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ग़ज़ल
हाँ फिर तू कहियो हाए वो किस तरह होए ग़ज़ब
'इंशा' न छेड़ मुझ को मिरी जान की क़सम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मिर्ज़ा ग़ालिब
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नज़्म
कसरत-ए-औलाद
अब ये आलम है कि जस कमरे में भी डालो नज़र
घर के हर कोने में हैं बिखरे होए लख़्त-ए-जिगर
नश्तर अमरोहवी
ग़ज़ल
पूछा था मैं ने क़ैस से जा कर ये दश्त में
जिस में न होए सब्र-ओ-तहम्मुल वो क्या करे
जमीला ख़ुदा बख़्श
नज़्म
मुल्क है या मक़्तल
ये आड़ी-तिरछी सी लकीरें
जिन से बने होए दाएरे को हम मुल्क कहते हैं
सुधांशु फ़िरदौस
नज़्म
ज़िंदगी के धारे
इक जले बुझे होए ज़र्द ज़र्द गर्द गर्द रस्ते पर
उस का अलम लिए