aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "حالانکہ"
मुझ से बिछड़ के शहर में घुल-मिल गया वो शख़्सहालाँकि शहर-भर से अदावत उसे भी थी
सितारो आओ मिरी राह में बिखर जाओये मेरा हुक्म है हालाँकि कुछ नहीं हूँ मैं
उस बू ने उस लड़की और रणधीर को जैसे एक दूसरे से हम-आहंग कर दिया था। दोनों एक दूसरे में मुदग़म होगए थे। उन बेकरां गहराईयों में उतर गए थे जहां पहुंच कर इंसान एक ख़ालिस इंसानी तस्कीन से महज़ूज़ होता है। ऐसी तस्कीन जो लम्हाती होने पर भी जाविदां...
हालाँकि बादल बेचाराये बिजली मुफ़्त बनाता है
जिस समाज में रात दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी और किसानों के मुक़ाबले में वो लोग जो किसानों की कमज़ोरियों से फ़ायदा उठाना जानते थे, कहीं ज़्यादा फ़ारिग़-उल-बाल थे, वहाँ इस क़िस्म की ज़हनियत का पैदा हो जाना कोई तअ'ज्जुब की...
बे-नियाज़ या बे-परवाह होना जैसे आशिक़ के जज़्बात की कोई ख़बर ही न हो माशूक़ की अदाओं में शुमार होता है। यह अदा इतनी जान- लेवा होती है कि आशिक़ के गिले शिकवे कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेते। यही बे-नियाज़ी सन्तों, सूफियों और फक़ीरों में भी होती है जो कभी कभी किसी शायर के जिस्म में भी बिराजमान होते हैं। बे-नियाज़ी शायरी ऐसे तमाम जज़्बों और रवैय्यों को ज़बान देती है। हाज़िर हैं चंद नमूने आपके लिए भी।
हालाँकिحالانکِہ
यद्यपि, अगरचे
दिल में है यार की सफ़-ए-मिज़्गाँ से रू-कशीहालाँकि ताक़त-ए-ख़लिश-ए-ख़ार भी नहीं
मैं आगे बढ़ा और उसके पास पहुंच गया। उसने मुझे पलकें न झपकने वाली आँखों से देखा और पूछा, “ऐक्सरे कहाँ लिया जाता है?” इत्तिफ़ाक़ की बात है कि उन दिनों ऐक्सरे डिपार्टमेंट में मेरा एक दोस्त काम कर रहा था, और मैं उसी से मिलने के लिए आया था।...
“तुम्हारे पास आ जाऊँ बेगम जान।” “नहीं बेटी सो रहो” ज़रा सख़्ती से कहा।...
समी मुतअ'स्सिर होकर बोला, “मेरी ख़ंजरी से बदलोगे? दो आने की है।” हामिद ने ख़ंजरी की तरफ़ हिक़ारत से देख कर कहा, “मेरा दस्त-पनाह चाहे तो तुम्हारी ख़ंजरी का पेट फाड़ डाले। बस एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। ज़रा सा पानी लगे तो ख़त्म हो जाए।...
कुछ और चाहिए वुसअत मिरे बयाँ के लिए ग़ज़ल हो या नज़्म, संजीदगी, मज़ाक़ की पाकीज़गी और गिरी हुई बातों से बचना भी वो खूबियाँ हैं जो शाइरी को पैग़म्बरी का दर्जा दे देती हैं। हाँ, कुछ अजीब और ग़लत बातें भी मेरे बाद की शाइरी में नज़र आती हैं।...
मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो अपने कमरे में बैठा जल-थल देख रहा था... बाहर बहुत बड़ा लॉन था, जिसमें दो दरख़्त थे। उनके सब्ज़ पत्ते बारिश में नहा रहे थे। उसको महसूस हुआ कि वो पानी की इस यूरिश से ख़ुश होकर नाच रहे हैं। उधर टेलीफ़ोन का...
सवा चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उसने बालकनी में आकर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक सायादार दरख़्त की छांव में आलती पालती मारे बैठी थी। उसका...
“बताने की क्या ज़रूरत है? आप अच्छी तरह जानते हैं मगर ख़्वाह-मख़्वाह मुझ से पूछ रहे हैं।” मैंने थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद उससे कहा, “अमीन! तुम्हें आए दिन जेल में जाना क्या पसंद है?”...
"हाँ हाँ आ जाया कर" दाऊ जी चौंक कर बोले, "आफ़ताब भी आया करता था" फिर उन्होंने बाल्टी पर झुकते हुए कहा, "हमारा आफ़ताब तो हम से बहुत दूर हो गया और फ़ारसी का शेर सा पढ़ने लगे। ये दाऊ जी से मेरी पहली बाक़ायदा मुलाक़ात थी और इस मुलाक़ात...
ज़िंदगी और हैं कितने तिरे चेहरे ये बतातुझ से इक उम्र की हालाँकि शनासाई है
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