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नज़्म
बीसवीं सदी का इंसान
मुझे न तोड़ो कि मैं गुल-ए-तर सही
मगर ओस के बजाए लहू में तर हूँ
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
तोय बिन तुर्रा है और ज़ोय पर इक नुक़्ता फिर
ऐन बे-ऐब है और काने मियाँ ग़ेन हुए