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ग़ज़ल
आँखों को चुभने लगता है सब मिट्टी हो जाता है
ख़्वाब चटक कर रेज़ा रेज़ा जब मिट्टी हो जाता है
विभा जैन 'ख़्वाब'
नज़्म
आज शब कोई नहीं है
ख़्वाब-दर-ख़्वाब महल्लात के दर वा हैं कई
और मकीं कोई नहीं है,