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ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
देखा है दाम-ओ-दाना का दस्तूर याँ नया
ख़ाल-ए-ज़क़न ही तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म से दूर
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
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ग़ज़ल
रास्ते के पेच-ओ-ख़म क्या शय हैं सोचा ही नहीं
हम सफ़र पर जब से निकले मुड़ के देखा ही नहीं
अजमल अजमली
ग़ज़ल
जुदा जब तक तिरी ज़ुल्फ़ों से पेच-ओ-ख़म नहीं होंगे
सितम दुनिया में बढ़ते ही रहेंगे कम नहीं होंगे
कलीम आजिज़
शेर
'हबीब' इस ज़िंदगी के पेच-ओ-ख़म से हम भी नालाँ हैं
हमें झूटे नगीनों की चमक भाती नहीं शायद
हबीब हैदराबादी
ग़ज़ल
निगाह-ए-शौक़ में यूँ ज़ुल्फ़ के सब पेच-ओ-ख़म डूबे
अक़ीदत की नदी में जैसे पत्थर के सनम डूबे
सरदार पंछी
ग़ज़ल
हज़ारों पेच-ओ-ख़म और जुस्तुजू-ए-दाइमी कब तक
अगर मंज़िल कोई शय है तो फिर ये गुमरही कब तक