर लिया है कि आपको ‎‎बे-ख़्वाबी की शिकायत लाहक़ हो गई। इस पर सितम ये कि तौबा करने की बजाय आप फ़ख़्र से कहा ‎‎करते हैं, हर शब पिया ही करते हैं, मय जिस क़दर मिले।” ‎

    ‎“बस-बस शेख़ साहब, रहने दीजिए, वर्ना मुझे आपको चुप कराने के लिए आपका ही शेर पढ़ना पड़ेगा।” ‎‎

    ‎“कौन सा शे’र क़िबला?” ‎

    ‎“रिंद-ए-ख़राब-ए-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू ‎
    तुझको पराई क्या पड़ी अपनी निबेड़ तू”

     

    स्रोत:

    Nae Shugoofay (Pg. 51)

    • लेखक: कन्हैया लाल कपूर
      • प्रकाशक: सलूजा पुब्लिकेशन्स, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1988

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए