aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "لعاب"
मिर्ज़ा शारिक़ लाहरपुरी
born.1949
शायर
“वो बोली। ये पिछली बार के हैं।” मैं जरवालो खाता रहा और उस की तरफ़ देखता रहा।
महीने में एक बार माधव पूने से आता था और वापस जाते हुए हमेशा सौगंधी से कहा करता था, “देख सौगंधी! अगर तू ने फिर से अपना धंदा शुरू किया तो बस तेरी मेरी टूट जाएगी... अगर तू ने एक बार भी किसी मर्द को अपने यहां ठहराया तो चुटिया से पकड़ कर बाहर निकाल दूंगा... देख इस महीने का ख़र्च मैं तुझे पूना पहुंचते ही मनी आर्डर कर दूँगा... हाँ क्या भाड़ा है इस खोली का......
मोमिन की उम्र पंद्रह बरस की थी। शायद सोलहवां भी लगा हो। उसे अपनी उम्र के मुतअल्लिक़ सही अंदाज़ा नहीं था। वो एक सेहत मंद और तंदुरुस्त लड़का था जिसका लड़कपन तेज़ क़दमी से जवानी के मैदान की तरफ़ भाग रहा था। इसी दौड़ ने जिससे मोमिन बिल्कुल ग़ाफ़िल था। उसके लहू के हर क़तरे में सनसनी पैदा कर दी थी। वो इसका मतलब समझने की कोशिश करता था मगर नाकाम रहता था।उसके जिस्म में कई तबदीलियां रुनुमा हो रही थीं। गर्दन जो पहले पतली थी, अब मोटी हो गई थी। बांहों के पट्ठों में एँठन सी पैदा हो गई थी। कंठ निकल रहा था। सीने पर गोश्त की तह मोटी हो गई थी और अब कुछ दिनों से पिस्तानों में गोलियां सी पड़ गई थीं, जगह उभर आई थी, जैसे किसी ने एक एक बरनटा अंदर दाख़िल कर दिया है। उन उभारों को हाथ लगाने से मोमिन को बहुत दर्द महसूस होता था।
अबदुर्रहीम सेनडो ने ज़ोर से क़हक़हा लगाया, “अजी हर क़िस्म का शगल करते हैं। तो मंटो साहब आज शाम को ज़रूर आईएगा। मैंने भी पीनी शुरू करदी है, इसलिए कि मुफ़्त मिलती है।”सेनडो ने मुझे फ़्लैट का पता लिखा दिया जहां मैं हस्ब-ए-वादा शाम को छः बजे के क़रीब पहुंच गया। तीन कमरे का साफ़ सुथरा फ़्लैट था जिसमें बिल्कुल नया फ़र्नीचर सजा हुआ था। सेनडो और बाबू गोपी नाथ के इलावा बैठने वाले कमरे में दो मर्द और दो औरतें मौजूद थीं जिनसे सेनडो ने मुझे मुतआरिफ़ कराया।
रोटी खाने के मुताल्लिक़ एक मोटा सा उसूल है कि हर लुक़मा अच्छी तरह चबा कर खाओ। लुआब-दहन में उसे ख़ूब हल होने दो ताकि मेअ्दे पर ज़ियादा बोझ ना पड़े और इसकी ग़िजाईयत बरक़रार रहे। पढ़ने के लिए भी यही मोटा उसूल है कि हर लफ़्ज़ को, हर सतर को, हर ख़्याल को अच्छी तरह ज़हन में चबाओ। उस लुआब को जो पढ़ने से तुम्हारे दिमाग़ में पैदा होगा, अच्छी तरह हल करो ताकि जो कुछ तु...
लुआबلعاب
saliva, spittle
Aasan Lughat-ul-Quran
अब्दुल करीम पारीख
Tafseer Soorah Lahab
हमीदुद्दीन फराही
Lubab-ul-Akhbar
मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ाँ
इस्लामियात
Lahu Luhan Urdu Afsana
सय्यद ऐनैन अली हक़
अफ़साना तन्क़ीद
Lubb-e-Lubab
विलियम मंगटाइन
हिन्दू-मत
Hisar-e-Fikr
ग़ज़ल
Lubab
हकीम मोहम्मद कबीरुद्दीन
Lubabul-Marifil-Ilmiyyah
अब्दुर रहीम
कैटलॉग / सूची
Tohfat-ul-Iman Le Ahl-ul-Qadiyan
अब्दुर्रज़्ज़ाक़ सलीम
Tareekh-e-Lubb-e-Lubaab
मौलवी रहीम बख़्श
Laib-us-Sibyan
मुंशी अब्दुल अली
Lahu Luhan Sooraj
इब्राहिम शफ़ीक़
अफ़साना
Lihad-e-Marghoob
सय्यद इमदाद अली
Azab-ul-Hariq Li-Saheb-e-Jawahir-ul-Tahqeeq
अननोन ऑथर
Tohfa-tul-Iman Li-Ahal-il-Qadiyan
गांव के अक्सर बुड्ढे और जवान तकिए में जमा होते थे और सरदाई पिया करते थे। घोटने के लिए गामा साईं नहीं था पर उसके बहुत से चेले चाँटे जो अब सर और भवें मुंडा कर साईं बन गए थे, उसके बजाय भंग घोटा करते थे और माई जीवां की सुलगाई हुई आग सुल्फ़ा पीने वालों के काम आती थी।सुबह और शाम को तो ख़ैर काफ़ी रौनक़ रहती थी, मगर दोपहर को आठ-दस आदमी माई जीवां के पास बेरी की छांव में बैठे ही रहते थे। इधर उधर कोने में लंबी लंबी बेल के साथ साथ कई काबुक थे जिनमें गामा साईं के एक बहुत पुराने दोस्त अब्बू पहलवान ने सफ़ेद कबूतर पाल रखे थे।
دس سال سے یعنی جس دن سےمیری شادی ہوئی ہے، یہی ایک سوال بار بارکسی نہ کسی صورت میں ہمارے سامنے دہرایا جاتا ہے، آپ کے ہاں بچّہ کیوں نہیں ہوتا؟ یہ کوئی نہیں پوچھتا کہ آپ کے ہاں روٹی ہے؟ گھر ہے؟ روزگار ہے؟ خوشی ہے؟ عقل ہے؟ سب یہی پوچھتے ہیں کہ آپ کے ہاں بچّہ ہے؟ گویا بچّہ ان تمام ضروریاتِ زندگی کا نعم البدل مان لیا گیا ہے، ہم دونوں کو اس سوال سے انتہائ...
“ज़िन्दा रहा...? अच्छा...?”“हाँ मैं ज़िंदा रहा। मैंने ये सुना, मैंने ये देखा और मैं ज़िंदा रहा। इस ख़ौफ़ से कि वो साँवला नौजवान मुझे पहचान न जाये। मैंने वहां से राह-ए-फ़रार इख़तियार की। मगर मैं आगे पहुंच कर नर्ग़े में आ गया। मैं तलवार फेंकने लगा था कि एक परेशान हाल शख़्स मज्मा’ चीर कर मेरे रूबरू आया और मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा कि तलवार मत फेंक। ये आईन-ए-जवाँमर्दी के ख़िलाफ़ है। मैं ठिठक गया। मैं उसे तकने लगा और वो मेरी आँखों में आँखें डाल कर देखे जा रहा था। फिर मेरी निगाहें झुक गयीं। मैंने हार कर कहा कि ज़िंदा रहने की अब इसके सिवा कोई सूरत नहीं है। इस कलाम से उसकी आँखों से शो’ले बरसने लगे। उसने हिक़ारत से मेरे मुँह पे थूका और वापस हो गया। ऐ’न उसी वक़्त एक तलवार उसके सर पे चमकी और वो तेवरा कर ज़मीन पे गिरा। मैंने उसे अपने गर्म लहू में लत-पत देखा और अपने चेहरे से उसका गर्म लुआ’ब पोंछा और...”
कड़क और चमक रुक चुकी थी। बारिश भी कम हो गई थी। फिर सिद्दीक़ा से चिमट कर लेट गई और अकेली थी।आह, काश कि वो होते, आह, वो होते, वो वो वो, रात को आए कुछ ना कुछ लिये चले आते हैं। क्या लाये हो? हलवा सोहन है। वो ही निगोड़ा पपड़ी का होगा तुम जानते हो कि मुझे हब्शी पसंद है। लो! फिर चीख़ने लगीं, देखा तो होता। आह, वो झगड़े और वो मिलाप, सावन और भादों के मिलाप, क्या दिन थे, अब तो एक ख़्वाब हैं। फिर चांदनी रातों में फूल वालों की सैर, ए काश वो होते, वो टांगें एक सरसब्ज़ दरख़्त, गोश्त और हड्डी और गूदे का। उसका रस ख़ून से ज़्यादा गर्म और उसकी खाल गोश्त से ज़्यादा नर्म। एक तना सुबुक और मज़बूत और दो डालें और एक तना, एक दूसरे में पैवंद। एक दूसरे से चिम्टी हुई, एक दूसरे में एक दूसरे की रूह, जुड़ी हुई बल खाई हुई, एक दूसरे की जान और एक एक दूसरे में एक तीसरी रूह की उम्मीद, एक पूरी ज़िंदगी का ख़ज़ाना, एक लम्हा का सरमाया, पर नेस्ती में हस्ती की ताक़त। आह! वो टांगें, दो नाग बल खाए हुए, ओस से भीगी हुई घास पर मस्त पड़े हैं। एक सूई के नाके में तागा और दो उंगलियां, तेज़ तेज़ चलती हुई, सपाटे भर्ती हुई, नर्म नर्म रोएँदार मख़मल पर गुलकारियां कर रही हैं। एक मकड़ी अपनी जगह क़ायम जाला बुन रही है। ऊपर नीचे हो रही है। कुछ ख़बर नहीं कि मक्खी जाल में फंस चुकी है और लुआब है कि तार बुना जाता है। जाल बुना जाता है। एक डोल कुंएं की गहराई में लटका हुआ, तह तक पहुंचा हुआ। उसकी मुलायम रेत की गर्मी महसूस कर रहा है। पानी की सतह पर छोटे छोटे दायरे जो बढ़ते बढ़ते सारे में फैल गए, दीवारों से टकराने लगे, बाहर जाने लगे, अंदर वापस आने लगे, एक सनसनी और हरारत सारे में फैला रहे हैं। दो जुड़वां दरख़्त, एक पीपल और एक आम।
लात घूँसा छड़ी छुरी चाक़ूलिब-लिबाहट लुआब कफ़ बदबू
اس روز سے ہم سب نے ایکا ایکی جاپانیوں سے مانوس ہونے کی آخری منزل طے کرلی۔ حکم ملے تو مسکراؤ حکم ملے تو نظریں اٹھاؤ۔ حکم ملے تو خشک گلے تر کرنے کے لیے منہ کا لعاب نگلو اور اگر حکم نہ ملے تو مٹی کے مادھو کی طرح جس انداز اور جس رخ سے کھڑے ہو کھڑے رہو اور پھر میں جینے کے معاملے میں بہت لالچی ہو گیا تھا۔ میں ہر قیمت پر جینا چاہتا تھا کہ کبھی تو جنگ ختم...
اب جوپانی واپس ہوا تو بہت سارے ملبے، کوڑے کچرے کے ساتھ کئی زندہ اور مردہ انسانوں کو بھی بہا کر لیتا گیا اور بہت ساری سمندری چیزیں اپنی یادگار کے طور پر چھوڑتا گیا اور ان میں سب سے بڑھ کر خوف انگیز اور کراہیت افزا وہ سیاہ، چکنی، چپچپاہٹ سے بھری کیچڑ تھی جو کیچڑ سے زیادہ کسی شیطانی اژدہے کا لعاب دہن معلوم ہوتی تھی۔ اس لعاب نما کیچڑ کی موٹی تہہ کہیں ب...
لیکن بستی کے قریب پہنچا ہی تھا کہ پولیس کے چار آدمیوں نے اسے گرفتار کرلیا۔ اور مشکیں باندھ کر تھانے لے چلے۔بنٹی کھانا پکاکر بناؤ سنگار کرنے لگی۔ آج اسے اپنی زندگی گلزار معلوم ہوتی تھی۔ مسرت سے کھلی جاتی تھی۔ آج اپنی عمر میں پہلی مرتبہ اس کے سر میں خوشبودار تیل پڑا۔ اس کا آئینہ خراب ہوگیا تھا۔ اس میں اب منھ بھی دکھائی نہ دیتا تھا۔ آج وہ نیا آئینہ لائی تھی۔ اس کے سامنے بیٹھ کر اس نے بال سنوارے، منھ پر ابٹن ملا، صابن لانا وہ بھول گئی تھی۔ صاحب لوگ صابن لگانے ہی سے توگورے ہوجاتے ہیں۔ صابن ہو تا تو اس کا رنگ بھی کچھ نکھر آتا۔ ایک ہی دن میں بالکل گوری تو نہ ہوجاتی، لیکن رنگ ایسا سیاہ بھی نہ رہتا۔ کل وہ صابن کی ٹکیاں ضرور خرید لائے گی اور روز اس سے منھ دھوئے گی۔ بال سنوارکر اس نے ماتھے پر اسی کا لعاب لگایا کہ بال ادھر ادھر منتشر نہ ہوجائیں۔
تھوڑی دیر کے بعد ہار کر اس نے سوچا۔۔۔’بیس برس گزر گئے!‘ اور عمر کے گزرنے کو زبان کے نیچے سے ابل کر نکلتے ہوئے لعاب میں محسوس کیا۔پھر اس نے ماتھے پر سایہ کرتے ہوئے فلیٹ ہیٹ کو آنکھوں پر کھینچا اور پلٹ کر نظر ڈالی۔ پل پر چڑھتی ہوئی سڑک پر اب اس کا سات سالہ بچہ چلا آ رہا تھا۔ چڑھائی کافی تھی اور بچہ ایک گول اور چکنے سلیٹی رنگ کے پتھر سے فٹ بال کھیلتا ہوا دم لے لے کر چڑھ رہا تھا۔ پیچھے شہر تھا۔ شہر کے پیچھے سورج تھا۔ وسط میں اکبر بادشاہ کا قلعہ تھا جو سب سے اونچا (اور اندر سے ویران) تھا۔ جس کے دونوں جانب ایک کے ساتھ ایک بنے ہوئے مکانوں کی چھتوں اور دیواروں کی ٹوٹی پھوٹی سیاہ لکیر ایک خاص زاوئیے پر ڈھلتی تھی یوں کہ دور سے شہر چمک دار آسمان کے مقابل ایک بہت بھاری اور سیاہ حجم والی اور بہت پھیلے ہوئے دامن والی مخروطی پہاڑی کی طرح لگتا تھا جو جیتی جاگتی ہو۔ اس کے اوپر کہیں کہیں بہار کی چھوٹی چھوٹی بدلیاں تھیں۔۔۔دھنکی ہوئی اور پریس کی ہوئی روئی کی کٹی پھٹی، گول اور گھنی، تلملا کر ابل کر نکلتی ہوئی تند اور ٹھوس اور بھاری اور جامد چٹانیں۔ بہار کی بدلیوں کی اس مخصوص شکل سے وہ بچپن سے مانوس تھا۔ اس شہر میں وہ پیدا ہوا تھا۔ اس مہینے کے آسمان کے لش لش کرتے ہوئے زردی مائل نیلے رنگ سے بھی وہ ایک عمر سے واقف تھا جہاں نظر نہ ٹھہرتی تھی اور گو آج صبح بیس سال کے بعد وہ اپنے شہر کو لوٹا تھا مگر اس وقت پل پر قدم رکھتے ہی اس کو اندازہ ہو گیا تھا کہ موسم بہار میں کوئی فرق نہ آیا تھا۔
’’چلو بابا یونہی سہی۔ ایک حال کا صیغہ ہے، دوسرا مستقبل مشکوک کا۔ ’رانی کیتکی‘ کی ہیروئن نے اپنے منہ کی پیک سے اپنے پریمی کو پریم پتر لکھا تھا۔ اور یہ بھی آپ ہی نے بتایا تھا کہ واجد علی شاہ جس زمانےمیں مٹیابرج میں قید فرنگ میں تھے تو انہوں نے لکھنؤ سے معشوق محل کے ہاتھ کے کٹے ہوئے ناخن اور اپنی ایک چہیتی لونڈی کے پان کا اگال بطور نشانی منگوایا تھا۔...
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