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ग़ज़ल
ताएर-ए-क़िबला-नुमा बन के कहा दिल ने मुझे
कि तड़प कर यूँ ही मर जाएगा जा याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
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ग़ज़ल
उस बिन न क़िबला समझूँ न क़िबला-नुमा को मैं
क़िबला उसे दिल अपने को क़िबला-नुमा किया
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
मर्सिया
बाला उसे समझे हैं सर्द ही का वो कुफ़्फ़ार
अब्रू जो हर इक मोय मुबारक से भरा है