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मकान की तलाश

अहमद जमाल पाशा

मकान की तलाश

अहमद जमाल पाशा

MORE BYअहमद जमाल पाशा

    एक आदमी दरिया में डूबते हुए चिल्ला रहा था,

    “बचाओ बचाओ।”

    एक शख़्स दौड़ा और उससे पूछा, “तुम कहाँ रहते हो?”

    उसका पता नोट करके भागा लेकिन जब उसके घर पहुँचा तो मालूम हुआ कि एक मिनट पहले नया किरायादार आचुका है।

    आने वाले ने ठंडी सांस भर कर कहा, “हो हो नया किरायादार वही शख़्स है जिसने मरहूम को दरिया में धकेला था।”

    हमने ये ट्रेजडी सुनने के बाद अपना सर पीट लिया कि काश, हमने मरहूम को दरिया में धकेला होता तो इस वक़्त वो नए किरायादार हम ख़ुद होते।

    उसके बाद हम उफ़्तां ख़ीज़ां मकान की तलाश में निकल पड़े। रास्ते में एक जनाज़ा जा रहा था। हमने पूछा, “ये किस का जनाज़ा है?”

    मरने वाले का नाम पता नोट करके फ़ौरन अलाटमेंमैंट के दफ़्तर पहुँचे और दरख़्वास्त दी।

    “फ़ुलां शख़्स मर गया है, उसका मकान हमें अलाट कर दिया जाए।”

    थोड़ा बहुत ले देकर मकान अपने नाम अलाट करा लिया। उसके बाद हम तक़रीबन दो दर्जन ताज़ियत करने वालों को लेकर पहुँचे और रोते हुए पूछा, “मरहूम किस कमरे में रहते थे?”

    कमरा देखने के बाद हमने कहा, “मरहूम से मुझे इतनी मुहब्बत थी कि अब मैं जीते-जी ये जगह नहीं छोड़ सकता।” और हमने वहाँ आसन जमा दिया। लेकिन ताज़ियत करने वालों के जाने के बाद मरहूम के पसमांदगान ने हमारी एक सुनी और ज़बरदस्ती निकाल बाहर किया।

    मरहूम के दौलतख़ाने से निकाले जाने के बाद भी हम हिम्मत हारे और मकान हासिल करने के लिए कुछ किराया की औरतें तैयार कीं फिर उन्हें सिखा पढ़ा कर चलता किया और पीछे पीछे हम ख़ुद चले।

    ये औरतें पीठ पर सामान लादे घर-घर जाकर पूछतीं, “मकान का कोई हिस्सा किराए पर मिल सकता है?”

    “नहीं।”

    इसके बाद औरतें सामान रखकर बैठ गईं और बोलीं, “पानी पिला दीजिए।”

    पानी पीने के बाद सुस्ताने के लिए टांगें फैला कर बैठ गईं, फिर मचल गईं, “हम रात यहाँ गुज़ार लें?”

    सुबह जब उनसे मकान ख़ाली करने के लिए कहा गया तो उन्होंने चिल्लाना शुरू किया, “तुमने हमें आधा मकान किराए पर दिया है।”

    उनका शोर सुन कर बाहर मुंतज़िर हम लोग अंदर आगए और वो शोर मचा कि पुलिस आगई। ज़बरदस्ती मेहमान बने रहने के शरफ़ को बरक़रार रखने के लिए हमने अदालती चाराजुई की। अदालत ने हुक्म-ए-इम्तनाई जारी कर दिया। एक तरफ़ मुक़द्दमा चलता रहा और दूसरी तरफ़ हम मेहमान लोग मेज़बान को परेशान करते रहे। यहाँ तक आजिज़ किया कि मजबूरन मकान वाले भाग खड़े हुए। इससे पहले कि मकान पर हमारा क़ब्ज़ा होजाता किसी ने मालिक मकान को घर ख़ाली करते देखकर फ़ौरन अलाटमेंट के दफ़्तर का रुख़ किया और मकान अलाट कराके हमें निकाल बाहर किया।

    कहते हैं ढ़ूंढ़े से ख़ुदा भी मिल जाता है। ज़रूर मिल जाता है लेकिन लाख लाख तलाश के बावजूद मकान नहीं मिलता। इसी चक्कर में ये तै करके निकले कि या मकान तलाश करलेंगे वर्ना ख़ुद ही लापता होजाएंगे लेकिन हुआ ये कि मकान मिल सका और ख़ुद जीते-जी लामकां हो सके, लेकिन हर मकान को ख़ाली समझ कर उस पर लपकने के चक्कर में कई बार पुलिस के हत्थे चढ़ते चढ़ते ज़रूर बच्चे।

    जब सारे शहर में एक भी “टू लेट” का बोर्ड मिला और किसी ने बताया कि किसी का कोई मकान कहीं ख़ाली है तो हमने अख़बारों और रिसालों में “मकान चाहिए, मकान।” के इश्तिहार निकलवाए। अहबाब को धमकी दी कि अगर मकान मिला तो मअ सामान के तुम्हारे यहाँ धरना देंगे लेकिन इस तरह मकान या उसका अता पता तो मिला अलबत्ता दोस्तों की भीड़ ज़रूर छट गई।

    जब हम किसी ख़ाली मकान में ताला लगा देखते तो इस ख़्याल के तहत उसके चक्कर लगाने लगते कि ये ज़रूर ख़ाली होगा जिससे पास पड़ोस वालों को शक होने लगता कि कहीं उनका इरादा क़ुफ़्ल शिकनी का तो नहीं?

    लेकिन यहाँ क़ुफ़्ल शिकनी तो कुजा किसी की दिल शिकनी भी नहीं कर सकते और इसी मुरव्वत के मारे आज मकान की तलाश में ज़मीन का ग़ज़ बने हुए हैं।

    हुआ ये कि जिस मकान में हम रहते थे उसके मालिक ने हमें बड़े सब्ज़ बाग़ दिखाए कि “अगर हम कुछ दिन के लिए कहीं और चले जाएँ तो वो इस टूटे हुए मकान को तोड़ कर नई बिल्डिंग खड़ी कर देंगे, जिसमें हमें बिजली और पानी के पाइप वग़ैरा की ख़ास सहूलतें बिल्कुल मुफ़्त हासिल होंगी। हमने उनकी बातों में आकर अपने दोस्त ख़ां साहब के यहाँ डेरा जमाया। मालिक मकान ने मकान बनवाने की बजाय उसी खन्डर का पेशगी किराया और पगड़ी लेकर एक नया किराएदार बसा लिया जभी से हम मकान ढूंडते और ख़ां साहब से आँखें चुराते फिरते हैं।

    हमारे एक दोस्त जो मकान तलाश करने में हमारी काफ़ी मदद कर रहे थे सख़्त बीमार पड़ गए। हमने बहुत जी लगाकर उनकी तीमारदारी की ताकि वो जल्द अज़ जल्द अच्छे हो कर हमारे लिए मकान ढूंढ सकें लेकिन जूं जूं उनका का इलाज किया, हालत बिगड़ती गई। यहाँ तक कि आख़िर उनका इंतक़ाल हो गया। हमने अपने दोस्त का कफ़न दफ़न और तीजा, चालीसवां इस ख़्याल से कर दिया कि पगड़ी और पेशगी किराया नहीं दिया, मरहूम की आख़िरी रसूम अदा कर दें और हम मरहूम के मकान मुंतक़िल हो गए लेकिन अभी हमने अच्छी तरह सामान भी जमाया था कि पुलिस ने हमें निकाल बाहर किया, क्योंकि मरहूम के पसमांदगान ने मकान अपने नाम अलाट करा लिया था।

    इस बार ख़ां साहब ने भी हमें पनाह दी। मजबूरन हमने सामान स्टेशन के लगेज रुम में जमा करवाया और प्लेटफार्म पर रात को सोने के साथ साथ दिन को मकान की तलाश का सिलसिला जारी रखा। इस तलाश के बावजूद कुछ दिनों में घर तो मिला लेकिन एक अदद घर वाली ज़रूर मिल गई। जिसकी वजह से रात बसर करने के लिए किराए पर रात में “रैन बसेरे” में जगह मिल जाती। लेकिन मकान के बारे में हमारी मायूसी यहाँ तक बढ़ गई कि हम सोचने लगे, क्यों हम दोनों कोई ऐसा जुर्म कर डालें कि हमें जेल हो जाए और इस तरह रहने का सहारा हो जाए।

    मकान मिलने की सूरत में हमने यहाँ तक कोशिश की कि मकान सही एक कमरा या कोठरी ही मिल जाये लेकिन गूलर के फूल की तरह वो भी मिली। हमने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों पर हर हर तरह से ज़ोर दिया लेकिन कोई भी “हाँ, हूँ” या ज़बानी हमदर्दी से आगे बढ़ा। रफ़्ता-रफ़्ता हमारा ये आलम हो गया कि हम महल और कोठी बंगले का क्या ज़िक्र, किसी ग़रीब की झोंपड़ी, फ़ुटपाथ या सायादार दरख़्त देख लेते तो हमारी राल टपकने लगती और चलते फिरते फ़ुटपाथ पर छप्पर छाने के इमकानात पर ग़ौर करने लगते।

    जब किसी का कोई आसरा रहा तो हम ख़ुद मकान की तलाश में निकले। एक दिन एक मुख़्बिर ने सुराग़ दिया कि फ़ुलां मुहल्ले की फ़ुलां गली में फ़ुलां मकान का एक हिस्सा किराए के लिए ख़ाली है।

    मकान जाकर देखा। मकान तो क्या मकान का नाम था जिसकी छत आसमान और दीवारें सरसब्ज़ थीं। घंटों आवाज़ें देने पर एक बड़े मियां अंदर से बरामद हुए। बोले, “मकान तो मिल जाएगा लेकिन इस शर्त पर कि पहले उसे बनवाना पड़ेगा।”

    हमने कहा, “ठीक है, पहले उसका नक़्शा बनवा कर मंज़ूर करवा लें।”

    इसके बाद हम वहाँ से सर पर पैर रखकर भाग निकले।

    एक और मकान का पता लगा। उसमें से एक बरखु़र्दार बरामद हुए और पूछा, “क्या बेचते हो?”

    अर्ज़ किया, “मकान ख़रीदने नहीं किराए पर लेने आए हैं।”

    यह सुन कर वो अपने बड़े भाई को बुला लाए। उनके बड़े भाई ने हमारी तालीम, माली और ख़ानदानी हालत और हमारी बातों और आदतों के बारे में सैकड़ों बातें पूछ डालीं। उसके बाद पूछा, “आप बच्चों को पढ़ा सकते हैं?”

    अर्ज़ किया, “इससे पहले कभी नहीं पढ़ाया।”

    “खाना पकाना आता है?”

    “यही तो एक शौक़ है हमें। जब से हमारा बावर्ची भागा है तब से हमने बावर्ची रखना ही छोड़ दिया।”

    “शादी हो गई?”

    “जी हाँ।”

    “फिर ख़्वाहमख़ाह दीवारें काली करवाने से फ़ायदा?”

    यहाँ से जो चलते किए गए तो एक और मालिक मकान के पास पहुँचे। उन्होंने अपने एक मुक़द्दमे की पूरी मिसल हमें सुनाने के बाद हमसे क़ानूनी मश्वरा लिया। उसके बाद बोले, “बाप रे बाप, हम इतने क़ानूनी आदमी को अपना मकान नहीं दे सकते। मिस्टर चलते फिरते नज़र आइए, चलते फिरते।”

    दूसरी जगह जब क़िस्मत आज़माई के लिए पहुँचे तो उन्होंने हमें अपनी मुकम्मल कुल्लियात सुना दी। उनका कलाम सुनते सुनते हम बेहोश हो गए। जब हम होश में आए और मौक़ा ग़नीमत पाकर अर्ज़-ए-मुद्दआ किया, तो बोले, “किसी ने आपको बहका दिया, भला शायर और मकान? मैं ख़ुद दिन रात मुशायरों में रहता हूँ। मकान वकान मेरे पास कहाँ?”

    एक गली में हमने जाकर मकान के सिलसिले में इतनी आवाज़ें (मकान है मकान?) लगाईं कि किसी दिल जले बहरे ने तंग आकर ऊपर से हमारे ऊपर एक बाल्टी पानी फेंक दिया। अब जो हम वहाँ से चूहा हो कर भागे और ऊपर वालों ने चोर चोर का नारा बुलंद किया तो आगे आगे हम, पीछे पीछे मुहल्ले के लौंडों और गली के कुत्तों ने तालियाँ बजा बजाकर और भोंक भोंक कर हमें दौड़ा लिया। फिर जो हम बेतहाशा भागे तो एक साहब से टकराते टकराते बचे। उन्होंने, “या वहशत?” कह कर हमें पकड़ लिया और बोले, “ख़ैरियत?”

    अर्ज़ किया, “मकान।”

    “बिजली बनाना जानते हो?”

    “जानते हैं।”

    उसके बाद उन्होंने हमसे फ़्युज़ वग़ैरा बनवाने के बाद कहा, “वो सामने वाला कमरा आपको मिल सकता है लेकिन हर माह पेशगी सौ रुपये देना होंगे।”

    हमने किराए की परवा करते हुए जाकर कमरे का मुआइना किया तो मालूम हुआ कि महज़ एक तंग तारीक कोठरी है जिसमें सिर्फ़ पंजों के बल दाख़िल हुआ जा सकता है। हम दाख़िल होते ही मकड़ी के जालों और गर्द-ओ-ग़ुबार में अट गए। दरवाज़ा, रोशनदान, कुछ भी था। बोले, “आप इसमें जाइए, हम अपनी बकरियां कहीं और बाँधबांध दिया करेंगे।” चलते वक़्त उन्होंने पूछा, “आपकी शादी हो गई।”

    अर्ज़ किया, “नहीं।”

    वो गरजे, “अगर शादी नहीं हुई है तो कोई और मकान देखिए। ये घर है कोई सराय नहीं।”

    फिर निकाले जाने के बाद एक क़ब्र रसीदा बुज़ुर्ग के पास पहुँचे और कहा, “सुना है आपके यहाँ मकान ख़ाली है?”

    उन्होंने जुगाली करते हुए पूछा, “खाने में आपको क्या-क्या पसंद है?”

    अर्ज़ किया, “जो मिल जाए।”

    बोले, “हम लौकी खाते हैं।”

    “हम भी आज तक लौकी खाते आए हैं।”

    “मुझे बटेर और मुक़द्दमा लड़ाने का शौक़ है।”

    “अपना भी यही शौक़ है।”

    उन्होंने हमें गले लगाते हुए कहा, “बस हम ऐसा ही आदमी चाहते थे जो हमारे साथ रहे और लौकी खाए।”

    मकान ढ़ूंढ़ने के बारे में हमारी इतनी मालूमात हैं कि राह चलतों, दोस्तों और रिश्तेदारों की चाल-ढाल और बातचीत से अंदाज़ा लगा लेते हैं कि ये एक मकान की तलाश में हैं। अख़बारों में इस क़िस्म के इश्तिहार और ख़बरें नज़रों से गुज़रीं। मसलन एक ख़बर थी,

    “क्या वाक़ई आपको मकान की बहुत सख़्त ज़रूरत है? अगर आप मकान के बारे में बहुत संजीदा हैं तो लगे हाथों एक मकान हमारे लिए भी तलाश कर डालिए। मकान तलाश करके हलचल मचादें।” वह तस्वीर में मकान देखकर इस तरह मुस्कुरा रहा था जैसे ज़मीन देखकर कोलम्बस पहली बार मुस्कुराया था।

    अक्सर अहबाब जो परले सिरे के बेफ़िक्रे थे और जिनके साथ गपशप में बाआसानी वक़्त कट जाता था, अचानक ग़ायब हो गए और इतना ज़माना गुज़र गया कि हम उन्हें भूल गए लेकिन फिर अचानक एक तवील मुद्दत के बाद मअ मकान के बरामद हुए।

    एक शादी में गए। दावत के बाद दूल्हा को जाकर मुबारकबादी। दूल्हा ने सहरे में से चांद सा मुखड़ा निकाल कर मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ साहब मकान मिलता, हम सबको जमा होने का मौक़ा मिलता।”

    गोया ये सब कुछ शादी नहीं, मकान मिलने का हंगामा था जिसका सहरा उनके सर बाँधा गया था।

    एक इंटरव्यू में कई सौ अफ़राद ने शिरकत की। बाद में मालूम हुआ कि किसी साहब के पास एक फ़ाज़िल कोठरी निकल आई थी। उन्होंने आमदनी में इज़ाफे़ के ख़्याल से उसे किराए पर उठाने का इश्तिहार दिया था। जिसके नतीजे में उनके पास हज़ारों दरख़्वास्तें आगईं। वो ग़रीब भले आदमियों का इंटरव्यू लेते जाते और सर पीटते जाते कि “किस-किस से झूट बोलें और किस-किस से ताल्लुक़ात ख़राब करें।”

    अक्सर दोस्त “हॉलीडे मूड” में नज़र आए। पूछने पर मालूम हुआ कि आजकल मकान तलाश कर रहे हैं। जब तक मकान से छुट्टी मिल जाए दफ़्तर से छुट्टी रहेगी।

    मकान तलाश करने के सिलसिले में ख़ुद हमारी हालत सबसे पतली थी इसलिए “टेबल टॉक” के दौरान हमेशा घुमा फिराकर गुफ़्तगू का रुख़ उस पहलू की जानिब लाकर निहायत गंभीर आवाज़ में कहते, “साहब, मकान तो बहुत ही सीरियस प्राब्लम बनता जा रहा है।”

    और लोग “हाँ साहब हाँ साहब।” कह कर उस पर रोशनी डालने लगते। लोग पूछते भी कि “भई क्या कर रहे हो?”

    कहते, “मकान तलाश कर रहे हैं।”

    इस मकान तलाश करने की वजह से वो पैसा जो अब तक हम अपने घर वालों के इलाज मुआलिजे में हकीम डाक्टरों पर सर्फ़ करते थे, अब बड़ी फ़य्याज़ी के साथ मकान तलाश करने वालों पर ख़र्च कर रहे थे। दोस्त और दलाल मकान का वादा इतने ज़ोर शोर से करते कि हम उनसे कह कर शर्मिंदा होते और उनके ख़ुलूस के आगे हमारा सर झुक जाता। बार-बार अपने मोहसिनों को टोकते ख़ुद अच्छा लगता बल्कि अक्सर को तो टोकने से पहले ही अपने ग़म में बराबर का शरीक पाया लेकिन ऐसे लोगों का साथ रखना ख़तरे से ख़ाली था कि अगर कहीं मकान मिलता भी हो तो बीच से उचक ले जाएँ। ताल्लुक़ात तो थोड़े से नशेब फ़राज़ के बाद सब ही से उस्तवार होजाते हैं लेकिन नादिर मौक़ा ज़िंदगी में बार-बार नहीं आता।

    अक्सर ऐसे मकान बिल्कुल बस मिलते मिलते रह गए जिसके बारे में कभी पता लग सका कि उसमें मकानियत क्या है। ये कहाँ से शुरू होता है और कहाँ ख़त्म होता है। ऐसे मकानों में तलाश के बावजूद हमें ज़मीन आसमान के अलावा कुछ नज़र आया।

    हमारे एक बेतकल्लुफ़ दोस्त एक दिन रास्ते में हमसे कतराकर निकलने लगे। हमें उन्हें यूं कुछ ले जाते देखकर शक हुआ। हो ना हो ज़रूर हमसे छुपा मिठाई लिए जा रहे हैं और हमसे बच कर निकल जाना चाहते हैं। जब दोस्ती के दरमियान से बेतकल्लुफ़ी का पर्दा उठ जाए तो जेब में हाथ डाल देना ऐन मुहब्बत समझी जाती है लेकिन उन्होंने हमारे इसरार के बावजूद जेब में हाथ डालने दिया। हमने कहा, “हम भी खाएँगे।”

    कहने लगे, “खाने में नहीं है।”

    पूछा, “सूँघने में सही लेकिन हम इस वक़्त बिला सूंघे हरगिज़ मानेंगे।”

    बोले, “परेशान करो।”

    इतने में हमारा हाथ उनकी जेब की गहराइयों में पहुँच कर किसी सख़्त चीज़ से टकराया। हमने कहा, “ये अकेले अकेले उड़ाने के लिए हलवा सोहन लिए जा रहे हो?”

    बोले, “नहीं मानते, अच्छा तुम्हारी ज़िद सही।” यह कह कर उन्होंने शरमाते हुए जेब से वो शय निकाली। हमारे मुँह से बेसाख़्ता निकला, “अरे ये तो ईंट है, भला इसका क्या करोगे?”

    उन्होंने फ़ख़्र से सर बुलंद करके कहा, “जब मकान मिला तो अब मकान बनवाने का इरादा है। इसके लिए अभी मटेरियल जमा करना शुरू कर दिया है।”

    मकान का तज़किरा उन्होंने कुछ इस अंदाज़ से किया जैसे उनके घर में ख़ुशी होने के आसार हों। मासूमियत उनके चेहरे पर खेल रही थी।

    बस वो दिन है और आज का दिन क़सम ले लीजिए जो हमने कभी मकान तलाश करने का नाम भी लिया हो।

    स्रोत:

    मज़ामीन-ए-पाशा (Pg. 52)

    • लेखक: अहमद जमाल पाशा
      • प्रकाशक: उर्दू अकादमी, लखनऊ
      • प्रकाशन वर्ष: 1974

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