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ग़ज़ल
माइल-ए-सोहबत-ए-अग़्यार तो हम हैं तुम कौन
क्यूँ बुरा मान गए यार तो हम हैं तुम कौन
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मैं कहा सोहबत-ए-अग़्यार बरी है प्यारे
उन से इतना न मिला कर तो लगा कहने ''ऊँ-हूँ''
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
जो सोहबत-ए-अग़्यार में इस दर्जा हो बेबाक
उस शोख़ की सब शर्म-ओ-हया मेरे लिए है
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
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ग़ज़ल
वुफ़ूर-ए-सोहबत-ए-अग़्यार से कुछ ऐसे खुल खेले
न वो झेपें हज़ारों में न शरमाएँ करोरों में
आशिक़ अकबराबादी
शेर
सोहबत न रख अग़्यार सूँ बेज़ार मत कर यार कूँ
जाता रहेगा हाथ सूँ उस की निगहबानी करो
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
ग़ज़ल
वो भी चुप बैठे हैं अग़्यार भी चुप मैं भी ख़मोश
ऐसी सोहबत से तबीअ'त मिरी घबराती है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
साथ में अग़्यार के मैं भी सफ़-ए-मक़्तल में हूँ
सूरत-ए-तरकीब-ए-मौज़ूँ मिस्रा-ए-मोहमल में हूँ
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
उस के कूचे से तो मैं बे-सर-ओ-सामाँ निकला
हश्र कर दूँगा अगर क़ब्र से उर्यां निकला