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शारिब रुदौलवी

1935 | दिल्ली, भारत

शारिब रुदौलवी

ग़ज़ल 2

 

लेख 10

उद्धरण 6

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मर्सिये से इंसानी दुनिया को एक अज़ीम-उश्-शान अख़लाक़ी-ओ-तहज़ीबी दर्स ‎मिलता है।

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कोई सिन्फ़ अपने अहद के समाजियाती असरात से क़तई' तौर पर बाहर नहीं रह सकती। कोई अदब क़ुव्वत-ए-अस्र ‎की नफ़ी करके अपने‏‎ क़ारी के जज़्बात तक नहीं पहुँच सकता।‏

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हर तहज़ीब की ज़बान अलग होती है बल्कि ये कहना मुनासिब होगा कि हर ज़माने की ज़बान का अपना एक कल्चर ‎होता है।

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तसव्वुफ़ मज़हब-ए-आज़ादगी है, जिसमें हर पाबंदी से इंसान अपने को आज़ाद कर लेता है। यहाँ तक कि मज़हबी ‎अ'क़ाइद भी इस की निगाह में कोई वक़'अत नहीं रहती।

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मर्सिया-गोई का वजूद-ए-दुनिया के वजूद के साथ हुआ होगा। इसलिए कि ख़ुशी और ग़म, यही इंसानियत के दो सब ‎से ज़्यादा नुमायाँ ‎‏पहलू हैं।

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