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ग़ज़ल
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
है अहल-ए-दिल के लिए अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
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नज़्म
मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
रंग हो या ख़िश्त ओ संग चंग हो या हर्फ़ ओ सौत
मोजज़ा-ए-फ़न की है ख़ून-ए-जिगर से नुमूद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मैं और तू
वक़्त दीवार का साथी है न साए का रफ़ीक़
और अब संग-ओ-गिल-ओ-ख़िश्त के मलबे के तले
अहमद फ़राज़
नज़्म
नौ-जवान से
सदा-ए-तीशा-ए-मज़दूर है तिरा नग़्मा
तू संग-ओ-ख़िश्त से चंग-ओ-रुबाब पैदा कर
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
चश्म-ए-बंद-ए-ख़ल्क़ जुज़ तिमसाल-ए-ख़ुद-बीनी नहीं
आइना है क़ालिब-ए-ख़िश्त-ए-दर-ओ-दीवार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
मर्सिया
हर ख़िश्त-ए-रोज़ा दफ़्तर-ए-हिक्मत की फ़र्द है
मादूम याँ ज़माने का हर गर्म-ओ-सर्द है