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ग़ज़ल
मेरे हर ग़म की किफ़ालत भी मिरा ज़िम्मा है
अपने ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती का अज़ादार हूँ मैं
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
देर से आँख पे उतरा नहीं अश्कों का अज़ाब
अपने ज़िम्मे है तिरा क़र्ज़ न जाने कब से
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
सँवारे जा रहे हैं हम उलझती जाती हैं ज़ुल्फ़ें
तुम अपने ज़िम्मा लो अब ये बखेड़ा हम नहीं लेंगे
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
गुनाहों के लिए इंसान ज़िम्मा-दार है बे-शक
मगर फिर भी बग़ैर उस की इजाज़त कौन करता है
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
मेरा ज़िम्मा देख कर गर कोई बतला दे मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
वसिय्यत
ये ज़िम्मा है तुम्हारा उन की क़ीमत तुम घटा देना
जो वो फैलाएँ दामन ये वसिय्यत याद कर लेना
कैफ़ी आज़मी
ग़ज़ल
कुछ ऐसे फ़र्ज़ भी ज़िम्मे हैं ज़िम्मे-दारों पर
जिन्हें हमारे दिलों को दुखा के चलना है