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ग़ज़ल
किसी की बे-रुख़ी भी 'नाज़' हश्र-अंगेज़ होती है
पलटते ही निगाह-ए-नाज़ का तलवार हो जाना
शेर सिंह नाज़ देहलवी
ग़ज़ल
करे तेग़-ए-निगाह-ए-नाज़ लोहा तेज़-तर अपना
लहू में डूबने को दिल भी है सीना सिपर अपना
शेर सिंह नाज़ देहलवी
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ग़ज़ल
उस निगाह-ए-नाज़ ने 'बहज़ाद' मुझ को खो दिया
जिस निगाह-ए-नाज़ को अपनी दवा समझा था मैं
बहज़ाद लखनवी
अप्रचलित ग़ज़लें
نگاہ ناز نے جب عرض تکلیف شرارت کی
دیا ابرو کو چھیڑ اور اس نے فتنے کو اشارت کی