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ग़ज़ल
वो मुंकिर है तो फिर शायद हर इक मकतूब-ए-शौक़ उस ने
सर-अंगुश्त-ए-हिनाई से ख़लाओं में लिखा होगा
जौन एलिया
ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
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ग़ज़ल
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या-रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की